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Full text of "Ushakal -1"

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न्दुस्तानी एकेडमी, पुस्तकालय 
इलाहाबाद 


८ है १.४६ 


बवग सरख्या १००७०००३क०७७०७०७०७७०७७००७०७००७७ ०७०७ ७००५ ७ ५७ ७७७ ७७ ७ 





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क्रम सर प्रा 8७ ७०७७०७७०७००५००७ ७७७५ ० ७ रु 09699 9०90७ ७५७३४७३७ केक कफक 

















हा 


हिन्दी पस्तक एजेन्सी माला-सरंया 99 


४ 








प्रथम भाग ) 


|. ( ऐतिहासिक उपन्यास 


04 





: न मे६ ० में ओं६द ६ 
मूल लेखक- 
जगीय पं० हरिनारायण आपदे 


_०*+>े40 कील ४६६०: 
अनुवाद कर 
प० ख्मीधर वाजपेधी 


मा :::६.:::77:/:.+->  आाएण 


प्रकाश क--- 
. हिन्दी पुस्तक णएजेन्सी 
ल्‍ २६, हरिसिन रोड, कलकत्ता । 
५ .... आंंच;--देहली और काशी 





7 ... ६६८१ 











/५क* 








[ ख॒] 


अतएव परमापेता परमात्माकी कृपासे वीरेकेससी शिवाजीका जन्म 
हुआ, जिसने अपने पराक्रम, साहस तथा बाहुबलसे उस समयकी राज- 
नोतिक, आर्थेक ओर सामाजिक स्थितिको उलटने एवं देश और हिन्दू- 
धर्मझों बचानेके लिये जो जो उद्योग किये हैं, उन्हीं घटनाओंकों लेखकने 

पे प्रतिधामयी स्राव ओर मापासे इस उपन्यासको बड़े मनेरक्षक ढंगसे 

लिखा है | 

इस उपन्याससे जहां आपको हिन्दू-जातिके उत्थानका मनोरञ्षक वर्णन न्‍ 
पढ़नको मिजया, वहां मुसलमान जातिकी कुटिलता, अन्यायप्रियता, करता, 
. श्वासवातकता और दुश्चरित्रताका सच्चा उदाहरण भी मिलेगा | राजा 
और उसकी शासनपडातिसे (अन्याय ओर अल्याचारके का [) जब प्रजाका 
विश्वास उठ जाता है,तव शासकगण अपने अत्याचारके छिपानेके लिये ऋरता 
ओर निरंकुशताका अवरूम्बन करते हैं। लेकिन इससे प्रजाका अविश्वास 
नही घरता और उस अन्याय ओर अत्याचारका जदरीला असर देश और 
शासककोी अवश्य चखना पड़ता है| इस सत्य घटनाका बहुत ही बड़िया 
उदाहरण शस उपन्यास “'डघाकाझ! भे आपको मिलेगा | इस उपन्यासमें जो 
ऐतिहासिक घटनायें आई हैं, उनके लिये सत्यताका कहां तक ध्यान रखा 
गया है, इसे जाननेके लिये हमारे यहांसे प्रकाशित वीर केसरी शिवाजी” 
को पढ़कर देखें | 
... पुस्तक इतनी रोचक ढंगसे लिखी गई है, वर्यनशैली इतनी मनोहर 
और भाषा इतनी परमाजित है कि पढ़ते ही बनती है। 
... यह उपन्यासका प्रथम भाग है | पुस्तक बहुत बड़ी होनेसे दो भागोंमें 
छपी गई है | आशा है कि, जिस तरहतसे पाठकोंने आजतक हमपर कृपा- 


कर, ण्जेन्सीसे प्रकाशित अन्य पुस्तकोंका आदर करके इमारे उत्साहको 
वढ़ाया हई, उसी तरह इसे भी अप नायेंगे | 


भवदीय--- 
प्रकाशक 



















७ ैकन- जन हाम “करके. 3०४०2/॥०फनलकत" 


>> 5५ ५ फि्फिसफंशश्शस्_िल डेप कि न न ऑं मिशन दल दी मम आाजजआधीक-पमाह ००० दीन /ार्शिविननाकतं ०4 बी मियां 3045: 0: न #टब हर 
ल्ल्््ल््फ््क्फिशछज॑एः आर नलन++५++> हक 
अर कट 5 अत कल फल ही न ओज आती किला 3४ 3 ५७०० कह 5: % 5 २ +रह 2 कहे पहला % के ि 


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तर एममंग्-११००-, हमरा न आल 


मिशन जलन अत 0 भा ७ ४४2४0७७/७४/४४/७आऑ 

























हुआ, 
नोतिक, ; 

202 ' 
धर्मकों ८ । 
अपले प्र' ह 


हे 


लिखा है ः 
इस 
पढ़ेनेकी “८ 
 विश्वासः । क्‍ 
. और उस हिन्दी पुस्तक एजेन्सी माला-संख्या 9५ । 
विश्वास 
#म । उपाकान्न... |... 
नहीं घर | । । 
- शासकको के ( दूसरा भाग | ्ः 
उस घूल्य लगभग २॥] । 
“ऐतिहासि 
गया है, मम 8] 
की पढ़कर ७७३७ 
मुख | 
और भाष 
यह: 
छापी गई 
कर, एजेः द 
बढ़ाया है, 








॥44 












































पहला परिच्छेद ! 


क्र ८ ५ 
हनुमानजीका मन्दिर । 
पूनासे सासवड़को जानेवाले मार्गपर, एक बार, सस्वत्‌ 


. १७०३ विक्रमीकी श्रावण ऋृष्णा दशमीके दिन, रातके समय, 


| 


4 

की 
हर 
हे 


५ 
् हे 


बड़े ज़ोरकी वर्षा हो चुकी थी; ओर फिर भी भारी चृष्टिकी 
सम्भावना हो रही थी। सम्पूर्ण आकाश ऐसा घोर काला हो 


_ शहा था कि जैसे तेलमें घोंटे हुए काजलसे रंग दिया गया हो। 
क्षण क्षणमें बिजली कड़कड़ा रही थी; ओर अपनी चमचमा- 


हटसे चकाचौंध उत्पन्न कर रही थी | किसी विकराल राक्षसके 
विकट हास्यकी भांति आकाशमें एक प्रकारकी गड़गड़ाहटका 
शब्द हो रहा था। जिस विशेष घड़ीका वर्णन हम कर रहे हैं, उस 


. चड़ीमें तो वर्षा बन्द थी; परन्तु लगभग घड़ी-डेढ़-घड़ी पहले- 


तके काफी वर्षा हो चुकी थी; और उपर्युक्त मार्गंकी, तथा डसके 
आखसपासकी फाड़ियोंकी सम्पूर्ण वृक्षलताएं भींगकर तर-बतर हो 
गयी थीं। उनकी चोटियोंपर पड़ा हुआ जल नीचेकी डालियोंपर, 
ड्रालियोंपर गिरा हुआ जछ और नीचेकी टहनियोंपर गिर रहा 


था। इसी भाँति ऊपरके पत्तोंपरसे मोचेके पत्तोंपर, ओर फिर 








.... असम नीलकी मिमी 


६८ 
था । 


पर 
उन नीचेके पत्तोंपरसे ओर नीचेके पत्तोंपर, पानीके लूँदे रपक ' 
रहे थे। इस प्रकार सम्पूर्ण वृक्षठता-सम्रूह और भाड़ियोंसे हि 
पानीके गिरने ओर टपकनेसे जांगरमें एक प्रकारका विचित्र. : 
शब्द हो रहा था। फिर वे सब बूदे एकत्रित होकर जब नीचे । 
पड़े हुए सूखे पत्तोंपर गिरते; और उसी बीचमें यदि हवाके किसी. 
- भारी भोकेके आजानेसे वह पानी और भी वेगके साथ नीचे 
गिरता, तब तो उसका शब्द किसी भी मुसाफिरको चकितसा 
कर देता था। रात भी बहुत ही भयावक दिखायी देने लगी 
थी। इसके सिवाय भयंकर जंगली जानवरों और सर्प इत्यादि 
जीव-जन्तुओंके डरसे भी वह स्थान खाली न था। ऐसे भय॑- 
कर समयमें कोई भी मुसाफिर भला क्योंकर उस भागणसे 
जानेका साहस कर सकता था? और यदि कोई झुसाफिर ; 
वेसा साहस करता भी, तो अपने प्राणोंसे भी प्रिय किसी 
-  कार्यके लिये ही कर घकता था। सो, उस भयंकर सप्यमें भी, 
उल मार्गसे एक, घुड़सवार खूब तेज़ीके साथ जा रहा था।. 
उसको इस बातकी परवा नहीं थी कि, मेरा घोड़ा इस अचघट 
मागसे ऐसे सम्रयमें जा सकेगा, अथवा नहीं,--कहीं वह रपट- 
कर गिर तो नहीं पड़ेगा? कालकूट विषके समान दिखाई 
पड़नेवाले उस अंधकारमें, मागके नदी-नाऊोंकी कठियाइयोंका 
कुछ भी विचार न करते हुए, यह सवार कहां जा रहा है ? और 
क्यों जञा रदा है ? यदि कहें, घुड़तवार किसी पछटनका है... 
.. खो भी नहीं। बिजलीकी बारीक चपकसे उसकी पोशाक सहज * क्‍ 


जधाकाल _ 
ब्च्ब्छ्क्लछा 





७322 


४; है 
हा * ; हि 2 54 





अर कान, 








(ह भर ) (५ हलुमानजीका मन्दिर * 
। न्‍ छ च्कब अकनमन रे २ ककक ४० कक 
आह >-को बद-बी 6" आव्च्ष्स्सिबिस्ल्लस्आम 





ही दिखायी पड़ सकती थी | उसकी पोशाक--पोशाक काहैकी--- 
बारीक मलमलका णएक समुसत्मानी ढंगका लरूस्बा छुरता, बदन - 
में था, जिलको छोटाकर उसने अपने कंघोंपर डाल लिया 
था। कुर्ता मींगकर बिलकुल तर हो गया था, इससे वह 
उसके बदनमें बिलकुल लिपक गया था; ओर उसके बदनकी 
गठन स्पष्ट रुपसे दिखाई पड़ रही थी। सिरमें एक साफा 
साधारण तौरंसे रूपेटा हुआ था, जिलका एक खिरा पीठकी 
ओर लूटकता हुआ पानीसे भींगकर चिपक गया था; ओर 
दूसरा खिरा, जो पहले सिश्पर कढूँगीकी तरह रखा हुआ 
होगा, अब वर्षाके मारे नीचे लचकर बालोंमें चिपक गया था | 
उसके दाथमें छम्बी तलवार, सो भी नंगी थी। तलवारका 
स्थान न तो उसकी कमर्में और न उसके पास ही कहीं दिखाई 
देता था। शायद्‌ उसके न होनेके कारण ही उसने बेघी ही नंगी 
तलवांर पकड़ ली थी। नहीं तो चेसी वर्षामं स्यानसे तलवार 
जिकाऊकर हाथमैं पकड़नेकी कोई आवश्यकता दिखाई नहीं पड़ती 
थी। तवलबारका पानी बिजलीकी चमजमाहय्से तड़प अवश्य 
रहा था; किन्तु बोच बीचमें ऐसा भी जान पड़ता था कि उसपर 
किसी नहकिसो चीज़की आमासी पड़ो हुई है। बस, इससे 
अधिक इस सप्रथ उस सवार्का कोई वर्णन किया नहीं जा 
सकता | हां, वह अपने घोड़ेको इस प्रकार डसंजित कर रहा 
आ कि, जिससे वह तेज़ दोड़नेमें कोई कसर उठा न रखे। उस 





सवारका यह सारा प्रयत्न इसी लिए तो नहीं था कि, कहीं पानी 


। 2 आ कर जिक्र कम 8 है 


. ० 558 (222०९ कर ' १8८८ 





फिरसे न बरसने रंगे; ओर उसे कष्ट हो ? शायद्‌ ऐसा ही 
हो; क्योंकि हवा अब फिर बडे वेगसे बहने लूगी थी; ओर चारों. 


ओरसे उसकी सन-सनाहट खितको व्याकुछ कर रही थी | इचर 
आकाशमें बादलोंका अन्धकार भी बढ़ता ही जाता था, चारों 


ओरसे बादल घिरते आ रहे थे । थोड़ी ही देरमें बू दें पड़नी शुरू 
.. हुई, परन्तु उस साहसी अश्वारोहीने अपने घोड़े को नहीं सोका | 
लीजिए, अब ओर भी तेज वर्षा होने लगी, छेकिन फिर भी उसके 


रुकनेके कोई चिन्ह दिखाई न पड़े । अन्तमें मूसलधार वृष्टि होने 
लगी; ओर ऐसा ज्ञान पड़ा मानो उसका घोड़ा ही आगे 


जानेको मन नहीं करता । यह देखकर उस सवारने एक बड़े... 
वृक्षके नीचे जाकर ठहरनेका विचार किया। सवार ओर घोड़ा, 
दोनों ही, भींगकर तर हो गये थे; परन्तु जान पड़ता था कि, वह 
सवार क्षणभरके लिये भी घोड़ेसे उतरकर अपने वह् इत्यादि... 
भी निचोड़ना नहीं चाहता। ऊपरसे पेड़का पानी जब घोड़े के 
बदन अथवा मु हपर गिरता, तब वह एकदम फुड़क उठता, अथवा 
अपना बदन मझाड़ने रऊयता। परन्तु सवार अपने विचारमें ही 


निमझसा दिखाई देता था। क्या विचार करता होगा ? कोन 
जाने ! | 


बहुत देर हो गई, वृष्टि बन्द्‌ नहीं हु और न उसका ज्ोर 
ही कम हुआ। खबार स्पष्ट ही इस चिन्तामें था कि, वृष्टि कब 
. बन्‍्द्‌ं हो; ओर कब मैं आगे बदू' | वह बार बार ऊपर आकाश- 
की ओर देखता, फिर घोड़े की ओर देखता; ओर कुछ छुब्घर. 
सा होता हुआ दिखाई देता | 





५ 4 देलुमानजीका मन्दिर | 
अल हज “हकीकत ' ७ 2००५-२० लप्प कल 








“क्या करू' इस वर्षाके लिए | काम तो फतह हो गया,किन्‍्तु 
अब कहीं फँस न जाऊ'; कुछ समझ नहीं पड़ता । जो प्रतिज्ञा 
करके चला था, सो तो पूरी हो गई, पर अबतक मुरूे अपने 
लोगोंमें पहुंच जाना चाहिए था। यह कैसे हो ? हां, यह तो 
निश्चय है कि, वर्षाके मारे शत्र हमारे पीछे पीछे नहीं आते--वे 
2 ही केसे सकते हें ? 2 «३0०2० मुर्दे ४४०३४ कभी नहीं 99 

_पहलेके वाक्य जिस स्पष्ठताके साथ उस सवारके मुखसे 
निकले, उतनी स्पष्टताके साथ पिछले वाक्य नहीं निकले; 
क्योंकि इसी बीचमें उसका घोड़ा एकद्म चमक उठा। मालूम 
नहीं, किस कारणसे । न जाने उसके पैरके नीचे कोई जीवजन्तु 
पड़ गया, अथवा किखीने उसे काट खाया। अन्तमें सवार 
नीचे उतर पड़ा; ओर अपने घोड़े से बोला, “चित्तर ! चिचल ! 
बेटा, इतना व्याकुल क्‍यों हुआ ? जो कुछ कर आया, उतना 
क्या काफी नहीं है ? बेटा, यदि तू, ओर मैं, जीवित हूं, तो ओर 
न जाने कितने ऐसे ही पराक्रम कर दि्खिलाऊगा ! तू इतना 
घबडाता क्‍यों है ? माता जगदस्बाके चरणोंपर शत्र्‌ ओंके एक 
सौ आठ शिर-कमसे कम एक सो आठ शिर--समरपित 
करू'गा [यह कहते हुए उसने अपने प्यारे घोड़े के बदनपर हाथ 
फैरा ओर उसको शाबाशी देते हुए पुचकारा। चित्तल भी 
मानो अपने खामीके वचनोंको समझकर, अपनों गदेन ओर दृष्टि 
तिरछो करके, एकबार ज़ोरसे फुड़का ओर खुब हिनहिनाया। 

उसकी आवाज़कों खुनकर सवार बहुत आनन्दित छुआ इसके 











४ ० * है उषाकाल दि 2 


७228७, ७)२०७ “३ >नफेशीक ५२0०-व६३० 


बाद उसने फिर घोड़ेकी पीठपर हाथ फेश और उसको ल्‍ 
दिलासा दिया, तथा एक कुहनी उसकी पीठपर रखकर, उसी... 
हाथकी हथेलीपर अपना कपोल रखे हुए, बह अपमे घोडेफे 
सहारेसे खड़ा हो गया । उस समय ऐसः जान पड़ता था कि, 
वह खूब चिन्तातुर होकर मन ही मन कुछ सोच रहा है | 
इतनेमें चृष्टि भी कुछ कम हुई, और जान पड़ने लगा कि 
घड़ी दो घड़ीमें पानी बहुत कुछ सघ जायगा | हमारा घुड़सवार 
अब चलनेके लिए तैयार हो गया। यह घोड़ेपर सवार हुआ; 
ओर उससे बोला, “चित्तठ बैटा | अब बहुत ज़ब्द्‌ अपने स्थान- 
पर पहुंचना है। रास्तेमें चाहे पानी आवे, और चाहे जोड्े 
बरसे, परकहीं ठहरना बहीं होगा!” इतना कहकर उसने 
घोड़े को वेगसे चलमेका इशारा किया | हे 
वर्षा अभीतक बिलकुल तो बन्द नहीं हुई थी | हां, शाकाश- 
का कुछ भाग बादलोंकों हटामेके प्रय्षमें अवश्य था। हमारा 
अश्वारोही भी पहले हीकी भांति बेगसे चला । रास्ता तो उसके 
परिचयका ही दिखाई देता था; क्योंकि मार्गसे अपरिखित व्यक्ति. हा 
वैसी अँधेरी रातमें, मूसलधार पानी गिरते समय, उदच्चस्से हा 
जानेका साहस ही कैसे कर सकता था ? ऐसा व्यक्ति तो कहीं... 
न कहीं कुछ ठिठकता, जहांसे दो रास्ते फूटते, वहां खड़ा होकर 
कुछ विचार करता कि, किघरसे जाऊ'; ओर किघरसे न जाऊअ।..... 
किन्तु हमारे अश्वारोहीका यह छाल न था। उसके मनमें तो ६... 
सिवाय इसके कि, अगला मार्ग किस प्रकार तै किया जाय, 


की, 













(&्‌ | थे हलुमानजीका मन्दिर 
शेप जी. अं 0 निकल सिटी लकि की पल लशल 
ब्यम०परट प्यीस्शित भर व्स्ट्रास्ट््लश्>े् ० 





और कोई विचार ही नहीं जान पड़तां था । चलते चलते, छगभग 
तीन-साढ़े तीन घड़ीके बाद्‌ वह एकद्म ठहर गया। इस समय 
पानी बिलकुछ बन्द हो चुका था। हां, नदी-नालोंके प्रवाहकी 
आवाज दूर दूरसे आ रही थी; और आासपासकी काड़ियों तथा 
वृक्षठताओंसे जरविन्दुओंके करनेकी आवाज भी सुनाई दे रही 
थी | बस, इसके सिवाय ओर कोई शब्द कानोंमें नहीं आता था | 
परुतु ऐसा जान पड़ा कि उस सवारको उस समयु कोई न कोई 
. ऐसी आवाज अवश्य सुनाई दी कि, जिसके कारण वह एकदम 
. उकऋ गया; ओर कुछ आहटखी छेते हुए एक तरफ ध्यानपूर्वेक 
देखने छगा। उसके चेहरेसे स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि, उसके 
पनमें कोई न कोई शंका उत्पन्न हुई है; ओर बहुत जल्द म्राल्मूम 


हो गया कि, उस जठुर अश्वारोहीकी शंकाके लिए प्रबल कारण 


मोजूद्‌ था । अर्थात्‌ पीछेकी ओरसे पाँच घोड़ोंकी टायें बजनेका 
स्पष्ट सास हुआ। आकाश स्वच्छ होने लगा था, किन्तु उससे 
दूरकी वस्तु दिखाई देनेमें सहायता नहीं मिल रही थी । दूरकी 
बस्तु दीखनेमें तो तभी कुछ सहायता हो सकती थी, जबकि 


. विद छतादेवी कुछ अपनी चमक दिखलातीं । सोमाग्यवश हमारे 


आवायोलीको, उसकी इच्छाके अनुसार, उस समय विद्यु दछता- 
देवीने सहायता भी दी। कऋमशः दो तीन बार बिजली चमको; 
और उसके उजेछेसे सवारकों यह मादयूम हो गया कि, पीछेसे 
हो घोड़े आ रहे हैं, वे किसके हैं; ओर किस ओरसे, कैसे, आ रहे 
- हैं। पीछेसे जो छोग आ रहे थे, वे चार थे; ओर चारों घुड़ख- 


4 उषाकाल द /क्‍ ः द (ूँ ८ ४) 


ब्च्ब्ल्क्लछा >फट०-बदेटी १६९०-०९७- 





वार थे। परन्तु वे हमारे घुड़लचारकी भांति सिफे कुरता पहने 
ओर साफा लपेदे हुए नहीं थे। वे पूरी पूरी पोशाक पहने थे । 
उनकी पोशाकमें किसी बातकी कमी नहीं थी। परन्तु वर्षाने 
उनकी पोशाकपर भी काफी कृपा की थी; ओर इसकारण उनके 
कपड़े भी खराब ही हो गये थे । प्रत्येकको क्षण क्षणपर अपने... 
हाथ फटकारने पड़ते ओर मुहपर हाथ प्लेरकर अपनी अपनी | 
दांढ़ियां नियोड़नी पड़ती थीं। 

हमारे सवारने ज्यों ही उनको देखा, त्यों हीं उसने अपने 
मस्तकपर बड़ी बड़ी शिकनें डालीं; ओर भोहें सिकोड़ीं। ऊपरके 
दांतोंसे नीचेकां होंठ बार बार चबाया; ओर होंठोंके अन्दर 
धीरेसे कहा, “अरे शत्रुओ ! हमारे देश, हमारे धर्म, हमारे 
स्वंस्के दुश्मनों | क्‍या करू !? 

इन शब्दोंका उच्चारण करते समय उसने अपनी तलवारकी 
मूठ मज़बूतीसे पकड़ी; ओर तलूवारकों ऊपर उठाया ।. आगे 
बढ़नेके लिए घोड़ेकी एंड लगाई। परन्तु फिर न जाने क्‍या विचार 
उसके मनमें आया कि, तुरन्त ही उसने अपने घोड़ेको पीछे 
घुमानेके लिए ऋटका दिया ] घोड़ा अपने खामीका. इशदा कुछ 
भी समझ न सका | आगे जावे या पीछे ? अथवा जहांका तहां.. 
खड़ा रहे ? वह बहुत ही झ्ुब्ध हुआ । निस्सन्देह उसके मनकी सी... 

वही दशा थी, जो उसके खामीके मनकी थी | पीछेसे आनेवाले.. 

.. घुड़खवार क्षण क्षणपर पास आने रूगे; ओर ज्यों ज्यों वे पास 

... आने छगे, त्यों त्यों हमारा सवार और उसका घोड़ा ओर भी ५ 











(७छ95%.9 


५ 2 हलुमानजीका मान्दिर कै 
कदर € नयी 


व आर ९७.००. ३३ ५"फिणध्या कैश 





अभिकाधिक क्षुब्य होने लगा। इतनेमें वे घुड़ुलवार बिलकुल 
पास आओ गये--और हमारे घुड़खवारने भी अपने मनमें कोई एक 
विचार निश्चित कर लिया; ओर तदलुसार अपने धोड़ेको 
पीछे छौदानेके लिए. जल्दीसे लगाममें कटका दिया। उसके 
इस कार्यसे, अभीष्ट-सिद्धि तो दूर रही, घोड़ा एकदम बड़े 
जोर विगड उठा; ओर जिधर मार्ग सूका, उधर ही भग चला। 
वह घोड़ा, जब एक्काएक सड़ककर भग खड़ा हुआ, तब पीछे 
आनेवाछे चारों सवारोंके घोड़ी भी चमककर भड़क उठे । उनमें 
से एक घडसवार संयोगवश आगे हुआ; ओर हमार घुड़खवार 
उसके पीछे हो गया । वाकी सचार जाने कहांके कहां गये । 
हमारे घड़सवारके साथ, अब, उस रातको, उन चारों घुड़- 
सवास्ोंमैंसे एककी, ऐसी बाजी लगी कि कुछ पूछिये नहीं। उच 
दोनोंमें एकका भी घोड़ा रोके नहीं रुका । हमारे घुडसवारने 
जब यह देखा कि, शत्रुओंका एक घोड़ा हमारे आगे है, तब 
तो उसको उस बाजीमैं खब ही जोश आया । इतनेमें अगला घोड़ा 
घडाकसे एक भारी वृक्षके तनेमेँ जा टकराया; ओर नीचे गिर 
पडा | इससे उसका सवार “अब्लाह ! अल्छाह | या खुदा 
कहता हुआ घडामसे जमी नपर गिर पड़ा ! हमारे घुड़ घवारकी 
भी वही दशा होनेवाली थी; परन्तु अगले घोड़ेकी वह दशा 
होनेके कारण हम्मारा सघार कुछ सम्हलने रूगा जिससे उसका 
धोडा इतना चमका कि, वह एक तीसरी ही ओरकों भग खड़ा _ 
हुआ। इस बार चित्तल इतने ज़ोरसे भड़का कि, उसको काबूमें 








आई उषाकाल न्‍ (ई १० /2) 
दल लिन शक कल बल & पेड 


छावा एक बड़ा भारी काम था। अब हमारे सवाश्के हाथमैं 
सिवाय इसके कि, वह अपना आसन जमाये रहे; ओर घोड़ा 
जहां के आय, जावे, कुछ भी नहीं रहा । वह बड़ बक्करमें पड़ा 
कि, कहां किस उद्दे श्यसे जा रहा था; ओर यह क्या छुआ ! 
कुछ देश बाद वित्तठ कुछ सम्दहा--कमसे कम हमारे घुड़- 
सवासरको यह भरोसा हुआ कि, अब यदि उसको काबू 
लानेका प्रयत्न किया जायगा, तो निष्फल नहीं होगा । उसमे 
हक किया | चिवलने भी अबतक प्रायः अपनी अधिकांश 
|क्तिभड़कनेमं ही खच कर डाली थी, अतणव अब वह भी 
अपने इच्छानसार इधर-उधर भाग नहीं सकता था। लायार 
हो उसने भी अब अपना मन ओर शरीर फिरसे पूथंवत्‌ अपने 
खामीके हाथमें दे दिया। परन्तु अब उससे कोई विशेष लाभ गहीं 
था । क्योंकि उस समय उसके खामीको यददी पता नहीं था फि, 
हम कहां हैं. ओर किस तरफ जा रहे हैं। उसमे अपने आस-पास 
चारों दिशाओंकी ओर द्वष्टि डाली | आकाश अभीतक बिलकुल 
खच्छ नहीं हुआ था; परन्तु हां, उसके कुछ भागमैं वारे यमफदते 
हुएं दिखाई दे रहे थे; भोर हवा इतने वेगसे खल रही थी कि, 
बहुत जल्द बाकी बांदलोंके दूर हो जानेकी भी आशा" होती 
थी । इससे जान पड़ता था कि, अब ' बहुत शीघ्र मार्गका कुछ 
अनुमान होगा। हमारा सवार भी इस बातके. लिए बहुत ही 
. आतुर हो रहा था कि, उसे मार्गका कुछ न कुछ पता चछे | यह 
बार बार बड़े गोरसे बारों ओर निहारता था, परन्तु बहुत 









७ ५१ थे ह हजुमानजीका _हजुमानजीका मन्दिर हे 


ध्छ पूजन धान मम 2] 
मय ड पजी पट रस 


्छि 





देश्वक्न उसके मुखमंडलूपर कुछ भी आशाके चिन्ह दृष्टिगोचर 
नहीं हुए। अन्‍्तमें निराश होकर उसने यही सोया कि, भव 
जिस ओर हो, उसी ओर घोड़े को बढ़ाया जाय; ओर तदनुसार 
डसने घोड़े को इशारा क्रिया | मालिकका संकेत पाते ही वित्तल 
आगे बढ़ा । उस निरशशाक दशामें ही, जबकि खबार आगे जा 
रहा था, एकाएक उसके चेहरेपर आशाकी एक भमलक दिखाई 
दी। अब वह एक ही दिशाकी ओर बड़े गोरसे देखने रूगा, 
जिससे उसे कोई विशेष बात उस ओर दिखाई दी। उसने 
लगाममें कथ्का देकर घोड़े को कुछ अधिक वेगसे उसी ओरफो 
चलनेका संकेत किया । कुछ दूर और चलनेपर उसने घोड़े को 
रोककर फिर ध्यानसे देखा, ती उसके चेहरेके भावोंसे ऐसा 
मालूम हुआ कि, आगे वही बात है,जिसका उसने कुछ देर पहले 
अनुमान किया था। अवश्य ही अब उसी ओर चलनेको उसका 
उत्साह बढ़ा; और उसने अपने घोड़े की गर्दनपर थाप देकर 
प्यार्ले कहा:-- द 

.. अचिसलछ ! देखो, भड़क करके तुमने अपना शिकार ख्वो ही 
तो दिया ! कुछ परवा नहीं । तुमको आज बड़ी हैरानी हुई हे, 
लेकिन्ल्यब धीरज घरो; और आगे कुछ सम्हलकर चलो | बच 
सांधने दीपक दिखाई दे रहा है, वहांतक बढ़े खो | वहाँ पहुंच- 
भेषर' उतरकर हम दोनों विश्ञाम लेंगे। वहां कोई न कोई झोपड़ी 
अथवा मन्दिर, या कोई घर, अवश्य होगा | देखो, कहांके कहाँ 
प्षटक गये ) चलो, लो, अब इतने घबराओ नहीं !” 











!ः उषाकाछ * ्ि ६ १२ , 


ब्च्च्द्छाछुख् “डक तान2ए १पुसवए-ल- 








यह कहकर उसने घोड़े को पुचकारा, गर्देनपर थाप दी, 
उसके मुहको ऊपर करके कुछ खुम्बनसा लिया। उस समय 
उस सवारने अपने घोड़े पर जो प्यार प्रकट किया, उससे इस 
कथनकी सत्यता पूरी पूरी प्रतीत हो रही थी, “मराठे सर 
दारको अपना घोड़ा ग्राणोंसे भी अधिक प्यारा होता है ।? 
.,.. चित्तलने जब यह देखा कि उसके स्वामीने उसको प्यार 
किया, तब वह फिर उत्साहित हुआ। ओर ज़ोर ज़ोरसे फुड़कते 
. हुए, लगाप्त चबाते हुए, तथा गदन तिरछी करते हुए, चलने 
» छगा। कुछ ही देश बाद, सवार उस प्रकाशके बिलकुल निकट 
#आ गया, जिसे कि उसने दूरसे देखा था । देखता है, तो वहां एक 
 छोटासा मन्दिर है, जिसके आगे प्रांगणमैं द्ञेनों ओर जलते हुए 
दो बडे बड़े पलीते अब बुकनेपर आ गये हैं। हमारा सवार 
उस मन्दिरके प्रांगजमें गया; ओर घोड़े से नीचे उतरकर इधर- 
उधर देखने लगा। पर वहां उसे एक चिड़ियातक नज़र नहीं 
. आईं। घोड़े को हाथमें पकड़े हुए बह प्रांगणके अन्ततक चला 
- गया, जहां उसे मन्द्रिका दरवाजा दिखाई दिया। भीतर मांख॑- 
. कर उसने देखा, तो हतुमानजीकी एक बड़ी मूत्तिके अतिरिक्त उसे 
ओर कुछ भी दिखाई न दिया। घोड़ेको वहीं छोड़कर उसने 
. भीतर जानेका साहस किया; ओर वहां जाकर देखता है कि, 
. हलुमानजीके आगे किसीने एक हरा नारियल फोड़ा है, जिसके 
. खोखले वहां पड़े हैं; ओर पड़ा है गिरीका एक टुकड़ा !इस 
. उहं श्यसे, कि कोई न कोई मलुष्य वहां दिखाई देगा, हमारे 





हू 





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(्‌ कु हि बजरगबलराक आसनके नाच ञ 
>> २३ ८6% प्ल््ञ्स्ल्व्य्य्ंियाय++ 


सिपाही जवानने उस मन्दिरमें बहुत दूं ढ़-खोज की; पर कुछ छाम 
न हुआ | अन्तमें निराश होकर वह वैसा ही घरतीपर छेट गया ; 
इतमेमें पृथ्वी-गर्भसे किसीके बोलने-चाढने और हँसनेकीसी 
आवाज उसके कानमें पड़ी, जिससे वह बहत विस्मित हुआ: 
और उफ्रककर इधर-उधर देखने लगा | 


दूसरा परिच्छेद । 
बजरंगबलीक आसनके नीचे | 
हमने ऊपर कहा है कि, हमारे सियाहीकों ज्यों ही यह 
भास हुआ कि, पृथ्वीके गर्भसे कोई ध्वनि निकल रही है, कोई 
न कोई बोल रहा है, अथवा हँस रहा है, त्यों ही वह अत्यन्त 
विस्मित होकर उठा; ओर आश्चय्य-चकित होकर इधर-उधर 





ह देखने छ्या | यह ठीक हे [ प्रन्तु पहलेपहल जयकि, उसे 
 काममें वे शब्द पड़े, उसको यह निम्धय॒ नहीं हुआ कि, वे 
द ज़मीनकेब्अन्द्रसे ही निकल रहे हे । पहले तो उसे यही शंका 


हुईं कि, हमने यह जो ध्वनि सुनी, सो सच्ची है, अधवा केवल 
उसका मसिथ्या भास ही हुआ है। इसके बाद उसने यह मी 
शमभा कि, यहीं निकट, कहीं आसपास, कोई धीरे धीरे बोलता 
होगा। इसलिये बिलकुल स्तव्ध होकर उसमे आहर ली | पर 


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श) किक की 
उधाकाल ५५ हि 
हर जल्च्क््फफ्ा “ हर ह किले ्‌ छ ८4 ह 
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मर आओ >> 
कुछ भी खुनाई नहीं दिया । इसके बाद्‌ उसने सोचा कि शायद्‌ 
मन्द्रके बाहर, आसपास, कोई बोलता हो, इसलिये उसमे 
_ बाहर जानेका विचार किया | बाहर गया भी । मन्दिरके आस- 
पास, दूस-दूस, पांच-पांच कदसोंपर, चुद खड़ रहकर उसमे 
आहट छी। परूतु वहां खिफ उसके घोड़े के फू डकनेकी 
आजाज़ हो छुनाई दी, अथवा हवाके फोंकोंके स थ यदि कोई 
जलविन्दु उन बुभते हुए पलीतोंकी ज्योदियोंपर आकर गिरते 
थे, तो उनसे भी 'विड़चिड़' आवाज़ निकरूती थी। बस, 
इसके सिवाय ओर कोई भी शब्द उसके कामोंमें नहीं पड़ा 
उसने बड़ी लावधानीले एक-दो बार, ठिठकते ठिठकते, ओर 
आहट छेते हुए, उस मन्दिरके आखपास परिक्रया के | पर 
कोई डसे दिखाई नहीं दिया | अतणवच अब उसको पूर्ण विश्वास 
हो गया कि, मन्द्रिके आसपास तो कोई है नहीं, इसलिये 
हमारे कानोंमें ज्ञो आवाज़ पड़ी है, वह अवश्य ही हथारी 
कव्पनाका खेल है। क्योंकि उसने जिस प्रकार मब्द्रके बाहर 
प्रदक्षिणा की थी, उसी प्रकार उसके भोतर भी यारें ओर 
दीवालोंको पकड़कर परिक्रमा कर डाली; परन्तु कोई चीज़ 
उसे दिखाई नहीं दी--हां, एक कोमेपें वूनी बुरी हुई पड़ी थी | 
- शायद उसके अन्दर आग भी गड़ी थी | इसफ्रे सिवाय दो-एक 
चिल्में, क्‍ एक छोटा, ण्क्क विमदा, इत्यादि शी वहा पड़ा था; 
पर हमारे सिपाहीका उस ओर ध्यान नहीं गया । क्योंकि: 
क्‍  डसका सारा ध्यान तो इसी एक बातकी ओर था कि, यह 











(प्‌ १५ हे द ॥ बजरंगबलीके आसनके नीचे” 
४" | ह5) फलाकनप्रफ्राफ फापाइााकनककन“ग-ण जम साधक 'सर्कान+क्रासन्‍फामी "जो 
अन्क, ब्ूंटुएु०-+ परत 0.५..०२--०- ० की 0 मकर) 


शब्द कहांसे आता है ? सम्पूर्ण मन्द्रिमें, उसके भीतर, बाहर, 
सब जगह, उसने दो दो, चार चार कद्मपर ठहरकर आहट 
की; पर कोई परिणाम न निकल्‍ा।| इतना सब हो जानेके 
बाद अवश्य ही उसकी कुछ विवित्रसी दशा हो गई। उसको 
कुछ समझ ही न पड़ने लगा कि, अब वह क्या करे, जिस सम्रय 
वे शब्द उसके कानोंमें पड़े थे--अथवा उनका भास हआ था--. 
उस समप्रयथ उसने यही समझा था कि, कोई मसण्य बोल रहा 
है; ओर यही सप्रककर वह उफ्रककर उठा भी था। परन्त 


बे, जवाकि उसने देखा कि, इतनी हछ जे करनेयर शी 
उसका कुछ पता नहीं चछता, तब उसका मन वड़ी दुविधामें 
पड़ गया। एक बार तो उसके मनमें आता कि. मेंने शब्द तो 


अवश्य ही सुने हैं; और दूखरी बार फिर सोचता कि, शायट 
शब्द सुननेका मिथ्या ही भास हआ हो । उसने स्पोचाँ: 
हमारा गन च कि अत्यन्त क्षुल्ध हो रहा था, इसका ण यह 
भी हमारी ही कब्पनाका एक कोौतुकसात्र था। इस प्रकार 
नको हिविधा-तिविधा स्थितियें वह यद सोच नहीं सकता कि. 
अब आगे बह क्या करे। इसके सिवाय सत्यन्त युद्ध है 
जानेके कारण उछसे छुप बेठे सी रहा बहीं जाना शा | अप 
उसका सन्र इसीमें छगा कि, कब खबह हो. शोर काथ मम 
यह माल म हो कि में कहां आ गया हैं| परन्तु हथर गज 
यह उददचिश्लता भी उसे कष्ट देने लगी | अन्‍तमें जब कोई विस्तार 
मे सूफा, तब फिर बह मख्द्रिमें आर पड़ रहा | सो इस सश्ति तुसे 








| 


>-ऋष्आ उजाला ऋ 


५ हम 





उधाकाल न्‍ ६ 2) 


व्च्च्छ्ल्ज़ -+9--89-%७० चर 





कि, फिर शायद्‌ वही ध्वनि कानोंमें सुनाई दे। बड़ी उत्सु- 


कवाके साथ उसने कान लगाये, पर कुछ भी खस्‌ नाई न दिया । 


हाँ, छन छन करके कुछ बजनेकी आवाज अवश्य कानोंमें पड़ी, 


पर वह कुछ चकित करनेयोग्य आवाज न थी। हां, इससे 


हमारे सिपाहीके मनमें एक प्रकारकी शंका फिर आ गई; ओर 

. उसने फिर वही पूवंकी आवाज सुननेके लिए. अपने कान बिल 
कुछ जमीनतकमे मिड़ा दिये; पर फिर उस मनुष्यकी आवाज 
०! उसे बिलकुल ही सुनाई नहीं दी | हां जैसा कि ऊपर बतलाया 


है, दो चार बार “छन छन” की आवाज जरूर आई । वार बार 


करवट बदलकर, और स्थान-परिवर्तत करके भी उसने शब्द 


खुननेका प्रयल्ल किया | . जबकि बाहर, आसपास, कहीं भी उन 


सुने हुए शब्दोंका पता नहीं. चला, तब उसको विश्वास हो गया . । 
कि, हो न हो, वे शब्द पृथ्वीके अन्दरसे ही निकले होंगे, क्योंकि. . 
उसने सोचा कि, जिन शब्दोंके सुननेका उसे भास हुआ था, 


वे शब्द लेटे हुए ही उसके कानोंमें पड़े थे। परन्तु जब मन्दिर 


की सम्पूर्ण जगह उसने खोज डाली, ओर वे शब्द फिरसे उसके द 


क्ानोंमें नहीं पड़े, तब उसने यही सोचा कि, उसकी कंव्पनाने 
ही उसे इतने चक्करमें डाला । इसलिए जब यह निश्चय हो 
गया कि, अब पता रूगानेका ओर कोई मार्ग ही नहीं रहा, तब 
बेचारा बिलकुल निराश होकर यह सोचने रूगा कि, झब यहाँ 
से कूच कर दिया जावे । पर साथ ही यह भी मनमें आया 
कि; रातमें कहीं भटक न जावे । जिस. कामके लिए गये थे ) 








2) 5 बजरगबलीके आसनके नीचे [ 
१७ ८: है है 


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सो तो पू्ण हो गया, अब हमें समयपर अपने स्थानपर पहुं- 
चना हीं चाहिये, नहीं तो उलटे हमारी ही खोज शुरू होगी। 
और यदि भटकते भटकते अचानक किसीके हाथमें पड गये, तो 
ओर आफत आवेगी |. सब किया-कराया व्यर्थ जायगा: और 
अगला विचार भी पूरा न हो सकेगा। यह मन्दिर विलकुल निर्जन 
जान पड़ता है, पर रातमें यहां कोई न कोई लोग भाते अवश्य 
हैं, नहीं तो यह ताजा फूटा हुआ नारियल ओर ये जलते हुए 
पलीते कहांसे आते । इत्यादि अनेक विचार हमारे सिपाही 
जवानके मनमें आने लगे। उसने यह भी सोचा कि, यहांपर 
जो छोग एकत्रित होते होंगे, वे क्या हमारे ही समान होंगे ? 
+. हमारे ही ऐसे विचार उनके भी होंगे ! यही द्वढ़ता क्‍या उनमें 
के , भी होगी ? अहा | यदि ऐसा ही हो, तब क्‍या कहना है 





हैं! अपने 
धरम, अपनी जातिके दुश्मनों, अपने देशके शत्र्‌ ओं ओर गौ- 
.-ड्छ्ल्रणोंपर अत्याचार करनेवालोंपर कठोर शासन करनेकी 
हु उनमें भी ऐसी ही हृढ़ता हो, तो फिर ओर क्या चाहिए ? 
उछ कया आज हमारा खारा शोर्य, वीर्य और बैर्ण नष्ट हो 
है।.. भीष्म, द्रोण, कर्ण, अज्भु न, भीम आदि वीरोंने जिस 
 जेफ्रशिम लिया, वह भूमि क्या आज वन्ध्या हो गई? उसमें 
सप् दीपक चीर पुरुष उत्पन्न नहीं होता ! हां, हां, सुर 
. क्वा अपना घरद्वार छोड़नेकी सी नोबत जा जावे, तो में 
| 'ब्प्माह गा ओर एक प्रकारसे छोड़ ही दिया है--पूर्णतवा .. 
जला ३ पिताज्जीको मेरा काये, मेरे विचार, मेरा कुछ भी 





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रा अर 2 आह २ 


पस्चन्द नहीं है। ओर मुझे भी उनकी कोई बात पसन्द नहीं । थे 
कहते हैं कि, हभ उन दश्मनोंके ही अन्नसे पलते हैं, उनके ताबे- 
दार हैं, जिस तरह वे चलावें, उसी तरह चकना चाहिए। 
उनके विरुद्ध कोई भी काम न करना चाहिए। खूब ! उनके 


अज्नसे पलते हैं! कबांसे लाये वे अन्न ? अन्न उनके बापका है! 


देश हमारा है, द्ृब्य हमारा है, जमीन हमारी हैँ, लब छुछ हमारा 


है। हम अपना खाते हैं--फिर भी ये बुड़ढडे लोग कहते हैं कि 
हम उनका अज्न खाते हैं! वाह! वाह! ये दुछ छोग हमारा 


जगह जगह अपमान करें, हमारे धर्ममें हस्तक्षेप करें, हमको 
विधरमों बनानेके लिए हमपर खुब्लम-खुल्ला ज़ुदब्म करें, हमारी 


ल्ियोंका अपमान करें, हमको स्थाव स्थानपर नीचा दिखावें, 


सबके देखते हुए गोबध करें; ओर ये सब . अत्याचार और 


अन्याय हम हिन्दू-आय--ऋषियोंकी सन्‍्तान, छुफ्केसे देखते 
रहें ! इससे तो यही अच्छा है कि, संसारसे हमारा अस्तित्कुष्दी, 





उठ जाये | फिर भी देखो--हमारे ही बाप, दादा, चाचा न 
हमको ही उद्दण्ड, अविचारी, सूखे, उपद्रवी कहकर ब॒रा- 
कहते हें--कहते हैं कि क्‍यों हमारे घरमें जन्प लिया ? 

यदि पूछो कि, हमारा अपराध इसमें क्या है? तो”“६ हो 


इन दुष्ठोंका अत्याचार हमसे सहन नहीं होता! इनके 
_ जारसे अपने देश, अपनी जाति, अपने घर्मं और सारी पं 


रक्षा करनेके वियार मनमें आते हैं; ओर उनको हम 
खोट प्रकट करते हैं, तथा इसी प्रकारके ओर सी प्री थें; 


#*५, 


» बजरंगबलीक आसनफे नीच £ प 
पे १८ है हे 2 





| लिलिकअल प तल ले आम कर 8 एज यतिण को फिट किस 
४ 8 ७ हि जा 
हैं--“बस, यही हमारे अपराध हैं, ओर इन्हीं अपराधोंके लिए +* 


हमारे बाप, दादा हमको गालियां देते हैं। धमकाते हैं कि, घरसे 5 
मिकाल देगे ! निकार दो न घर से ! मेरे समान सभी नव- 
युवक यदि अपने अपने घरसे निकार दिये जायें; और फिरवे 
सब एक जगह आकर एकत्रित हो आय, तब तो कया ही उत्तम 


की की जी केक फ ढ़ केक 


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बस, इसी प्रकारफे वियारोंने हमारे सिपाही जवानके 
मस्तिष्कको चक्करमें डाल रखा था। मनभमें--उसमें भी अत्यन्त 
क्षुब्ध होनेवाले मनमैं--जब मनुष्यके प्रिय विद्यार आने लगते है, 
तब फिर उनका कोई ठिक्काना महीं रहता । एकके बाद एक 
आते ही चछे जाते हैं! बस, यही दशा हमारे सियाही जवान- 
की इस समय हो रही थी। अनेक वियारोंने, एकके बाद एक 
आकर, उसे पूणंतया अपने कण्जेम कर लिया था। डसका 
सम्पूर्ण ध्याच एक ही ओर रूग रहा था। उस खसम्रयके उसके 
हाव-भाव देखनेयोग्य थे। प्रत्येक क्षुब्ध मबुष्यके मनोविकार, 
उल्ता समयके उसके हाव-भावोंमे, स्पष्ट दिखाई देते ही 
 हैं। मबोविकारोंके अछुलार ही डसके हाथ-पेर आदिको 
चेणाए भी होने लगती हैं। हमारे सियाही अधानमकी भी उस 
सप्रय वही दशा हुई। उसकी भोदे' ऊपर खड़तीं, फिए आकु- 
खिल होतीं, बढ बाश बार अपनी तलबारश उठाता, इधर-उधर 
घुमाया, बार करनेके छिए वैयारथा होता, फिए नो्थे रख 
देता। उपयुक्त विदारोंके आनेपर अन्तमें, जब उसके मनमें 


जि मो पे 





अल्ट्रा" 


न जाओ के टन लक सा कन्‍क-नप 7“+-++-#॒ा्व>े+२७ ० ७ +>फन्ऋममनल्‍मनट 2 वनसियासर पररपनर 57 5 


54%: २ क एम कक 











. उषाकाछ )) ७) 





यह विचार आया कि, “दुश्टोंके जुल्मसे अकुलाये हुए हमारे 
समान सनन्‍्तप्त नवयुवक, यदि अपने अपने घरोंसे निकाले जाकर 
एक जगह एकत्र हो जावें, तो कितना भारी काम हो जावे,” 
तब उसके मंनको एक प्रकारका असीम आनन्द हुआ | 
चास्तवमें इस प्रकारके युवक-समुदायके एकत्र हो जानेपर, 

जिस महान कार्यके होनेकी भावना उसके मनमें थी, उसका 
. संज्ञीव वित्र उसकी आँखोंके सामने आ गया। वह 
चित्र जिंस समय उसकी आंखोंके सम्मुख आया, उस समय 
वह सामनेकी--बजरंगबलीकी--मूर्ति की ओर देख रहा था । 
मानो उसने यह पूछनेके उद्द श्यसे ही कि, हमारे इस चित्रमें 
क्या कुछ कमी है, उस ओर अपनी द्वष्टि रगाई थी। अथवा 
जैसे उसका वह चित्र उस समय बजरंगबलीके शरीरपर ही 
अंकित हुआ हो; और उसीको दह ध्यानपूर्वक देख रहा हो | 
इसप्रकार वह देख रहा था कि, इतने हीमें एकाएक वह उम्रक 


उठा; ओर उसके मुहसे ये शब्द्‌ निकंल पड़े कि, “अरे! यह 


क्या १” उस वक्त वह इतना घबड़ासा गया कि, एकदम उठ- 
कर खड़ा हो गया; ओर भय तथा आश्चर्यसे उसका मुख-मुंडल 
व्याप्त हो गया। उसने अपनी आंखें फाड़कर इस प्रकार 
फिराई'; ओर अपनी तलवार ऐसे संभाली कि; जेसे किसी 
बड़े संकटसे अपनी रक्षा करनेके लिये कोई आतुर हो उठे। 


एकद्म यह क्‍या हुआ / बह एकटक्ष बड़ी विचित्रताफे 


साथ बजरंगबलीकी मूत्ति की ओर देखने रूप! | बात यह हुई 


सवीपिक न परपल 


् 


थे बसरगबलीके आसनके नीचे 
हल ५ अं ' >पाकाम  'पपपाध्यपाक 


ब््च्स्य्स्ब्स्ट्ट्यप्स्डकत 


कि वह मर्सि धीरे घीरे आगेकी ओर खिसक रही थी! यह 
बात जब पहलेपदल हमारे सिपाही जवानकी नजरमें पड़ी; तब, 
जैसा कि हमने ऊपर बतछाया, उसका अत्यन्त चकित होना 
विलकुछ खाभाविक था। जिस पाषाणमय मू्तिपए आज कई 
सौ वर्षसे बराबर सिन्दूरका लेप हो रहा था, वह आज एका 
एक हिलने रगी--आगे खिसकने रूगी! ऐसे चमत् कारको 
देखकर कोन घैर्यशाली आश्चर्य-चकित न होगा १ यह क्या संकट 
है | यह प्रश्न किसके मनमें उत्पन्न न होगा कोन ऐसा व्यक्ति 
होगा कि, जो हमारे सिपाही जवानके समान ही अपनी तलवार 
इत्यादि संभालकर एकदम खड़ा न हो जायगा १ 

वह हसुमानकी सूर्ति सिफे चावल चावलूमर आगे 
खिसक रही थो । इसकारण पहलेपहल तो उस शूर सिपाही- 
को--उसका मन कुछ स्थिर होते ही--ऐसा मालूम हुआ कि, 
यह भी मनका मिथ्या भास होगा, अथवा हमारी कट्पनाका 
ही खेल होगा । परन्तु वह मूत्ति बराबर चावल चावलमर आगे 
ही आ रही थी, जयासी भी हिलती-डुलती नथी, ओर न 
आरगेको रूकती थी ! बिलकुल सीधी, जेंसीकी तैसी खड़ी हुई 
अत्यन्ड मनन्‍्द्‌ गतिसे आगेको खिसक रही थी। यह है क्‍या 
बात ! क्या इस मूर्तिमें चैतन्यका संचार हो गया १ अन्यथा 
एकाएक यह आगे कैसे खिसकती ? अथवा इसकी ओटदपमें 
खड़ा हुआ कोई इसे आगे खिसका रहा है? स्रो भी नहीं हो 
सकता | हमने कितनी बार इसके आसपास परिक्रमा करके 














हैः उषाकाल ५ २२ ८22 


है 
'छे हे 
अमप्मदााफाउटपदा+क२०१ ना का वा: /204%ए:ए//25% 
छ 9 अ<88)) श्किप्न् 3 ५. मप्र. ० +रकतकि शुल्क रेप तन 


. आगे पीछे, सब ओर देख लिया है, कोई भी दिखाई नहीं दिया । 
ने किसीके होनेकी संभावना ही दिखाई दी। उक ता वे 
बाहरके पछीते, ओर दूसरी यह कोनेकी धूनी--बल, इन दोफे 
. झतिरिक्त मनुष्यका तो यहां कोई खिन्ह भी दिखाई नहीं दिया । 
 ऐैसी दशामें, अब एकाएक हसुमानजीकी यह पूर्ति कोन 
खिसकावेगा १ ओर क्यों ! इस प्रकारके अनेक प्रश्न उसके 
. मनमें आये। किन्तु सन्तोषजननक कोई भी उत्तर खूझ नहीं 
५ पड़ा। अपनी जगहसे उठकर यदि आगे बढ़कर देखे, दो उसके 
. छिए साहस ही नहीं होता था। अब बाहरके दो पलीतोंमेंसे 
. सिफ एक ही कुछ कुछ प्रकाश दे रहा था ( दूसरा कभीका बुक 
गया था ), खो अब वह भी बुझने लगा; ओर प्रकाशकी जगह 
गन्दा घुआं छोड़ने छगा । प्रकाश बिलकुछ ही नहीं रहा । 
, अतएव हलुमानजीका खिलकना भी अब दिखाई न पड़ने लगा । 
सिपाही बेयारा चुपयाप वैसा ही खड़ा रहा | कश्सा ही क्‍या ? 
. इसनेमें हनुमानजीके पीछे कुछ उज़ेलासा दिखाई दिया, ओर 
. ऐसा जान पड़ा कि, घूत्ति अपने स्थानसे हाथ-सवा हाथ आगे 
. हट आई। यह उजेला कहांसे आया १ जब हनुमानजी हाथ 
. खा हाथ अपनी जगह. छोड़कर आगे आ गये थे, तब जो 
. जगह पीछे खाली हो गई, उसीसे तो यह उजेला नहीं आया ? 
. उजेला बहुत हो, सो भी नहीं, सिफे एक ऋलकप्ात्र थी, जो 
. कि नीचेसे ऊपरकी ओर आती हुई दिखाई दी थी। यह सब 
. क्‍या अम्रत्कार है? मूक्ति आगे क्यों खिलक रही है ! उसकी 





के 





( 0. बजरगबलीके आसनके नीचे ही 
“क-की-९९६०ीक- ब्या्स्सखणास्ह्यब्प्सकस कल 


जो जगह खाली हुई है, उससे हऊलकासा उजेला ऊपर क्‍यों आ 
ण्ह्दा सब क्या तमाशा है? हमारे सिपाही मित्रकों 


बुद्धि बड़े बकरमें पड़ी। कोई न कोई बड़ा विचित्र भेद इस 


जगह है, या भूठोंकी लीला है। मूरतोंकी लीला कह, ता हैंड 


मानजीकै सामने यह कैसे हो सकती है ? 


भूत-पिशाच निकट नाई आवें : 
महावार जब नसाम्र सनाव || 


तब तो अवश्य ही यह कोई बड़ा भारी रहस्य हैं। द्स्ल 


रहसरूपका भेद्‌ हमको अवश्य ही पाना चाहिए । यह सब साथ 


करके सिपाहीने अपनी तलवार सम्हाली ओर आगे कदम 


रखा। अब उसका यही निश्चय दिखाई दिया कि, सी 


बातको जाने बिना अब वह नहीं ठहर सकता। सिपाही 
एक एक कदम आगे बढ़ाते हुए, हसुमावजीके बिलकुछ 
पास पहुंच. गया ; ओर धीरेसे सूत्तिके स्कन्‍्चपरसे देखा, 
तो एक चोकोना छेद दिखाई दिया, जिससे एक दीपक 
की घीमीसी येशनी आ रही थी। इसके सिवाय सिपादीणे 
यह श्वी सुना कि, कोई कुछ दोहा चोपाई अथवा श्लोकदी 
वरह कुछ पद्म, बड़ी धीरता गंशीरताके साथ, आप हो आप, 
शुन-गुना रहा है। इससे मात्दुम हुआ कि भीतर कोई मनुष्य 
अवश्य है, ओर सिपाही जबकि पहले जमीनपर पड़ा था, उद्च 
समय जो शब्द उसके कानमें आये थे, वे भी शायद्‌ उसी मह- 





रे 


. ॥ जउयाकाल क्‍ 2 





घ्यके थे। इतना मालूम होनेपर सिपाहीकी जिज्ञासा और भी... 
बढ़ी; और उस रहस्यका भेद्‌ पानेकी उसकी उत्कट इच्छा 
हुईं। फलत: उसने उस चोकोने छिद्से नीचे, उस दीपकके 
पास, जानेका निश्चय किया--पर, उसके मनमें यह शंका... 
आई कि, शायद्‌ हम उधर नीचे गये; ओर इधर हनुमानजीकी 
मूर्ति फिर अपने स्थानपर आ गई, तो हम भीतर ही रह जाय॑गे, ' 
अथवा जो कोई भीतर हैं, उन्हींने हमारे प्राण छे लिये. तो 
कैसा होगा ? परन्तु सच्चे शूर पुरुषके लिए ऐसी शंकाए' कब- 
तक बाधक हो सकती हैं ! उसने इस शंकाकों पक्षणभर भी 
अपने मनमें ठहरने नहीं दिया । 
“में सच्चे मराठेका पुत्र हूं; ऐसी शंकाओंमें उलका रह' ?” 
यह कहते हुए पिछली ओर जाकर उसने उतरनेकी तैयारी की | 
ओर “जय बजरंगबलीकी !” ये शब्द उच्चारण करके उसने 
भीतर पेर डाले । 


कहो ४ 


न्‍अिकलककलन्‍नलननननन न. अविनमरफनमलथ, 


तोसरा परिच्छेद ॥ 


4 





(4७ हक ४ ७ 2 लक बकर 
#0क बे 22 लदक हु) ०० | कि । |. है भ 


: 
हू | ५ ॥ 


किला सुलतानगढ । 


परन्तु आओ, अब अपने सिपाही मित्रको बजरंगबलीकी रे 
उेत्ति के नीचे, भू हारेमें, घसनेके उद्योगमें छोड़कर, हम दूसरी ' 


गेर चलें । वह उस भू हारेमें घुसा, अथवा घुसनेके पहले ही. 


ड़ 








कला सुल्तानगढ़ 
पे ब्ु 2 द हा. हि 5 


९० कफ्ेलल्लििेा कस 





उसके सामने कोई विजन्न आया, अथवा बिना किसी. बाधाके 
भीतर प्रविष्ठ होकर उसने कोई निराला ही दृश्य देखा, इत्यादि 
बातें आगे-पीछे, फिर कभी देखी जायंगी। इस सम्रय तो उसे 
यथेर्छ अपने उद्योग छगा रहने दें; ओर अपनी द्वष्टि उसकी 
ओरसे हटाकर दूसरी ओर ले जावे । 

यह द्वष्टि बहुत दूरपर ले जाना है। पाठकोंको. स्मरण 
होगा कि, हमने पहलेपहल अपने सिपाही युवककों पूना ओर 
सासवडके बीचके मार्गपर देखा था । ओर अब जिस जगह 
हम उसे छोड़ रहे हैं---अर्थात्‌ उपयु क्त हसुमानजीका मन्दिर 
अवश्य ही उसी मार्गके आसपास कहीं दस-पांच मीलके अन्दर 
होगा। परन्तु अब, जिस स्थानपर चलनेके लिए हम अपने 
पार्ठकोंकी कष्ट देना चाहते हैं, वह बहुत दूर है। अर्थात्‌ अब 
हम बीजापुर रियासतकी सीमामें एक भारी किलेकी ओर 
चलनेकी प्रार्थना अपने पाठकोंसे करंगे। 

जिस सम्यका कथानक लिखना हमने प्रारम्भ किया है, 
उस समय बीजापुरके अधिकारमें बहुत बड़ा प्रदेश था; ओर 
सो भी इस तरह नहीं था कि, बीजापुरके आस ही पाप खूब 
विस्तृत हडे। नहीं, उस समयकी दशा ही कुछ ऐसी थी 
कि, जहां जिसका जोर चले,वहीं वह अपना जोर चला ले; और 
जबतक उसकी शक्ति रहे, तबतक उसको अपने कब्जेमें रखे । 
इस प्रकार जो प्रदेश हाथ लगता था, उसके लिए यह कोई 
नियम नहीं था कि, कबतक यह उसके हाथमें रहेगा; और कंब 





व्य्िलीरिक-नद्रप० का 


उसे उसके हाथसे दूसरा कोई छीन छेगा। इसलिए जबतक 
उसके हाथमें वह प्रदेश रहता, तबतक मनमाने तोरसे यह उस- 
पृर शासन करवा -इस प्रणालीओें इस बातका ध्यान प्रायः बहद 
कम रहता था कि, इससे प्रज्ञा पीड़ित होती हैं या क्या ? उसमे 
कुछ भी ज्ञान रही है, अथवा नहीं | लेता आर शासक लोगोंका 
उस समय यहो हाल था। तदनुसार बोजापुरके कई बादशाहोंने 
भी महारब्दु प्रदेशके कई भागोंमें अनेक किले जीते थे; ओर 
उनको अपने अधिकारमें रखा था। दिब्लोके मुगलोकि साथ 
उनकी औओ छड़ाश्यां होती थीं, उनमें कभी कुछ किले उनके 
हाथसे निकछ आते; ओर कमी कुछ फिर आ जाते। जो 
हो। यहांपर हमको उस इतिहाससे कोई विशेष सात्पयें 
नहीं है--हमको तो इस समय अपने पाठकोंको सिर्फ खुलतान- 
गढके किलेपश ही ले जाना है। 

महाशष्ट्रमें उस समय जो बड़े बड़े किले थे, ओर नाम- 
मात्रके लिए अब भी जो मौज द्‌ हैं, उनमें खुलतानगढ़का किला 
बहुत प्रसिद्ध था। यह किला किस समय किसने बनाया, 
इसके विषयमें कहीं कोई चृत्तान्त नहीं मिकता। अतएव उसके 
बनवानेके विषयमें, ओर उसकी रखनाके विषयमें अनेकू ठोगोंने 
अनेक अनुमान किये हैं। जो हो, इतना निश्चय है कि, वह 
द्विला बीजापुरक्षे बादशाहोंके समयका नहीं है, अथवा पहले ऊूं 
ब्राह्मण राजा हो गये, उनका. बनवाया हुआ भी नहीं है, और 
उनके|पहले ज्ञो मुगल शासक दक्षिणकी ओर चढाइयां करके 


६ 








बा लतानगढ़ 
9 २७ ४2 32200» किले पक" 


०2 का. आइ » ९.4... ०-०--५ 58 ५" ध्ा:#० 





गये थे, उनके समयका भी बढ़ीं है। सच तो यह है कि, देव- 
गढ़के समाय, जो अत्यन्त पुराने मराठोंके किले हैं, उन्हींमेंसे 
एक यद भी है। किकेके नीचे सखुलतानपुर जामक एक छोदा- 
सा गांव था, उसके छोग किछेके विषयमें भिन्न मिन्न दुष्तकथाएं 
बतलाया करते थे, जिनसे यह मालूम होता था कि, यह किला 
भीम, अज्ञ न इत्यादि पाएडवोंके खमयका बना छुआ डे। 
वहांके छोगोंका कथन है कि पांडवोने अपने अज्लासवासके 
समयमें अपने छिप्नेके छिए जो अनेक सुरक्षित स्थान पहाड़ोंमें 
बनाये थे, उन्हींमेंसे यह किला भी है; ओर इसका बहुत प्रायी 
नाम भीमगढ़ है। इसके सिवाय इस किलेका आकार भी 
अन्य पहाड़ी, कृत्रिम शुक्राओंकी ही तरह बना हुआ है। इस- 
कार्ण सर्वेलाघधारण छोगोंका विश्वास खाभाविक ही जम 
गया कि, यह पांडवोंका ही किला है। किलेका सम्पूर्ण खरूप 
पद्दाड़के अन्दर इस प्रकार छिप जाता है कि, दूरसे देखनेवालेको 
यह किला मालूम ही नहीं होता। अलाउद्दीनसे छेकर आगे 
जितने शासकोंने उस किलेको अपने अधिकारमें रखा, सभीने 
अपनी अपनी इच्छाके अनुसार किलेकी मश्म्मत करवाई, कोट 
बनवाये,हुसलिण उसका रूप भी पहलेसे बहुत कुछ परिवर्तित 
'हो गया। इसमें सम्देह नहीं कि, किडेकी अत्यन्त ध्राचीनताके 
विषयमें ऊपर जिस दन्तकथाका उल्लेख किया गया है, वह 
परस्परासे ही चली आती होगी | कुछ भी हो,इतना कहनेमें कोई 
प्रत्यवाय-नहीं कि, यह किला झुगलोंके शासनमें नहीं बनवाया 


४ बा 











गया है; किन्तु महाराष्ट्रके अत्यन्त प्राचीन काछके राजचंशोंमेंसे 
किसी महापुरुषने चनवाया होगा। किलेके दो-तीन द्रवाजोंपर 
कुछ शिलालेख टूटी-फूटी दशामें मोजूद हैं, जिनपर एक विचित्र 
प्रकारकी लिपि लिखी हुई है। उससे भी हमारा ऊपरका ही 
अनुमान हूढ़ होता है। इस किलेका प्राचीन नाम यद्यपि भीम- 
गढ़ है, पर जिस समयमें हम अपने पाठकोंके साथ, इसे देखने 
जा रहे हैं, उस समय इसे ख़ुलतानगढ़ ही कहते थे; और 
कागजपत्रोंमें भी इसे “खुलतानगढ़का किला” ही लिखते थे। 
सुलतानगढ़ नाम भी बहुत पुराना है। पर यह नहीं कहा जा 
सकता कि/किस सुलतानने इसे जीतकर इसका यह नाम रखा | 
किसी किसीका कथन है कि, बीजापुरकी गद्दीके सूल संस्थापक 
यूसुफ आदिलशाहने ही इस किलेको जीतकर, इसके नीचेके 
गाँवका नाम खुलतानगढ़ ओर सुलतानपुर रखा। किसी 
किसीका कथन है कि, मुगलोंने ही अति प्राचीन कालमें ये नाम 
8 आम क्‍ क्‍ द 

इस संपूर्ण इतिहासके यहां बतलछानेका वचास्तव्रमें यही कारण 
है कि, इस किलेका सुलतानगढ़ नाम यद्यपि मुखत्मानी ज्ञान पड़ता 
है; पर वाघ्तवमें वह किला बहुत पुराना था; और इस कारण 
बहुत मजबूत भी था | खय॑ मुगलोंने जैसे किले बनवाये, अथवा 
उनके अनन्तर जो बनवाये गये, उस प्रकारका यह किला केवछ 
.. दिखाऊ नहीं था। यह किला अपनी भव्यता और मजबूतीके 
/ ” ५ कारण अपने आसपास ४०-५० कोंसकी दूरोतक बहुत बड़ा प्रभाव 


&) 


है किला सुरूतानगढ़ £ 
है 


बम १०८०७ है 8 ०:००: 7 किए. 


हक 








रखता था। किलेके आसपास पहले दो तरफ पहाड़का ही 
हिस्सा था। पर्वेतकी श्रेणीका एक बहुत बड़ा भाग 
देखकर ही पहलेपहल यह किका तैयार करवाया गया। 
बाकी दोनों तरफ यद्यपि थोड़ा-बहुत उतार और फिर सपाट 
जगह थी; परन्तु जंगल ओर मभराड़ियां उच ओर भी इतनी घनी 
और विस्त॒त थीं कि प/ससे देखनेवालेकोी सारा जंगल ही जंगल 
दिखाई देता था। किला सिर्फ थोड़ासा ऊपर दिखाई देता था; 
परन्तु यदि बहुत दूरसे देखा जाय, तो खुलतानपुर भी भाड़ियोंमें 
ही छिपा हुआ दिखाई देता था | 
खुलतानपुर एक बहुत छोटा गांव था--बस, रूगभग सौ- 
सवासो घर होंगे। जन-संख्या रंगसग चार-पांच सोके होगी । 
किछेके सहारे यह गांव बसा था। गांवकी नस्वरदारी किले- 
दारके ही हाथमें थी । परन्तु गांवके सच्चे नस्वरदार उस समय 
परैल लोग होते थे। गांवका कोई भी मामला होता, आवजी 
नाभक पटेलके यहां अवश्य जाता था। किलेपर चाहे कोई 
आंदमी आवबे; ओर चाहे चहांसे कोई जावे, उसको आवजी 
परदेलके मकानपर जाकर सब. समाचार अवश्य हो बतलाना 
चाहिए ७ इसके बाद फिर वह जाहे जहां. जावे। यह एक 
प्रकारका नियमसा बन गया:था । आवजीके घरका हुकापानी 
जिसे पसन्द न हो, अथवा जो उसकी अप्रसन्नता खस्पादन करना 
चाहता हो, वह भछे ही आवजीका घर बयाकर किल्ेपर चला 
जावे; और उससे छिपकर किलेसे चापस भी चला जाय । परन्तु 


] 





&छ) 


मा . छ ५ 
4 उषपरकाछ । (३ | १ 
नल: ह पके ३० ) 


२5) (पाकर भकक ४2 हू इट#करपक+ एक जाप कम ॥फछ पट | 
। छच्य् 655 िलल-लकेत- "तप 


सच तो यह है कि, आवज्ञीके घरकी गणप्पों ओर उसके घरके 
हुक पानीका ऐसा कुछ आकर्षण था कि झुलतानपुर गांयके 
आसपास जो भी कोई भा जाता, वह फिर आवज्ञी पटेलके घर 
गये बिना नहीं रहता था । 
पिछले परिच्छेदर्मं जिस शजिका वृत्तान्‍्त बताया गया है, 
वह रात अब बीस सुकी थी; ओर सूर्थनारायणने अपनी प्रराश- 
|... अय किरणोंकों खुलतानगढ़पर ओर खुलतानपुरके आसपासके 
जंगलके ऊंचे ऊंचे वृक्षॉफे शिखरॉपर फीलाशा प्रारम्तम कर 
दिया था। सासबड़ गांयकी ओर यद्यपि उस रायको इतनी 
भारी बृष्टि हुई थी, पर सुलतानगढ़ ओर सुरूसावपुरको ओर 
सिर्फ बादलोंके घिर आमेके अतिरिक्ति ओर कुछ भी नहीं हुआ 
था। यहांतक कि पावीकी एक बूद्‌ भी नीये वहीं आयी थी | 
हां, आकाशमें बादकोंकी कमी नहीं थी । * परन्तु सुवहके करीब 
ऐसी वेज हवा शुरू हुई कि, जिसने बादलोंको जिज्कुछ हा 
दिया; ओर आकाश करीब करीब बित्कुक खब्छ कर दिया। 
. अतएव उस दिन प्रभावकाऊकी' शोसा बहुत ही झुन्दर दिखाई 
! देती थी। पिछली राव बादुलोंसे घि९े हुए आकाशकी ओर 
. देखनेसे वर्षकालके प्र ररषस्णका रोह स्वरूप दिखाई दे रूगता- 
था; परन्तु आज वह स्वरूप नहीं था; किम्तु उसकी जगह हे 
बहुत ही छुन्दर ओर सोस्य स्वरुप दृष्टिमोर हो रहा था। 
प्रातःकालका दृश्य बहुत ही रमणीय दिखाई दे रहा था; और 
उस समय बिछीनेपर पड़े रहनेका कोई मौका नहीं था। परन्तु 





मु रे >+- 4 किझा सुरूुतानशढ़ £ 
2: कं नि ५८ हो हे हु ४2; 0४:ए कलम कराया पादप नतापन 5 * कमन>ापचःप पता ३०२० शान उपर उप 
7 $ ही ) 5 को कं हू ॥ पा, पाल पा कया 


तेकाी आवक) पंटेड किसी कारणसे बहुत॑ बेरतक 


्े 8० है पब भी, घुटनोंतक ऊंचे गद्देपर 
पड़े हुए, खुरसों'ड ले रह *204 इतनेमें उनके दर्वाजेके पास आकर 
एक नोकर खिह्लाकर कहने रूगा--“परट्रे> साहव, किछेसे 
छुभाव आया है, सुमान [” इचर सझुभाव भी बाहरकी ओर 
चिन्तातुर खड़ा था | 

आयजी पशेलका योकर जोर जोरसे ओर घबराया हुआसा 
पुकार रहा था; ओर खुभानका चेहरा भी विन्तासे व्याघ जान 
उड़ता था, इससे स्पष्ट है कि, सुभान, आज किसीन किसी 
महत्वपूर्ण कार्यके लिए आया था। सुभान यद्यपि आज बिल- 
कुल शुप्तरपसे ही आचजीके घर आया था, परन्तु फिर भी 
लोगोंकी उसके आनेका समायार सिल ही गया था। एक 
आदूपमीने सुभानको ऊंपरसे जब्दी जल्दी उतरते , ओर आवजीके 
भकानके सामने ठहरते हुए देखा; उसने दूसरेसे कहा, दूसरेने 
सीसरेसे कहा,--इस प्रकार उसके आनेका समायार फौलता ही 
गया। इधर आवजीको ज्ञगानेके लिए भी शोर मय रहा था। फिर 
क्या पूछना है ? बीसियों आदमी किलेपस्का समायार झुननेके 
लिए आध्वजीके अहातेमें जमा हो गये, इसमेमें आवजीकी निद्रा 
भी कुछ दूर हुई, ओर. उन्होंने चिह्लाकर पूछा कि, “क्या गड़बड़ 
प्रा रखा है !? यह सुनते ही सुभाग आगे बढ़कर बोला:--- 
* “पढेलजी, आपको - सरकारने ऊपर बुछाथा है। जब्दी 
चलिये ।” द 








' . उषधाकाल 


हि 9 


न्‍ $ 








३२ 2) 


। 
+ 


परेलजी सुभानके उपयुक्त शब्द सुनते ही “क्या है! क्या. 


है रे खुभान !” कहते हुए तुरनल उठे ओर बोले --“नाना खाहद- 
का कुछ समाचार मिला ? कोई कुछ खबर लेकर आया! 
अरे, बोल जल्दी । गूगेकी तरह क्या देखता है ? कोई आया ! 
कोई आया? बोलता क्‍यों नहीं ?” 
ही “पटेल साहब, आप यह क्या कहते हैं ? कोई आवेगा, तो 
..... क्या आपसे मिले बिना ऊपर चछा जायगा ? न कोई आया 
क्‍ ओर न कोई गया । ऊपर पहुंचनेके पहले ही आपको सब खबर. 
मिल जायगी। आप ऊपर चलते हैं ? शीघ्र चलिये | बड़े सर- । 
कारने मुझसे कहा है कि, “आावजी परे लको जल्‍दी ,साथ ही 
ले आओ |” मु क्‍ 
. बाहर जो छोग जमा हो गये थे, उन्होंने यह बातचीत सुनी; 
..... ओर उनमेंसे एक-दोकी यह इच्छा भी हुई कि बीचमें ही बोल- 
कर कुछ पूछ-तांछ करें। तदचुसार उन्होंने कुछ पूछा भी; पर- 
...... तु आवजी परे लने उनको एक ऐसी डांट बतलाई कि, जिससे 
ने बेंचारोंको अपनो जिज्ञासा दाबनी पड़ी ? सुभानकी अंतिम. 
बात खुनकर आवजी पर छ कुछ चिन्ताश्रस्तसे दिखाई दिये। 
'इसके बाद्‌ कुछ अश्छील शब्द मन ही मन कहकर बोले--“चल, 
चल, आता हूं। परन्तु जंगल तो हो आऊँ, तबतक तू जरा. 
। हुका भरनेको तो कह दे। नहीं तो तू ही मर छा--जरे, ये. 
कौन निठल्ले लोग जमा हुए हैं? यदि कुछ काम बतलायः 
_» “ . जाय, तो कोई भी करनेको तैयार न होगा, परन्तु देखो यों ही 


कल 232 





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४ 
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70 कं 2क 7 22222 टक20: 200 225: 


“सह पाल 








4 किला सुलतानगढ़ 5, 


बकरी "रन भकत ७-०० न इल0 


प्यथ्क न 
५3॥ 








कैसे दोड़ते चले आ रहे हैं ।” इस प्रकार कुछ बक-कककर 
सवारी लोदा लेकर जड़ल चली गई। आवजीके जाते ही छोगोंमें 
जरा अधिक दूम आ गया। बहुतसे छोंग खुभानके आसपास 
जमा हो गये; ओर एक साथ ही सब मिलकर प्रश्न करने लगे। 
सबके पूछनेका मतरूब एक ही था। दो बातोंपर विशेष जोर 
था- एक “नाना साहबकी कुछ खबर मिली १” दूसरी “बढ़े 
सरकारकी तबियत कैसी है ?” 

दोनों बातोंके उत्तर खुमानने इस प्रकार दिये--“हमें कुछ 
नहीं मालूम । लोग गये हैं; वे जब लोटेंगे, तब पहले गांव 
ही आवेंगे, पीछे किलेपर जायंगे। इसलिए जो खबर आवेगी, 
पहले गांवमें ही आचेगी, पीछे किलेपर पहुंचेगी। बड़े सर- 
कारकी तबियत जेसो थी, बैसी ही है। उसमें कोई विशेष 
अन्तर नहीं ।? परन्तु इस प्रकारके उत्तरोंसे उन चतुर लोगोंको 
सन्‍्तोष थोड़े ही हो सकता था, उनको मुख्य बात तो और ही 


. पूछनी थी। ये तो ऊपरी बातें थीं। मुख्य प्रश्न उनको यही 


करना था कि, आवजी परणेलको इतनी जल्दी क्‍यों बुलाया है? 
इतनी जल्दीसे बुलानेका कारण क्‍या है ? यह बात मालूम हुए 
बिना उहछ लोगोंको सनन्‍्तोष नहीं हो सकता था। परन्तु झुभान 
भी उनको ठीक ठीक उत्तर देकर सन्‍्तुष्ट करनेमें समर्थ नहीं 
था; क्‍योंकि स्वयं उसको भी यह बात मालूम न थी कि, आवज्ञी 
परयेलकोी किलेपर क्यों बुलवा भेज्ञा हां, उसने अपने 
मनमें कुछ न कुछ अनुमान अवश्य कर लिया था; परन्तु वह 





चौड़ी किनारीका दुपट्टा गदेमें डालकर तथा हाथमें अपनी 








भार 





उसे लोगोंपर प्रकट नहीं करना चाहता था। इसके सिवाय, 
लोगोंको वह यह भी मालूप होने देना नहीं चाहता था 
कि, उसको इस विषयमें कुछ भी मालम नहीं है। लोगोंकी 
इृष्टिमें अपना कुछ न कुछ महत्व वह अवश्य रखना चाहता था 
ओर इसोकारण उनके सामने उसमे शह पकट किया कि ञ्से 


. ऊुैछ न कुछ मालूम अवश्य है, पर वह लोगोंको बताना नहीं 


चाहता। अस्त । 
एकत्रित लोगोंने अनेक प्रकारसे उससे प्रश्न किये । परन्तु 


उसने टाल-मदरलके ही उत्तर प्रदान किये | इतनेमें आवजी परेल 


सी दिशा-फरागतर्से वाएस आ गये । इधर खुमानने हुक्का तैयार 
कर रखा था। उसे जझदी जब्दीसे, परन्तु बडी शानके साथ, 
पीकर एकत्रित लछोगोंको फिर दो-चार गालियां खुना दीं; ओर 
मु शीजीको भी कुछ काम-वाम बतलाया। इतमनेमें वहां 
गाँवके जोशीजी आ गये, उनसे भी कुछ उलहनासा देते हुए 


_कहा--जोशीजी, आपका तो वह सब गणित-वणित व्यर्थ 


गया। बहुत कुए्डलियां-उए्डलियां खचाई', पर कोई छाभ न 
हुआ | नाना साहबका कुछ भो पता ने चला ।” यह कहकर 
पटेलने अपने मुखकी ऐसी चेष्ठा बनाई कि, जोशीजीको 
उन्होंने खब शर्मिन्दासा किया हो ! इसके बाद फिर एक बार 
इुका गुड़गुड़ाया; और अपने भुजद्रडोंपर हाथ फेरा । इसके 
बाद अपनी पुरानी चालकी पगड़ी और अंगरखा पहनकर और 











हि >) : ' किला सुलतानगढ़ 
-क-ककेइक-- दा बट मर मम सम मन 








ठ्क्बो, टेढ़ी तलवार लेकर पटेलजी सुभानके साथ किलेपर 
चले। द 

: इतनेमें सू्धंभगवान दो-तीन हाथ ऊपर चढ़ आये थे | 
पटेलजीको यह आशा थी कि, एकत्रित लोगोंमेंसे कोई न कोई 
यह कहेगा कि, हम भी साथ चलते हैं; और इसी आशासे 
उन्होंने चारों ओर दृष्टि भी फेंकी । आप्तीनें ज़रा ऊपर चढ़ाई', 
ज्ववार इस हाथसे उस हाथमें छी, उस हाथसे फिर इस 
हाथमें ली; ओर यह कहकर कि, “श्यामा, अरे यहां बैठा 
क्या करेगा ? चल न हमारे साथ | वहां कुछ काम लगेगा, तो 
अच्छा होगा नीचे भेजनेको--कुछ नहीं--चलछ, चल” श्यामाके 
गलेमें अपना हाथ डाला । श्यामा सिफ चौद्‌ह-पन्द्रह वर्षका 
एक छड़का था। चह भो पट लजीके साथ जानेकी ही इच्छा 
रखता था। अतणएव तुरन्त हो चल दिया। परे लजी, सुभान 
ओर आगे आगे श्यामा--तीनों जने आगे चले, और पीछे पीछे 
गांधके छोग। परन्तु गांव-बाहरतक गांवके छोग एक एक, 
दो दो करके सब्र छोट पड़े। किलेकी चढ़ाईवक कोई भी न 
रहा। उपयु क्त तीनों ही रह गये। जहांसे किलेकी चंढ़ाई 
शुरू होती थी, वहांतक परे लजीकी जीम खब चलती रही: पर 
आगे कुछ कम हो गई। हां, मार्ग उनके रोजके आने-जानेका 
ही था; अतणव कुछ कठिनाई नहीं जान पड़ी । अस्तु। गयार्गमें 
_ उनकी जो बातचीत हुई, चह पाठकोंके जाननेयोग्य है, अतएव 
_ यहांपर दी जाती है। 





डउषाकाल 


ब्च्च्य्ह्ल्क़्ल्् जल 4 आप 








“क्यों रे सखुभान, बड़े सरकार तो नाना साहवबपर अवश्य 
ही प्रसन्न होंगे, अन्यथा उनकी अनुपस्थितिमें वे इतने बीमार 
क्‍यों हो जाते १”... 

. . “वाह पटोे छजी ! आप यह क्‍या पूछते हैं ? नाना साहबका 
कोई भी कार्य बड़े सरकारको पसन्द नहीं आता। वे सदैव 
उनसे यही कहा करते--'तू यदि हमारे घरमें पैदा हीन 
हुआ होता, तो बहुत अच्छा होता । तूने हमारे कुछका सत्या- 
नाश करनेके लिए जन्म लिया है। तू कभी न कसी अपने 
सारे. घर-बारको बरबाद किये विना न छोड़ेंगा। में तुरूसे 
कोई, सम्बन्ध नहीं रखना चाहता | तुझे देखते ही मेरी देह जल 
उठती है ।' हां, जिस दिनसे वे चले गये हैं, उस द्निसे अवश्य 
ही उनको हायसी प्रैठ गई है। घड़ी घड़ीपर पूछते रहते हैं,-- 
अरे कोई आया उसका पता लगाकर ? कहां है वह ? कुशलसे 
तो है!” एक घड़ी भी नहीं मानते, इसी प्रकार पूछते रहते हैं ।” 
.... . “क्यों रे सुभान, नाना साहब जिस दिन गायब हुए, उसके 
'प्रहले दिन. रातकों क्या कोई विशेष बात हुई थी ?” 
द “हां हां, .पयेलजी, उस दिन बे सरकारने न जाने क्‍या 
.. क्या: कहा; ओर इसीलिए तो नाना साहब नाराज होकर चछे 
ग़ये ।” 


“क्या ! क्या: बड़े. सरकारने ऐसी कोनसी बात कही कि, 
जिससे वे घर छोड़कर न जाने कहां चले गये ?” ... 7 


वाह ! पटेलजी, मालूम होता है, इस विषयमें आपने कुछ 


अत आरूओ 


बंद. 





नयी डे 





(६ किला “सुलतानगढ़ 9 


नकआ*बीत० पाकमलमीकित अत य.,००००>- ३.6 








सुना ही नहीं है | पर्ट लजी, यह तो आप जानते ही हैं कि, 
नाना साहब मुखलरूमानोंका नाम खुनते ही चिढ़ जाते है। क्‍या 
वहांसे सारा ही किस्सा बतलाना पड़े गा ? आप तो ऐसे पूछते 
हैं, जैसे कुछ जानते ही न हों !” ह 

“अरे, ऐसी बात नहीं हे । मुझे अजतकका खारा हाल 
मालूम है। तू सिफ इतना ही बतछा कि, नाना खाहब जिस 
दिन गये, उस दिन कया बात हुई १” 

“अज्ी, वही तो सुख्य बात है। बादशाहके यहांसे एक 
पोशाक और खरीता आया था कि, नाना साहब अब बड़ हुए 
हैं, और उनको वोरताकी अनेक बातें हमारे कानोंमें आई हें, 
: सो उनको वर्ष - दो वर्ष के लिए द्रबा रमें, हुजूरकी सेवामें, भेज 
दो। यदि भेजना हो, तो इस खरीतेको देखते ही भेजो ।” 

..._ “इस प्रकारका खरोता ओर वह बढ़िया पोशाक देखकर 

बर्ड सरकारको अत्यन्त हे हुआ; ओर उनके सुखसे अचानक 
ये आनन्द-प्रद्शंक वचत निकल पड़े, इतने दिन जो नोकरी 
की. उसका आज फछ मिला [! इसके बाद तुरन्त ही उन्होंने 
नाना साहबको बुलवाया। पहले बहुत देश्तक तो नाना 
साहब आये हो नहीं। जब दो-चार बार बुलावा गया, तब 
कहीं एक बार नाना साहबकी सवारी आई। बड़ सरकारने 
वह पोशाक उनको दिखाई, चह खरीता पढ़नेके लिए दियां। 
परन्तु उस पोशाककी ओर नजर जाते ही नानासाहबके मस्तकमें 
बल पड़ गये [7 





. उषधाकाल क्‍ कर ») 
>च्चचल छठ बा ८ आ 2 छा 








“ओर खरीता देखकर ?” पर्दे छत्नीने बीचमें ही पूछा । 

“हां, खरीता देखकर तो उनका सारा शरीर सनन्‍्तप्त हो 
डउंठा। होंठ थर थर कांपने लगे, ओर स्पष्ट दिखाई दिया कि, 
उनको अत्यन्त क्रोध आ गया। 

इतनेमें बड़े सरकार उनसे बोले, यह पोशाक देखी ? यह 
खरीता पढ़ लिया ? अब करू तुमको बीजापुर जाना चाहिए 
बादशाहकी आज्ञा शिरोधायं करनी चाहिए। आज कितनी ही 
पीढ़ियोंसे उनका अन्न खा रहे हैं।! बस, इतने ही शब्द बड़े 
सरकारके मुखसे निकले थे कि, नाना साहबकी ऐसी कुछ दशा 
हो गई, जो बतलाई नहीं जा सकती। क्या कहूँ--इतना 
भारी क्रोध तो मैंने जन्मभर किसीको देखा ही नहीं |” 


6 सनम अन्‍ननननन कल ननननत न 5 


चोथा परिच्छेद । 
की कर 
बड़े सरकार । 
सुभानकी बात सुनकर पटेल साहबने अपने होंठोंके अन्द्र 
हो अन्द्र इस प्रकारके कुछ शब्द कहकर थोड़ीसी टीका- 
टिप्पणी की, “लंच ही है, इन नचीन लड़कोंको मुगलोंका 
ओर बादशाहीका नाम झुनते ही एक प्रकारका क्रोध आा जाता 
है; ओर उनकी आखे' लाल हो जाती हैं।” परन्तु पशेलजीकी 
यह टीका-टिप्पणी सुभानके ध्यानमें कुछ भी नहीं आई | मानों 
जिस पुरुषके क्रोधका वह वर्णन कर रहा था, .डस पुरुषकी 





' बड़ें सरकार हे 
ऋद्ध मूत्ति उसकी आंखोंके सामने दिखाई दे रही थी; और 
उसकी ओर वंह एकटक देखसा रहा था। उस मूत्तिको देख- 
कर उसको मानो एंक प्रकारंका जोशला आगया ओर बह 
आगे बोला:-- द आओ 
चरैलजी, में आपसे यह निश्चित बात कहता हूं। देखिये, हमारे 
दाना साहबके समान ओर कोई पुरुष हो ही नहीं सकता | 
परन्तु बस, इसी एक बातकी उनको ऐसी कुछ चिढ़ है कि, 
कुछ पूछो मत। ओर सो सी. छुटपनसे ही। मेरा बाप छुट- 
पनमैं उनको खिलछाते समय, अथवा घूमने को ले जाते समय, 
सदैव चिढाया करंता, “नाना साहब, जब तुम बड़े होगे, दर- 
बारमें जाकर बड़ीसी नौकरी करोगे, बड़े व ओहदे पाओगे; 
और सब्दारोंकी बराबरीपर तुम्हें गद्दी मिलेगी!” जहां वे 
रेखा कहने लगते, तहां नाना साहबका बिढ़ना शुरू हो जाता। 
वे इतने ऋद्ध होते कि, कमी कमी हमारे बापको काट भी लेते 
शे। बस, तभीसे उनका यह हाल है--जहां मुगलोंका अथवा 
बादशाही द्रबारका नाम लिया गया कि, वे एकदम भड़के ! 
और जोसे जेसे वे चिढ़ते, वैसे ही वेसे हम सब उनको और 
भी अध्छ्कि बिढ़ाते थे । कोई कहता, बादशाह नावा साहबको 
अपना दामाद्‌ बनावेगा। कोई कहता कि, ये अफजलखांके 
दामांद होंगे। इस प्रकार कोई कुछ ओर कोई कुछ कहकर 
उनको चिढ़ाता, फिर वे क्र्‌द्ध होकर बड़ सरकार ओर माई- 
जीके यहां जाकर हम छोगोंकी शिकायत करते | बालकपनकी 








- कक्ष 


6 उपषाछालू 
3. लत 303. 
5७४50 


कु] 





उनकी यह लीला देखकर सबको बड़ा कोतुक होता था। थे 
सब बातें अब भी मेरी आंखोंके सामने हैं। परन्तु उस समय 
यह किसीको मालूप नहीं था कि, आगे भी इनका ऐसा ही हाल 
बना रहेगा। उस समय तो बालककी लीला देखकर सबको 
कोतूहल होता था। उसमें कोई विशेषता नहीं जान पड़ती 
थी, पर अब तो कुछ पूछिये ही नहीं'*” 

क्‍ । “खुमान, यह तू क्‍या कह रहा है? यह तो सब मुभ्फे 
मालूम है! मैं क्या कोई कलका आदसी हूं ? तू तो ऐसे बतला 
रहा है कि, जैसे में कोई नवीन ही यहां आया हूं! अरे, ये सब 
बातें तो नागा साहबकी सुस्हे मालूम ही हैं--तू तो यही बतला 
कि, उस दिन रातको फिर क्या हुआ १” 

. हां, हां, पटेल साहब.! सब बतलाता हूं। परन्तु बीचमें 
यह याद्‌ आ गया, सो बतला द्या। मैं कब कहता हूं कि 
आपको मालूम नहीं ? अच्छा, मैं भूल गया, कहांतक बतलाया 
कि कल मो के 5 की जप 

बड़े सरकारको बातें ख़ुनकर नाना साहब बहुत क्र्द्ध 
 हुए......” श्यामा, जो आगे आगे चल रहा था, बीच हीमें पीछे 
घूमकर एकद्म बोल उठा|... ः बे 
... डस लड़केके ये शब्द्‌ सुनकर दोनों ही कुछ चकित हुए | 
इससे जान पड़ा कि, वह भी बड़े ध्यानसे उन दोनोंकी बातें 
. , 3 “हा था। आवजी परेलने बड़ी बड़ी आंखें निकालकर- 
2 डसकी ओर देखते हुए कहा, “क्योंरे छोकरे, हमारी बातोंमें तू. 





& 2, बज 
ह बड़े सरकार » 





पे छरे 


शाब्या ह 
किम न्य  आा 0 





बे 


क्यों बीचमें पड़ता है ? शैतान कहींका | ठहर, बदमाश ! अभी 
नेरे काव खींचता हैं। चल आगे, ख़बरदार, जो हमारी बाते 
सुनी !” 

श्याप्ता ऐसी घमकीसे डसनेवाला नहीं था | वह बिलकुछ 
न घबड़ाकर कुछ दूर तो आगे दौड़ता हुआसा गया; परन्तु 
फिरसे धीमे घीमे चलकर पीछे रहनेका हो प्रयल करने रूगा | . 

इधर परटेलजी “फिर क्या हुआ £7 कहकर सुमानसे आगेका 
हाल पूछने ऊगे । अब सुभानको यह घमड छुआ कि, वाह : 
देखो, पटेलजीसे भी अधिक किडेके ऊपरका हाल मुझको 
म्राऊम है। इसके सिवाय, जो बत्तात्त वह बदला रहा था, उद 
उसके मनका था, अतएव वह फिर बड़े प्र मसे बतलाने ऊूगा-- 
“यरेछजी, नाना साहब अत्यन्त कुद्ध हुए, उनके होंठ थर थर 
कांपने लगे; ओर सु हसे एक शब्द भी न निकला--वे इतने 
सब्दत्त हुए कि, बोल तो निकला नहीं; परच्तु क्रोघसे भरी हुई 
आंखे' नीची करके सिफ जमीनकी ओर देखते हुए. खड़े रहे। 
हां. अथवा “नहीं, कुछ भी नहीं कह सके |” 

नकिर ?” परेलजीने वड़ी आतुरतासे पूछा । 

“किए क्या ? बड़े सरकारने उनकी ओर देखकर बड़ी उद्दु- 
विग्वयतासे कहा, कहो, फिर दो-चार दिनमें जाओगे या नहीं ? 
मुहचत्ते वगैरह देखे! ?! वृहस्पतिवारकों बहुत अच्छा मुहत है। 
देखो, आजतक मैंने तुमको बहुत समकाया; परन्तु तुमने कुछ 
भी ध्यान नहीं द्या | लड़का समभकर मैंने भी तुमसे कुछ 











३ उपाकाक | 


न ) 
हे हि 
व 
पक, 





ख्च्छ्छकरप्ल्डाः * 570 आ  क < के 


बहुत कहा-झुना नहीं | पर अब ऐसा नहीं होना चाहिए | अब 
तुम बड़े हुए | अपनी भलाई-बुराई अब तुम अच्छी तरह सम- 
भने लगे हो | अब इस राज-काजकी तरफ ध्यान देना चाहिए । 
क्‍ दरबारमें जाना-आना चाहिण। बादशाहका अन्न आज़ न जाने 
कितनी पीढ़ियोंसे हम खा रहे हैं, उनके साथ नमकहरामी न 
करना चाहिए।' इस प्रकार बड़ सरकारने नाना साहबको बहुत 
धम्तकायां-बुराया, पर नाना साहबने कुछ भी उत्तर नहीं दिया । 
वे जेसेके तेसे खड़े रहे। ऊपर आंख उठाकर उन्होंने देखा भी 
नहीं !” क्‍ 

“इसपर बड़े सरकारने फिर क्रोघ्रित होकर कहा--क्यों ! 
बिलकुल घुप क्‍यों हो ? बोलते क्‍यों नहीं ?” 

“क्या बोल ? में अनेक बार आपसे बतला चुका हूं। कहिये, 
वही फिर कह दूं। में मुसलमानोंके द्रबारमें जाकर कमी रह 
नहीं सकता। उनको सलाम नहीं कर सकता । उनको छुनेसे'**” 

“आगेके शब्द्‌ नाना साहबके मुखमें ही रहे | बर्डे सरकार 
क्रोधसे कांपनेसे लगे, ओर एकदम बोले, “असागा कहीं का ! 
तू हमारा कुछ झुबोने आया है--तू अपने चंशका नाश करेगा | 
उसका नाम डुबोयेगा। जिसका नमक आजतक स्मया हैं, 
उसको अदा नहीं करेगा । नमकहराम बमैग! | यह सममझकर, 
कि, तू अभी छोटा है, नासमझ है, मेंने असीतक गम खाया | 
. पर अब तू मेरी आंखोंके सामनेसे चछा जा। अरे छोकरे, तेरा- 
हि यह शरीर किस अन्नसे बना है? रोज तू किसका अन्न खाता 


' 


बड़े सरकार ५ ६ 
“ये जज ३8४०: नई 








है ? जा, चला जा, मेरी आंखोंके सामनेसे दल जा--अब मुम्हे 
मुह न द्खिकाना, खबरदार ! अब तेरा में नामतक न लू'गा। 
तू अकेला मेरे एक था; ओर इसलिये समभकता था कि, कुछ तो 
नाम रखेगा, कुछ न कुछ तो दरवबारकी सेवा बजावेगा--पर 
कुछ नहीं--मेरे नसीबगें ही नहीं है | इसके लिए तू क्या करेगा; 
ओर में क्या करू गा ? जा--आजसे न में तेरा; ओर न तू मैरा-- 
जन्पसरकी खटखट मिटी ! जा, आजसे तेरे लिए दूरसे ही जो 


कुछ कलंक मुकपर ऊूगना होगा, सो लगेगा ! मेरे पास रहनेकी 
अब तुरू कोई आवश्यकता नहीं । 


आगे वे ओर भी कुछ कहनेवाले थे, पर इतने हीसे 
कोधके आवेगमें उन्हें सूच्छासी आ गई, ओर वे घड़ामसे पृथ्वी- 
पर गिर पर्ड '*” 

“यह आगेका सारा हाल तो सुरू मालूम है ।” आवज्ी 
पटेल बीच हीमें बल उठे। 

“उनको जब मूर्च्छा आ गई, तब उनको होशमें लामेके लिए 
नाना साहब दो़्े , ओर कुछ उपचार किये; पर ज्यों ही उनकी 
आंख खुलीं, तयों ही नाना साहब उनको द्ृष्टिकी ओट हो गये 
ओर रात ही रातमें न जाने कहां चले गये ।” 

“सो सब झुरके मालूम हं---यह बीचका हाल नहीं मालूम 
था, सो मैंने तुमसे पूछा--अरे, किलेपर जो कुछ होता है, 
उसका तिल तिल सब चृत्तान्त मुझे मालूम होता रहता है। पर 


डस दिन--हां, उस दिविका समाचार कोई बतलाने ही नहीं... 
देख !? 











ः उधाकाल है 


; कल शिकन्कर (रण 
+.. ७घ्यरल)७)) ! 2८.00 2.00 ७७0 





“अजी, उस दिलका समाचार किसीको मालूम ही नहीं 
हुआ-सिफ मैं ही उल समय अकेला था--ओर यदि कोई 
होता भी, तो बाहर कैसे बतछाता ? ओर मैंने भी अभीतक 
किसीसे नहीं कहा । देखो पटेलजी ! बात रह थोड़े ही सकती 
है। वह तो किसी न किसी रुपसे फोलेगी ही॥ नाना साहब 
जबसे चले गये, बड़ सरकार तबसे बिलकुल बेचेन हैं, उनको 
चैन नहीं आता | उनको वे बहुत चाहते थे, पर वे क्रोधमें 
आकर चले गये। अजी, उनके रक्त हीमें यह गुण है, वे मान 
कैसे सकते थे ? किन्तु परटेलजी, अब नाना साहब गये कहां ? 
बड़े जोशमें गये हैं। अच्छा, यदि कह कुछ साथ ले गये 
सो भी नहीं। सारे कपर्ड -छते ओर सब सामान, जहांका 
तहां, रखा हे। हाँ, उनकी प्यारी तलवार कहीं दिखाई नहों 
देती। ओर बाकी सब हथियार-व्धियार जहांके तहां रखे हैं । 
अजी, ओर कहांतक कहे ? वह सखिंहमुखी कड़ा भी उन्होंने 
अपने कमरेंमे पलंगके पास तिपाईपर निकालकर रख दिया! 
क्या कहूं ? विचित्र साहसी पुरुष ! ओर किस ओरसे गये 
कछ पता नहीं [7 
.._ “विचित्रता तो यही ! गये कहां ओर किख ओरसे ! कुछ 
भी पता नहीं ।” आचजी पर्ट छू चिन्तातुर चेश्टा करके कहते हैं--- 
#झरे, चाहे जितनी रातको गये हों, गये तो गांवकी ही ओरसे 
होंगे--यह निश्चित है-पर ऐसे गये कि, किसीको कुछे नहीं. 


...._ मालूम हुआ--अरे, इतने नौकर! पर किसी नौकरको भी 








क्‍ छ्ज्‌ ओ) 


0० रीम भविशाल कद 





खबर नहीं हुई | बड़े आश्चयेकी बांत हैं! पर हां, मुझे अवश्य 
शडग होती है कि, कहां गये। किन्तु निश्चित कुछ भी नहीं 
कहा जा सकता £” 

«हां, हां, वह अपनी शंका तो जरूर बतला द्रीजिए--मेंने 
इतना आपको बतलाया पटेलजी ! आप भी तो कुछ झुझे बतला 


सा 


दे |” द द 
सुभान और भी कुछ कहना चाहता था, पर वह आगे कह 


' नहीं सका: क्योंकि इतने हीमें उन दोनोंने सुना कि, दस-बीख 
मनुष्य यह कहकर, “आइये आइये, पटेल साहब आइये,” 


उनका खागत करने लगे । 
“वाह ! पटेल साहब, आपने तो आज खब ही जब्दी की | 


प्रतीक्षा भी कहांतक की जावे ?” 
यह कहकर सर्फोजी हवलूदारने आवजीको उलहनासा 
दिया, एक दूसरे मजुष्यने ओर ही कुछ कहा, तीसरेने तीसरे 
ही प्रकारसे छेडुछाड़ की । आवजीको उत्तर देनेका ही अब- 
काश न मिला । इतनेमें खुभान कहता है, “अजी साहब, में 
जिस समय पहुंचा, पटेल साहब आननन्‍्दसे सो रहे थे ।” 
“कया करू ? कल रातको बहुत जागना पड़ा, इंसलिए 
जरा. .१ 
क्यों, क्‍यों, जागना क्यों पडा, जाकः पडता है, कहीं 
तमाशा-वमाशा था। हँ-हँ-हँ, पटेलजी उस सजनके छोकरेपर 
' ऐसे कुछ रूद्टू हो रहे हैं ! हँ-हँ-हँ ! पदेल साहब, आपने हमें 
तो खबरतक नहीं दी! सब आनन्द आप हीने,..” 





के कक 


ब्च्छ्क़्ल् 
-यह खुनकर सब लोग खिलखिलाऋर इँलने छगे , और 
 आवजी पटेल बड़े शरमिन्दा हुए; परन्तु इतनेमें कुछ खोककर 
बोल उठेः-- 
अरे सफोरजी, तुम यह कहते कया हो? कल हो तो में 
नाना साहबका पता लगाकर वापस आया हूं--तमाशे-बमाएे 
. कहकेि ? देखो, किलेपरके सब आदमी उदास हो रहे है, और 
तुमको वमाशेकी पड़ी है | ऐसी बातें मत करो |” 
पहले सर्फोजीकी हँसीकी बात सुनकर सब लोग उ सने 
: छगे थे, पर आवजी पदेलके ये क्रोधयुक्त चचच झखुबकर सबकी 
हँसी जाती रही; ओर सर्फोजी हवलदार उदासोमसा दिखाई 
देने छगा। यह अवघर देखकर आवजी पशेल आगे बढ़े | 
श्यामा भी साथ ही साथ चल रहा था; परन्तु कान उसके पीछे 
दी थे; ओर आंखे' चारों ओर रूगी हुई थीं। स्फोजीको दाव- 
कर आवजी पटेल आगे चलने लंगे। इसपर सर्फोजीने पशेलके 
पीछेकी ओर न जाने किस दृष्टिसे देखा; ओर मूछे मरोड़कर 
होंठोंके अन्दर ही अन्द्र न जाने क्या कहा। ये सब बातें वह 
चतुर लड़का श्यामा देखता रहा। डखमे एक क्षणमात्रके लिए 
पीछे देखा; ओर इतने होमें सर्फोज्ञीकी सारी चेष्ठाको अपने 
मनसें रख लिया । 
यह सब होनेके बाद आवजी पटेल किफ्ठेपर किलेदारके 
. मकानके पास पहुंचे। वर्तमान समयमें महाराष्ट्रके पहाड़ी 
किलोंपर जिस भांति जा सकते हैं, उस भांति उस समय नहीं 











हल 
जा सकते थे । जगह जगह चोकी-पहरा इत्यादिरा: बन्दोबस्त 
रहता था। न सिफ इतना ही; किन्तु और भी अनेक बात रहती 
थीं। उन सबका वर्णन आज इसी परिच्छेदर्में करनेकी आब - 
श्यकता नहीं है । सुलतानगढ़के ऊपर हमारे पाठकोंको अभी 
ओर भी अनेक बार अनेक भिन्न भिन्न व्यक्तियोंके साथ आना 
पड़ेगा। आवजी पटेल जिस मार्मसे आये, उस मार्गेसे उनके 
समान सरकारी कामके लिए आनेवाले व्यक्तिको कोई कठिनाई 
नहीं थी। किलेके अन्दर प्रवेश करना अथवा भीतरसे बाहर 
जाना, जिन छोगोंके लिए प्रकट रुपसे नहीं हो खकता था, 
उनकी कठिनाइयों, उनके मार्गोसे आवजी पटेलकों इस समय 
कोई तात्पय न था। वे पांचों द्रवाजोंसे योकीदारोंके द्वारा 
सलाम लेते हुए ऊपर आ गये । 

... किलेदारके मकानके पास पहुंचते ही पहरेदारोंके द्वारा 
आंवजीके आनेका सम्राचार भेजा गया । आवजी उस दिन 
खास सोश्यर बुलवाये गये थे, अतणब तुरन्त ही उन्हें भीतर 
जाना पड़ा। पहरेपर जो जमादार था, उसने हुक को आवजीके 
सामने किया, पर बेयारे सिफे एक ही दो बार उसको गुड़गुड़ा 
सके; ओर ज़हुत जरुदी सुख इत्यादि पोंछकर आगे बढ़े । पहरे- 
के चोकसे आवजी जब अन्द्र पहुंचे, तव बाई' ओरके दालानसे 
आगेकी बैठकमें वह जाने छगे। मागमें उन्हें बन्दूक, वलबार; 
भाला, ढाल, जिरहबख्तर, मिलम-टोप, इत्यादिके अतिरिक्त 
ओर कुछ भी द्खिछाई नहीं दिया। आवजी बैठकके पास 











क्षि 

जुडा काल है (६ कि ' 

/ उचधाकाल हर ते ५2०८ // 
७54६७, ७०३-० ७ फे बा आच 


पहुंचे; और द्रवाजैले ही खूब छवकर तीन बार मुजरा किया। 
इसके बाद हाथ जोड़े हुए भीतर प्रवेश किया । 

इस खानमें सर्वत्र खूब मुलायम विछोना बिछा छुआ था. 
ओर एक ओर दीवालसे मिली हुई, सफ़ेद शिलाफकी सुन्दर 
मसनद्‌ छगी हुई थी, उसके दोनों ओर दो बढ़िया तकिये: ञ। 
आगे खब ऊँची सुन्दर गद्दी लगी हुई थी, जिसपर सफेद मुला 
यम चादर विछी थी। उसपर दो-तीन छोटी छोटी गद्दियां 
पड़ी हुई थीं; ओर गद्दीके बीचोंबीच एक बृद्ध- जिसके 
सब बाल पककर बिलकुल सफेद हो गये थे, जिसका चेहरा 
. खब भंध्य था; ओर जिसपर वुद्धावस्थाकी अपेक्षा चिल्ताको 
ही भकऊक विशेष दिखाई दे रही थी-हइस समय *का हु 
शर्देन नीचेको किये हुए, बिन्तायुक्त बैठा था। फिर भी इतन 
, श्पष्ट दिखाई दे रहा था कि, यह पुरुष वास्तवमें पहलेका कोई 
बड़ा तेजखी ओर भव्य महाशय है। उसके शरीरकी गठनसे - 
ही यह बात प्रकट हो रही थी । आवजी पटेलने भीतर आकर 
तीन बार ऋूककर प्रणाम्त किया, तथापि उस पुरुषका मात्रो 
उसकी ओर कुछ भी ध्यान नहीं गया । वह जैसाका तेसा 
बैंठा रहा | आवजी परे ल भी वेसे ही खड़े रहे; अ्व दीवाल- : 
के चित्रोंकी ओर देखने छगे। इतनेमें उस प्रभावशाली वृद्ध 


पदेल, अभ्ीतक तुमको कुछ पता नहीं छगा ? तुम सब गांकले 
छोग ऐसे ही गाफिल पड़े रहते हो ? इसी प्रकार यदि बस्तीका 





हा, बीजापुरका लिफाफा 2, 
एू्हआऔ- ८-० 


चाहे जो आदमी, चाहे जिस समय आवे-जावेगा ओर तुमको 


.. कुछ पता भी न रूंगेगा, तो आगे कैसे काम चलेगा ? बतलाओ, 
. आवजी पर रू ?” 
आवजी एक शब्द भी नहीं बोल सके | क्या बोलते ? 





कक जान । आए. ७32७ १०3५० अननननननाननिना-न+के अकमना-म»मककसमनझभा 


पांचवां परिच्छेद । 
>ज+5.ह छ का 


बॉजाप्रका लिफाफा | 


.. आवजी पटेल बेचारे नोची गदन किये हुए खर्ड थे। इतनेमें 
. बह बृद्ध महाशय फिर बोल उठे :-- 
... “आवजी, किलेके ऊपरकी गुप्तसे गुप्त खबरें भी चाहे जो 
. आकर ले जावे, तो भी तुमको शायद न मालूम हो ? यदि तुम- 
. को अपना नप्रक इसी प्रकार अदा करना है, तो यहांसे मुह 
. काला कर जाओ। में आज इतने दिनसे प्रतीक्षा कर रहा हूं 
. कि, ये आज नहीं तो कल इस विषयका कोई न कोई समाचार. 
. जरूर लावेंगे, पर कुछ भी पता नहीं ! घुकको तो इसकी भी 
. शंका है कि तुमने आदमी भी भेजे हैं या नहीं | बताओ तो कहां 
५ कहां आदमी भेजे ?” | 
..._ यह कहते हुए उन वृद्ध महाशयकी चेष्ठा इतनी कठोर जान 
. पड़ी कि, आवजी पटे छ बिलकुल घबड़ा गये । उस समयके 
" [द्धू मनुष्य भायः जमदभझिके ही अवतार होते थे। अवश्य 








उषाकाछ .४ ५ ५० ८2 
ई 0० 42आर्ष 
2 ह कम 


ही वे एक प्रकोरसे अत्यम्त दृढ़ ओर बड़े उच्च होते थे, इस- 
कारण अधोनस्थ लोश्वोंपर उनका बड़ा आतंक रहता था | और 
इसमें सन्देह नहीं कि, राष्ट्रमें जब ऐसे मनुष्य होते हैं, तभो 
कुछ राजकाज ओर राष्ट्र-का्य होते हैं। किलेदार रंगराव अप्पा 
भी ऐसे ही दृढ़ पुरुषोंमेंसे थे; ओर इस कारण आसपासके सब 
गांववालों और अधिकापियोंपर उनका बड़ा प्रभाव रहता था | 
प्रत्थेक मनुष्य जब कोई कार्य करने लगता, तब उसके मनमें 
यही माव आ जाता कि, “हमप्त यह कश्ते तो हैं, पर बड़े सर- 
कार क्या कहेंगे! हम यदि ऐसा करेगे, तो वे हमको खा 
हीं जायगे, खड़े खड़े विश्वा डालेंगे ।” बेचारे आवजी पर्वल 
भी उनके अधीन ही थे। ऐेली दशामें यदि वह उनके उपय क्त 
कथनसे थर थर कांपने लगे; और एक शब्द भी पूरा पूरा बोल 
न सके, तो इसमें आश्चये ही क्षमा है ? नाना साहबकी तलाशमें 
उन्होंने अभीवक बहुतेरे मनुष्प भेजे थे। खुलूतामगढ़के चारों 
तरफ, बड़ी दूर दूरतक अपने आदमो भेजे थे। प्रत्येक गांवमें 
मलीभमांति खोज लगानेके लिए उनको सख्त ताकीद भी कर 
दी थी । सुलतानगढ़के किश्तों तरझ्ू भी आदमी भेजनेमैं उन्होंने 
कसर नहीं को थी। इसके खिधाय वे खुद भी बड़ी बारोकीके 
साथ खोज छगानेको धूपे थे। इतना सब करनेपर सी रुपष्ट 
रूपले कहनेको उनकी हिम्मत उस समय नहीं होती थी। एक 
तो जिहा भीतर ही भीतर छड़खड़ाती थी; और यदि कोई एरवद्‌ 
निकलता भी, तो विलकुछ अधूरा रह जाता था ! 








है 


((” ५ 5) 4 बीजापुरका लिफाफ 


349०-०8" ६-० व 5:23 0::: 

आवजी पर्दे लका गांवके छोगोंपर अच्छा प्रभाव था; और 
जब कमी वह अपने उमञ्च चेहरे ओर भव्य शरीरसे गांवके गरीब 
छोगोंपर अपनी धाक जपमाते; ओर डांट-डपटकी बातें करूस्ते 
तब उनका दूसरा ही रंग होता था। परच्तु इस समय यदि कोई 
उन्हे देखता, वो अवश्य ही उसको शंका होती कि, “गांववारों- 
पर धाक जमाकर उनसे डांट-डपटकी बातें करमेैवाले क्‍या 
आवजी पटेल यही हैं १” उनके जेदरेका प्रभाव इस समय ऐसा 
ही उत्तर गयाथा ! अस्तु। पर्टेख खाहब बड़े अभिप्रानसे 
श्याप्रा नामक छड़केझो भी अपने साथ ले आये थे सो पाठकों- 
का मालूम ही 8ै। अब इस समय उनको यह शंका आई कि 
कहीं श्याग्रा पीछेसे हमारी यह फजोहत तो बहीं देख रहा है, 
आर इसीलिए घोरेसे पोछ घूपकर उन्होंने देखा, तो श्यामा 
चुयकेसे फांककर देख रहा था। उसकी चेच्टा भी इस समय 
बड़ी विश्वित्र हो रही थी, क्योंकि वह अयनो हँखी अन्दर ही 
अन्दर द्वानेका प्रयल्ल करता था; परन्तु उसमें उसको सफलता 
मिलती हुई महीं दिखाई है रही थी ! श्यामाहै ज्यों ही देखा कि, 
आबजीने उसकी तरक घञर डाली, त्यों ही उसमे अपवा सिर 
पीछे खिद्धका लिया । यह सब देखकर सो आवज्ञीकी 


९५ 


भी विचित्र दशा हुई | आवजी कुछ कहने न पाये थे कि, इतनेमें 
बड़े सरकारने फिर अत्यन्त क्रोघित होकर और तिरर र्की 
चेष्टासे कहा, “आवजी, झब में सम्हारी एक भी ने सुन गा । 
आजसे जार व्निके अन्द्र--देखो, तुमको चार द्विकी मुद्दत 











हा उषाकाल 





५2 
कक वट, 4२३०६९- 








देता हू--चार द्निके अन्द्र हो नाना साहवबका पता रकूगाकर 
 बतछाओ कि, वह किस ओर गया है। यदि इतना काम सी 
तुमसे व हुआ, तो फिर खमझ लेना--मेरा खवभाव तुम 
जानते हो | ऐसे नमकहराम हैं ये लोग !” 

इतने शब्द उन चुद्ध महाशयने आवजीकोी सम्बोधन करके 
कहे; और फिर आवज्ञीकी तरफ बिलुकुछ ही न देखते हुए पीछे 
रखी हुई मसनदसे टिक गये । 

र'गराव अप्या साहब किस तरहके पुरुष थे; और उनकी 
इस सम्तय क्‍या दशा थी, सो पाठकोंको ऊपरके वर्णनसे मालूम 
ही हो गया होगा। प्रत्येक संयमी मजुष्यके हृद्यका कोई न कोई 
अत्यन्त निबेल अंश होता ही है। हमारे पाठकोंमैंसे बहुतोंका 
अनुभव होगा कि, अन्य सब बातोंमें दृढ़, किंबहुना दुराग्रही 
ओर हटठी पुरुषोंमे भी कोई न कोई मानसिक ममंस्थानव होता ही 
है। रंगराव अप्पा साहब भी अत्यन्त कठोर, हृढ़, शूरवीर 
ओर संकीर्ण स्वभावके व्यक्ति थे। वे जिख कार्यके करनेका 
एक बार निशयय कर छेते, उसको किये बिना नहीं मानते 
थे-फिर चाहे प्रत्यक्ष ब्रह्मा ही क्‍यों न आ जायें। परख्ठु 
उनके हृदयमें भो एक बड़ी भारी निबेलता थी--अर्थांत्‌ 
उनको अपने पुत्रपर परम बहुत अधिक था; ओर उसकी शूरता- 
का अंभिमान भी। छुटपनसे ही वे उस लड़केकों प्राणोंसे 
भी अधिक चाहते थे। युद्धशाख्र ओर अन्य विद्याओंमें उन्होंने 
उसे सुशिक्षित बनानेमें भी कोई बात उठा नहीं रखी थी। उस 








(्‌ ्छ) 4 बोजापुरका लिफाफ़ा £ 
>न्यकतनकनरक पान पैटक व 3 ०22 


रूड़केका दलार भी उन्होंने इतना किया था कि, जितना ओर 
किसी बापने मे किया होगा । पीछे एक-दो वार इस बातका 
उप्लेख हो हो खुक्का है कवि, रंगराव अप्पा साहबकी यह बड़ी 
इच्छा थी कि, उस छडकेडे हाथसे उनके कुकी खब नाप्तवरी 
हो, उसको मनंसवदारीका ओहदा अथवा हुआुर-द्रबारकी 
सरगीरीतक मिझछ जावे; ओर यह सब उनकी जिन्‍्दगीमें 

ही उनकी इब्छाके अनुसार हो। अपनी इस इच्छाकों पूर्ण 
कर्मेके लिय्रे उन्होंने सब प्रकारके प्रयल्ल किये, आपने 
लड़केको भी सब तरहसे समकाया-व॒ुफाया; ओर जो कुछ 
उपदेश थे कर सकते थे, सब किया; पर कोई काम न. हुआ ! 
मुसठ्मानोंका नाप छेते ही उसे रूड़केका चेहरा तिश्स्कार, 
प ओर क्रोधसे झछुले हो जाता था। घझुसव्मानोंके विषय 
में बातचीत करते समय वह 'स्लेच्छ' शब्दका ही सदेव व्यव - 
हार करता | फिए भी अप्पा साहबका यह खयाल था कि; दम 
किसी न किसी प्रकार उसको समभा लेंगे; ओर इसीलिये 
जन्हांने साम-दाम, दरड- भेद इत्यादि सब उपाय किये। इसमनेमें 
दींने यह भी सोचा कि, बादशाहके यहांसे बुठावा आनेपर ही 
शायद यह जानेकोी तेयार हो जाय | इसलिये थे वसा हो प्रयत्न 
करना जाहते थे, पर पीछेसे बसे प्रयल करनेकी भी आवश्यकता 
नहीं रही; क्योंकि उनकी इच्छाके अजुसार, जैसाकि पिछले 
परिच्छेदमें बतलाया है, खय॑ बादशाहकी ओरसे ही एक खरीता 
ओर पोशाक आ गई। उसके आते ही अप्पा साहबकों बड़ा 





हे, उषाकाल कै 


आनन्द हुआ, पर उस आनन्दक्का अन्त किस धंकार हुआ, सा 
पिछले परिच्छेदमें सझुभाव ओए आवजीके सम्भाषणले गाल ही 
हो खुका है | अप्या साहबने अब यह देखा क्रि,लड़का हृत्रारो एक 
भी नहीं सुजता; ओर बड़ी उद्ण्डवासी उत्तर देता है--यदी 
नहीं, किन्तु उसने हमारी आजतककी सारे आशाओ/#, सम्पूण 
इच्छाओं ओर पहत्वाकाँक्षापर पानी फेर दिया; ओर कुछको ..' 
कऊक लगाने तथा खयं अपनेको भी वरवाद छर छेनेः रै 
उपस्थित कर दिया, तब उनको अत्यन्त खेद छुआ; ओर उच्च 
खेदका क्या परिणाम हुआ, सो पाठउकोंकफों पिछले परिच्छेदसे 
मालूम ही हो चुका है। अप्या साहबने अत्यन्त खिन्न होकर अपने 
लडफेफे सामने ऐसे कट बचन कहे कि, जो उसके हवपमें 
वाणकी तरह चुम गये; और बह किछेफी छोड़कर याहर चला 
गया। बड़े सश्कारको ज्यों ही यह मालूम हुआ के, हमारा 
लड़का बाहर भाग गया, त्थों ही उत्तकी कुछ विखित्रसी दशा 


शा 


हो गई । उन्होंने जप देखा कि, शो छड़का हमारा प्राणोंसे भी 
प्यारा था,वह हमारी इच्छाओं,आशाओं, किंवहुना हमारे शरीर- 
की भी परवा न करते हुए यहांसे खा गया, हमसे एशआ शब्द 


भी न बोला, ओर न दो-यार शब्द लिखकर ही छोड गया, ले 





4 


उन्हें धत्यन्त शोक हआ। बस, उनके अत्यन्त कठोर हृदवका 
खदुसथान यहो था कि, उनको अपने रुड़केपर अत्यन्त प्रेम-ग्रेम ः 
क्या मोह था। लड़का जवतक उनके सामने था, तबतक ती 
उन्होंने उससे अनेक प्रकारकी बातें कीं, परन्तु उनकी बातोंसे 





है 4 बज पर लिफाफा 


क्+कंटाएए पक बाइक ब्ल्स्-डडि कलर 





नाराज होकर जब वह चला गया; तब उनका धंय छूद गया | 
वे बिलकुल अधीर हो उठे । परन्तु अपने मनकी यह दशा उन्दों- 
ने किसीयर प्रकट नहीं होने दी; बढ्कि यह कहनेमें भी कोई 
प्रत्यवाय नहीं कि, उनके मनको यह सच्ची दशा खुभानके अति- 
रिक्त भर किसीको भी मालूम नहीं थी | खुभानके अतिरिक्त और 
किसीके सामने भी उन्होंने ऐसे वचन अपने सुखसे क भी नहीं 
निकाछे कि, जिससे उनके हृदयका दुःख प्रकट हॉकि: उनके 
जैंगलित होनेका परिवय मिलता। हा, श्सक विरुद्ध, सबके 
सामने उनके मुखसे इस प्रकारके कठोर शब्द ही निकला करतें 
थे कि, इस दुष्टकों पकडुकर भरपतार कर लेना चाहिए, उसका 
पक कोठरीमें बन्द कर देना चाहिए, अथवा जबरदस्ती दरवारमे 
पेज देना खाहिए। उनके सुखले ऐसे कठोर वन खुनकः 
सबको विश्वास भी यही होता था कि, यह बुड्ढा ऐसा ही कुछ 
न कुछ किये बिना नहों रहेगा । 

जो कछ मो हो, बड़े सरकारकी इस दशासे कोई लाभ नह्ढीं 
हुआ | थाना साहबका कुछ भो पता नहीं लगा। यही नहीं, 
बह्कि विश्वालयूवेक कोई यह भा नहीं बतछाता था कि, वे 
अम॒क ओर, अपुक समय, इस इस शकारसे गये । वह बुड़ढा 

र हो अन्दर तड़फड़ादा श्हा । इली वीछमें दो-तीन भयंकर 
और विचित्र शंकाएं सो उसके मनमें आई', जिनके कारण उसके 
जीकी व्याकुछता और मी बढ़ी । 

पक शंका तो यही आती थी कि, यह तूफानी लड़का जिस 








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५ ५६ 


७ ७) 82९ * व्यकय७--+ नमी ०या[.व४००बहुवशुकण 


ओर गया होगा, उसी ओर किसी झुखद्मानसे कगड़ा न हो गया 
हो कि, जिसमें यह काट डाला गया हो। जिस सपम्रथकी 
आख्यायिका हम लिख रहे हैं, उस समय ऐसा होना कुछ 
असम्भव भी न था--यही नहीं, बल्कि वारंवार ठेसा हआ ही 
करता था। हिन्दुओंको चिढानेके लिए मुसदमान उस समय बीच 
रास्तेपर कभी कमी गोबध करने रूगते; ओर हिन्दू छोग इस- 
पर यदि कुछ कहते, अथवा कोई ब्राह्मण ही किसी मुसब्मानसे 
भणड़ा करने लगता, तो मुस्प्रान छोग तत्काल उस हिन्दुको 
घायल करते अथवा तलवारसे काट डालते थे। मुगलराज्यमें 
प्रायः यह भी देखा जाताकि, मुसद्मान लोग रास्ते चलते 
हिन्दू-खियोंसे छेड़-छाड़ करते; ओर खिल-खिलाकर हँसा 
करते थे। मतलब यह कि, उसं समय मुसव्मानोंका व्यवहार 
इतना असहाय हो गया था कि, श्रत्येकके मनमें उनके विषयमें 
हूं घ उत्पन्न हो गया था। इसका कारण सिफ मुसब्मानोंका 
दुरसिमान ही था। राज्यमद्म थे इतने मतवाले हो गये थे कि, 
किस समय किसका अपमान कर डालेंगे, इसका कुछ ठिकाना 
ही न था। उसमें भी फिर उस समय ओरडुजेबका शासन 
जारी था! फिर क्‍या पूछना है? मुखब्मानोंके वदिभमागका 
पता ही न था! ओरंगजैबके घार्मिक अत्याचार, मन्दिरोंके 
ढंहाने, मूत्तियोंके तोड़ने ओर ब्राह्मणोंके घर्-श्रष्ट करनेके नित्य 
नये नये समायार दक्षिणमें आया करते थे। स्य॑ वहां भी 
.. इसी प्रकारकी अनेक घटनाए' समय समयपर हो जाया 


ज्ल्डः 


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कस्ती थीं। अतएव नवीन पीढ़ीके नवसुवक छुलदत त्ी राज्यसे 
बहुत ही उद्दविश्न हो उठे थे । अमेक सरदारोंके मनमें भी यही 
थाने ऊूगा था कि, इस भयंकर दशासे यदि हमारा किखी 
प्रकार काटकारा हो जाय, वो अच्छी वात है। भोले भाविक 


हक] 
५. ०५५४ ०५० 


लोगोंमें यह भाव भी फैल रहा था कि, इस सदवंकर द्शासे 
हिन्दओों महाराष्ट्र-निवासियोंको-मुक्त करनेके लिए कोई न 
कोई अवतारी पुरुष अवश्य प्रकट होगा; और इस सावनापर 
पलक छोगोंकी पूरी पूरी श्रद्धा भी जघ गई थी। नवीन पीढ़ीके 
मुवकोंको तो अब सिफ एक नेताकी ही आवश्यकता रह ए5 
थो। संगराव अप्पा, जिनका वृत्तान्त पीछे आ चुका है, उनके 
खानदामके भी अनेक मंशठे सरदार, मनसबदार,किफेदार इत्यादि 
ओहदोंपर थे | बै सब भी यद्यवि वर्तमान भयंकर दशासे छूटने- 
की इच्छा रखते थे; परच्ठु फिर भी उनमें असी यह ऋछतज्ञता 
जागृत थी कि, हम झुसब्मानी दरबारके आश्रित हैं। ओर 
इसीलिये जब कोई सरदार केबल अपने हो बरूपर बगावत 
करनेको तैयार होता, तत्र वे समझते कि, इसके हाथसे भहा- 
राष्ट्रका उद्धार होना विलकुछ असस्मव है। ये किकेदार और 
मसनसबब्शर जब कभी यह खुनते कि, शहाजी भोसलेका कड़का 
शिवाजी पूना, खूपा इत्यादि प्राम्तोंमें ओर मावल-प्रदेशमें 
कुछ गड़बड़ मचा रहा है, तब वे भायः कहा करते कि, “अरे, 
इस पागछूसे क्या होगा? यों ही मारा जायगा ! ये जड्जूली 
छोकरे अवियारवश अपने ही सिरपर पत्थर पटक छेगे। 














उषाकाल है 


(०. ब्च्द्हू किकषाए ०५] । 
(00 ६032-22 ७३२२० १९४ केना++ बा कक. वद प्यास 





मुगलबादशाहीका इनसे बाल भी बांका न हो सकेगा । पत्थर- 
से सिर इकराकर अपना ही सिर फांड छेगे।” इत्यादि। 


श्र 


र 


अप्पा साहबके सप्रान जो लोग पूर्णतया राजभक्त थे,वे लो 
चाहते थे कि, ऐसे उपद्यी छोगोंको एकदम गिरफ्तार फर 
छिया जाय; और किलेकी झालकोठरीमें उनकी बन्द कर दिया 
जाय ! थे सद्देद इसी प्रकारके विद्वार प्रकट किया करते। ये 
मुसस्मानी बाइशाहतके कट्टर भक्त थे। अप्पा साहव छय॑ 
अपने लड़केके मुखसले ही अब बेली स्ंकर बातें सुनते, तब 
उनके शरीरपरके रंगे खड़े हो आते, ओर वे बड़े कद्ध होने थे 
परन्तु आज प्रत्यक्ष उनपर बह नौबत ही आ हई, अर्थात डयडे 

इकेने स्पष्ठ जवाब दे दिया कि, हम मुसत्मानोंकी नोकरी नह 
कश्गे। यही यहीं, बहिक वह इसीयर कर झू छहोकर घरसे हा 
निकल गया। ऐसी दशामे अप्पाजीके जीकों चैन कैसे पड़ 
सकता था १ उबका तो यह खयार था कि, बादशाह स्थ 
विष्णुका अवतार है; ओर उसे “कतुमकतु मन्यथा कतु” क॑ 
शक्ति प्रात & | आज इसनी पीढ़ियॉसे हम उसका नम्रक खा रहे 
हैं, इसलिये हमकी उसीकी नोकरीमें अपने दिन बिताने जाहिये, 
उसके लिए अपने प्राण देने चाहिये--इसीमें सच्चा प्ुरुषार्थ 
है। उसके घिरुद्ध कुछ कहना मानो वप्कहराप्री करना हे। 
इस पध्रकारकोी विचारशैलीके जो कुछ थोडे-बहुत जञागोरदार, हे 
किलेदार इत्यादि छोग उस सम्नय थे, उनमें संगराव अप्या' 
. साहब एक भमुख व्यक्ति थे। परन्तु उन्हींका लड़का उनके 


अवष्ट-- न कर 


्म रे है. | रा] 


दान 








2 ९६ है) 4 बीजापुरका लिफाफा कै 
०४ पप-ब्यी करी 





बिलकुल विरुद्ध पैदा डुआ--यह भी एक सप्रयक्की ओर दैवकी 
ही शहिमा खममझानी बाहिये। अप्पा साहबका वादशाहपर 
जितना दहुढ़ गरम था, लागा साहबका उतना ही छघ। अतरव 
अप्या खाहबकों अब अपनी विचित्र दशाके विषय सनन्‍्तोष 
क्योंकर हो सकता था? शहाजी मोसलेके उद्दए्ड छुद् (शिवाजी ) 
के कार्य जब कमी कामों-कान अप्पाजीकों झुवाई देले, तब ये 
सहैय उसकी हँली उडाते, उलको बुरा-मला कहते; ओर कभी 
कमी गालियांतक देते थे । बामा साहब अपने पिठाके सुखसे 
ज्यों ज्यों शिबाजीके विषयक उपयुक्त बातें खुनते, स्यों लयां 
उनका हवय और भी अधिक हड होता; ओर शिवाजीके विषय- 
में उनका पज्य भाव आपस भी बढ़ता आता। श्ख क्‍प्रदकार नाना- 
साहबकि सनकी तैयारी भी एक प्रकारसे अप्पा साइबके कारयों- 
के फलस्वरूप हो थी। अतएणब अप्पा साहबके मनमें दूसरी 
शड़ग यह उपस्थित हुई कि, हमारा लड़का कहीं उसी उपद्गवीं 
ओर मनहूस शिवाजोके पास न छछा गया हो! इसी प्रकार 
एक तीखी शंका उत्पन्न होमेका कारण यह था कि उनका 
ढड़का किछेके नीले छुलतानपुर ओर आखपासके अन्य गाँवारे द 
सदैच ज्ज्या करता था; और वहां गरीब छोगोंके नवशुव॒क 

कॉंमें हिलमिझएकार कभी उनको घोड़ेपर बैठना सिखलाता 
कम्ती उनके साथ कश्ती छड॒वा; ओर कम्ती उनको अपने पालके 
हथियार इत्यादि देकर उनको शिकार खेलने ले जाता, गदुका: 
फरी खेलता । सारांश यह कि, दिनका बहुतसा समय जन्हींके 








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साथ व्यतीत करता । अतएव इस समय अप्पा साइबको 
तीसरी शंका यह भी उपस्थित हुई कि कहीं वह उन्हीं नव- 
युवकोंको एकत्रित करके लूटमार करने अथवा इसी प्रकारके 
अन्य उपद्रव करने तो नहीं चला गया ? इन तीन शंव्णाओंमैंसे 
पहली ओर दूसरी शद्भुप ही उनके मनमें बार बार आती और 
उनको कष्ट देती रहती थी। “लडकेझो कहीं दंगे “रूसादमें 
मुसब्मानोंने न काट डाला हो !” बस, इसी भयंकर विचारसे 


उनका हृदय कांप रहा था। अन्य सब बातोंकी अपेक्षा इसी 


एक बातको उनके मनतने विशेष सम्भव समान लिया था; और 
बसा होनेके कारण भी उस समय कम नहीं थे , सो पाठकोंकों 
मालूम ही हो चुके हैं। सुखत्मानोंका नाम सुनते ही उसका 
शरीर जल उठता था, मुखत्मानोंसे लड़ने-भिड़नेमें वह सबसे 
आगे रहता था। इसलिये कहीं किसी गांवमें गौ, ब्राह्मण 
अथवा किसी ख्लरीको खताते हुए, यदि चह देख पाता, तो आगैे- 
पीछेका कुछ भी विचार न करते हुए वह आक्रमण कर देता; 
ओर मरनेकी सी नौबत आ जाती, तो सी पैर पीछे न हटाता | 
अत बह बुड़ढा यही सोच सोचकर घबड़ा रहा था कि, 
कहीं ऐसा ही न हुआ हो, जिससे हमारे लड़केका प्ञम्त हो 
गया हो। दूसरा यह विचार भी उसको डतता ही भयडुर 
माल्ूप होता था कि, यह शिवाजीफे 'डहृण्डतापूर्ण” कार्योमे 
. सहायता देनेके लिए उससे न जा मिलता हो | निदान अप्पाजी- 
. के मनमें यही आया कि, या तो हमारे लड़केको मुखत्मानोंने 








बीजापुरका लिफाफा 


्‌ ९९ ६१ (24% /) रे शिल 8! 


क्र पी कि, दशक बफु-+5 ०59 ०००० किला 





कहीं मार डाला, अधवा वह “डहृण्ड लुटेरों” की टोलीमें 
जाकर सम्मिलित हो गया ! जो कुछ भी हो, पर लड़का हमारे 
हाथसे निकल गया। अब वह छोटकर नहीं आता, यह 
सोचकर वे बिलकुछ निराशसे हो चुके थे । अस्तु । 

उपयुक्त वर्णनसे पाठकोंको हमारे कथानकके खम्तयकी 
परिस्थितिका बहुत कुछ ज्ञान हो गया होगा; ओर यहांतक जिन 
पात्रोंका थोड़ा-बहुत वर्णन आया है, उनकी भो कुछ न कुछ 
: दशा पाठकोंके अनुमानमें आ गई होगी । 

जैसा कि ऊपर हमने बतलछाया, अप्पाजी खाहब आवजी 
परे लको यह हुक्म देकर कि, चार द्निके अन्द्र लड़केका पता 
लगाकर उसे हमारे सामने हाज़िर करो, मसनदपर पीठके 
सहारे छेट गये थे, सो अबतक बैसे ही लेट हुए थे। इसके 
बाद फिर एक बार उन्होंने आवजीको पुकारकर तेजीसे कहा, 
“देखो आवजी, जिन जिन उपद्रवी लोगोंके साथ वह सारा दिन 
भटकता रहता हो, उन उन सबको पकड़कर कर हो हमारे 
सामने उपस्थित करना चाहिये। _ यह काम अबतक कभीका 
हो जाना चाहिये था, पर न जाने तुमने क्‍यों ध्यान नहीं दिया! 
तुम लोग विलकुल नमकहराम हो | जिसका नमक खाते हो, 
उसकी नोकरी किस प्रकाए बजानी चाहिण, इसका . तुम्ह कुछ 
भी पता नहीं है। स्वयं तुम्हारा मालिक, तुम्हारा अन्नदाता 
चला गया. और तुम आनन्‍्दपूर्वक हुका गुड़गुड़ाते; ओर मज़ेसे 
खाते-पीते हो ! जाओ--अभी जाओ--डठो, अब कोई न कोई 





सर क्र 


6 उषाकाल £ 





काम किये बिता इधर न आना--अयना यह काछा मुह मुझे 
न दिखलाना--खबरदार--जञाओ !' 

आवजी पटेल बेचारे बहुत घत्रड़ा रे थे। परन्तु अब 
अप्पा साहब॒का उपयु कर कयन छुबऋर उनके जीसे जो आया | 
उन्होंने सोचा--चलो, फिली प्रकार प्राण तो छूटे; ओर उठकर 
सलाप्र करके ये खलगा ही चाहते थे कि, इसमेयें दरवाजेसे 
एक नोकर आया; शोर बोला, “खर्कार, बीआपुरसे सलामत- 


खां सघार आया है; ओर कहता है कि, “एक अति आवश्यक 


लिफाफा लाया हूं, सो छुज्ञरको बहुत जल्द देवा याहिये।” 

अप्पा साहब एकदम आतुर होकर कहते हैं, “जद्दी 
बुलाओ उसको जदब्दों |!” फिर आवज्ञीक्री ओर देखझूर बोले, 
“आवजी, अभी जाना नहाँ। ओर कोई काम्र हुआ, तो 
बतलाता हैं ।” 

सलाभत्खां बहुत दुए नहीं था। नोकर शीघ्र ही उसे 
भीतर के आया। उसने नियपमानुचार रूफ कर सलाम किया 
ओए रुमालसे हाथ बाॉँधकर छिफ्राफा जागे रख दिया | आप्पा 
साहबने उसकी सछावकी ओर तो कक ध्यान दिया नहीं. और 
बहुत जरू अपने हाथले लिफाफा खोछा। खम्मान्नार कुछ 


बहुल छम्बा-बोड़ा नहीं था, परत्तु उसझे पढ़ने ही अप्या साहब- 


का अुह काला-रपाह पड गया ! 








ह्ज्ीगक सीट 
... _तहखानेके अन्दर ; 

हमारे सिपाहोंने बजरंगबलोकी जय” कहकर वाल ठोंकी 
ओर हमुमानजीके आलनके नीचेके द्वारसे पैर रूथकाकर तह- 
खाने जानेका इसदा किया | यहांतकका वर्णन पिछले एक 
परिच्छेद्म आ चुका है। उसके आगेका वर्णब जाननेके लिए 
हमारे पाठक अवश्य ही उत्सुक होंगे। अतणय अब श्गराव 
अप्पा साहंबको तो बीजञापुरका पत्र पढ़कर खेद करते हुए यहीं 
छोड़ दें; ओर हम हसुम्ानजीके सन्दिश्में फिर वापस आ जाये । 

जैसा कि पिछले एक परिच्छेद्में हम कह चुके है, हमारे 
सिपाही जवानने बड़ा साहस करके--श्सख बातकी कुछ भी परवा 
न करते हुए कि, ऐसा करनेसे हमारे ऊपर कोई संकट तोन 
आ झायगा --अन्द्र पैर डाछ लिये। उसने सोखा कि, जो 
कुछ होना होगा, सो होगा; पर इसके अन्दर है क्या, इसका 
पता अचश्य लगाना चाहिण । बल, इसी वियाश्से ज्यों ही 
उसमे अद्भुर पैर छोड़े, त्यों ही उसके कानोंमें ये शब्द आ 
टकशयै--“कोम औ--कोन हशामजादा सोलर आमनेका साहस 
कर रहा है ?” इसके साथ ही साथ एक बड़े जोरकी ठोकर 
थी उसके पैसे आलमी। पर हमारे लिपाहोशम बड़े भारी 
ज़बरदस्त थे ! उन्होंने उलकी कुछ भी परवा न की; और एक- 








. उषाकाल 


७ चर (53928 2७. आल: के 


अ। 





दम यह चिल्लाते हुए कि, “जिसमें वेंला साहस होगा, चही 
साहस करेगा; और कोन करेगा ?” तुरन्त ही ऊपससे हाथ छो 
कर भीतर कूद परे । इसके बाद, जिसने उसवीरके पैरमें ठोऋर 
मारी थी, उसक्की ओर वह दोड़ा | दोनोंमें रपर्ंग होनेकी नोचत 
आई। परन्तु जिसकी ओर हमारा सिपाही इतना क्रोघित हो- 
कर दोड़ा था, उसका वेश ओर उसका तेज ज्यों ही उसने देखा, 
स्‍्थों ही वह ठिठककर पीछे हट पड़ा; ओर फिर चकित हृष्टिसे 
उसकी ओर देखने लगा । भीतरके उस मनुष्यका वेश बिछ- 
कुल फक्मीरकी तरह था। गछेसे लेकर पैरोंतक एक कफनी 
चह पहने था। एक हाथमें रुद्राज्षकी माला और दूसरेमें एक 
छोटीखी कुबड़ी, जदा बढ़े हुए ओर दाढ़ी भी बढ़ी हुई थी। तह- 
खानेके अन्द्र कोनेमें एक दीपक जल रहा था | उसका घुंचा- 
सा प्रकाश फेल रहा था। उसी प्रकाशमें वे दोनों एक दूसरे- 
की ओर अपने अपने नेत्र--जो सन्ताप और आश्चर्यसे विस्तृत 
हो रहे थे--फाड़ फाड़कर देख रहे थे | यह नहीं कहा ज्ञा 
सकता कि, हमारा सिषाहों जिख उद्द श्यसे उस फरीरवेशी 
व्यक्तिकी ओर देख रहा था, उसी उद्दश्यसे यह भी उसकी 
ओर देखता होगा। दोनोंका पेशा अछग अलग था, सो उनके 
भिन्न भिन्न वेशों परसे ही मालूम हो रहा था। सिपाहीकी चेष्टा- 
से कुछ आश्रय, कुछ कोतूहल, कुछ पूज्य भाष,और कुछ--बहुत 
ही थोड़ा--क्रोध प्रकट हो रहा थाओर उस फक्रीरवेशी रुद्राक्ष 
मालाधारी व्यक्तिकी दृश्मिं आश्चर्य ओर क्रोधके अतिरिक्त और 





तहखानेके अन्दर 7 
९५४७० एप: नी गाय 








कुछ भी दिखाई नहीं देवा था। दोनों एक दूसरेकी ओर देखते 
हुए बहुत देश्तक खड़े रहे, किसीके झुखसे भी दछन न निकला । 
एक दूसरेपर आक्रतण करवेका जो आवेश उनमें पहले दिखाई 
दिया था, सो भी अब कम होने छगया। अच्तमें वह रुद्राक्ष-मा- 
लाधारी व्यक्ति झुसव्मानोंकी विशुद्ध भाषाओं हमारे लिपाहीसे 
कहता है, “तू कौन है? यहां क्‍यों आया है ! यहां तेरा क्‍या 
काम है? यदि तू व्यर्थ ही मोवके मु हमें ब झाना चाहता हा 
तो खुपके इसी शस्तेसे छोट जा, नहीं तो...” 

“बहीं तो क्या ? में मोतके सुखमें जाऊंगा ? अच्छा, मुझे 
झत्युके झुखमें डालनेवाला कौन है ? साधने दिखाई तो दे--में 
देख लछंगा । आपके दाथसे तो यह बात हो ही नहीं खकती *” 

. “यों ? क्‍यों ? मेरे हाथसे क्यों नहीं हो सकती ? तू मुझे 
क्या समझता है ? मेरे इस वेशकी तरफ मत देख | मेरे ये बाल 
सफ़ेद होने ऊगे हैं, इनपर भी मत मूल । में तुरे अच्छी तरह 
_छकाऊंगा--पर पहले तू यद्द तो बतछा कि।त्‌ है कोन ! नहीं तो 
व्यर्थ ही मारा जायगा । तू इस तहखानेमें क्या आया, लिंहको 
गुफामैं--शत्युके सुखमैं--आ पड़ा है,इसमें सन्देह नहीं। बोल, तू 
कौन है ? यदि तू मुसब्मान है, तो अपनेको मरा ही सम 

«क्या ? क्‍या ? मुसब्मामके लिये यह मस्नेहीकों जगह है? 
वाह | वाह! तब सो में बिलकुल उचित ही स्थानपर आ गया डः 
हूं। ब/बॉजी, सवमुच ही कया यह जगह बेखी ही है, औैसीकि 
आप बतछाते - हैं? यदि बैसी हो है, तो यह <बन्दा आपका 











. उधाकाल 








पल के “कैत्े+-क 
_शुलाम है। इस जगहमें आनेवालेको क्या मुसद्मान सचमुच ही 
अपने शत्रु जान पड़ते हैं? तब तो में इसी जगहमें रहूंगा | वाबाजी 
बोलते क्‍यों नहों अब ? में कोन हूं, इसका क्या अब भी आपको 
: सन्देह है ? खामीजी, में असली मराठा हूं। इससे अधिक ओर 
क्या बतराऊ' ? यह देखिये, मेरी बड़ी भारी पहचान--ओर इससे 
भी अधिक यदि निशानी चाहिये, तो किसी मुसब्मानको आने 
दीजिये--में प्रत्यक्ष ही आपको दिखला दूँगा! किन्तु मुझे 
.. मुसत्मान समककर भेरा अपमान न कीजिये | 
. ये शब्द हमारे सिपाही युवकने इतने जोशमें आकर कहे 
कि, वह रुद्राक्षमालाधारी पुरुष अत्यन्त कौतूहलके साथ उसकी 
ओर देखने लगा । उसके मुखमण्डरूपर एक प्रकारका सन्‍्तोष- 
. सा दिखाई देने रगा | उसको स्पष्ट मालूम हो गया कि, हमारे 
- खामने जो नवयुवक खड़ा है, वह असली मराठा है--यही नहीं, 
. बढ्कि मुसत्मानोंका कट्टर शत्र्‌ भी है। पाठकों, क्‍या इसी 
“ कारण तो उसके चेहरेपर सन्तोषकी कलूक दिखाई नहीं दी ? 
क्षणमर वह शान्तिपूवक और सल्तोषपू्ण द्वृष्टिसे उस 
.. सिपाहीकी ओर देखता है ओर फिर तुर्त ही उससे कहता 
: है--/शावाश ! बेटा, शाचाश ! यदि सचमुच हैः तू जो कुछ 
कहता है, वह सब सत्य है, तो फिर तुमको इस स्थानपर 
. कोई भय नहीं । किन्तु तू कोन है? कहांका है ? और यहां 
5 आया कैसे १ सो मुझे बतछा। यह जबतक सुर मात्यूम न दो 
जाय, में विश्वास केसे करू 7”... क्‍ 








8) 


ध 


_ बाबाजीके सुखसे यह प्रश्न खुनते ही हमारा सिपाही जवान 
कहता है--“बाबाजी, यह सब जानकर आप क्या करेंगे ? मैं 
एक मासूली मराठा हूं। मेरे आगे-पीछे कोई नहीं । मैं कहीं न 
कहीं भटक रहा हूं । आप मुझे यदि अपने पास रहने दें, तो में 
आपकी सेवामे रहंगा--जीवनभर आपको छोड़कर कहीं नहीं 
जाऊगा। इससे अधिक ओर में अपने विषयमें कुछ नहीं कह 
सकता | इतना में अवश्य कहता हूं कि, संसारमें अब मेरा 
कोई नहीं, यह में अपने हृदयसे कहता हूं। आप विरक्त हैं, सो 
आपके रुपसे ही दिखाई दे रहा है ; किन्तु मैंने अभीतक वेश 
नहीं बदला है--आप यदि आज्ञा दें, तो आपहीके समान में भी 
हो जाऊ' । मेरे पीछे कोई बन्धन नहीं |” 

“नहीं, नहीं, तू जो कुछ बतलाता है, इसपर मेरा बिलकुल 
विश्वास नहीं जमता । तू अपनेको, कोई नहीं, बतलाता है, सो 
बिलकुल झूठ है। मेरे समान विरक्त बननेका तेरा उद्देश्य नहीं 
है; ओर वैसी दशा भी नहीं। तेरा उद्द श्य मुझे मालूम हो गया 
है, पर में इस समय बताऊंगा नहीं । यह में ज्ञानता हूं कि, वह 
अच्छा है; ओर मैं तुझे यह आशीवांद देता हूं कि, उसके सफल 
 होनेके मौगपर तू शीघ्र ही जा. रगेगा। यह न॑ समझना कि, 
मैंने तुझे पहचाना नहीं--हां,तुझे यदि अपना नाम-श्राम गुप्त रखना 
हो, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं-रख सकता है--किन्तु......” 
:_बाबाजी अमो अपनी पूरी बात न कहने पाये थे कि, इतनेमें 
एक सीटीसी बजी; ओर बाबाजी मानो उसंकी आहटसी 






तहखानेके अन्दर न्‍ 
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५ | के हक शक 











/ उषाकाल है 


ब्च्ल्ह़्ड दि 
लेने छगे । इसके बाद बहुत जरूद थे आगशेकी ओर गये कि, 
जिधर कुछ अधेरासा था। फिर देखते देखते थे वहीं गायब हो 
गये। यह देखकर हमारा सिराही बहुत ही चकूराया; ओर 
इधर: उधर देखने छलगा। पाव घड़ी हुईं, आधी घड़ी हुई, एक 
घड़ी हुई; पर बाबाजीके छोटनेका कोई विन्द दिखाई न दिया 
थह है क्या--सोवकर सिपाही भी उसी ओर गया, जिघर 
बाबाजी गये थे ! देखता क्‍या है कि उस ओर दरतक टेढासा 
रास्ता चला गया है, जो बिलकुछ अन्धकारसे व्याप्त है। इतना 
अन्धकार कि, कोई आंखोंमें उ'गली डाले,वो भो कुछ मालूम न 
पड़े । आगे जाये या यहीं खड़ा रहे, सिपाही कुछ निश्चय न कछ 
सका। हम इस विचित्र स्थानमें क्यों आये ? यह है कया ? यही 
बारंबार सोचकर वह बड़े गड़बड़में पड़ा | बाबाज़ी अब आयेंगे 
तब आयेंगे, सोचते सोचते वह कुछ देशतक चहीं खड़ा रहा | द 
जिस समय कोई अत्यन्त उत्कंठित होता है, उस समय थोडा 
समय भी कितना अधिक जान पड़ता है; इखका सबको असम 
भव है। फिर उसमें भी जिस जगह हृगारा सिपाही खड़ा था 
उस जगह, जहाँ कि घोर अन्धकार था, एक एक पल एक एक 
पहरके समान भाल होना कोई कठिन नहीं था। पद वेचारा 
खड़ा खड़ा बिलकुल उकता गया; और निश्चय किया कि, आगे 
बढ़े । अब उसने यह बिलकुछ न खोला कि, ऐसे अँधेशो कया 
.. संकट आवेगा; और क्या महीं--ड्सने आगे पण बढाया । हा 
. आगे करके टटोलते टटोलते बह बहुत दूरतक गया कितना 











(ह ६ री) . तहखानेके अन्दर है 


रा उ्ा्यायाब्याा्रपकल्पााफ्रातापभपरसमा्ा_स्‍ाकापभयाकपभभभथाताक बदन ाकापकाकध्पलय 8. 
क्याट>वीकिकृल.पीलतवॉलिकिल 8 ०००आाम० पी लि:म5०५४००७-१शा | 





दूर गया, इसका उसे कुछ भी पता न था। अन्तर्मे बिलकुल 
घबटाकर उसने कोटमेका विचार किया, क्योंकि बादाजीका 

हीं बिलकुछ पवा नहीं था । अतएव अब वह लोटने वाला ही 
था, इतनैमें जिल हाथसे बह टटोल रहा था, उसके सामने दी 
एक दीवार मिली | पहले तो चंद सीचा ही सीधा आ रहा था, 

न्तु अब उसे दिखाई दिया कि खींधा मारे ख़तम हो गया 

परच्तु सिफ्क०क इसीसे कि, सीधा माग॑ खतम हो गया, उसके 
पनको सम्तोष न हुआ। जिस मागसे बह गया था, बह भाग 


घ़लकल सीधा डी न था; ओर अब आकर अच्तमे दीदार फिली, 
इससे इसके वनानेवाखेका उद्दे श्य क्या ? अवश्य ही यह मार्ग 
अभी समाघत नहीं हुआ है। यह कहीं न कहीं तिरछा शया है। 

सोचकर वह दीवारसे कुछ अछूग होकर एक ओर चलनेको' 
हुआ,इसनेमें तुरन्त ही उसका शरीर एक बाजसे टकशाया- जसे 


कि, किसी ग॒ुफाके द्वारका बाजू हो। इसलिये उसने सोचा कि, 


यहीं बाई' ओश्से कहीं न कहीं भोतर पेठनेका हार अवश्य हैँ. 
बह सोचकर घह नीचे बैठ गया; ओर टटोलकर देखने कगा। 


इससे शीघ्र ही उसे मालूम हुआ कि, द्वार बहुत ही संकोणे 


परन्तु फिर भी उस साहसी पुदषने सीतर घुसनेका निश्चय किया; _ 
और तुरन्त ही घुस भी पड़ा ।. इस जगह इसे दो-चार सीढ़ियां 
पिछली । उनको उतरकर वह नीचे गया; ओर फिर सीधा चलने 


छगा | 


उस समय ऐसे. आुहारोंके मार्ग किलेपर रहनेवाले लोगों क्‍ 


कै, 
)े 











: #& लषाकालू &... 





और खाधारणतया सिपाहियोंका कार्य करनेवाले लोगोंके 


लिए अपरियित न थे। आजकल जिस प्रकार भु हारे 
ओर उनके मार्ग इत्यादि बातें छोगोंको बिलकुल असस्भवसी 
जान पड़ती हैं, अथवा ऐयारी और तिलिस्मके उपन्यासोंमें ही 
जैसे इनकी अधिकता मानी जाती है, बेसी उस समय दशा न 
थी । उस समय सभी भारी भारी किलोंके नीचे बढ़े बड़े अर हारे 
थे; और उन अहारोंसे चार चार, पांच पांच कोसतक मार्ग भी 
निकाले गये थे | अब चूंकि ये मार्ग प्रायः नष्ट हो चुके हैं, इस- 
लिये ये बातें किसीको सत्य भी नहीं मालूम होतीं । हां, अब 
उनके विषयकी आख्यायिकाए'भर शेष रह गई हैं। परन्तु दोल- 
ताबाद्‌ (देवगढ़) के समान किलोंकी जिन लोगोंने एक बार भी 
यात्रा की होगी, उनको इस बातका अनुभव और परिज्ञान अवश्य 
. ही हुआ होगा कि, उन किलोंके मार्ग भुँहारोंसे गये हैं; और 

 डनमें जाते समय भरे दो पहरको भी मशाल लेकर जाना होता 
.. है। वह समय ही ऐला था कि, उस समय सं हारों इत्यादिके 

शुप्त मार्गोकी बहुत आवश्यकता थी। किस समय मुगलोंका 
.. आक्रमण होगा; ओर हमको अपने कुटुस्बके साथ अपना महल 
अथवा किला छोड़कर भागना होगा, इसका कोई निम्वय नथा। 
ऐसी दशामें सब बड़े बड़े धनाठ्य सरदारों ओर राजे-रजवाड़ों- 


... को अपने अपने महलोंमें तहख़ाने रखने पड़ते थे। भू हारे 


बनाकर उनसे शुघप्त मार्ग दूर दूरतक ले जाने पड़ते थे । इससे 


.. चपे सुख्य झुख्य लोगों ओर विश्वालपात्र नौकरोंको वे मार्स 


+ जज 





तहखान के अन्दर £ 


पूर्णतया अवगत रहते थे। जब कमी कोई ऐसा 
भौका आ जाता, तो वे उसका उपयोग करते थे। 

सो हमारा सिपाही जवान ऐसे मार्गों से अपरिचित नथा। 
अतणव उसे वह गुफा देखकर कोई बड़ा आश्चर्य नहीं हुआ ; 
बहि्कि, इसके विरुद्ध वह उन सीढ़ियोंको उतरकर इस भांति सीधा 
चलने लगा, जैसे मार्ग उसके परिचयका ही हो । सीधा चला, 
फिर उसके हाथमें दीवार छू गई, दाहिनी ओर घूम पड़ा । फिर 
सीधा गया, फिर बाई' ओरको थोड़ासा सीधा गया; ओर. 
टिठक गया । इसके बाद कहीं न कहींसे कुछ उजेलेकासा उसे 
भास हुआ। जिस ओरसे कुछ उजेलासा भासखता था, ड्स 
ओर उसने ध्यानपू्वक देखा, तो सचमुच ही उधघरसे उजेलेकी 
कुछ आभा आरहोी थी--तुरूत ही उसने सोचा कि, छुछ 
भी हो, इस डजेलेतक तो जाऊंगा ही। वह उसीकी 
सीधमें चछा। चलते चलते काठके एक द्रबाजेके पास 
पहुंचा। दरवाजा बन्द था। उसको दराजोंसे दीपकके 
समान उज़ेला आरहा था। सो उसने देखा। इसके बाद 
उन द्राजोंसे उसने ज़रा ध्यानपू्वंक देखा, तो भीतर सभा- 
भवनके समान एक द्रबार-हाल उसे दिखाई दिया। और सामने 
किसी देवताकी मूत्ति सी दृश्गोचर हुई। यह क्या हे! इतनी 
दूर भु हारेके अन्द्र यह मन्द्रि किसका १? ओर इस मूत्तिके 
सामने इतने बड़े बड़े नन्‍्दादीप--खूब मनुष्यकों ऊंचाईके बरा- 
बरतकके शमादान--जल रहे हैं! उन द्राजोंसे उसे जो जो 














् क्‍ उषाकाल ;। ्‌ बे 2 


लक ७७ 58भसटव 29८. 00८ 4 '"आ ५ 





कुछ दिखाई पड़ सकता था, सो सो सब उसने देखनेका प्रयत् 
किया; पर, ऊपर जो कुछ बतलाया, बस उतना ही, उसे दिखाई 
दिया | अन्तर्मं उसने दरवाजा खोलनेका भी प्रयत्ष किया, 
पंर वह शीघ्र न खुदा । इसमें बाहरसे ताला तो नहीं लगा! 
यह देखनेके लिए उसने उसपर चारों श्येर्से हाथ फिशया। 
ताला भी दिखाई म दिया। परूतु हाँ, एक ऊपरकी ओर, ओर 
दूसरी नीचे देहरीमें-इस प्रकार दो सांकर्ले जरूर उसके हाथसे 
लगीं। ऊपरकी सांकल बहुत प्रयत्न करनेपर भी जब उसके 
हाथसे न खुली, तब उसने पुराने द्र्वाजोंकी भांति उसका एक 
कपाट ज़ोरसे ऊपरकी ओर उठाकर सांकऊ् खोलमेका प्रयत्ष 
किया । इस प्रकार ऊपरकी लांकल खुल गई; ओर फिर नीचेकी 
भी सांकल खुलनेमें देर न लऊगी। इस प्रकार दरवाजा तुरन्त 
खोलकर सिपाही सीतर गया । देखता क्या है, कि सयमुय ही 
एक बड़ा विस्तीण सभा-भवन बना छुआ है; ओर मध्यभागमें 
एक बड़ी विकराल अश्घुजा देवीकी घूलि है। वह अपने पैशोंके 
नीखे एक बहुत ही स्यंकर राक्षसको कुचल रही है | चार हाथोंमें 
चार आयुध ओर शेष चार हाथोंमें चार शिर लिय्रे हुए 

शिरोंकी जिहयाएं बाहइरको निकली हुई हैं। शिरको छोडकर 
.. देवीके सम्पूर्ण अंगपर सिन्दरके पुर चढ़े हुए हैं। उसके सामने 
. उपयुक्त बड़े बड़े नन्दादीप जगमगा रहेथे। उस देवीको 
देखते ही हमारे सिपाहीने एकदम साप्टांग नमस्कार किया 
ओर फिर उठकर भाविक भक्तकी भांति हाथ जोड़कर देची 


2 क । क्र दि कफ ्ि 
6 कु) 4 तहखानेके अन्दर 
/ शाश्कँ 
नं हर का ४ कि नल ककओ इन का लक वर्क कक... करी सन्त हक ह 
0८0, आइंक 24 ०० - पे ५ 


ज्ञीकी बन्दना की । इसके बाद जब वह सभा-भवनमे इधर- 
उधर देखने लगा, तब कया देखता है कि, खारों ओर हथियार 
ही हथियार रखे हैं| दीवारोंभें तखवार, ढाले , बन्दूक हत्यादि 
४गी हुई थीं। भाडे ओर वछियां तो असंख्य थीं। एक कोने - 
मे बार तोपें रखो हुई थीं; ओर उन्हींके मज़दीक गोलोंकी दो 
पशियां लगी थीं। छोटे छोटे हथियार, जैसे ख्जर ओर कटारें 
इत्यादि अनेक थीं। दो शऋग देंगे थे। चार चबरे थीं। एक जगह 


पॉच-सात बड़ी बड़ी लछाठियां खड़ी थीं, जिनएर एक एक बज़्तर 


पड़ा हुआ था; ओर उनपर फोछादी टोप ८ंगे थे । यह सब देख- 


कर हमारा सिपाही जवान एकदम खकितला दिखाई दिया; 


ओर अवस्मेके साथ सुंहपर डँगली रखकर उन सब बीजोंको 


ओर देखने ऊणा । इसके बाद नीजे दृष्टि करमेपर वह क्या देखता 
है कि, जिन दीवारोंपर वे अख-शस्रर 5ेंगे थे, उन्हीं दीवारोंसे 


से हुए कई एक बड़े बड़े सन्दुक स्खे हैं, जिसमें बड़े बड़े 


भारी ताझे पड़े हुए हैं। सनन्‍्हुक ऐसे मज़बूत थे कि कुछ: 


पुछिये नहीं; ओर वाले भी उममें पैसे आहमी पड़े हुए थे कि, 
उन सन्दुकोंमें अत्यन्त मूज्यवान्‌ वस्तुओं अथवा खजानेके अति- 
फिक ओर क्या हो सकता था, सो समझे नहीं आता। यह 


सब देखकर हमारा सिपाही जवान अत्यन्त विस्मित हुआ। यह' 
मामछा क्‍या है,सो कुछ उसकी सम्ररमें नहीं आया | वह इधर- 


उधर घमने लगा । सब ओर उसने खब ध्यानसे देखा, पर कुछ 





अन्लुभान न केर सका। अन्‍्तमें बेचारा थक गया ओर विस्मितः 





होकर देवीकी ओर देखने लगा | उस समय यह भी उसके मनमें 
आया कि, देवीजीके आसनके नीचे भी तो कोई इसी प्रकारका 
चमत्कार नहीं है ? अन्तमें जब कोई बात उसकी सममभमें न 
आई, तब वह उसी जगह पड़ रहा; ओर थोड़ी ही देरमें उसे 
गस्भीर निद्रा आ गई । 

इधर याबाजी जहाँ गये थे, वहांसे वापस आकर देखते 
है, तो सिपाही वहां है ही नहीं, जहां वे उसे छोड़ गये थे। 
उन्होंने इधर-उधर बहुत दूँ ढ़-खोज की, अन्तमें वे उस चोकोने 
द्वारसे ऊपर भी आये; और मन्दिरिमें तलाश किया, परन्तु कहीं 
कोई दिखाई न दिया | हां, घोड़ा अकेला अवश्य ही इधर-उधर 
घूमता हुआ हरी दूब चर रहा था। प्रभातकाल हो गंया था | 
प्राकृतिक शोभा अत्यन्त रमणीय दिखाई दे रही थी। बाबाजीने 
बाहर आकर इधर-उधर बहुत कुछ देखा, पर जब कोई भी 
दिखाई न दिया, तब वे फिर मन्द्रिमें छोट आये; ओर भीतर ही 
भीतर कुछ गुनगुनाते हुए हसुमानजीकों जहांका तहां बैठाकर 
खययं घूनीके पास आविराजे। फिर मुदँसे कुछ दोहा इत्यादि 
कहते हुए अपनी चिलमकी तैयारीमें लगे । 


4९ 





सातवां परिच्छेद । 





गृप्त मेंट । 


पीछे बतलाया गया है कि, सुलतानगढ़के चारोंओर जंगल 
ओर भाड़ियांँ बहुत थीं। अब यहांपर इतना ही कहना है कि, 
पीछेकी तरफ सबसे अधिक घना जंगल था। बड़,पीपल,पांकड़, 
इत्यादिके वृक्ष विशेष थे; ओर इनके आस-पास घनी घनी 
फाड़ियोंका घेरा था। इन भकाड़ियोंमें माग॑ निकाले गये थे, पर 
वे मांगे बिलकुल अस्पष्ट थे। किलेपर जानेके लिये मुख्य मार्ग 
आवजी पणेलके ग्रामसे ही था । शेष अन्य मार्ग भी किलेके 
दो पाश्वोकी ओरसे थे। पीछेके मार्ग बिलकुल गुप्त थे; ओर 
वे सिर्फ ख़ास ख़ास लोगोंको ही मालूम थे। स्वासाधारण- 
को उनका ज्ञान न था। अवश्य ही उन मार्गोंसे प्रायः 
कोई आया-जाया नहीं करता था| पहले ये पीछेकी भ्ाड़ियां 
एक प्रकारसे घाटीमें ही थीं। वहांसे सिफे किलेके पीछेकी 
बड़ी पहाड़ीकू उतरकर आगे जानेका ही मार्ग था। परन्तु आगे 
जानेकी कभी किसीको आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी, क्योंकि 
उस ओर बस्ती घगैरह कुछ थी ही नहीं | वह पहाड़ी, किलेकी 
मुख्य पहाड़ोकी अपेक्षा, कुछ नीची ही थी । ऐसी दशामें उस 
पहाड़ीका उपयोग एक प्राकृतिक कोटकी तरह था। पहाड़ीके 











4 उपाकाल 


£ 
| श् कह फ्छ डर 





३ ७६ ४2 


कोल कर 
आगे बहुत ही भव कर जंगल था; ओर उस ओश प्राय: छोग 
शिकार इत्यादि खेलने जाया करते थे 
ऊपर हमने यह बताया हे कि, फकिल्ेके पीछेक्ी तरफ 
प्राय: कोई आता-जाता बद्ीं था | अवश्य ही जिस थोरको विशेष 
किसीके आजे-जानेकी सम्भावना नहीं रहती, उस ओएफा स्थान 
 छेसे छोगोंके लिये बहुत ही उपयोगी होता है कि, जो शुत्त झूप- 
से लोगोंसे मुलाकात करना याहते है, अथवा शुप्त बाखें करमा 
चाहते हैं, या जिमको गुप्त पड़यन्त्र रखने होते 8, अथवा ऐेसे 
ही ओर कोई कार्य करने होते हैं कि, जो उजेलेमें नहीं किये जा 
सकते | दो-चार अथवा अधिक लोग सलाह कर छे, और 
किसी न किसी एकान्त स्थान एकत्र हो जायें, और फिर 
वहां आनन्दपू्वंक जो कुछ बातवबीत कश्ना हो, अथवा जो 
आय करना हो, करे, उसपर खब आपसे या करके मममाना 
वियाए करें | क्योंकि वहांपर ऐसा सम्देह करनेका कोई कारण 
ही नहीं रहता कि,बहांपर कोई आजायगा; ओर हमारा सलाह- 
मशविर, जो हो रहा है, जान छैगा | इस प्रकारके अभेक स्थान द 
किलेफी उस ओर थे। अव्यकछ वो उस पहाडीके गर्ममें ऐसे 
अनेक शुप्त स्थान थे कि, जहाँ घीन तीम यार थार आदी 
. मज़ेखे हुका पीते हुए बैठे रहे। ओर फिए वे स्थान थे कैसे १ 
 गोघुखीकी आकृतिके। अर्थात्‌ उनके मुहके पास ही जाकर क्‍ 
. चाहे मनुष्य फरांककर देखे, फिर भी पता न चले कि, यहां' 
आदमी बैठे होंगे। अस्तु। क्‍ 





४ गुप्त भेट 


“वीर वहन भी ह कील. 7: २ 





. पिछले एक परिच्छे दुर्मे बबछाया गया है कि, सकामतख्ां 
नाधक बीजापुरके एक घुड़सवारने खुलताबगढ़ आकर 
पक खरीदा अप्यासाहबकों दिया। उसको खोलकर देखते 
ही उनकी खिलयुति अत्यन्त खिन्च हो गयी। उनको बेसी 
दशा क्यों हुई; ओर उस खरीतेमें क्या था, इत्यादि बाते 
पाठकोंको शीघ्र ही भालूम हो जायंगी। यहांपर तो लिए 
इतना ही बतलाना है कि, उस खरीतैकों पढ़ते ही अप्पा- 
साहबको उस समय अत्यम्त खेद हुआ; ओर कुछ देर वे खुप 
दैठे रहे। फिर छुछ सचेत होकर उन्होंने शुद्ध उदूँ भाषामें 
कहा--“सलामत्खाँ, सुम अपनी वर्दी वर्गेरह निकालकर 
आराम करो। आवज्ञी, सलछामतख्राँके खाने-पीनेका इन्तजाम 
कर दो। छुज़ र-द्रबार्कोी इस खरीतेका जवाब हम ज़रा 
फुरसत पानेपर छिखेंगे।. एक-आध दिन ऊरूग जाय, सो कोई 
हर्ज गहीं। जाओ, अब तुम। मुझे ज़रा घड़ीमर चेन मिलने 
दो ।” यह कहकर अप्पयासाहब फिर मसनदके सहारे लेट रहे 
आपजी ओर सलामतर्खाँ पहांसे खछ दिये। वहांसे छूटते ही 
आवजीको बहुत सम्तोष हुआ ; ओर बह सलामतखाँसे बात- 
जीत करबे हुए महलके बाहर आये। महलके बाहर आकर 
आवजीने देखा, तो श्याम्रा वहां मोजद्‌ था। पर इतनी देर 
बह कहाँ रहा, बीच अप्पाधाहबे दरवार-हालमें द्वारसे 
मांकवा हुआ वह दिखाई दिया था; ओर फिर तुरूत ही कहीं 
_ चला गया,फिर द्रवाज़े पर जानेकहांसे आ गया, बीचके संप्रय- 








मैं इसने न जाने क्या क्‍या किया, इत्यादि बातोंकी जांच करना 
आवजी भूल गये। उन्होंने इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं 
सप्रक्ी । वे बेचारे अबतक इसी भयमें थे कि, कहीं दुबारा 
फिर महलके अन्दर न बुला लिया जाय; ओर फिर ओर भी 
फजीहत होनेकी नोबत आवे। इसलिये महलरूके बाहर आते 
ही पहरेदारोंके जमादारकों उन्होंने यह हुक्म दिया कि, “तुम 
खसंकामतखाँका प्रबन्ध करो, अप्पासाहबने कहा है।” ओर 
स्वयं, श्यामासे बड़ी तेज्ञीके साथ यह कहकर कि, “चल रे 
छोकरे!” आवजीने कदम आगेको बढ़ाया। किन्तु सलामत- 
खाँ खास हुजूर-द्रबारका सिपाही था, वह मसला आवजी पदेल- 
को श्ष भांति कैसे जाने दे सकता था ? उसने तुरन्त ही आव- 
जीफू शोेककर कहा, “क्यों बे आवजी पशेल, हमारा प्रबन्ध 
करनेके लिये सरकारने तुकको कहा है; ओर तू इस तरह भगा 
जाता है--ऐसे कैसे काम चलेगा? याद रख, सलामतखां 
ऐसा-बैंसा आदमी नहीं है। उसके हुक -पशनीका इन्त- 

ज़ाम करके तब तू कहीं ज्ञा ।” यह कहकर उसने आवजीकी 


पीठपर एक थाप दी । वह ख़ास हुज़र-दरबारका सवार था, 
. डसके सामने आवजीकी क्या चछ सकती थी ? इसमें सन्देह 


नहीं, पटेलजी अपने गांवके अधिकारी थे। पर सलामतखाँ 
उनकी कया परवा कर सकता था? क्योंकि एक तो वह 
.. बीजापुर बादशाहीका सवार था, दूसरे आवश्यक खरीता लेकर 
3 आया था; और तीसरे अप्पासाहबने स्वयं उसके सामने ही- 





० ० ० अब 


आवजीको उसका प्रबन्ध करनेकी आज्ञा दी थी! फिर क्‍या 
था ? बह याहे जो कह सकता था | उसमें भी विशेषता क्‍या 
थी कि, किलेके उस बीचवाले दरवाजैपर जो कुछ छोग बैठे थे, 
उनमैंसे सर्फोजी इत्यादि चार-पांच आदमी ऊपर आये। बात 
यह थी कि, जब छोगोंने खुना कि, सकामतख़ाँ द्रबारसे कोई 
महत्वपूर्ण चिट्ठी छे आया है, तब समीको यह इच्छा हुई कि, 
चलो, उससे मिले'; और क्या ख़बर लाया है, सो मात्दूम करें, 
साथ ही चिछम-चद्टी भी उड़ावं। परन्तु ऊपरवालोंको ही 
अपनी यह इच्छा ठ॒प्त करनेको मौकां मिक्क सकता है--डनके 
नीचेवाले बेचारे बसे ही रह जाते हैं! सफॉजीने ज्यों ही देखा 
कि, सठामतखाँ महलरूसे बाहर निकला, त्यों ही वह अपने अन्य 
 दो-चार कृपापात्रोंकी साथ लिये हुए ऊपर आया। उसी 
समय सलामत्खाँ ओर आवजीका उपयुक्त सम्भाषण हुआ; 
ओर आवज़ी अप्रसन्नतासे ( परन्तु उस अप्रसन्नताकों छिपानेके 
लिये बनावटी हँसी दँसकर ) कुछ देर ठहर गये; और महलूके 
बाहर कुछ अन्तरपर एक चबूतरा था, वहां गये, तथा हुका- 
पानी ओर बैठनेके लिए प्रबन्ध करनेको उन्होंने एक सिपाहीसे 

कहा ।  छबर सफॉजी इत्यादिके आजानेपर तो पूरी मएडली 

जम गई, किन्तु सर्फोजीको देखते ही आवजीके मस्तकपर बल 
पड गये; ओर वे तुरन्त ही सलामतखाँसे बोले, “वाह ! वाह ! 
खाँ साहब, अब तो तुमको हमारी कोई भी जरूरत. नहीं रही। 
_ जमादार सरफ़ॉजी साहब आ गये हैं, अब तुमंको किसी बातकी 





्ि 


उषाकाल ; (5 
ह ्््््य्् (हक आपरनयभक है न < छ् 2) 
पट न्न) जज््ट 





कमी नहीं रहेगी । अब हमको जाने दो, तो बहुत अच्छा हो। 


सरकारने हसको एक काम बताया है, जो वह्य हरुरी छ्े 


खुनते ही सर्फोज्ञी कहता है, “हां-हां, खांसाहद 


पथेलजीको जाने दीजिये । इनकी परेकिम *“अजी आप #ी 
क्या गप्प मारते हैं! एस बक्त काम कौनसा ? शोर जैसे हम- 

को कोई काम ही सच तो यह हैँ कि, उस वेखारी परे 
लिनकी 


“सर्फोज्ी, ज़रा ज़बान सम्हालकर बात किया करो 

शव तरह अट-संद बकोगे, तो समक लेना फिर | तुप्त अब 
बहुत ही द 

.. इन शब्दोंका उच्चारण करते €ुए आवजी परेलने बहुत हो 
तेज़ी दिखलाई, अथवा थों कहिये कि, उस सम्रय उनकी वह 
तेज़ी सब ही थी। उस वाक्यको अघरा ही छोड़कर फिर 
वे सलामतख़्ाँकी ओर देखकर बोले, “खाँसाहब, सुझे बहुत 
ही ज़रूरी काम्र है, में अब आपसे बिदा याहता हूं। ये छोग 
आपका सब प्रबन्ध करेंगे। आप आरामसे रहिये | में जाता 
हैं। जाप जब किलेसे उतरे, तब घर जरूर आधे |” 


_ह कहकर आवज्ञी चछ दिथा--उन्होंने सलामतखाँके 
उत्तरकी भरी प्रतीक्षा नहीं की । न द 

.._ इतने ही बीजमें सफाजीने सलामतखाँको कुछ नेत्र-संकेत 
किया। उस नेज्र-संफैतका क्या अथें था, कुछ कहा नहीं जा 
.. सकता। शायद यही उसका मतलब हो कि, सलामतखाँ झब 





4 गुंद अंट ; 


ब्र् 
है) &! 


वललन पालक 
यह थ॥०पश शोक पुसकित-ब्सू।हु॥० शमी  * प 





आवजीको जाने दे, योके नहीं; क्‍योंकि इस वार उसने आवजी- 
को रोका नहीं; ओर न उनसे ठहरनेका आम्रह किया। शायद 
सर्फोजीके नेत्र-संकेतमं ओर भी कोई अर्थ हो। 

आवजी पटेल चले गये; किल्तु श्यामा उनके पीछे पीछे नहीं 
गया। इसी बोचमें वह न जाने कहाँ सका गया। आवजीकी 
वित्तवृत्ति इस समय ऐसी नहीं थी कि, वह श्यामाको खोज 
करते, अथवा उसकी प्रतीक्षा करते। उनका मन इस समय 
कुछ क्रोध, कुछ विन्‍्ता, कुछ खेद इत्यादि विकारोंके मिश्रणसे 
भरा हुआथा। अतएव वे अकेले ही चुपकेसे निकल गये। 

इधर कुछ देर गप-शप होनेके बाद सफोरज्ञीको छोड़कर 
अन्य सब छोग चले गये। चले कया गये--किसी न किसी 
बहानेसे सफोजीने ही उनको वरका दिया। सलामतखाँसे 
कुछ बातचीत करनेके लिये इस खमय वह बहुत ही उतावला- 
सा दिखाई देता था। छोगोंके बल्ले जानेपर उसमे एक बार 
चारों ओर देखा:ओर फिर सक्कामतखाँसे बोला,“मेरे लिये तो-- 
की ओरसे कोई विशेष संदेशा नहीं है ?” जिस जगह रेखा कर 
दी है.वह नाम सफॉजीने सलामतखाँके बिलकुल कानमें ही कहा, 
अतणव सिपई उसीको झुबाई दिया।  सलामतख्राँ भी इधर- 
उधर देखकर कहता है--“है, है! सन्देशा है; ओर एक कागज 
भी है।. परन्तु वह तुझे बिलकुल अलगमें देनेकी कहा है। में 
समझता हूं, यहां देना ठीक न होगा | शायद कोई देख न ले-- 
मुझसे बार बार डांटकर कह दिया है कि, बड़ी सावधानीके 








उपाकाल 3 


खज्य्व्छ्फ़्ज़्ठ रा  अछ-३क- प्र 


साथ, विद्वकुट गुप्त रुूपसे, जहां किसौके होनेकी ससस्‍्भावना 
भी न हो, ऐसी जगह देखकर वह कागज तुझे दिया ज्ञाय | 
यहां देऊ 8 पर यहां देना ठीक न होगा ।” 

“नहीं, यहां नहीं । यहां कुछ ठीक नहीं है, न जाने कौन 
दरवाजेसे आ जाय; ओर कोन नहीं ! . किन्तु सन्देशा क्या है, 
खो बतलानेमें कोई हानि नहीं ।” यह सर्फोजी कह ही रहा था 
कि, इतनेमें एक ओरसे किखीके कुछ गुनगुनानेका भास हुआ | 
दोनोंने इधर-उधर कुछ देखा, पर यह समफकर कि, कोई बात 
नहीं है, फिर उन्होंने अपना शुघ्त भाषण प्रारम्भ किया 

“सन्देशा क्या है, सो तो तुम अभी मुझे वतला दो. और 
यहांखे उठकर चलने लगी, तब चुपकेसे पत्र हमारे हाथमें दे 
देना | एक बार वह हमारे हाथमें आ जाय, फिर कोई खिल्तः 
नहीं। में उसे पढवाकर''****? 

फिर किसीके शुनगुनानेकीसी आवाज़ आई। इसलिये 
इधर-उधर देखकर सर्फोजी बोला, “सूखे हुए पत्ते हिलते है 
उन्हींकी यह आवाज़ होगी, अथवा डस वृक्षके नीचेसे कोई 
गिरणिदान-विरशगिदान निकला होगा, उसीसे सखे पत्तोंकी 
. आवाज़ आई होगी। कोई आया-बाया नहीं, अब तुम जल्दीसे 
चह सन्देशा बतला दो तो अच्छा होगा, नहीं तो शायद कोई 
आ ही जाय--यह चोराहेकी जगह है।” 

.. सलामतख़ाँने तुस्त ही उत्तर दिया, “सन्देशा-चन्देशा तो 
- कोई विशेष नहीं है। आज़ रातको वारह बज्ञे तू अपने उस 








हे थे गुप्त भेट हे 


९००५-३०:८० कक 5 आ मय» क््ष 





. हम्रेशाबाले मकानमें आ; ओर पूरा पूरा सब वृत्तान्त मुझको 
बतला, में आज वहां आऊंगा--बस, इतने ही शब्द तकको 
बतलानेके लिए कहे हैं। इसके सिवाय इतना ओर कहा है कि 
बाकी हाल उस कागजमें हे; सो वह कागज हम लोग जब 
नीचे चलेंगे, तब रास्तेमें तुझे देंगे ।” 
सलामतसांका यह कथन अभी पूरा ही हुआ था कि, इतने- 
में सवमुच ही, सफोजीने जैसा अनुमान किया था, एक सिपाही 
महलके द्रवाजेसे आया; ओर खलामतखांसे बोला, “चलो, 
तुम्हारे घोड़कोी कुछ दाना बगेरह देना हे, उसकी सेघा-बर- 
दासका प्रबन्ध करना है। सरकारने फिर असी मुझसे बुला- 
कर कहा ।” यह खुनते ही सर्फोज्जी बड़ी तेज़ीसे चिब्लाकर 
. यह कहते हुए उठा कि, “चर, चल, आगे तू, हम आते हैं, 
घोड़ा अभी घुड़लॉलमें बांध दिया गया; ओर उसको दाना भी 
दे दिया गया, अब तू आया है--उल | जा, क्िसीको उसकी 
सेवा-बरदासमें ऊगा ।? उसके साथ ही साथ सलामत्खां भी 
उठा। सिपाही सर्फोजीकी फटकार खुनकर दोड़ते हुए ही गया। 
सर्फोजी ओर सलामतस्त्नां उसके पीछे हो गये । इतमैमें उस 
चबूतरेके पीछेखे कुछ खुसखुसानवेकीसी आवाज़ आई । इसके 
बाद यह दिखाई दिया कि, एक छोटाला सिर अपनी चातुर्य- 
पूर्ण आंखे' ऊपर करके उन दनोंकी ओर देख रहा है। साथ 
ही यह भी जान पड़ा कि, वह सिर कुछ विचारमें है। इसके 
बाद कुछ समयमें, जबकि वे दोनों दूर निकल गये, वह सिर 














- कुछ ऊपर उठने लगा; ओर फिर उस सिरके शरीरके पैर तेजीके 
साथ उन दोनोंकी ओर जाने लगे। सखिरकी दुष्ट पूरी पूरी उन 
. दोनोंके हाथोंकी ही ओर थी। इननेमें सल्ामतखांके हाथोंसे 
सर्फोजीके हाथमें घरी किया हुआ एक छोटासा कागज जया, 
सो भी उसने देखा | द 
जिन छोटेसे, किन्तु अत्यन्त तीक्ष्ण और चंचल युगल-नेत्रों- 
. ने सलामतछज्ां ओर सर्फोजीके बीचका वह सारा मामला देखा, 
ओर जिन छोटे छोटे तीक्षण युगलू-कर्णोने उन दोनोंका 
संवाद्‌ खुना, उन नेत्रों ओर कर्णोका छोटासा खासी, 
क्षणमरके लिये कुछ चकितला होकर खड़ा हो गया, और 
. फिर कुछ विचित्र तरहसे, आगे जानेवाले उन दोनों व्यक्तियोंकी 
ओर, देखने रूगा। उसके मनमें क्या विद्यार आ रहे थे, 
और क्या नहीं आ रहे थे, सो कुछ ठीक ठीक बतलाया नहीं जा 
सकता | क्योंकि उसकी अवस्थाको देखते हुए यह सम्भव नहीं 
. था कि, उसके मनमें राजनीतिकी कोई बड़ी बड़ी बातें--कोई 
.._ राजनैतिक युक्तियां-आती हों, कि, जिनपर वह मन 
ही मन खोचता-विचारता हो! डखकी उच्च छोटी अचश्य 
थी, पर लड़का अत्यन्त चतुर ओर चपछ दिखाई देखा था। 
यह तो उसकी सदैवकी आदत थी कि, उसके आसपास 
यदि कोई कुछ बाते करता हो, अथवा कोई कुछ कार्य 
करता हो, तो वह बड़े ध्यानसे देखता-सुनता रहता था। 
सब प्रकारकी जाँच वह बड़ी होशियारीसे करता थां। बस, 






९६ (  फ गु 'मेट ट ) हि 
५ ८५ ८“ मा 





«छश॥०० बरी नस एक ग्राफऔ ६53०० 


उसी आदतके अनुसार, जान पड़ता है, अवतकका उसका सार 
व्यवहार था । जो हो, क्षणभर्के छिये अब उसके मनमें मानो 
यही प्रश्व उठने छगे कि, इन दोनोंके पीछे क्या अब और कुछ 
दुरतक में जाऊ ? अभीतक जो कुछ मैंने देखा है, उससे अधिक 
क्या ओर कुछ मुझ मालूम होगा ? परन्तु इन प्रश्नोपर शायद 
उसके मनमें अब यही निश्चय हुआ कि, इनके पीछे जानेमें अब 
कोई छाभ नहीं । क्योंकि तुरन्त ही उसने अब किलेसे नीचे 
उतरनेवाला मार्ग पकड़ा। सलामतख़ां ओर सर्फोजी दोनों 
आगे जा रहे थे, परन्तु वह बड़ी सिताबीके साथ उनके पास 
हीसे निकल गया | सर्फोजीने अपने कब्लोंपर हाथ 
फेर्ते हुए एक बार उसकी ओर छुद्र दृष्टिसे देखा, 
परन्तु वह चालाक लड़का, वातकी बातमें, उन दोनोंकों 
घता बताकर, किसी हिरमके बच्चेकी भांति उछलता 
हुआ किलेसे नीचे उत्तर आया। किलेसे नीचे उतरनेके बाद 
शायद्‌ दम मारनेके लिये ही वह कुछ थोड़ासा ठहरा; और जोसे 
कोई मार्य भूछा हुआ हिसनका बच्चा, कहीं दो मार्गोके आ 
पड़नेपर इधर-उधर चकराने छऊगे, बेसे ही हमारा यह लड़का 
भी क्षणभैरके लिये इधर-उचचर वकराता रहा। उस सम्रय उसके 
मनमें कया आया, सो समझना कठिन था। वास्तवमें वह स्वयं 
ही उस सप्तय अपने मनकी उस दशाकों जान सका, अथवा 
नहीं, इसमें शंका है ; ज्ञो भी हो, अन्तमें ऐसा दिखाई दिया कि, 
उसके मनका कोई न कोई निश्चय हो गया--उसने आवजी 





पक ॥ 









. और वहां डसका जाना भी निश्चित हो चुका 





पटेलके घरकी ओर कद्म बढ़ाया। आवज्ी भी अमी हाल ही में 
अपने घर आकर कुछ आराम करने छगे थे | न जाने ये 
किलेपरसे उतरकर आये थे, इसकारण, अथवा अन्य किसी 
कारणसे, उनका चेहरा बिलकुल. उतरा इुआला दिखाई दे 
रहा था। द 


चह लड़का, जो किल्ेपरसे दौड़ता हुआ आया, ठीक 
आवजी पटेलके सामने ही आ उपस्थित हुआ गॉवमरमें मावो 
धत्येकक्ले घरमें उसे जानेकी पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी । परेलकीके 
सामने ज्यों ही वह पहुंचा, त्यों ही उन्होंने बड़ी बड़ी आंख 
निकालकर उससे कहा-...“आरे श्यामा, बदमाश, अभीतक कहां 
था ! में ऊपरसे चछा, तब तू कहां गया था? झा !” परन्तु 
श्यामा उनके इस घम्रकौपूर्ण प्रश्नसे घवड़ानेवाला लड़का वे 
था। वह उनके ध्रश्षका कुछ सी उत्तर न देते हुए बोला, “पं 
वहीं था; और कहां गया था! आप बड़ी जब्दी चले आये 
उस सार्फोजी और सलामतर्खाकोी डरकर ! किन्तु परथेछ- 
जी, सफोजी ओर सलामतर्खांका कोई गोलप्ाल अवष्य है। 
मैंने आपके सामने हो. उनको छिपकर आंखोंले इशारा करते 
हुए देखा। उनकी कुछ कुछ बातें भी मैंने खुनीं, ओर 
एक छोटासा कागज भी सर्फोजीको देते हुए देखा | 


.. और पदेलजी, आज रातके बारह बजे, किलेकी उस ओर जो 


बाघका भरना है, वहां सर्फोजीको किसी न किसीने बुछाया है 
दा है--सच कहता 


छ 





- ८2८००: “५०. 















है, सर्फोजी कोई न कोई गुप्त कारस्थानी अवश्य कर 





हूं, पल 
रहा है।- 

"यामा पहलेपहल जब बोलने छगा, तब आवजी पटेलने 
समका कि, यह छोकरा कुछ न कुछ शैतानी कर रहा है; ओर 
उसकी घपकानेके किए आवज्ञीने कुछ शब्द्‌ भी कहने चाहे: 
परन्तु जब श्यामा एकके बाद एक, अनेक बात बतला गया, 
तब आवजीकी चित्तवृत्ति बिलकुल बदछ गई। उन्होंने भरती- 
भांति सम्रक लिया कि, श्यामा जो कुछ कहता है, उसमें कुछ 
न कुछ सत्यवा अवश्य है; ओर उस ओर ध्यान देना आवश्यक 
है। श्यामा गांवभरमें सबसे अधिक बदमाश लड़का गिना 
जाता था। कोई उसे बड़ा बातूनी कहता, कोई उसे बड़ा शुरू- 
घर्टाल कहता। पर्सु प्या? उसको सब कोई करते थे; ओर 
प्रत्येक यही समझता था कि, इसके बराबर ईमानदार ओर 
कोई छड़का नहीं है। आवजी पटेलकी तो डसपर बड़ी ही 
कृपा थी | पशेलजी ययपि सदैव उसको गाली ही दिया करते, 
लथापि यदि किसी दिन श्यामा उनकी नज़र न पड़ता, तो खास 
तौरपर उसे बुछवाना पड़ता था। उस लड़केक्की सत्यप्रियता, 
चातुर्य, ईप्रौनदारी इत्यादिके विषयमें सबको विश्वास था; ओर 
उलकी वायाछता उसके अन्य गुणोंके लिए शोसादायक ही थी। 
उपयु क्त छत्तान्त उसके झुखसे सुनकर आवजी परेल कुछ देर- 
तक चुप बैठे रहे । उस समय ऐसा जान पड़ा कि, कुछ ऐसी 
पिछली बातें उनके ध्यानमें आई कि, जो श्यामाके बतलाये 








ि 
8 डषाकालू : 


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भा ख्य्चह्ह्ख़््द्ा हर धधयापका 
ज्च्््फ़्ख्ण 








हुए चृत्ताग्वसे मेल खाती थीं। इतनेमें घरसे स्नानके लिए 
उठनेको परेलजीके यहां सन्देशा आया। परन्तु परशेलजीका 
खित्त उपय॒ रू बातोंका विचार करनेमें ही निम्न हो रहा था। 
घरसे जो सन्देशा आया, वह मानो पटेलजीके कार्नोलक पहुंचा 
ही नहीं। इतनेमें वे एकदम उठकर बैठ गये; ओर श्याप्ताके 
सिरपर एक चंदत जप्ताकर बोले, “अरे यह सब तू कहांसे 
झुनता रहा १ जान पड़ता है, यह खब भ्हूठ ही कहता है-- 
इसपर इयामा एकद्म बोला, “नहीं, नहीं, परेलजी, में 
सोगन्द्‌ खाकर कहता हूँ, कभी झूठ नहीं बोलूंगा। जो कुछ: 
आपको अभी बतलाया है,सो सब मेंने सुवयं अपने कानोंसे सुना 
है, ओर दोड़ता दोड़ता आया हू' आपको बतलानेके लिए | 
परटेलजी, में सच कहता हूं, यह सफोजी बड़ा ही खोटा आदमी 
है। किसी न किसी बुरे काममें वह अवश्य लगा है। उसकी" 
बोल-चाल, काम्र-काज, उठक-बैठक, सब बदमाशीसे भरी है।” 
वास्तवमें आयजी परदेलको यह शंका ही नहीं हो सकती थी कि 
श्यामा रूठ कहता है, अथवा कुछ बनाकर कहता है! इस 
समय उन्होंने श्यामाको झूठा बनानेके लिए. भाषण किया, सो 
मानों इसीलिए कि जिससे उनके मनके उस सम्यकि विचार 
खुलने न पावें, या उन विचारोंके कारण आई हुई विमनरुकता 
बाहर प्रकट न होने पावे। श्यामाने उनको क्‍या उत्तर दिया, 
खो उन्होंने खुना होगा, अथवा नहीं, इसमें सन्देह ही है। 
अस्तु ।. वे बहुत देरतक विचार करते रहे, और फिर उठे, 


गुप्त भेंट 





तथा श्यामासे कहा, “क्या लड़के, तूने अमी रोदी खाई है या 
नहीं ?” श्यामाने कहा, “नहीं |” यह सुनकर पदेलजी बोले, 
“अच्छा तो चछ, मेरे साथ रोदी खा के; ओर फिर जब्दी किले: 
पर जा; ओर सुभानको बुला रा ।” 

एयामा तुरण्त हो बोछ उठा, “अजी, फिर रोटी खानेफी ही 
णेसी क्‍या जददी पड़ी है ? में अभी उसे बुछाये लावा हँ। फिर 
घर जाऊंगा, तब रोटो खा छूगा। श्यामा रोटीके लिए रुकमै- 
वाला नहीं; ओर न रोटीके छिए वह अपने काम ही छीड़ेगा। 
हां, अम्मा जरा नाराज होंगी, सो नाराज होने दो--बह तो 
ऐसी रोज ही नाराज होती रहती है ।” 

इतना कहकर वह चलनेकों तैयार हो गया, पर आवजी 
पश्लने उसे जाने नहीं दिया । पहले अपने साथ उन्होंने उसे 
रोटी खिलाई; ओर फिर सुभानको घुलानैके लिए भेजा | अच्बल 
तो लड़केक्की जाति खाभाविक ही बड़ी चपल होती है, फिर 
उसमें भी श्यापाके लिए क्या कहना । वह जिस वेगके साथ - 
किलेसे नीचे उतरा था,उससे दूने वेगके साथ इस बार सुमानको 
बुलानेके लिए ज्ञा रहा था। आज रावको कोई व कोई तमाशा 
देखनेको मिलेगा, खुभान ओर पटेलजी सर्फोजीकी ताकमं रहेंगे; 
ओर फिर में भी उनके पीछे पीछे जाऊंगा; और सब तमाशा 
देख गा--बस, इसी प्रकारके विचार बरावर उसके मनमें आ रहे 
थे। ओर इन्हीं कौतूहरूप्रद्‌ विचारोंकी सनकमें वह छोकरा 
खूब तेजीसे चला जा रहा था। बातकी बातमें वह किलेपर व 


शि 















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4 उपाकाल हु 
१छ हक स्थे 
.. ७ 78) ७) 7, ब- आ थ  0 .. 





पहुंच गया; और फिर सर्फोज़्ीकी आंख बवाकर खुभानसे 
प्रिछा। खुमानकों पर्लेलजीका सन्देशा बतलाया; और तुरन्त 
ही फिर छोट पड़ा। किन्तु लोटते हुए वह सर्फोजीको नजरसे 
बच नहीं सका। सर्फोजी मार्गपर ही मौजूद था। श्यामाको 
वापस आते हुए उसने देखा; ओर कुछ चक्तितला होकर उस- 
को यराबर देखता रहा । श्यामा बड़े चक्करमें पडा । उसमे 
सोचा कि, अब यदि में इस दुछ सिपाहीके सामनेसे निकछता 
हू', तो यह यह कहकर कि, 'तू ऊपरसे नीचे; ओर नीचेसे ऊपर 
बार बार क्‍यों आता है ? मुझको डांटे बिना न रहेगा, ओर 
यदि उसकी आंख बचाकर दूसरी ओरसे जाता ह', तो भी अच्छा 
नहीं है। इससे मेरे आने-जानेका कारण शायद यह समझ 
आयगा; ओर रावका खारा तमाशा बिना कारण ही हाथसे 
चला जायगा । इस प्रक्तारकी अनेक बातें उसके मनमें आई', 
परन्तु श्यारा एक बड़ा ही ढीठ रूड़का था--वह सामनेके 
मागगसे सरफोजीके पाससे ही आने रूमा | सचमुच ही, जैसा कि 
उलने अशुमान किया था, सफॉजीने उसे रोका, ओर धमकाया, 
पर लड़का बड़ा अंबरदस्स था, वह भला इसकी क्यों परवा कप्ते 
लगा | उसके सामने ढिठाई करके, उसकी थोड़ी'बहुत हँसी 
करके उसे इँसाकर; ओर इस प्रकार उसे घता बताकर निकल 
गया। उसके पीछे पोछे खुभान भी किलेके नीचे उतरा। यह 
देखकर अजश्य सर्फोजीको कुछ सन्देह हुआ। परन्तु जो 
मनुष्य अपना अमीष्ट उद्द श्य सिद्ध, करनेको उत्सुक होता है, 








६ श्‌ [2:24 रे 


नकली पे 
हा । 6५३ ५५ आई >ौ-+न्यहीि ीकक_-+ ०... «तप: (० शरनन 


उसके सामने ऐसे छोट-बड़े सन्देह चाहे जितने आब, वह तुरब्त 
ही उनको व्यर्थ समझकर अपने मनका समाधान कर लेता 
है | तदनुसार सर्फोजीने भी अपने सनका समाधान कर ठिया | 
इधर सुभान आयजी पदेलके समन्देशेके अनुसार उनके पास 
गया। दोनोंका बहुत देश्वक एकान्तमें सम्साषण होता रहा । 
अन्त श्यापाके बताये हुए समय और स्थानपर रातमें 
जानेझा निश्चय छुआ | 

सरफोजी ओर किलेपरके अन्य नोकरोंमें पटती नहीं थी। 
इधर आवजी पशेलके साथ भी उसका मेरू नहीं था, सो 
पाठकोंकों मात्यूप्त ही हो चुका है। सुभानका ओर सर्फोजीका 
तो बहुत ही बैमनसूथ था, इसलिए जब आवजी तथा खुसान- 
को यह माप हुआ कि, भाज सर्फोजीकी कोई न कोई बुराई 
हमको अवश्य माझू्म होगी, तब उनकी मानों एक प्रकारका 
आवन्द्हीसा छुआ | श्यामाके कथनपर उन्हें पूरा पूरा विश्वास 
नहीं होता था, इसलिए उन्होंने बार बार उससे खोद खोदकर 
पूछा--“खलामतखांने क्या कहा था ? सफॉजीने फिर उससे 
क्या कहा ? जिससे आज उसकी शुप्त भेंट होगी, उसका ताम 
क्या तुझको मालूम हुआ ? सर्फोज्ञी अथवा सलामतने कया 
उसका नाम लिया था ?” इत्पादि प्रश्न दोनोंने मिलकर दार 
बार उससे पूछे। परन्तु जितनी जानकारी उस लड़केको थी, 
उतनी उसने बार बाश उन दोनोंको बतला दी थी। जो बात 
उसे मालूम ही न थी, सो वह कहांसे बतलाता? अस्त | 


















छो * फिर 
॥ उषधाकाल 5 
5 शः 


रट 


६२ 2) - 


व््दुकुल ०० 
सारा बूचान्त सुन छेनेपर उन दोबोंने उस रातको वहां जानेका 
निश्चय किया। घुभानने अपने अन्दःचक्षु एक बार उस स्थानकी 
ओर घुमाकर भलीभांति देखा कि, वहां सर्फोजी ओर 
उससे जो मिलनेवाला है, वे दोनों कहां बैठेंगे ; ओर कहां खड़े 
होंगे, तथा हम लोग पहले जाकर कहां खड़े हों, जिससे उनकी 
गुप्त पंत्रणा ठीक ठीक हमारे कानोंमें पड़े । परन्तु झुमागकी 
खूरतसे यह नहीं जान पड़ा कि, अपने अन्तःचक्ष ओंके उस 
निरीक्षणसे उसको कोई विशेष सन्‍्तोष हुआ। बहुत देश्वक 
यशाबर वह विचार करता रहा। अच्तमें आवजीकी पीठपर 
थाप मारकर वह बोला, “परटेलजी, में एक बार उधर हो 
आता ह'। उस स्थानक्की ओर बहुत दिनिसे में गया नहीं हू', 
इसलिए पहले अच्छी तरह देख आऊ', वो ठोक होगा। इसके 
सिवाय अमीसे यहां बैठा रहना भी ठीक न होगा। एक बार 
किलेपर हो आना ही अच्छा है। वह बदमाश ज्यों ही वहांसे 
चलेगा, में तुरन्त तुम्हारे पास आ जाऊगा। तुम तैयार रहो, 
बस (” इतना कहकर वह तुरन्त ही उठ पड़ा। श्यामाने कहा, 
“हैँ श्षी रातकों आपके पीछे पीछे चलूगा।” झुमान वहांसे 
चलफर जहां जानेवाला था, वहाँ गया; ओर जौ कुछ उसे. 
देखना था, थो अच्छी तरह देखकर फिर किलेपर यला गया | 
चह अपने कार्यमें बिलकुल निमझ्नलसा दिखाई दिया। परन्तु 
उसका सम्पूर्ण ध्यान उच समय सर्कोजीके कार्योकी ओर था । 
बीच बीयमें किसी कामके बहाने वह खदर द्रवाजेपर जाता; 





२० 





और किसी न किसीके द्वारा सर्फोज्ीका सारा हाल जान लेता 
था। साथ ही वह इस बातका मी पूरा पूरा ध्यान रखता था 
कि,किसीको उसपर सन्‍्देह न होने पाये । समय ज्यों ज्यों नज- 
दीक आने छऊगा, त्यों त्यों वह अधिक उतावल्ा होता गया। 
अच्तम अपने स्वामीके पास जाकर उसने यह कहकर इजाजत 
छे ली कि, “आजकी रातको मुझे नीचे गांवमें किसी काम 
जाना है, सो छुट्टी दी जाय ।” इसके बाद वह एक ऐसे मार्ग 
नीचेकी ओर चला कि, जिस मा्गसे सफॉजीसे भेंट नहीं हो 
सकती थी। सर्फोजी यद्यपि अभी अपने स्थानसे नहीं चला 
था; परन्तु सुभानने इस बातका पता छूगा लिया था कि, 
सफॉजी उस समय आज अवश्य जायगा;, ओर उसने अपने 
अधीनस्थ नायकसे इस बातका भी प्रबन्ध करा लिया है कि, 
जिससे अप्लुक समयपर उसके अनुपस्थित रहनेसे किसी 
प्रकारकी गड़बड़ी न मे । यह समाचार पाते ही मूछोंपर ताव 
देते हुए खुमानशवकी सवारी, एक बिलकुछ नवीन ही मार्गसे, 
किलेके नीचे उतरने लगी। उसके सिरमें कोई न कोई विचार 
चक्कर काट रहे थे। इससे, अवश्य ही, मार्गकी ओर जितना 
ध्यान देना दयहिए था, उतना वह नहीं दे खकता था। फिर 
भी चह इतनी शीघ्रताके साथ उस पहाड़ी किलेसे नीचे उतर 
रहा था, कि जैसे ऊपरसे छोड़ा हुआ कोई गेंद, अथवा तेजी- 
से दोड़ता हुआ कोई सांप ! पैरोंके नीचेका मार्ग उसे इतना 
मालूम था कि, जहां कहीं पत्थर आ पड़े, अथवा. कोई मोड़ 


८0  /॥# 








। 


हू उचाकाल :प 
“फ्यताहजुकछ 4 





हक. 
>उ०+बीकि: 44००३ 
बीजमें आ जाय, तो घह बिना नोचे देखे ही पार करता जाता 
था। पहाड़ी किलोंसे नीचे उतरता ओर ऊपर चढ़ना क्लितना 
कठिन होता है, इसका अनुभव हमारे उन्हीं पराठकोंकों हो 
सकता है कि, जिनको कमी ऐसे क्लिलोंपर छढ़नेका मोका 
आया है; परन्तु उस सम्यक्ते उन क्रिकोके नौकरोंमें इतनी चप- 
लता रहतो थी कि, उतार और थड़ाव,दोनोंमें वे हिस्वकी तरह 
उलछछते कूदते बले जाते थे । अस्तु । 

. छुभान रास्ते रास्ते यह सोचता जाता था कि,इस नीजसे-- 
सर्फोजीसे-- आज जो मिलने आनेवाका है, वह है फोम ? क्यों 
प्िलने आता है ? बीजापुरसे आता है, सरों भी सिफ़े इससे 
मिलनेके लिए । यह बात क्‍या है? उसको चिट्ठी भी दी ! पर 
यह झूख पढ़ना भी तो नहीं जानता ! चिलूम सुलगाकर ऐी- 
गया होगा | और क्या करेगा ? किन्तु यह मामला क्‍या है! 
जान पड़ता है, इसमें कोई व कोई बड़ा भेद है, नहीं तो इसकी 


इतली पूछ कौन करता ? इसने कुछ न कुछ किसीसे डींग मारी 


होगी, किसीको कुछ वचन दिया होगा, नहीं तो ऐसा क्‍यों 
होता १ भछा बच्चाजी | सर्फो, में बामका सुभान हूं---आओ तो 
एक बार बच्चा हमारे पंजेमें | में अबतक वे पीछेकी-*-* **'भूछा 
नहीं हूं । बह मेरे सिरका घाव अबवक ताजा है। बेटाजी! 
तुमने हमारे सिरपर घाव नहीं वि.या--लापकी पू'छपर चोट की 
है |! में वही सुमान हूं, ज़िसका"**तू समऋता क्‍या है ? पूरा पूरा 


_ बदला निकालूगा। ओर उसमें भी यद्‌ कुछ नानासाहबके 
: विरुद्ध हुआ, तो फिर समक के कि फिर्‌०५****" 


ः _युस्ध भेंट . भट ५ 


द एड लत पाक एल 





इसी प्रकारके वियार करता हुआ वह नीचे आ पहुंचा; 
और शीघ्र ही आवजी परटेलके घर पहुंचा। आवजी विलकुल 
तैयार थे; परन्तु उनका मन अब तैयार नहीं था। इसलिए 
इस प्रकारके बहाने वह बतलाने रंगे कि, तू अकेला ही आ-- 
परी क्या आवश्यकता है ? हम दोनों ही यदि जायँगे,तो शायद 
उनको यह खन्देह हो कि, छिपकर आये हैं; ओर उनकी गुप्त 
मंत्रणा खुनते हैं, इत्यादि[ सच तो तह था कि आवजी अब 
उतरती अवस्थाके पुरुष थे, अतणव मगड़ोंसे वे बहुत बयना 
याहले थे। परन्तु सुभान भला क्यों मानता है! उसने उनको 
घस्तीर ही छिया। अन्‍्तमें बेचारे उठे ओर चल दिये । श्यामा 
उस समय कहीं न दिखाई दिया। दोनों ही याहते थे कि, वह 
साथ रहे; परन्तु फिर यह भी सोथा कि, रूड़का है, शायद्‌ कुछ 
कर बेठा; ओर हम कुछ सुनने भी न पाये; ओर भेद खुल गया, 
तो क्या लाभ होगा ? बड़ी गड़बड़ी मचेगी। बस, यही सोच- 
कर उन्होंने श्यामाकी तलाश नहीं की, ओर चल दिये | गाँवकी 
सीमा पार करके अब वे जंगली रास्वेषर आये, आचज्ञी बेचारे 
ठोकर खाने छग्रे | उनका शरीर अब उनसे न सम्हलने ऊूगा | 
रत अँघेरी थी,ओर झुभानके समान थपल मज्ुष्यका साथ ! फिर. 
क्या कहना है ! “अरे राम ! अरे राम !! हे ईश्वर ! है ईश्वर !!” 
के शब्द प्रत्येक ठोकरपर बेचारेके मुखसे निकलमे ढगे। यह 
देखकर खुमान बोला, “जुप्‌ चुप्‌ परटेलजी, क्‍या है तुम्हारे 
मनमें ! सब भेद्‌ खोल देना चाहते हो, मालूम होता है। बिछ- 








कक 





उधाकाछ 8 जज 
ह आ 22222७ ... या क्रफ न्यससत-नयेज- 





कुछ जुप रहो-में जहांतक इस मामलेका विद्यार करता हूं, 
वहांतक यही मालूप होता है कि, सर्फोजी किसी बड़ी कार- 
स्तानीमें छगा हुआ है। कोई न कोई भयंकर घढ़यंत्र बह करना 
चाहता है। नानासाहबके साथ इसकी बडी दोस्ती थी। पीछे पीछे 
तो जानासाहब इससे खूब सलाह-मशबिरा किया करते थे | इन 
सब बातोंको याद करके बड़े ही विचित्र विचार गेरे सनमें आते 
है | इस नीचके मनमें दया है? कोन इससे मिलने आवेगा! 
इसी प्रकारकी कुछ बातें बिलकुल धीरे धीरे कहकर वह आश- 
जीको चुप करनेका प्रयल्ल करता था। आवजी थेचारे कहते 
ही क्या ! सब ठोकरें इत्यादि चुपकेसे सहन करते हुए यद्धे 
जारहे थे। नियत स्थान ज्यों ज्यों निकट आने रूपा, सुभान 
आवजीको ओर भी अधिकाधिक दाबने छूगा; ओर आवजी 
ठोकरें भी अधिकाधिक खाने लंगे। उनका कष्ट बढ़ने 
लगा; ओर चुप रहनेकी आवश्यकता भी बढ़ने रणी | दोनोंका 
समीकरण उनसे हो नहीं सकता था । इतनेमें खुभानकों मालूम. 
हुआ कि, सामनेसे कोई आरहा है; और ताली बजाकर इशारा 
करता है। सुभान तुरन्त ही ठहर गया; ओर आहर लेने छूणा। 
इतनेमें बिलकुल पाससे ही, घीमे खरसे उच्चारण किये हुण, ये 
शब्द उन दोनोंके कानोंमें पड़े--“सुभाव |! परदेलजी, अब एक 
अक्षर भी मुंहसे न निकालो। वह आदमी आगया; ओर 
घोड़ेको पेड़में बांधकर उस जगह खड़ा है, सफॉजी अभी नहीं 








। गुप्त भेंट ; 


शक्षपकााााधककएकाब्क कक 
“तथा अत न8 ० 





आया, जल्‍दी ही आवेगा | तुप्त बिलकुल भीरेसे, चप्पल निकाल- 
कर, उधरसे आकर देखो | उसके पाल जानेकी आवश्यकता 
नहीं ।” ये शब्द किस चतुर; ओर छोटेसे, सुखसे निकले थे, सो 
उन दोनोंने पहचान छिया; ओर उसको सुनकर दोनोंकों आश्चय 
भी हुआ ! वे समझते थे कि, दोपहरकी थकावटके कारण 
छोकरा घरमें जाकर सोता होगा, परन्तु उनका यह अचुमान 
गलत निकला; और छोकरा उनके पहले ही वहां जाकर हाज़िर 
हो गया। ऐसे विकट स्थानपर;, ओर रातके समय, इतनी शीघ्रता- 
से उसको आया हुआ देखकर दोनोंको अत्यन्त ही आश्यय 
हुआ।... 
उयामाका उक्त कथन सनकर दोनोंहीने उसीके कहनेके 
अनुसार किया। उन्होंने अपने अपने चप्पछ तुरन्त ही निकारुू 
लिये। श्यामाने उनको अपनी फटी हुई घोतीमें लपेट लिया; 
ओर बगलमें दाबकर वह आगे आगे चलने छूगा। अब बन्द्रदेवने 
क्षितिजसे अपना सिर थोड़ा थोड़ा ऊपर निकालना शुरू किया 
था, इसकारण मार्ग चलनेमें अब उनको थोड़ी-बहुत सहायता 
भी मिल रही थी। श्यामाने जिस टेकड़ीका पता बतलाया 
था, उसके पीछे जाकर तंग जगहोंसे चढ़ना ओर छिपकर बैठना 
बहुत कठिन काम था; पर इस समय कठिनाईसे घबड़ाकर पीछे 
हटनेका भी मोका नहीं था| उतना साहस भी यदि न किया जाता, 
तो अबतकका किया हुआ सारा प्रयल व्यर्थ था, यह वे अच्छी 
तरह जानते थे। पहले वे दोनों जिस जगह शुप्त भेंट करने- 
हे 











वाले थे, वह जगह बिलकुल सुलम थी; और उसके आस-पास 
_छिपकर बैठनेके स्थान भी अच्छे थे परन्तु अब जिस टीलेपर 
उस आदमीके खड़े होनेकी खबर श्यामाने बतलायी थी, उसके 
पीछेकी ओरसे तंग जगहोंसे ऊपर चढ़ना; और टीलेके पिछडे 

सागमें नीची जगहोंमें, मेढ़ककी तरह, छिपकर बैठना, और इस 
_ ध्कार ऊपरके लछोगोंकी गुप्त बातचीत सुनना बहुत कठिन काम 
 था। परन्तु इसके सिचाय और कोई मार्ग नहीं था। पटेलजी 

के लिए यह प्रयास अत्यन्त असम्भव था। उनका इस प्रकार 
चढ़ना मानो एक प्रकारसे स्वर्गारोहण ही था। इसलिए 
उनके विषयमें इतना ही निश्चय किया गया कि, वे टीलेके नीचे 
किसी गुप्त स्थानमें बैठ, जिससे वे किसीको दिखाई न पड़े । 
किसी प्रकार भी अपना अस्तित्व उन दोनों व्यक्तियोंपर प्रकट न 
होने दें। इस प्रकार सलाह होकर तदनुसार कार्य करनेका 
निश्चय हुआ; ओर आवजी पटेलको टेकड़ीके पीछेकी ओर एक 
खडमें बैठाकर सुभान ओर श्यामा दोनों उस पहाड़ीके पीछेकी 
ओरसे ऊपर चढ़ने छगे। वह चढ़ाई इतनी कठिन थी कि 
आंवजीको क्षण क्षणपर यही विश्वास होने लगा कि, अब 
दोनोंमेंसे एक न एक अवश्य शिथिरू होकर नीखे गिरेगा और 
उसकी कपालक्रिया होगी ! सुभान कुछ न कुछ सावधानीसे 
चढ़ रहा था, पर श्यामा तो बिलकुल मेढककी भांति, ही फुद्‌- 
कता हुआ ऊपर जारहा था। चढ़ते चढ़ते वह एक ऐसी 
जगहपर पहुंचा कि, जहांसे ऊपरकी मामली आवाजकी बात- 








कह ५ 


गुप्त सेंट है 


हा ०००-२०८२०३३६-२६६-०७ 


चीत सहजमें खुनाई दे सकती थी । उसी जगह एक खोह थी, 
जिसमें घुसकर बेठनेके किए श्यामाने सभानको इशारा किया: 
ओर स्वयं ओर भी कुछ ऊपर गया--इतना ऊपर गया कि, 
जहांसे हाथ ही दो हाथ टेकड़ी ओर रह जाती थी--और फिर 
वहीं छिपकर बैठ गया। इस दशामें उसको यदि इस समय कोई 
देखता, तो यही जान पड़ता कि, कोई बन्दर खोहमैं छिपा बैठा 
है | इस प्रकार सुभान ओर श्यामा ऊपरकी ओर काम लगाये 
हुए इस उत्सुकतासे बैठे कि, कब आवाज़ आवबे; ओर कब हम 
सुनें। ऊपर ट॑ कड़ीपर जो व्यक्ति था, वह कभी कभी उकता- 
कर इधर-उधर टहलने लगता, तब उसके पैरोंकी आहट उन- 
दोनोंको भलीभांति खुनाई देती। इसकारण उनको विश्वांस 
हो गया कि, ऊपर जो बातचीत होगी, वह भी हमें अच्छी तरह 
खुनाई देगी । बहुत देर हो गई, पर सर्फोजोका कहीं पता नहीं । 
अतएव ऊपर जो व्यक्ति इधर-डधर घूम रहा था, वह बहुत 
तरुत हुआसा दिखाई दिया। उसने चार-पांच ऐसी गालियां 
सफॉजीको दीं कि, जो लिखी नहीं जा सकतीं। इसके सिवाय 
वह ओर भी कुछ ऐसे वाक्य कह रहा था कि, जिनसे सर्फोजी- 
के सात पीड़ियोंके पुरखे दर जासकते थे। इतनेमें उसने देखा 
कि, कोई उस टंकड़ीपर खढ़ रहा है। तब तो घह और भी 
अधिक बकने लगा। विशुद्ध उढूँ भाषामें गालियां देते हुए वह 
बोला, “हरामज़ादे, इतनी देर तूने क्‍यों रूगादी ? अपने 

बापको इतनी देरसे यहां बैठाऊ रखा? तुककों शरम नहीं है 











डी 


जि 


+ 








लगती ? इस समय तुफपर मुझे इतना क्रोध आया है 
कि, इसी तलवारसे तेरे टुकड़े टुकड़े करके यहीं फेक दूं। पाज्ी 
कहींका। क्या तू समझता था कि, जितनी बातें तूने मुझे 
बतलाई', उतनी सभी मैं सच समझगा ?” सर्फोजी घबड़ाई हुई 


आवाज़से बोला--“ मैंने जितनी बातें बतछाई', उनमेंसे 


एक भी झूठ नहीं। सरकार, मैंने जितनी बातें कहीं, सब सच 
हैं। क्‍या मैं जानता नहीं हूं कि, झूठी बातें आपसे कहला भेज- 
नेमें मेरा गुज़ारा कैसे हो सकता है १” 

“तब क्या तू जो कहता है कि, 'अब वह नमकहराम छोकरा 
इधर कभी नहीं आवेगा, इसका प्रबन्ध हो गयाः--सो क्या सच 
है ?” 

८ बिलकुल सच । आप उसके विषयमें बिलकुछ सन्देह न 
करें । वह अवश्य चछा गया। उसका अब पूरा पूरा 
बन्दोवस्त हो गया, आप निश्चित समझे। में जिसको 
एक बार कहंगा कि, यह काम करता हूं, उसे फिर बिना किये 
8 छोड़ 'गा ) मैंने खयं ही उसको जानेमें सहायता दी है। मने 
खुद्‌ उसे बतलाया है कि, वह कहां जावे; ओर कैसे जावे । सब 
रास्ते मैंने स्वयं ही बतलाये हैं। ओर उसको अबतक पूर्ण 
विश्वास है कि, मेरे समान विश्वासपात्र नोकर तथा मित्र 
संसारमें कहीं नहीं मिलेगा । यह बिलकुल ठीक कहता हूं, आप 
विश्वास रखें । अब आप निश्चिन्त होकर अगली कार्यवाहीमें 
'रूगें। में कर ही रहा हूं। इस तरफसे आप बिलकुल निश्चिन्त 


(१०१ 2 : (यप्त भेंट & 


>गृक्र०बशिलुफ "हमसफर ह १००२ मेट ४६6०० 





रहें। यहांका सारा प्रबन्ध मैंने अपने हाथमें लिया, सो कई 
बार आपसे निवेद्न कर ही चुका हूं | बिलकुल निश्चिन्त रहिये-- 
हां,...” सर्फोजीके मंहसे “हां” का शब्द शुनते ही वह महाशय 
कुछ खुश; ओर कुछ नाखुश भी होकर कहता है-- हां १ 
हाँ क्‍या ? बोल, बोल, तेरे (हां? का क्‍या मतलब है? धां-हां! 
कहकर जो कुछ तू कहना चाहता हो, जो कुछ तेरी शते हो, 
सो कह क्‍यों नहीं डालता ? अरे बदमाश, तेरे समान लोग यदि 
संसारमें होते...” इतना कहकर न जाने क्‍या समभ्कर उसने 
अपनी जीभ दांतों तछे दुबाई; भोर फिर एकद्म अपना रूवर 
बदलकर बोला, “हां, तेरा इनाम तुझे शीघ्र ही मिलना चाहिए, 
यही तो ? तेरे द्वारा यदि हम काम करा छेते हैं; ओर तू हृदयसे 
यदि मेरा काम कर देता है, तो फिर तुझे तेरे योग्य इनाम क्‍यों 
न मिलेगा ? हां! कहकर उसकी याद द्लानेकी कोई आवश्य- 
कता नहीं | तेरी मददका खबाल--ओर लेरा भी खयारू--हम 
पूरे तोरसे रखेंगे। तू बिलकुल घबड़ाना नहीं।. भपरत्येकके, हर 
प्रकारके, परिश्रमका सच्चा सच्चा ओर उचित इनाम्त, यदि न 
दिलाया जाय, तो फिर उससे परिश्रम ही क्‍यों लिया जाय १ 
बोल | ओर भी कोई समाचार हो, तो कह डाल | जितना समा- 
चार दिया था, उसका काम हो गया। उसका जितना उचित 
इनाम मिलना चाहिए, उतना तुझे अवश्य मिलेगा । आगे बोल | 
.. बोल। जिस बातके विषयमें मेंने तुकसे विशेष रूपसे कहा था, 

सो हो रही है, अथवा नहीं ? यदि वह न हुई, तो तेरे आजतकके 





लय 


ज्यो.फ्रि 














3 १०२ 


रोका और तेरी इस सहायताका कुछ ही उपयोग न 
होगा...” 

“वह-काम बहुत कठिन है। मुझसे जो कुछ हो सकता है, 
सो में करता हूं। अन्य किसी मार्गले भी यल्न हो रहा है। 
किन्तु...” क्‍ 

“किन्तु ! किन्तु-विन्तु में कुछ भी नहीं खुनू'गा, वह तो 
पहले होना चाहिए | यहांतक जो कुछ हुआ है, सो तो कुछ भी 
नहीं है। यह तो प्रत्येक कर सकता था| तू अत्यन्त विश्वास- 
पात्र है, अत्यन्त ईमानदार है, संकटके समय यदि कुछ काम 
देगा, तो तू--ऐसा ही तुकपर नानाफा भरोसा था न ! तूने ही 
तो कहा था कि, चलते समय वह ज़नामखानेमें भी कह गया है 
कि, तेरे ही भरोसेपर रहें, तू मोका पड़नेपर प्राण भी दे देगा ।” 

बहुत देरतक इस प्रश्षका सर्फोजीकी ओरसे कोई भी उत्तर 
न मिला। उस व्यक्तिने धमकाकर फिर भी वही प्रएन किया, 






तब उसने उत्तर दिया कि, हां, हां, किन्सु...किन्सु उसका कोई 
भी उपयोग होता हुआ दिखाई नहीं देता |? यह उत्तर इतना 


घबड़ाते हुए ओर डरते हुए दिया गया कि, जिसका कुछ 
ठिकाना नहीं | . इसके बाद्‌ बहुत देरतक कोई कुछ: भी नहीं 
चोला ।-घुंधली धुंघली चांदनी छा रही थी; और वे दोनों मनुष्य 
एक दूसरेकी ओर एकटक देखते हुए बैठे थे। उनके शवासो- 
च्छवासके अतिरिक्त अन्य. कोई भी ध्वनि उस समय कानमें नहीं 
आरही थी.॥ वायु भोी यहांतक स्तब्धथी कि, आसपासके 


हा, गुप्त भेंट 





ल्ज्््््थ्र्छ कक 


वृक्षोंका पत्ता भी न हिलता था। वाह्म सश्टिमें इतनी शान्ति 
दिखाई दे रही थी, पर उन दोनों मलुष्योंकी अन्तःसश्टिमें कुछ 
भी शान्ति न थी, सो स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था। उन दोनोंके 
बाह्य चक्षु इतनी स्थिरताके साथ, एकटक, एक दूसरेकी ओर 
देख रहे थे; पर अन्तःचक्षुओंके आगे न जाने कितने भिन्न मिन्न 
दृश्य दिखाई दे रहे थे, सो प्रत्यक्ष था । बहुत देर हो गई | इसके 
बाद वह मनुष्य सर्फोजीसे फिर बोला--“ठीक है । आजसे आठ 
दिनके अन्दर, औैसाकि मैंने तुझे पहले बतलाया. है; सब 
प्रबन्ध हो जायगा। किलेदारके पास खरीता आवेगा। उसके 
साथ ही तेरे पास भी एक लछिफाफा आखचेगा | खुमान, . आवज्धी 
इत्यादि छोगोंका क्‍या प्रबन्ध किया जाय, सो भी मालूम हो 
जायगा | सलछामतखखां कल खुबह लौट जायगा | बीचमें यदि 
कोई न्‍्यनाधिक समाचार हो, तो मुझे जतलाना | में अब इसी 
समय वापस नहीं जाऊगा। कड़बोजीरावके... किन्तु नहीं | मे 
भी कल सुबह ही छोट जाऊंगा | इसके बिना वह सन ठीक न 
होगा । तू बहुत ही सावधानीके साथ रह...पर अब यदि नहीं 
भी रहेगा तो भी कोई हानि नहीं । अब हमारे मनके अनुकूल 
होनेमें कोई कठिनाई न पड़े गी ।. अच्छा, अब तू जा | में एक 
चार तुझे प्रत्यक्ष देखकर प्रतीति कर छेना चाहता था; और 
बस, आज तुरू यहां बुलानेका इतना ही उद्द श्य था | जा, जा 
अब यहांसे जब्दी। में भी जाता है। ओर हमारा काम-- 
विश्वासका काम--ऐसा ही जारी रहना चाहिए [”. 





चेक पा 


जि 


्थप् 








उधाकारू £ 
खच्च््छ्ह््ज् क 


इतना कहकर वह कुछ विचित्र तरहसे, जोर जोरसे हंसा 
और स्वयं टेकड़ीसे उतरकर जाने रूगा। इतनेमें सर्फोजी चिल्ला 
कर उससे बोला--“ किन्तु सरकार, इस टेकडीके पीछेकी 





शोर कोई छिपा है, ओर हम छोगोंने जो बातचीत की, उसे 


किखी न किसीने अवश्य सुन लिया है ।” 
...“खुनने दे, खुनने दे । स्वयं ब्रह्मा भी यदि सुन जावें, तो भी 
अब किला मेरे...” 

आंगेके शब्द किसीके कानमें नहीं पर; क्योंकि नीसे वह 
व्यक्ति बहुत दूरतक टेकड़ी उतर गया था। वहांसे सीधा वह 
उस वृक्षके ही पास गया, जहां उसका घोड़ा वध था; ओर 
तुसरन्त उल्लपर सवार होकर वह चला गया सर्फोजी पांगलकी 
भाँति अपनी जगहपर खड़ा हुआ उसकी ओर देखता रहा। 
इधर खुभान ओर श्यामा भी अपनी अपनी जगहसे नीचेकी ओर 
उतरने रंगे | उन्होंने जो कुछ सुना, वह कुछ भी उनकी समभमें 
नहीं आया। परन्तु अब वहां अधिक देरतक छिपे रहनेसे भी 
कुछ लाभ नहीं था। सर्फोजी भी कुछ समय बाद अपने मागपर 
चल दिया | 


की_><ॉड 








आठवां परिच्छेद । 





हक (७५ 
ख़बरोंका दिन । 


श्यामा ओर खुसान कुछ देरतक बिलकुल छुप रहे। इधर 
आवजी बेचारे सब बातें [खुननेके लिए उत्सुक हो रहे थे। 
अतणव श्यामा ओर खुभान अपने अपने छिपनेके स्थानसे ज्यों 
: ही नीचे आये, त्यों ही आवजी उनके सामने पहुं चे; ओर ज़ोर 
ज़ोर्से सब बाते पूछनेहीवाले थे कि, ,इतनेमें झुपानने 
उनको दाब दिया | उसने सोचा कि, शायद्‌ बह घोड़ेपर बैठकर 
आया हुआ महुष्य यहीं कहीं आलपास हो ! सर्फोजीने उससे 
यह कह ही दिया था कि, “हम लोगोंने जो कुछ बातचीत की, 
उसे किसी न किसीने खुन लिया है,” सो उस समय यद्यपि 
डखने सर्फोज्लीको डांट दिया था, परन्तु शायद पीछेसे उसको 
भो सन्देह हो गया हो। ऐसी दशामें यदि वह आह लेता हो; 
ओर हम छोग उसे मिल जावें, तो हमने जो कुछ खुना है-- 
ओर जिसका आगे खुलासा करके हम कुछ काम निकाल सकते 
हें--उससे*कोई लाभ न उठा सकेंगे। खुभान यद्यपि यह पूरे 
तोरपर नहीं जान सका था कि, सर्फोजी ओर उससे उद्दरडता- 
पूर्वक बातचीत करनेवाले उस सरदारसे क्या सम्बन्ध है, तथापि 
यह बात तो खुभानको भलीभांति मालूम ही हो गई कि, इन 
दोनोंका जो भी कुछ सम्बन्ध हो, पर है वह अवश्य अनिष्टकारक। 





६ १०६ १2 


| उषाकारू है 
ब्स्क्लह्फ़र 32०-कक्- वीबो नक+ 
किलेदारको हानि पहुंचानेके उद्द श्यसे ही सफोजीके द्वारा कोई 
न कोई अनिष्ट कारवाइयां की जा रही हैं । इसके सिवाय, उस 
सरदार--अथवा खसरदारी भेषके पुरुष--की अन्तिप्त वातचीतसे 
तो उपयु क बातका पूरा पूरा विश्वास हो जाता था। जो हो, 
यह बात झखुभानके. ध्यानमें बिलकुल नहीं आई कि, जो कुछ 
बातचीत हुई, सो वास्तवमें क्या थी; ओर यह सरदारी भेषका 
पुरुष, जो सर्फॉजीसे इतनी ढिठाईके साथ गाली-गलोज करके, 
परन्तु अपनी श्रे छता प्रत्येक शब्द; ओर उसके उद्चारणमें भी 





द्खिलाकर बातजीत करता था, सो कोन था। खुभान वीजा- 


पुरके द्रबारमें बहुत बार नहीं गया था; क्योंकि उसका खामी 
ही जदांतंक हो सकता था, टाल देता था। वथापि एक-दो 
बार,जब कभी वह गया भी था, उसका द्रबारके सरदारों, मान- 
करी छोगों इत्यादिसे थोड़ा-बहुत परिचय हो ही गया था | 
इसलिए अब उसने अपने मनमें यह विचार करना शुरू किया 
कि, जिस मचुष्यकी बातचीत हमने असी झुनी है, उसकी 
आवाज़के समान भी किसी सरदार या मानकरी इत्यादिकी 
आवाज्ञ उस समय मेंने वहां सुनी थो या नहीं। सर्फोजीसे 
टेकड़ीके ऊपर जब चह मनुष्य बातचीत कर रहा थर्,उस समय 
सुभानके मनंमभें हज़ार बार यह बात आई कि, किसी प्रकार इस 
मनुष्यकी सूरत यदि दिखलाई दे जाय, तो अच्छा हो. पर उसका 
कोई उपयोग न हुआ। जिस जगह वह बैठा हुआ था, उस जगह 
से, सियाय खुननेके; ओर वह कुछ नहीं कर सकता था। देख 





ह। 


|. खबरोंका दिन 





ल्य्य्व्स्ल्ल्य्य््स््क्र्ण 


तो वह बिलकुल नहीं सकता था। इसकारण उसे सिफ खुनने- 
पर ही सनन्‍्तोष करना पड़ा । जिन मानकरी लोगों अथवा सर- 
दारोंकी आवाज़ उसने बीजापुर-द्रबारमें अथवा अन्य कहीं 
खुनी थीं, उनकी आवाज़ोंके विषयमें जब उसने अपने मनमें 
जांच कर ली; ओर जब उसे यह निश्चय हो गया कि, आजकी 
आवाज़ उन छोगोमैंसे किसीकी नहीं हे, तब उसने इस विषय- 
में मनको विशेष कष्ट देना उचित न समका; ओर उसने अपना 
मौन भी छोड़ दिया, जो अबतक धारण किये हुए था; क्योंकि 
आवयजीने उससे फिर पूछा कि,“क्या हुआ ?'ख़ुमानने उन्हें स्फुट 
स्फुट उस्तर दिये, जो एक ध्रान्त मनुष्यके समान कहे गये थे। 
ड्सै इस बातकी भी शंका हुई कि, जिस सरदारके साथ आज 
सर्फोज्जीकी बातचीत हमने छुनी है, वह वास्तवमें सरदार ही 
है, अथवा ओर कोई ? परन्तु यह शंका बहुत देर नहीं टिकी । 
क्योंकि उस मनुष्यकी बातचीत विलकुल सरदारी शानसे भरी 
हुई थी; ओर बनावटी सरदारसे यह बात कभी हो नहीं सकती 
थी। इस खयालसे कि, सर्फोज़ीके द्वारा डसका कार्य हो रहा 
है, वह लायारीके साथ, दवी ज़बानसे, अथवा आशासे भरी 
हुई आवाज़खे, नहीं बोलता था; किन्तु अधिकारयुक्त वाणीसे, 
हुकूमतके साथ, किसी भालिककी तरह बातचीत करता 
था। इसके सिवाय, सरफोजी यद्यपि बीच बीचमें ढिठाईके साथ; 
ओर कुछ उद्दस्डतापू्ण सी, भाषण करता था; - पर वह उसके 
ऐसे भाषणको उचेजना न देगेकी सावधानी रखता था । यह 








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बात डसके प्रत्येक शब्द ओर शब्दांच्चारसे स्पष्ट दिखाई दे रही 
थी | सुभान एक खान्दानी सरदारका नोकर था, अतएव सर- 
दारी ढडुकी बातचीतसे वह भलीभांति परिचित था। इससे 
उसको अब निश्चय हो गया कि, सर्फोजीसे सम्बन्ध रखनेवाला 
यह घुरुष अवश्यमेव कोई न कोई सरदार छोगोंमेंसे ही है । इसके 
बाद उसने फिर एक बार ऐसे ऐसे सरदारोंके नामों ओर 
रुपोंका अपने मनमें ध्यान किया जो कि, उसके मालिकसे 
शत्र ता रखते थे। इससे उसको दो-तीन पुरुषोंका संशय हुआ | 
परन्तु जब विश्वासयूवंक वह कुछ भी निश्चय न कर सका, 
तब फिर उसने इस विषयको छोड़ दिया; ओर आवजी पटेलसे 
बातचीत करनेकी ओर विशेष ध्यान दिया। आवजीने धीरे 
धीरे बातचीत करके सब बातें जान लीं; ओर बड़ी फुतोंके 
साथ, ऐसा मोका देखकर, कि श्यामा कुछ दूर है, उन्होंने एक 
नाम झुभानके कानमें कहा, जिसे सुनते ही खुभान आश्चयं- 
चकित चेशसे बोला:-- द ... 
... “हां, हां, अवश्य, वही होगा ! जरूर, वही होगा! किन्‍्तू 
में समझता हूं कि, अब हमको अपना काम करना चाहिए । जो 
कुछ हमने सुना है, अथवा जो कुछ हमने देखा है,व्सब, अभीका 
अभी, सरकारके कानमें डाल देना चाहिए। यदि ऐेखा नहीं 
किया; और कुछ भला-बुरा हो गया, - तो इस बातका पश्चात्ताप 
होगा कि, इतनी बातें मालूम होनेपर भी हम छोगोंने सप्रथपर 
सरकारको. सचेत नहीं कर दिया; ओर अपने काममें दिलाई 





5 डा 


$) ५९ दिन 
4 ख़बरोंका दि 


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की । और हमने इतना सारा खटाटठोप किया, स्वयं प्राणोंकी 
भी परवा नहीं की--ओर इस श्यामाका तो झुरू क्षण क्षणपर 
भय मालूम होता था कि, यह छोकरा अवश्य नीचे गिरकर मर 
जायगा | अजी, बन्दर भी ऐसी जगहमें जाकर नहीं बठ सकता, 
जहां यह जाकर घुसकर बैठा था। लड़का मर गया होता, तो 
इसकी माँने क्या कहा होता ? यह खब व्यर्थे जायगा--यदि हम 
उनको समयपर सचेत न कर देंगे ।” 

._ परन्तु श्यामाका ध्यान उनकी बातोंक्री ओर बिलकुल नहीं 
था। अत्यन्त चश्न्‍चल ओर तीक्ष्ण आंखोंवाली चिड़िया जिस 
प्रकार दूरतक दृष्टि डालती रहती है, उसी प्रकार वह भी चारों 
ओर अपनी दृष्टि फंक रंहा था । कुछ देर इधर-उधर देखनेके 
बाद्‌ बीचमें एकदम ताली बजाकर श्यामा सुभानसे बोल उठा, 
“सुभान दादा, देखो तो भला, किलेकी उस ओरसे इतनी रातको 
वह नीचे कोन उतर रहा है ? देखा न तुमने ? वह जो भवानीके 
चबूतरेके पास बरगदका वृक्ष है, उसीकी सीधमें वह ऊपरकी 
ओर देशो, अवश्य कोई उतर रहा है! दो हैं, दो ! कूमली ओढे 
हुए दिखाई देते हैं। देख लिया न? वे दो मनुष्य आते हैं! 
अच्छा, अब तुम यहीं ठहर जाओ, में दोड़कर देख आता हूं 
कि, कोन हैं ।” 

... इतना कहकर वह ऐसे वेगसे चला कि, जैसे कोई शिकारी 
कुत्ता दूर भगनेवाले अपने शिकारकी ओर रूपके | श्यामा उस 
समयके तेज़ लड़कोंका एक उत्तम उदाहरण था। उस लड़केकी 





. ॥ उषाकाल है 





हु 220 0 





: तीत्रता बड़ी विचित्र थी; ओर नेत्र बड़े चश्चल तथा तीक्षण थे। 


उसकी टद्रष्टि एक जगह स्थिर कभी रहती ही नहीं थी। 
सवंदा सम्पूर्ण दिशाएँ घूमकर उसकी आंखें मानों सदैव इस 
बातके लिए उत्सुकसी रहती थीं कि, सब जगहकी सभी वादें 
एकदम मेरी नज़रमें आकर स्थिव होतीं है या नहीं ? उनके 
सिवाय अन्य भी यदि कोई बातें हों, तो वे भी तुरन्त ही मेरी 
नज़रमें आबी चाहिए | उसकी द्ृष्टिके समान ही उसकी अन्य 
इन्द्रियां भी बहुत तेज थीं। कहीं किसीने कुछ कहा कि, बस 
तुरन्त ही वह इस लड़केके कानोंमें पड़ुकर पूर्णतया स्थित 
हुआ ! कोई बात उससे छूटकर जा नहीं सकती थी। उडसके 
हाथों-पैरोंमें ही--सम्पूण शरीरमें ही--ऐसो कुछ उत्साहशक्ति 
भरी हुई थी कि, सर्पेकी चंचलताके समान सदैव कोई न कोई 
चश्जठतापूर्ण कायं उसको अवश्य चाहिए था। उसका प्रेम 


 लानासाहबपर बहुत था--नानासाहब उसको एक पग्रकारसे 


देवता ही जान पड़ते थे; ओर जबसे वे गये--शायद्‌ उसे मालूम 
भी होगा कि थे कहां गये, क्‍यों गये--उसकी चश्चछता और 
भी अधिक बढ़ गई थी। नानासाहब जब किलेपर थे, तब 
उसकी सारी चपछता, उनके साथ रहकर ऐसे ही कार्य करने- 


में खर्चे होती थी कि, जो उनको प्रिय थे। अह्तु। इन बातोंके 


वणनको यहांपर विशेष जरूरत नहीं माऊुम होती: क्योंकि 
श्यामांका वर्णन करनेके लिए अभी आगे अनेक प्रसंग आवेंगे | 


बहींपर उसका घर्णन करनेसे पॉठकोंकों विशेष कौतूहरू होगा । 











जा द खबराक पका. दि दम हर 
"६७४2 4 _इरॉकदिन ६ 


. +३४-अ8 “६७-84 व्य््य्य्स्न्य्स्ट्फ 


इस समय तो आइये, हम- उसके साथ, जहां वह जाय, जावे | 
ऊपर जिस धाणीसे उसके दौड़नेकी उपमा. दी गई है, सचमुच 
ही वह इस समय उसी प्राणीके समान जा रहा था। इसमें 
कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं | क्योंकि रातका समय था, घुंधली 
धुंघली चांदनी छाई हुई थी--ऐसे मोकेपर उसे मार्ग कहां 
द्खाई दे सकता था ? परन्तु वह अपना धावा मारते चला ही 
जाता था । अस्तु । किलेकी जिस ओरसे उसने दो व्यक्तियोंको 
उतरते हुए देखा था, उसी ओर वह गया; ओर थोड़ी देरके 
बाद एक ओरको घूम्कर वह एक ऐेसी मोड़पर छिपकर खड़ा 
हो गया कि, जिधरसे वे दोनों मनुष्य निकलनेयाले थे | वह उन 
दोनोंकी सूरत देखना चाहता था; और यदि सूरत देखनेको न 
प्रिले, तो उनकी आवाज़ ही खुन छेना चाहता था। कुछ देरके 
बाद थे दोनों मतुष्य उसीके पाससे निकलकर आगे चछे गये ! 
परन्तु दुर्भाग्यवश श्यामा न उनकी सूरत देख सका, ओर न 
बोली ही सुन सका | दोमेंसे उसका कोई भी उददश्य सिद्ध ल 
हुआ, क्योंकि दोनों आदमी बिलकुल चुपके चुपके चले जा रहे 
थे; और अपने सारे शरीरको उन्होंने इस विचित्र रीतिसे ढक 
लिया था कि, आंखेंतक भी खुली दिखाई नहीं देती थीं। 
श्यामाको इसी बातका आश्चर्य हुआ कि, इनको मार्म कैसे 
सूफता होगा। यहांतक कि यदि कोई श्यामासे यही पूछता 
कि वे दोनों स्त्रियां थीं. या पुरुष ? तो इस प्रश्चका उत्तर देना 
भी उसके लिए कठिन था | अतएव उसने सोचा कि आजकी 








५५ ११२ ८2 


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शत क्या सारी चमत्कारोंकी ही है? आज क्‍या आशय ही 
आश्चर्य देख पड़ेगा ? उधर सर्फोजीकी गु्त कारस्तानी अमो 
देख ही चुके; अब यह एक ओर विचित्र प्रकरण उपस्थित 
हुआ ! आज यह क्या बात है ! इस प्रकार सोचकर अस्तमें 
उसने यही निश्चय किया कि, अब इनके पीछे पीछे जाकर इनका 


भेद अवश्य छेना चाहिएण। परन्तु किसी वतुर राजनोतिश्षके 


समान पहले वह कुछ ठहर गया । उसने सोचा कि, हम यदि 
इनके पीछे ही पीछे गये; और आहट पाकर इन्होंने हमको पह- 


चान लिया, तो सारा मामला ख़राब हो जायगा। बस, यही 


सोचकर पहले उसने थोड़ी देश्तक कहीं खड़े रहनेका निश्चय 
किया; और फिर कुछ देर बाद वह उन दोनों व्यक्तियोंके पीछे 
पीछे चला । उधर सुभान और आवजी बेचारे बहुत देर प्रतीक्षा 


करते करते थक गये; ओर अन्‍्तमें यह कहकर, कि जाने यह 


बदमाश छोकरा कहाँ चला गया, वे भी अपने रास्तेसे चल 

दिये । 
बात यह थी कि, उनको अपना अगला विचार करना था 

ओर इसके सिवाय, इस बातका भय तो उनको था ही नहीं कि, 
शयामा भूलकर कहीं दूसरी जगह चला जायगा ॥ इसकारण 
शयामाकी फिर उन्होंने कोई चिन्ता नहीं की । आवजी सुभानको 
अपने घर ले गये; ओर वहां जाकर जो कुछ उनको निश्चय 
करना था, किया; ओर तदनुसार कार्य करना सुभानके सिपुदे 
कर दिया गया । आवजी प्रत्येक बातमें--ओर विशेषतः किले- 





थे खबरांका दिन. £ 


७. अन्‍कुननन पाए 758 ४: पक 





दारके विषयमैं--अगुआ होकर काम करनेके लिए हिचकते थे 
इसलिए इस बार यही निश्चित हुआ कि, सुभाव पहले सारा 
वृत्तान्त सरकारके कानोंमें डाल दे; ओर फिर दोपहरके सम्तान 
किसी उपयुक्त समयपर आवजी जब उनको सलाम करने जावे, 
उस समय जो जो कुछ वे उनसे पूछे, उसका उत्तर वे दे देवे' । 
आवजीकी मंशा यह भी थी कि, यदि आवश्यकता न ही, तो 
यह भी सरकारसे प्रकट न किया जाय कि,सुभानके साथ आवजी 
भी थे। परन्तु खुभानने यह हठ पकड़ा कि,हम साफ कह देंगे कि, 
हम दोनों ही पता पाकर रातकों गये; और वहां जो कुछ खुना, 
सो सरकारसे निवेदन किया। इस विषयमें आवजीकी एक भी 
न चली । सुभान प्रातःकाल होते ही किलेपर पहु'वा; ओर जाते 
ही पहले इस बातकी जांच की कि,सर्फोजी कहां हैँ, क्या करता 
क्योंकि उसने समझा कि, शायद वह ओर किसी कारंवाईमैं 
फिर लगा हो। परन्तु ऐसा नहीं था । सफोरजी सदर द्रवाजे 
पर आनन्दपूर्वक खुर्य थे ले रहा था--जसे रातभर पहरेका काम 
करते हए थक गया हो; और अब सोनेका मोका मिला हो | 
सुभान ऊपर पहंचकर इसी चिन्तामें गा कि, किलेदार साहब 
कब उठें; ओर कब मोका पाकर में उनको अलग ले जाकर 
रातका सब वृत्तान्त बतरछाऊ'। यों तो वह उच्चका एक ख़ास 
सिपाही था, छेकिन उसने सोचा कि, अच्छा मोका देखकर ही 
वृत्तान्त बतलाना चाहिए, तभी कुछ उसका उपयोग भी होगा, 
अन्यथा व्यर्थदी फज्जीहत ही होगी। बस, इसीलिए वह 


शि 








हा है उषाकाल 





७ ४ हडफ शक ये व,' "साभनतयरछ न 


मोकेकी टोहमें था। सोमाग्यवश उसको चैसा मौका शीघ्र ह्दी 


प्रिल गया; ओर स्वामीकी चित्ततृति भी डस समय अनुकूल 
थी, अतरपव उसने रातसे छेकर उस समयवकका साथ 
सत्तान्त विस्तृत रूपसे बदलछाया | उसने अपनो ओर्से बहुत कुछ 

। रा नमक-मिर्च मिलाकर इस प्रकार बतलाया कि,जिससे सश्कारको 


घबराहट मालूम हो; परन्तु उन्होंने उसे इतने धीरज और शाज्तिकरे है 
साथ खुना कि, जिससे यह आनना बहुत ही कठिन था कि, 
उनके मनपर कोई विशेष प्रभाव पड़ा, अथवा नहीं | सुभान 
एक ओर बतछा रहा था; और दूखरी ओर सरकार साहब अपने 
 इक्केकी निगाली मुखमें लगाकर तस्वाकृका सुबासमिश्चित घुआं 
वायुमएडलमें धीरे धीरे छोड़ रहे थे ; और साथ ही उस घुए' का 
सांपके समान बना हुआ वक्र आकार भी देखते जाते थे। जैसे 
सुभाव कोई कथा बांच य्हां हो; ओर आप सुन रहे हों ! ऊपरसे 
यह दशा अवश्य दिखाई देती थी; पर वास्तविक दृशा--भी वरी 
दशा भी बैसी ही थी, अथवा क्या थी, सो ठीक ठीक बतलाना 
बहुत ही कठिन था। वयोकि उनकी सूरतपर उनकी भीतरी दशा 
का प्रतिविम्ब अणुप्रात्र भी दिखाई नहीं पड़ता था। सुभान कहते 
कहते ठहर गया। ऐसा ज्ञान पड़ा कि, डसे जे कुछ बतलाना 
थां, सो सब वह बतला चुका। उसका खयाल था कि, इस 
घटनाको सुनकर सरकार कुछ न कुछ क्रोघधित होंगेटभर घबड़ा- 
'कर सर्फोजीको दण्ड दगे। परन्तु इसका कुछ भी लक्षण द्खाई 
नहीं दिया। सरकारकी वही चैष्टा अबतक क़ायम थी,जो खुभान- 


लय 7 7777777:7:777:777---7-7--------नन-सससा 42770 






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( खुबरोंका दिंने ' कं 





के उपयुक्त घटनाके बतलानेके पहले थी। डसमैं कोई भी अन्तर 
नहीं पड़ा थां। अवणव अब वह यह नहीं सोच सका कि, चह 
वहीं ठहरे अथवा चला जाय | वह अपनी गदंन बीली किये हुए 
बैसा दी खड़ा रहा | सरकार अवश्य ही किली न किसी थियारमें 
निमम् हो गये थे। किन्तु बह विचार किस सस्बन्धरों था; और 
किसमें नहीं था, अथवा कुछ वियार ही नहीं था, सतो ताड़ छेना 
बिछकुछ असम्भव था। इसनेमें झुभान कुछ घबड़ाया हुआसा 
दिखाई दिया; ओर सोथने रूमा कि, किसी न किसी युक्तिसे 
अब यहांसे चला जाबा चाहिए। उसने सोचा कि, अपना कठततेव्य 
हमने कर दिया, अब ये अपना विचार कश्ना हो तो करे, न करना 
हो तो न करें | इसे प्रकार कुछ उद्विज्ञता होकर वह चलनेके 
विदार्में हुआ। इसके सिवाय, शायद्‌ उसके मनमें यह भी आया 
कि, स्वामीको बयानेके लिए मेंने इस प्रकार अपने प्राणोंको 
संकटमें डाला, पर खामीने मेरी कुछ भी क़दर नहीं की-- 
अब क्या किया जाय ? इस प्रकार कुछ न कुछ मनमें सोच कर 
वह जानेहीवाला था कि, इतमेमें सरकार बोले:--- 

“छुसान, तू मेरा ईमानदार नोकर है, सो में जानता हूं । 
आज मेरा एक्ने अत्यन्त आवश्यक्र ओर विश्वासका कार्य तुझे 
स्वयं ही जाकर करना चाहिए | करेगा न १ गांव जाना है | 
अभी तूने जो बातें बतकाई', उनको मैं पहले हो स्पप्नमें देख 
चुका था । ओर आज खुबह सलामतखांने.,.” 

. इतना कहकर वे बीवहीमें ठहर गये; ओर इधर-उधर देखने 











रहा; ओर थोड़ी ही देरमें उसे प्रगाढदनिद्रा 





4 उपाकाल (| क्‍ 





लगे। इतनेमें दरवाजा खोलकर एक अदंली आया; ओर बोला, 
“सरकार, ये नोकरानियां क्या ख़बर छाई हैं--देलिये तो ! हम 
तो बिलकुल घबड़ा गये इस खबरको सुनकर | लेकिन वे कहती 
हैं कि, “यह बिलकुल सच है।” 
सरकार मत्तकपर बढ डालकर कहते हैं, “ठीक ठीक 
बतला | बतलछा जो ख़बर हो | आज ख़बरोंका ही दिन है | बोल, 
क्या है ? बतला |” 
“अजी सरकार ! सरकार ! थे कहती हैं, बिलकुछ सच हे, 
सरकार [” द 
“भरे है क्या? क्‍या है? बतलछा भी तो !” अस्त होकर पूछा | 
“यही सरकार, कि चन्द्राबाई ओर चिंगी आज खुबहसे 
ही अपने महलोंमें नहीं है; और न कहीं पता ही रूगता है !” 
नवां परिच्छेद । 
ही 0 
यह या गोलमाल ! 


पाठकोंको रुप्रण होगा कि, प्रथम परिच्छेदर्म हमने एक 
मराठे सिपाही जवानसे उनकी सेंट कराई थी। इसके बाद फिर 
हमने उसको एक विचित्र मुहारेमें ले जाकर देवीके मन्दिरमें 
छोड़ दिया। उस मन्दिरमें श्रीजगद्स्वाके सामने वह लेट 
आगई | 











| 
| 





4 यह क्या गोलूमाल £ 
न्य्स्च्स्ल्प्स्ल्स्क््ा 








यहांतकका वर्णन हमारे पाठक पढ़ चुके हैं। बजरंगबली- 
के आसनके नीचेके द्वारसे वह भीतर घुसा था। वहां उसे 
एक रुद्राक्ष-माला-घारी खाथू मिला, फिर साधू उससे छूट 
गया; ओर अंधेरे वह भ्हारेकी एक तरफसे चला गया। 
बाबाजी ऊपर चले आये; ओर सिपाहीको इधर-उधर ढू'ढ़ा, 
पर जब उसका कोई पता न चला, तब मन्दिर्में मुतिको, उसकी 
जगहपर, बैठा दिया; ओर खर्य अपनी धूनीके पास आकर 
चिलम सुलगाई; ओर “ ज्ञय बजरंगबलीकी जय ! जय राज़ा 
रामचन्द्रकी जय !” इत्यादि वचन कहते हुए ओर बीच बीचमें 
कोई दोहा, योपाई, श्लोक इत्यादि पद्य, कमी श्जभाषाम 
ओर कभी मराठीमैं, गाते हुए दूम लगाने छगे ! बहुत समय हो 
गया, परन्तु फिर भी वहांसे उठकर किसी कामके लिए जानेको 
उनकी प्रवृत्ति दिखाई नहीं दी । क़रीब करीब मध्यान्दकालका 
समय आगया, तब कहीं आप उठे; ओर वहीं कुछ दूरपर एक 
कुआओं था, वहां गये। कुए'पर ्वान-संध्या इत्यादि नित्यकर्म 
करके सम्पूर्ण अंगमें नियमानुसार भस्म रमाई; ओर फिर अपनी 
भोली, तूबा ; ओर कुबड़ी इत्यादि सब सामान यथोचित 
रूपसे लेकर कऋुणपरसे चल दिये। मन्दिरकी ओरको नहीं, 
किन्तु बिलकुल उसकी प्रतिकूल दिशामें | चलते चलते आप चार- 
पांच मील निकल गये । मार्गमें एक गाँव प्रिला। वहीं प्रत्येक 
घरमें “अछक ! अरूक !!” कहकर मिक्षा मांगी; और जो कुछ 
प्रिका, उसे अहण करके छोट पड़े । बातकी बातमें मन्दिरमें आ- 














2४७७ ० 5 





8 


बैठे । छोटते समय मार्मसे चहुदली घास भी आप सम्रेट छाथे, 
सो बाहर सिपाहीके घोडेके आगे डाल दी; और इस आशयका 
कोई वाक्य गुन-गुनाते हुए कहा--“बच्चा ! खाले, तेरा मालिक 
अभी देरमें आकर मिलेगा, तबतक आरामसे रह | इसके वाद 
आप फिर बजरंगबलीकी एक ओर अपनी घूनीपर आसन जमा- 
कर बैठ गये। घूवीका जोवन-सर्वस्व क्षण क्षणपर कप दो रहा 


था, उसे फिरसे उज्ञीवित करनेके लिए उसपर एक लक्कड रख 


दिया। विभशेसे धूनीको ठीक कर दिया। इसके बाद धूनीकी 
एक ओर जो सिल रखी थी, डसको खूब साफ घोकर उसपर 


आप कुछ पत्तियां पीसने रगे। इतमेपें सायंकालका सन्धि- 


भरकाश बिलकुछ बष्ठ हो गया। मन्दिरमें तो खूब ही ऑधेरा 
हो गया, फिर भी बाबाजीते दीपक जलानेका प्रवल्ल नहीं 
किया। पत्तियां पीसनेका कार्य सप्राप्त करके आय फिर घनीके 
पास आजेठे; और एक-आध चिम भरकर फिर सुबहकी 
तरह परमार्थ-विषयक भजन और पद्य गाने छगे । इसके कुछ 
समय बाद फिर आपने बजस्गबलौफे विकट आकर उनका 
दीपक जला दिया । फिर एक वार आप मन्द्र्के बाहर सी हो 
आये । इसके बाद फिर अपनी धूनीके मिकण आकर भजन करते 
लगे। परन्तु, जान पड़ता था कि, आप वीयमें उन पिखी हुई 
पत्तियोंका, अपने उद्रमें, संजय भी करते जावे थे। इस प्रकार 
बहुत समय व्यतीत होनेपर जब छगभरश चार-पांच घड़ी रात 
गई; तब. उन्हें माल्ूप हुआ कि, कोई महुष्य दूरसे. आरहा है। 





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(6 क )। यह क्या गोलमाल कै 
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न्कक्ेनके- बन. य्घ्ज्स्ल्ब्स्ल्स्ह्ल 








तुरूत ही उनके मुखले यह वचन निकला--“क्यों! आज अकेले 
ही !? फिर भी आप अपनी जगहयरसे नहीं हिले, ओर न भजनमैं 
भंग होने दिया। 3 
कुछ देर बाद एक मनुष्य सीसर आगया | यह मनुष्य न 
कोई बड़ासा जवान ही था; ओर न सूरतसे कोई भव्य पुरुष 
हो मालूप होता था। उसके बच्लोंमें सी कोई विशेषता न थी। 
उसके कपड़े साधारण गँवारोंकेसे ज्ञान पड़ते थे, जिनका कोई. 
विशेष वर्णन करमेकी आवश्यकता नहीं ज्ञान पड़ती | रूप-रंग 
बिलकुल काला, मथुष्य बिलछकुक बेहंगा; परन्तु था बिलकुल . 
नवयुवक--अभी युवावजामें प्रवेश ही कर रहा था। उसने आते 
ही बाबाजीको साष्टांग नमस्कार किया; और धोीमे स्वरसे 
बोला,“आज, मालूम होता है, वे इधर न आयेंगे |” यह सुनते ही 
 बाबाजी आश्चय-यकित होकर कहते हैं, “क्या ? आज इधर न 
आयेंगे ! आज तो अवश्य ही. आना चाहिए था।” कुछ देर 
विचार करनेके बाद फिर बोले, “कहींसे कोई विशेष समायार- 
आया है ? किसी मनुष्यने कहींसे आकर कुछ खबर दी है ?” 
“नहीं, कमसे कम मुझे तो नहीं मालूम है। किन्तु कुछ न 
कुछ होना अवश्य खाहिए। क्योंकि थे किसी व किसी उद्योग. 
अदश्य हैं। आज दोपहरकों ही सबको ताकीदू कर दी गई कि. 
आज़ रातको इधर कोई न आबे। आप शायद प्रतीक्षा करते,इसी- 
लिए में ज़वलाने आया हूं |” उस मनुष्यका यह कथन सुनकर 
वाबाजी क्षणभरके लिए चुप हो गये | उनके मनमें कोई न कोई 











बी 0 ' उषाकाल 





श् 2 (₹ ; 9) कु पे 
दा ॥ ९.२० , 
59 चर७ 00 ४३ सडक 4 हट 


विचार आरहे थे, इसमें सन्देह नहीं। कुछ देर बाद, जैसे स्वय॑ 
अपनेहीसे कहते हों, इस तरह बे बोले, आज यहां आये होते, 
तो बहुत अच्छा हुआ होता । अस्तु। नहीं आये, तो भी कोई 
दानि नहीं । कर आजाय, तो भी अच्छा होगा। सोमाजी, तू 


अब जा, में किसीकी ग्रतीक्षामें हूं। वह शायद्‌ अभी आवेगा | 


डससे मुझे कोई न कोई बड़े महत्वकी बात मालूम होगी । 
दूसरे किसीको देखकर बातचीद करनेमें शायद्‌ उसको एतराज़ 
होगा, इसलिए तू जा; और उनसे मेरा यह सन्देशा कह देना 
कि,“आज यदि आप यहां आये होते,तो बहुत अच्छा हुआ होता। 


अभी कुछ बिगड़ा नहीं है। यदि आप कल आज़ायेंगे, तो भी 


कोई हानि नहीं।” बाबाजीका यह कथन सुबकर सोमाजी बहांसे 
चला गया; और बाबाजी फिर कुछ देरतक चुप बैठे रहे। इसके 
बाद मन्द्रिके दरवाजे बन्द करके वाबाजीने, बलभीमके आसनके 
नौचेके दरवाजेसे,तहखानेके अन्दर जानेका विचार किया। नित्य- 
नियमानुसार बज॒रंगबलीके सामने साशांग नमस्कार करके बाबा 


. उनका आसन हटानेहीवाले थे कि, इतनेमें किलीने बाहरसे 


द्रवाजेमं थाप मारी। बाबाजीने तुरन्त ही हसुमानजीके आसनसे 
हाथ खींच लिया; और द्रवाजा खोला । उन्हींक्षे समान एक 
ओर बाबा भीतर आगया । . उसको देखते ही हमारे पहले 
बाबाजी कुछ चकितसे हुए; और उस बाबाकी ओर कुछ विचित्र 
सूरतसे देखते हुए बोले, “क्यों ? तू इतनी जल्दी लोट आया [? 
यह डुनकर वह दूसरा बाबाजी कहता है, “हां, बीचमें जो 









यह क्या गोरूमालू है 


खबर छगी, सो पक्की है; ओर इसीको बतलानेके लिए में चला 
आया। क्योंकि वह ख़बर इतनी जरदी आपको मालूम नहीं हो 
सकती थी ।” मन्द्रिके पहले बाबाजी उससे एक अक्षर भी नहीं 
बोले, मानो उनका सारा विस केवल उसके कथनको सुननेमें ही 
लगा हुआ था| परन्तु जब वह आगे कुछ न बोला, दब अन्तमें 
देमारे बाबाजी कहते हैं,“क्या ? क्या ? ऐसी कौनसी खबर छाया 
हे ?” यह खुबते ही दूसरा बाबाजी बोला, “खुलतानगढ़के किल्े- 
दारकी, .,? द द द 

उसकी बात अभी पूरी भीन होने पाई थी कि, हमारे 
वादाजी उससे एकद्म कहते हैं, “पूल कहींका | यही बहुत बड़ी 
ज़बर है? जिस कार्यके लिए तुझे भेजा था, उश्लकों बीचहीमें 
छोड़कर तू चला आया ! तुझे हम कया कहें ? ऐसी खबरें तो 
हमें योंही म्रिछ्‌ जाया करती हैं। ब्यर्थके छिए लोटनेका तूमे 
परिश्रम किया । इस प्रकार अपने काम छोड़कर बीचमें और 
ओर कामोंमें पड़ जाओगे, तो कैसे काम चलेगा ? जिस कायमैं 
हमको सफलताफकी आवश्यकता है, उसके छिए प्रत्येककों 
जनता अपना काम समुयित रुपसे करना चाहिए, तभी कुछ 
सफलता मिलेगी | तुम छोग यह बाद भूल कैसे जाते हो ? जिस 
फामके लिए मैंने तुझे मेजा, उस कामके ठीक ठीक होनेके लिए 
तुभको आज वहां पहुंच जाना चाहिए था; परन्तु तू बीचहीमें 
डछभकर यहां छोद आया, इससे उस कार्थको कितनी हानि 
हुई ! अब खुबह होते ही तू फिर डखी कामको जा, अन्यथा 















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३ १२२ ८८ 


“>ञअच्चछलछा छल 
आकर जप 


_ व्यर्थ ही हानि होगी। तेरी इस देशीसे ही कुछ न कुछ हानि 


अवश्य हुई होगी । जो खबर तू लाया है,वह प्राय: एक प्रकारसे 
मुझे मालूम ही हो चुकी थी। हां, अभी कर क्‍या हुआ, सो 
यद्यपि अस्नीतक झुननेमे नहीं आया है; पर एक-दो दिनमें, 


, किसी न किसी प्रकार, वह भी मालूम हो जायगा। अस्तु । 


अब में अधिक कुछ नहीं कहता । चार घड़ी आराम कर दे 


. ओर छुबह, पो फटते ही, फिर उसी ओर जा |” इतना कहकर 


उन्होंने दरवाजा बन्द्‌ कर लिया ! ओर दूसरे वेराणीको घूनीके 
पास लेज्ञाकर बैठाया। बेठते ही उसने चिलूम इत्यादि उठाई, 
ओर भश्ने छगा । बेयारेकी सूरत बिलकुछ उदासोीन हो गई थी। 
यह सोचकर बेयारा यहांवक आया होगा कि, हम जाकर 
खबर बतलावेंगे;, और उसपर हमारी बड़ी प्रशंसा होगी, परन्तु 
उसकी यह आशा पूर्ण नहीं हुई, ओर उल्टी फञ्ीहत हुई। इससे 
वह बिऊकुल निराश हो गया, ओर यह उसके चेहरेसे रुप 


. दिखाई दे रहा था। हमारे बाबाजीने शायद्‌ यह बात ताड़ सी; 
'... क्योंकि उसकी सूरतकी ओर देखकर उन्होंने एकदम उसकी 





पीठपर हाथ फैद,; ओर बोले, “बेटा, जो मेवे कहा, उसका बुश 
न मानना । जो उदू श्य हमारे श्रीमानजी सिद्ध करमी चाहते 
हैं, ओर जिसका सिद्ध कश्मा हम सभीका कर्तव्य है, उसको 


यदि शीक्रवर, ओर ठीक, सिद्ध करना है,:तो प्रत्येककों अपना 


अपना काय खुबारु झुपसे करमा चाहिए। बीचमें, शायद, यदि 
हमारे ख़याहसे कोई अच्छा भो काम आज़ावबे, तो उसके चक्र- 





(३ ३२ज 2) 4 यह क्या गोलूमाल 
 शशछ हा. कि 
55% 8%७७2 कब उस 7226 








में पड़कर अपने झुख्य कार्यमें हानि न पहुंचने देना चाहिए | 


इस समय में तुकसे इसोकारण नाराज हुआ कि, जिससे यह 
बात तेरे ध्यानर्म रहे | तूने जो कुछ किया, सो अच्छे उह्दे श्यसे 
ही किया, इसमें मुझे अणुपात्र भी सन्देह नहीं | किन्तु अपना 
असली कार्य छोड़कर इस कार्यमें लय गया, यही ज़रा खराब 
हुआ। देख, तू जो अभी मुफको बतलाता था, उसके विषयमें 
क्या फ्या जानकारी मुझे प्राप्त हो सकी है, और क्या क्या असी 


मिलनेबाली थी, सो अभी तुकको दिखलाता ह'। चल मेरे 


साथ नीये |? 

इसना कहकर बायाजीने मन्द्रिका दस्वाजा फिर कद कर 
दिया; ओर हउुमानजीको नमस्कार करके उनकी बैठकफो आगे 
हटाया; ओर थे दोनों तहख़ानेके भीतर डतर गये | बहुत देश्तक 
अध रेमें ट्टोलते दटोलते वे जगदस्वाके भन्दिर्के पास जा- 
पहुंचे। इसके बाद मन्दिरे: अधिष्ठाता, हमारे पहले बाबाज़ी, 
उस दूसरे साक्षूकी एकदम ठहराकर कहते हैं, “कियाडोंकी 


द्राजसे भीतर देखो । तुमको कुछ दिखलाई पडता है ?” दसरे 


बाबाजीने ज्यों ही धीरेसे देखा, त्यों ही उसे देवीजीके सामने 
एक जवाब आदमी पड़ा हुआ दिखाई दिया, जो उसी समय 
जगकर आंखे' भलता हुआ इधर-उधर देख रहा था। उसको 
देखते हो उच्च साधने हमारे बाबाजीके कंद्रेएर हाथ रखकर 
पूछा, “यह कोन हैं ?” यह सुनकर हमारे बाबाज्ञी इसे, और 


डसके कानमें कुछ शब्द घीरेसे कहकर फिर प्रकट रुपले बोके, 


8 
(80 











“्च्छचूडाह:22७ 7 ७32 छ) हि का 


“यह कल रातसे ही यहां आया आ है। आज खझुबह भूलसे 


भीतर पहुंच गया; ओर भू हारेके अन्दर जाकर सुकसे मिला। 
इसके आनेसे अवश्य ही मुझे कोई आश्चयय नहीं मालूम हुआ। कल 
रातको जब में श्र हारेमें गया,तब ऊपरके मन्द्रिका द्वार गाना 
भूल गया, इससे मुझे कुछ आनम्द ही हुआ। यह खय॑ जब 
यहां आगया, तब ओर क्या खबर तू मुझे बतलावेगा ? हां, 
इसके इधर चले आनेके बाद यदि कोई घथ्नाएं हुई होंगी, तो 
वे शायद्‌ तुझे माल्म हुई होंगी; और उन्‍्हींको वतछानेके लिए 
तू आया होगा । परन्तु वे घटनाए' भी मुझे करू खुबहके अन्द्र 
ही मादूम हो गई होतीं। अब तू कल प्रातःकाल जायगा; 
परन्तु देखना कि, इसी बीचमें कोई न कोई मुझे वे खबरें बतला 
जायगा ।” बाबाजीका यह कथन अभी सप्माप्त ही हुआ था कि, 
इतनेमें उन्होंने कोई आहटसी सुनी; ओर तुरूत ही उस दूसरे 
साधूसे बोले, “हां, ऊपर चल । कदाचित्‌ इसी समय तुभको 
मेरे कथनकी प्रतीति हो जायगी । तू ऊपर चल; ओर मैं इस- 
का कुछ समाचार लेकर आता हूं। यदि अपने लोगोंमेंसे ही 


.._ कोई आया हो, तो उसको बिठाकर मुझे बुझा ले जाना। में 


तुरन्त चला आऊ गा ।” यह खुनते ही दूसरा बाबा तुरन्त ही 
पहलेके मा्गसे लोट आया; ओर हमारे बाबाजी जगदस्वाजीके 
मन्दिरमें गये। इधर जो साधू ऊपर गया, बह हनुमानजीकी 
बवैठकके नीचेके द्वास्से ऊपर निकलकर; ओर मूर्तिको फिर जहां- 
का तहां हटाकर, द्रवाजेके पास गया। वहांसे उसे ऐसी 


' यह क्या गोलमाल 9 
्य्ह्स्श्््््स्क््ा 
आहद मिली कि, जेसे दूरसे कोई आता हो। अब, चह यह 
विचार करते हुए, कि यह कौन आता है, वहीं बैठ गया। 
साथ ही वह अपने गुरुजीकी इस सम्पूर्ण व्यवस्थायर आश्चर्य 
भी करने रूगा | द 

इतनेमें उसने देखा कि, जिन लोगोंके आनेकी आहट उसे 
दुरसे मिल्ली थो, वे अब पास ही आगये, अतएव दरवाज़ेके 
पास जाकर ज्यों ही उसने फांककर देखा, त्यों ही उसे मालम 
हुआ कि, दो आदमी आरहे हैं, जिनका पहनावा. कनफर्टोंका 
सा है। बातकी बातमें वे दोनों उसके पास आगये। आते 
ही उन्होंने “बजरंगबलीकी जय ! बजरंगबलीकी जय !!” का 
शब्द्‌ उच्चारण किया; ओर फिर उस बाबाकी ओर देखकर पूछा, 
“क्योंजी, वे बाबाजी कहां हैं, जो यहां बेठे रहते हैं?” अब 
हमारा साथू बड़े चक्वरमें पड़ा,कि इन्हें उत्तर क्या दिया जाय-- 
यह क्या गोलमाल है ? बेचारा पागलकी तरह खड़ा हुआ उन- 
की ओर देखता रहा | 

अब हमारे इंस वेरागीको पूरी पूरी शंका हुई कि, हो न हो 
ये कनफटे जोगी भी, जो “दूसरे बाबाजी” को पूछते हैं, हमारी 
ही तरह हमारे शुरुजीके गुप्तचर होंगे। किन्तु इस शंकाके द्र 
करनेका उपाय क्या था ? क्षणभर वह विद्यारमेँ पड़ा रहा | हां 
अब हमको शुरुज्ञीके कथनानुसार,उनको बुलूने जाना चाहिए या 

हों ? ओर यदि बुलाने जाते हैं,तो इनके सामने ही हमें भू हारे- 

का मार्ग खोलकर घुसना पड़ेगा; ओर यह बात बड़े खतरेकी 














होगी। यह सोचकर पहले उसने यह जानमैका मिश्यय किया 
कि, ये कोई अपने विश्वासके ही आदमी है, अथवा नहीं १ अत- 
एवं उसवे खाभाविक ही तोरले पूछा, “क्योंजी, तुमको जो 
काम बतकाया गया था, सो हो गया ? जो ख़बर ऊानी थी, सो 
ले आये 7” 

यह सुनकर थे दोनों कतफरे कुछ चकशाये; ओर कुछ घब- 


डायेसे उसे दिखाई दिये; परन्तु इतनेमें, उत दोनोंमेंसे ओ कब- 


फटा कुछ भागे था, वह एकदम बोला, “हमें काम्म बचदाया 
था ? किसने ? बाबाजीने ? नहीं भाई ! हम तो गरीब आदमी 
कहीं न कहीं भीख मांगते फिरते हैं, किंगिरी वजाते है, गाना 
गावे हैं, ओर जो कुछ मिल जाता है, उसीपर शुआरा छरते हैं। 
आज यहां हैं, तो कछ वहां हैं। हम बाबाजीका कौनसा काम 


कर सकते हैं ? यों ही आ मिकले थे, सो मममें आया कि 


देखते यर्खें, वायाजी हैं या नहीं । उनसे हमारी बड़ी दोस्ती है ।” 
यह कहते हुए उसमे अपनी किंगिरी निकाली; ओर उससे दो 
सुर निकाऊे, तथा फिर बोला, “हम तो ४सीछिए आये थे कि, 
दो-चार गप्पें उड़ेंगी; ओर वस्बाकू पियेंगे--ओर कया ?” 

सुनते ही हमारा बैरागी समझ गया कि, यह जो कुछ 


कह रहा है, सब बनावटी है। हमारे गुरुजी कहते थे कि, कोई 


खबर लावेगा,सो शायद्‌ यही लोग होंगे। फिर भी उसने 
सोचा कि, जबतक पूर्ण विश्वास न हो जाय, हमें इनको भीतर 
न चुलछाता चाहिए; ओर न इनके सामने शुघ्त द्वार श्लोलकर 


द ४ ॥ यह क्‍या गोजमाल 0 
5 १२७ ४2 9 ह 
बफक०-बऐटीन पता बुर ७७६-०२०-०-७० 9 ८: पा कैश 





भीतर जानेका साहल ही कण्मा याहिए। शायद थहाके इस 
सारे प्रबन्धका किसीको पता गण गया हो; ओर किखीने इन्हें 
खबर लेनेके किये ही भेजा हो | जिस प्रकार हम अपने श्रीमानजी- 
के लिए, अमैक उपाय करके, भिन्न भिन्न स्थानोंकी खबरें ले 
आते हैं, उसी प्रकार, सम्भव है, हमारा पता पानेके लिए भी 
लोग उपाय करते हों। विशेष सावधानी रखनो अत्यैक दशा- 
में अच्छी ही बात है। यह विदार करके उसमे फिए कमफरों- 
से कहा, “बायाज्ञी न जाने कहाँ यछे गये हैं। में शी उन्हींकी 
प्रतीक्षा हूँ ।” क्‍ ्््ि 

परन्तु यह कहते हुए उसे खुद ही मालूम हुआ कि, मैंने 
अश्ी जो कुछ कहा था, उससे मेरा यह कथन मैल नहीं खाता | 
अस्तु। उसका उपयु के कथन सुनकर वह कमफटा, जिसने 
अभी बातबीत की थी, मन ही मन कुछ हँसा; ओर इँसते 
ही हंसते उसने अपने पीछेके साथीकी ओर घूमकर देखा; ओर 
उस बेशागीको द्रवाजेमें थोड़ासा एक ओर हटाकर, यह कहते 
हुए भीतर घुसा कि, “लीताशम, सीताराम, चलो, तो हम छोगे 
जवतक बाबाजी न आजायें, उस धूनीके ही पास बैठे; ' और 
उम्बाकू इत्यादि पियें । खामीजी तबतक आ ही जायँगे।” 
जिस ढिठाईके लाथ वह भीतर घसा, उसको देखकर हमारा 
बरागी यकित हुआ; अर फिर खुद भी उनके साथ ही. मन्दिरिमें 
चला गया। 

सब लोग उस घनीके पास आकर बेठ- गये; भोर इचर- 





॥ े ध 

ः रा है 9 रा 

* 5 ॥। 423 
जग जा ला 
कक] आप 





का क उषाकाल है , १२८ ८£ 
>ब्च्काह्ख्ा- 0०4४3 


ब्रकी बातें करने छगे। कनफटॉका वह मझुखिया अपनी 

भाषामें चार गाली देकर अपने साथीसे कहता है, “भरे, इन 

सलेच्छोंने बड़ा उपद्रव मचा रखा है! रास्तेपए--रास्तेहीपर 

गोमावाका बध | शिव | शिव ! न जाने परमात्मा इनको अब- 

४. तक दण्ड क्यों नहीं देता! ओराम ! सीताराम ! गोमाता 

क्‍ हमारा जीवन है, इसीमें हमारे प्राण हैं! फिर भी बीच रास्ते- 

पर, हिन्दुओंके देखते--ब्राह्मणोंके देखते--चोराहेपर भी उनका 

गला काटकर, उनका रक्त जान-बूककर रास्तेपर छिड़क देते 

हैं .-” 

. उसका यह कथन हमारा बेरागी बडे ध्यानसे सुन रहा था; 

ओर कहनेवाला कनफटा भी इतने हृद्यसे ओर ददेसे कह रहा 

था कि, उसकी आंखोंमें आखूतक भर आये थे। उसके उस 

कहनेके ढंगसे ओर उसके गदुगद्‌ कंठसे रुपष्ट मालूम हो रहा था 

कि, जिस वेशमें वह आया है, उस वेशका वह मनुष्य नहीं होना 

चाहिये। हमारा वैरागी उसकी उपयुक्त दशा देखकर ओर 
भी ध्यानसे देखने लगा; ओर बोला , गुसाई जी आप"? 

चह आगे ओर भी कुछ कहनेहीवाला था कि, इतनेमें उसे 

४... भास हुआ कि, हनुमानजीकी बैठकके नीचेवाले दःप्से उसको 

द कोई बुला रहा है, ओर आसन भी आगेकी ओर खिसक रहा है। 

 डसने देखा कि, इस बातकी ओर कनफटोंका भी ध्यान गया ; 

परन्तु फिर भी उनके चेहरेपर आश्चर्यकी कुछ भी करूक दिखाई 

नहीं दी । हां, उन्होंने इतना अवश्य कहा कि,“हां, बाबाजी हैं ।” 








6 यह क्या गोलमाल थे 








इससे हमारे वेरागीको यह विश्वास हो गया कि, ये दोबों 
हमारे ही शुट्के आदमी हैं। इसके सिवाय उसने यह भी सोचा 
कि, अब छिपानेसे कोई प्रयोजन नहीं हैं। इसलिए एकदम 
बह बोल उठा कि, “हां, में उनको तुम्दारे आनेका समाचार 
देता हूं।” इतना कहकर वह तुरन्त ही बजरंगवबलीके पीछेकी 
ओर गया क्‍ 

वह अभी जाने न पाया था कि, बाबाजीका आधा शरीर 
ऊपरको निकल भी आया । उसने बाबाजीके कानमें छुपकेसे 
यह खबर दी कि, इस प्रकारके दो कनफटे आये हैं। बाबाजी 
इँसे; और कहा, “अच्छा ।” फिर वे शीघ्र ही ऊपर आये । उनके 
पीछे पीछे उस वैरागीने उस पुरुषको भी ऊपर आते हुए देखा 
कि, जिसको उसने भवानीजीके मन्दिरमें किवाड़ोंकी द्राजसे ; 


देखा था। बाबाजी आगे आये; ओर एकदम उन कुनफटोंके 


मुखियाकी पीठपर थाप मारकर कहा, “कहो क्‍या हाल है? 
जिस कामके लिए गये थे, उसका क्या समाचार है ?”इन शब्दों- 
को सनते ही, जो कि बाबाजीने कनफरटेको सस्बोधन करके कहे 
थे, हमारा वह सिपाही जवान उन कनफरटोंकी ओर ; ओर फ़िर 
उनकी ओर्से बबाजीकी ओर, एक विचित्र ध्रकारकों चेशासे 
देखने छगा। उसको पिछली रातसे झेकर अबतकका खाशा 
दृश्य एक स्थप्तके समान ही दिखाई पड़ रहा था। उसने सोचा 
कि, अच्छा रास्ता भूले ! यहाँ आये; यह मन्दिर देखा--बाबाजी 
भी क्‍या ही ठहरे! ओर बज़रंगबलीकी बैठकके नीचे इतना 
६: 








न्द् 


बड़ा भ्रु हारा | उस सं हारेमें भवानीजीका इतना बड़ा मन्दिर! 


उस बमन्द्रिमें इतने हथियार, ओर बड़े बड़े ताले जिनमें लटक 
रहे हैं, ऐसे भारी भारी सम्दुक! खभी विचित्र मामला है! 
ओर फिर, यह सब किसके अधिकारमें? उसी हमुमानजीके 
मन्दिरमें रहनेबाले एक बाबाके अधिकारमें। ओर अब देखते 
हैं तो दो कनफडे; ओर एक बैरागी आगया है! यह पहला 
बाबाजी बड़. पर मसे उनकी पीठपर थाप मारकर,“तुम्हारा काम 
हो गया ?” इत्यादि प्रश्न कर रहा है। इस बाबाका ऐसा 
कोनसा काम हो सकता है? ओर उसे करनेके लिए यह अपने 
ही समान बैरागी ओर गुसाई' सब तरफ भेजता है--इसका 


क्या अथ हैं ! इसी प्रकारके अनेक विचार इस समय उसके 


मनमें चक्कर काट रहे थे | 

वह कनफटा बाबाजीको कुछ उत्तर देनेहीवाला था कि, 
इतनेमें उन्होंने उसे चुप रहनेका इशारा किया, और हमारे... 
लिपाहीकी ओर देखकर कहने रंगे, “आपका घोड़ा आपके लिए... 
बहुत उत्सुक हो रहा होगा। अभी थोड़ी देश हुई, मेने डसे 
चारा-दाना दिया था; परन्तु आप एक बार बाहर जाकर उसके 


बदनपर हाथ फेर आधे, तो उसे बड़ा आराम मिलेगा । कल 


रातसे ही आपको उसमे नहीं देखा है। परन्तु देखिये, कितना 
खामिभक्त जानवर है, यहांसे हिलातक नहीं।” इतना कहकर 
वे दूसरे साधूको सम्बोधन करके बोले, “बरूराप्तजी, इनको 
बाहर पहुंचा आओ ।”. सिपाही द्वारके बाहर हुआ, इतनेमें 











क्‍ हा यह कंया गीलमार $ 


बाबाजीने वरूरामको पीछे बुलाकर कानमें चुपकेसे कह दिया, 
“देखो, यह यदि कुछ पूछे, तो कुछ बतलाना नहीं; ओर तुम्हारे 
मनमें भी यदि कुछ पूछनेकों हो, तो मत पूछना ।! है 
बाबाजीकी ताव्हीद सुनकर बलराम उस सिपादीके साथ 
बाहर चला गया । उन दोनोंके बाहर जाते ही बाबाजी कन 
फर्डोंके मुखियासे कहते हैं, “बतला, जददी बतला। यह जवान 
आदमी कोन है ? तूने इसे पहचाना नहीं।। क्योंकि यदि पहचाना 
होता, तो इसके सामने अभी बोलने केसे लगता £ बतलढा। 
बतला जरदी कल 
यह सुनते ही चह कनफटा कहता है, “तीन या चार द्निके 
बाद खुलतानगढ़पर बड़ा भारी डपद्गव होगा, इसमें सन्‍्देह 
नहीं | ओर उसमें उस बोकीदारका बहुत बड़ा हाथ है। आज 
..बादशाहका खरीता प्राय: किछेदारके दाथमें पहुंच गया होगा। 
. ज्ैने अभो मार्मम जो बातें खुनी हैं, वे यदि सब हैं, तो कहना 
चाहिए, मामला बहुत बढ़ गया है। एक बार उस आवजी 
परेलको हमें अपने हाथमें कर छेना चाहिए। खुसान भी यद्वि्‌ 
आमिलता, तो बड़ा काम बनता । नानासाहब कहां चले गये 
है, सो किलेदब्ण्को अभीवक बिलकुल ही मालूम नहीं है। सब 
अलग अलग गप्पें मार रहे हैं। पर यह निश्चित कोई नहीं बत- 
लाता कि, वे कहां चछे गये हैं। सबको यही सन्देह है कि, 
जबकि ये इतने जोशके साथ गये हैं, तब अवश्य ही आप' ० 
पंस्तु बाबाजीने उसे आगे नहीं बोलने दिया। वहींसे रोक 











4 उपाकाल: ह क्‍ १३२ 


। क्योंकि इतनेमें उनको उन दोनोंके आनेकी आहट खुनाई 








द दी | उ्म दोनोंके भीतर आते ही उन्होंने अपने विषयको बदलने - 


का यत्न किया; ओर बाबाजी उस सिपाहीकी ओर देखकर 


बोले, “आपका घोड़ा क्या कहता था ?” सिपाहीने कहा, “कुछ 


नहों, वह बे आनन्द हे | हाँ, अब उसे यदि कोई छायाकी 


जगह मिल जाय, तो बहुत अच्छा हो। बेचारेफो आज न जाने 
कितने दिनोंसे छायाकी जगह नहीं मिली; ओर न बेचारेकी 


किसीने सेवा-बरदास की। कितने ही दिनोंसे उसे ठीक ठीक 
चारा-दाना भी नहीं मिला है। यही हमारा असली साथी है ! 
झुकपर इसका सच्चा प्रेम हे। हम दोनों ही अब मानों एक 
दूसरेके प्राणोंके आधार हो रहे हैं। किला **** “० 

. इतना ही कहकर उसने अपनी जीभ दांतों तले दूबाई, ओर 
बात बदलकर एकदम बाबाजीसे बोला, “बाबाजी, आप इस 
निजन बनमें आकर रहे, फिर भी आपके यहां बहुतसे छोग आते 
ही रहते हैं। में जिस समय आया, मन्दिरके बाहरी प्रांगणमैं 
पलीते भी जल रहे थे। आज इन छोगोंको देख रहा हूं !” 

यह खुनकर कनफर्टोंका मुखिया उसको तुरन्त ही उत्तर 

देता है, “बबाबाजीके पास शुण ही ऐसा है। क्षाप चाहे जहाँ 


जाकर रह, वहीं आपको सेवामें छोग हाजिर रहेंगे ।” 


. इस प्रकार उनकी बातचीत बढ़नेका मोफा आगया था 
ओर सिपादहीफे मनमें भी यही विचार था कि इस प्रकार बातों 
बातोंमें ही, जो कुछ जानकारी हमें प्राप्त करनी है,धीरे धीरे प्राप्त 





[ँ हा क्‍ ) यह कया गोलमाऊ 


हि बेकीह-अपा ब्ख्ः्च्स्स्चब्स्स््क 








कर छैनी चाहिए | पर बाबाजीने बीचमें ही उस कनफटे ओर 
बलशमजीसे कहा, “अजी,राव तो व्यतीत होने आई,अब तुमको 
अपने कामसे जाना है, सो उठो और जाओ ! हम छोग इसी 
प्रकार यदि बैठे बैठे बातचीत करते रहेंगे, तो एंक रात क्या, 
कितनी ही रातें पर्यात नहीं होंगी, इसलिए अब तुमको जाना 
चाहिए |” कनफरटोंने मी अब अधिक देश्वक बेठनेकी आतुरता 
नहीं दिखलाई । एक बार चिलम इत्यादि पीकर वे सब, ण्कके 
बाद एक, चलते बने । बाबाजी भी उनके साथ बाहर गये; और 
कोई आधी घड़ीतक कनफटोंसे बाहर बातचीत करते रहे | 
हां, यह नहीं कहा जा सकता कि, वह बातचीत प्रकृत विषयपर 
ही थी, अथवा अन्य किसी विषयपर। सिपाही जवान बेचारा 
उतनी देर्तक अकेला ही भीतर की ओर बैठा रहा। ऐसा जान 
पड़ता था कि, अब उसके मनमें कोई नवीन ही विचार चक्कर 
काट रहा है | क्योंकि बाबाजीके भीतर आते ही वह उनसे कहने 
लगा. “वाबाजी, यह मन्दिर क्‍या है ? अन्द्र तहखानेका मन्दिर 
क्या है? भोतरके सन्दूक किसके हैं? हथियार किसके है! 
यह सब क्या मुझे बतलावेंगे ?ः आप अपनेको केवल बेरागी 
कहते हैं, पर मरे खयालमें यह नहीं आता कि, आप केसे वेरागी 
हैं| यहां और भी कोई न कोई अवश्य आते होंगे। अनेक लोग 
आते होंगे। में आया, उस समय यहाँ पलीते दिखाई दिये; ओर 
बहुतसे लछोगोंके पद्चिन्ह भी दिखाई दिये। ऐसे कौन लोग यहां 
आते हैं? मुम्दे बतलावें गे ? खामीजी, आप यदि किसी राज- 











) + 
हे ८ हैक हि 
ओम बे सर ना 


५3.७७. ०. 








जेलिक उद्ं श्यमें लगे हुए हैं, तो आप मुस्दे अपना लेला अवश्य 
बनाइये । मेरे घर-ढ्वार कुछ भी नहीं | में सब भांति आपहीकी 
कैकामें रहूंगा ।? 
इसके आगे वह और कुछ न कह सका। बाबाजी उसका 
क्रथन सुनकर मन ही. मन कुछ मुस्कुराये, ओर फिर उससे 
बोले, “सत्य कहता है कि,घर-द्वार तेरे कुछ भी नहीं है; और तू 
मेरे हो समान एक फकड़ वैशगी है ! मेंने मान लिया | अच्छा, 
अब यदि में तुझे अपने सम्प्रदायमें दीक्षित कर लू और पीछेसे, 
कहीं न कहींसे, तेरा घर-द्वार; और ठेरे घरके लोग सामने आ- 
जावे तो फिर केसा होगा ?”? 
बाबाजीके इस प्रश्षते सिपाही महाशय कुछ गड़बड़ातेसे 
दिखाई दिये; ओर चुप हो गये। बाबाजी और भी हसे; ओर 
उछकी पीठपर हाथ मारकर बोले, “कोई हानि नहीं, तेरी 
इच्छाके अचुसार ही सब बातें होंगी | तू यह बची हुई रात; ओर 
कलका दिन किसी न किसी प्रकार यहीं व्यतीत कर । शामकों 
यहां कोई न कोई चम्रत्कार तुझे दृष्टिगोचर होगा--जिसे देख- 
कर तू यही समभ्ेगा कि, हमारे मनके अछुसार कार्य होनेके 
लिए यदि कोई जगह है, तो वह यही है, और हम" यहां आगये, 
यह बहुतः ही अच्छा हुआ !” 




















द . यह लोग कान ? कि 
इतना आश्वासन मिलनेपर भी हमारे सिपाही जवानकों 
इस बातका कुछ भी खुलाला नहीं हुआ कि, यह मामला कया 





है ? ओर हम कहां हैं? वह बराबर बाबाजीकी ओर विचित्र 
जेछासे देखता रहा । उसके मनमें बराबर तकपर तक उठ रहे थे; 
और चह उसी विषयके विचारोंमें निम्नरण्त था। बाबाजीकी यह 
बिलकुल ही इच्छा नहीं जान पड़ती कि, उसे ओर कुछ अधिक 
जानकारी दी जाय; और इस प्रकार उसके कोतूहलकी शान्ति 
की जाय । बह्कि इसके विरुद्ध, बाबाजीकी उल समयकी चेष्टासे 
तो यही प्रकट होता था कि, वे उसको और भी अधिक डखी 
गोरूमालकी अवश्थामें रखना चाहते हैं; ओर इस भकार उसका 
कौतुक देखना जाइते हैं। वे कुछ मुस्कुराती हुई सूरतसे बीच 
बीचमें उसकी ओर देखते जाते थे; ओर मन ही मन कुछ गुन- 
गुनाते भी जाते थे। हा, हमारा सिपाही युवक अवश्य ही 
गर्सोर भावसी शान्तिपूवेक बैठा हुआ विचार कर रहा था ! 
अन्त बाबाजी उससे कहते हैं, “तू ऐसा ही कबतक 
बैठा स्हैगा ? मेरी तरह घड़ीभर छेटकर रात व्यतीत कर । एक 
बार सुबह होते ही दिन, बातकी बातमें, निकछ जायगा। तेरे 
मनमें कौनसे विचार आरहे है, यह में जानता हैं। परन्तु उन 


उचाकाल है 
“ब्च्छघ्क्काा 





रॉमें अबतू चाहे जितना अपने मनको फँसावे, कोई 
विशेष लाभ नहीं होगा । मैंने अबतक तुझे इतना आश्वासन 
दिया, पर तेरे चित्तको शान्ति नहीं हुई;ओर उसका न होना 
एक प्रकारसे खाभाविक ही है। किन्तु तू अपने मनमें यह सली- 
भांति समभ ले कि, तू अब एक उचित स्थानमें ही आगया 
है; ओर इस बातको समझकर, किसीन किसी भांति, कल ४ 
शामतक, शान्तिपूवक समय व्यतीत कर ।” 
इतना कहकर बाबाजी जानबूककर उसके पाससे उठे, और 
अपनी धूनीके पास जाकर शान्तिपूवंक--कमसे कम ऊपरसे 
तो शान्ति ही पूवंक--“जय हनुमान, जय हनुमान, सीतारशम- 
सीताराम” करते हुए लेट रहे | डनके साथीने काफी निद्रा ले 
ली थी, सो अब उसको नींद कहां आसकती थी? इसके 
सिवाय, पिछले दिन उसकी दशा भी दूसरी ही थी। बह परि- 
श्रमसे इतना थक गया था कि, उसे चाहे जैसी जगहमें, याहे 
जहांपर, चाहे जिसपर लेटे रहनेसे भी प्रगाढ निद्रा आगई 
होती;ओऔर तदचुसार उसे निद्रा आई भी थी। किन्तु इस समयकी 
उसकी अवस्था बिलकुल भिन्न थी। निस्सन्देह, वह श्रवीर- 
जातिका मनुष्य था; किन्तु, कमसे कम, उसकी सूरत शकलसे 
तो ऐसा नहीं. जान पड़ता था कि, चाहे जहां लेटकर 
क्‍ सोनेकी उसकी आदत हो | अमीरीके चिन्ह कभी छिपाये नहों 
जासकते । आज्ञ उसे, उस मन्दिरिमें, बाबाजीकी धुनीके पास, 
लेटकर सोना एक प्रकारसे बिलकुल कठिन हीसा था। वह 











(23 * कई रे 
(€ ... 9) यह लोग कोन 
१३७३ ८४% पी च्ल्प्ह्ड ै 
>>बंडीत+वीशरी नरीधी>--शल३० ९७-८०» ४ 





बहुत देश्तक जहांका तहां ही बैठा रहा; और कभी बाबाजीकी 
ओर, कभी बाहरकी ओर, देखता रहा। बीचमें वह एक बार 
उठा; और इधर-उधर देखकर एकद्म बाबाजीसे बोला, “स्वा- 
मीजी, में समझता हूं कि, अब में यहांसे जाऊ' । जिस जगह में 
जाना चाहता था, उस जगह मुक्झे कभीका पहुंच जाना चाहिए 
था | इसलिए मुझे आज्ञा दीजिए । आपके यहांका आनन्द 
लेनेके लिए में फिर कभी आजाऊंगा ।” 

बाबाजीको भी नींद नहीं आई थी। बल्कि यह कहनेमें 
भी कोई अतिशयोक्ति न होगी कि, आप नींद्का बहाना करके 
खुप पर हुए थे ! क्योंकि उनकी सम्पूर्ण हृष्टि उस सिपाहीको 
ओर थी; और जाब पड़ता था कि, उसकी खारी चेश्टाओंके 
देखनेमें वे निमम्नसे थे। इसलिए सिपाहीका उपयु क्त कथन 
सुनकर वे इँसे और बोले, “तुकको यहांसे जाना ही था, तो 
पहली ही रातकों चला जाना था। अब बहुत देर हो गई। 
तू यहांसे चाहे जिस तरफ जा, थोड़े ही अन्तरपर तुझे उजेला 
हो जञायगा; और, क्‍या तू यह भूछ गया है कि, दिनमें इधर-उधर 
घूमना तेरे लिए ख़तरनाक है! इसके सिवाय तुझे में यह 
भी बतला चुका हूं कि, जिस उद्द श्यसे तू निकला है, उस उदं - 
इयके अनुसार यहीं सब हो जायगा। क्या तूने अभीतक यह 
न समझा कि, तेरे विषयमें झुझे पूरा पता है? गत चार-पांच 
दिनके बीचमें तूने जो दो-चार कार्य किये हैं, उनसे क्या तू सम- 
भता है कि, दिनवहाई तू इधर-डचर घूम सकेगा ? तू यह न 











ह अत ० 
समझ कि, तेरे उन कार्योंका अभी कोई शोरशुलर नहीं मचा हे 
तू अगर यहीं रहेगा, तो तुझे इसी जगह वे सब लोग मिल 
जायेँगे, जो तेरे उत्त कार्योंको तेरे लिए. भूषण समभकते हैं 











बाबाजी आगे कुछ नहीं बोले । उस सिपाही जवानकी 
सूरत आश्चयसे अत्यन्त चकित दिखाई देने लगी । दांतों तले 
उ'गली दबाकर वह बाबाज्ञनीदी ओर निरनिमेष दृष्टिसे देखने 
रूगा। बाबाजीने जो कुछ कहा, जिन जिन बातोंका उन्होंने 
उब्लेख किया, उन उन सब बातोंको सुनकर वह पाषाणप्रतिमा- 
के समान स्तब्ध हो गया। ये सब बातें, इस निर्जन बनके हजु- 
मान-मन्दिरिमें शान्तिपूवंक दिन बितानेवाले वेरागीको मालूम 


हो गई! यह कैसे ? हम कोन हैं, कहांसे आये, किस उददश्यसे 
आये, क्या किया, इत्यादि बातोंका ज्ञान इसको केसे हो गया ? 


अंबतक हमने क्या देखा ? सिफ दो-तीन वैरागियोंका आना- 
जाना। फिर, हमारे विषयमें इसको सम्पू्ण बातें कैसे मालूम 
हो गई' १ बस,इसी प्रकारके वियार हमारे सिपाहीके मनमें आये; 
ओर वह बाबाजीसे बोला, “बाबाजी, जिस प्रकार आप कहते 
हैं कि, में जैसा हूं, वैसा दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार में भी 
कहता हूं कि, आप जैसे दिखाई देते हैं, चैसे नहीं हैं ।” 

... बाबाजी कुछ हँसे ओर हँसीकी ही आचाजसे बोले, “हाँ ! 
हाँ! ऐसा भी हो सकता है! किन्तु तेरे कहने ओर मेरे कहनेमें 
इतना अन्तर भी है कि, तू कोन है, सो मुश्दे पूरे तोरपर मालूम 





है, और तुर्दे इसका विश्वास भी है। परन्तु में कोई सचमुच ही 
पैरगी हूं, अथवा यों ही वैरगीका ढोंग किए ह स्रो लुक कुछ 
भी मालम नहीं है ! अच्छा, में जो कोई भी हूं--अथवा दिखाई 
देता हैं, चौसा नहीं हं--पर तुकको इससे क्‍या मतलब : में जो 


कछ कह', उसीके मुताबिक तू कर, यही तेरा कतेव्य है ।? 
सिपाहों कुछ विदयारमें पड़ गया । पर अन्तमें, जान प 


है, उसने बाबाजीके कहनेके अनुसार ही करनेका निश्चय किया 
वह चुपके इधरसे उधर चक्कर कादता रहा। बार बार बाहर 
जाता. और भीतर आता--फिर बाहर जाकर अपने घोड़े की 
पीठपर हाथ फैरता, डसे उत्साह द्कानेको कुछ कहता ओ 


फिर सीतर आकर चुप बैठ जाता । 
इसी प्रकार घीरे घीरे सुबह हो गया। चारों ओर उर्जेला 


छागया | बाबाजीका बतछाया हुआ समय आनेमें अभी बहुत 
देर थी । यह समय कैसे काटे, सो उसे नहीं सूक पड़ा। इधर 
पेटमें भूख भी गड़बड़ भया रही थी। “बाहर जाकर कुछ खा ह्दी 
आधे ”-- ऐसा बाबाजीसे कहें, यह मनको भरा नहीं जान 


पडता था। परन्तु बाबाजी बड़े चतुर थे। वे तुरन्त ही ताड़ 
_ शये; और एकदम बोले, “तेरे घर-द्वार तो कुछ है ही नहीं, ऐली 


दशामें रोडी बनाना आता ही होगा ? अब थोड़ी हो देरमें ४ 
सिक्षाके लिए निकलगा। उस समय जो कुछ थोड़ा-बहुत 
चावयछ अथवा आटा, मिलेगा, सो के आऊंगा; और तवा- 
'पततीली भी दूगा, सो आनन्दपूर्वक यहांपर एक तरफ सोटी 
अथवा भात, जो मन चाहे, पकाकर खाना |” द 








हा बाबाजीने ये शब्द बिलकुल हँसीमें आकर कहे थे, यह उन- 
् के चेहरेसे स्पष्ट दिखाई दे रहा था; और उसके उत्तरको प्रतीक्षा 
के - करते हुए बड़ी उत्खुकतासे आप उसकी ओर छिपी नज़रसे 
देख भी रहे थे | उनके उपयु क्त शब्दोंका जो उत्तर मिलनेवाला 
था, वह उन्हें एक प्रकारसे मारूप ही था; ओर तदसुसार उन- 
रा को उत्तर मिला भी। उनका साथी गर्दन नीची करके कुछ 
द / हँसता हुआ कहता है, “बाबाजी, आपको सब मालूम है, फिर 
आप क्यों पूछते हैं ! यहांसे कोई गाँव यदि निकट हो, तो मुझे 
वहां ले चलिये। वहां चाहे जिसको चार पैसे दे देनेसे भोजन 
मिल जायगा ।” यह झुनते ही बाबाजी खूब हँसते हुए कहते 
हैं, “भतलूब यह कि, तुर्े अपने हाथसे बनाना नहीं आता। 
अस्तु | तू यहांसे कहीं मत जा। बस्तीमें अभी यचार-पांच 
दिनितक जाना तेरे लिए ख़तरनाक है। इसके सिवाय कोई 
बस्ती पास भी नहीं है। घड़ी-आध घड़ीमें तेरे खानेका 
प्रबन्ध हो जायगा ; ओर तेरे घोड़ेको चारा-दाना भी मिल 
जायगा |” 

'चस्ती बहुत दूर है, फिर घड़ी-आध घड़ीमें प्रबन्ध कैसे हो 
. जायगा £ यह उस बेचारेके ध्यानमें न आया। तथापि, अब 
#..... उसको इस बातका विश्वास हो चला था कि, यह बाबा कोई 

.... न कोई विजित्र व्यक्ति है--जैसा दिखाई देता है, बैसा हो नहीं 
है। इसकारण अब उसकी सम भमें आगया कि, यह जो कुछ 
.. कहेगा, चैसा ही अवश्य होगा। और सचमुच ही, उपयुक्त 





(६ ॥ 72:38: १) 
8 कक: के 
4 सी * 5 
227 कक! डा 


३: ला  च 


शश्थि 


६ 


#ण्कक.. #॥॥ 


४६ 











कप के 
५ यह छोग कोन है 
७३ १७२ ४८ $_.ह है 
"पदक नसरन-लपट७त न्व्च्ह्ख्ल्ब्स्य्य्क्गं 


बातचीत हुए अभी आधी घड़ी भी नहीं हुई थी कि, इतनेहीमें 
एक ब्राह्मण एक परोसी हुई थाली, ढांककर, ले आया; ओर 
एकद्म हजुमानजीके सामने जाकर उनको नेवेद्य दिखाया; ओर 
फिर बाबाजीकी ओर देखकर कहा, “आपकी आज्ञाके अनुसार 
सब प्रबन्ध हो गया है। थोड़ी ही देरमें भशुआ यारा-दाना लेकर 
आवेगा | शामके वक्त फिर कब लाऊ', सो बतला दे, तो अच्छा 
हो |” बाबाजीको जो कुछ उससे कहना था, कह दिया; ओर 
वह चला गया। सिपाही बेबारा खकित होकर इधर-डचर 
देख रहा था। बाबाजीने उससे कहा, “अब आरामसे खाना 
खा, थोड़ी ही देश्में घोड़े का भी प्रबन्ध हो जायगा | कोई चिंता 
मत करना ।? यह कहकर आप जल्लानके लिए चल द्यि। 

सिपाही विचारा भूखसे बिलकुल व्याकुछ हो रहा था। इस- 
लिए अब आश्चरय इत्यादि करनेमें समय न व्यतीत करके उसने 
अपना वह सप्तय छुधाको शान्त करनेमें ही लगाया। कुछ भी 
संकोच न करते हुए उसने खूब आनन्द्पू्वंक भोजन किया। 
पदार्थ भी बहुत उत्तम बने थे; ओर यह उसे मालूम ही हो गंया | 
अभी सिपाहीका भोजन समाप्त नहीं होने पाया था कि, भशुआ 
लोधी हरी छासका गद्ठा लेकर वहां आया; ओर “बाबाजी कहाँ 
हैं-.पूछने लगा। “वे ल्लानकों गये हैं ”-.यह मालम होते ही 
गद्दा वहीं डाल दिया; ओर बहुतसे चने छे आया था, उनको भी 
वहीं रखकर आप चलता बना। सिपाहीने देखा कि... हमारा 
भोजन हो गया, घोड़े की खूराकका भी प्रबन्ध हो गया। अब 

















क्या बाकी रह गयां | बह उठा; ओर घोड़ेके पास जाकर 
उसकी पीठ ठोंकी, ओर उसके आगे चारा डालकर यह सोचने 
लगा कि, दाना किसमें द'। किन्तु तोबरेके बिना काम थोड़े 
ही अटक सकता था ? उसने अपनी धोतीके लिरेका हो तोबरा 
बनाकर उसमें दाना दिया। इतने सब काम हो गये, पर बाबा- 
जीका कहीं पता नहीं। वे छ्वानके लिये कहकर गये थे, परच्तु 
घड़ी हुई, दो घड़ी हुई', पहर हुआ, डे ढ़ पहर हुआ, तीसरा पहर 
भी छोट गया, बाबाजीका कुछे पता नहीं! हमारे सिपाही 
नवयुवकके मनमें विचित्र ही शंका आई। उसने सोचा कि, 


; इस बाबाने हमको विश्वास देकर रोक रखा ह-- 


अब कहीं हमारा विश्वासघात तो नहीं करना चाहता ? “शब- 
को बड़ा आनन्द आयेगा, शामकोी बड़ा आनन्द आयेगा” कह- 
कर मुरे रोक रखा है--कहीं किसी मेरे शत्रु के हाथमें दे देनेकी 
ही तो यह युक्ति नहीं ? मेरी निगहबानीपर क्िसीको रखे बिना 
इसको मेशा सब हाल केसे मालूम हुआ ? हाल तो इसको सारा 
मालूम है! फिर सोचता है कि, ऐसा नहीं हो सकता। जैसा 
होनेकी कोई सम्भावना नहीं। एक तो यहां हजुमानजीका 
मन्दिर है; और नीचे तहखानेमें जगद्स्वाजीका मन्दिर है, और 
इनें दोनों मन्द्रिंका यह अधिष्ठाता है। मल्दरि दुश्मनोंके 
मात्यूप्त नहीं होते । इसकी बातचोतले भी ऐसा मालूम नहीं 
होता कि, यह विश्वासधात करेगा। कुछ नहीं | कुछ नहीं! 
मेरे मनके ये क्विर बिलकुल सूखतापूर्ण हैं। ऐसे वियार 


“गगन ननननन कक» ++- बी धक35५«>4+न+«-->-++-नलनन सनम परम नननननन न न ५4“ कन+५५-++7339५5. 








३. 


मेरे मनमें आये केसे? बाबाजीकी वह धीर-गम्भीर सूरत 
मुझको अणुमात्र भी अविश्वासकी कैसे जान पड़ी ? किन्तु वह 
जैसा दिखाई देता है, घैसा तो अवश्य नहीं है। यह है कौन ? 
क्या यह व्यक्ति मेरे ही समान इन स्लेच्छोंका तिरस्कार करने- 
वाला भी हो सकता है ? अथवा यह ऐसा कोई पुरुष है कि, 
जिसको उनके द्वारा बहुत कष्ट पहुंचाया गया है? यह याहे 
जैसा हो; किन्तु जेसी अभी मुझको शंका हुई थी, वैसा तो 
कदापि नहीं है । अच्छा, यह स्थान किसका है ? नीचे, देवीजीके 
मन्दिरमें, हथियारों इत्याद्की पूरी पूरी तैयारी है! बड़े बड़े 
सन्दूक रखे हैं, जिनमें मुहरबन्द आहनी ताले लगे हैं। क्‍या 
इनमें द्ृव्य तो नहीं है? जो हो । यह स्थान किसका है? 
किसने बनाया है? यहां मुफको शामके वक्त ऐसा कौनसा 

मत्कार दिखाई देगा ? ओर, जेसा बाबाजी कहते हैं कि, 
मेरे उद्देश्य यहीं पूर्ण होंगे--सो कैसे ? प्रेरी कुछ समझ 
नहीं आता। इस प्रकार सोचते-विचारते हुए कुछ देरके लिए 
वह मन्द्रिके बाहर आकर खड़ा हो गया; ओर यह सोचते हुए 
कि, बाघाजी अभीतक नहीं आये, वह चारों दिशाओंकी ओर 
दृश्तक हु'शे द्वालने लगा। इस प्रकार होते होते संध्याका 
समय आगया। बाबाजीका कहीं पता नहीं। इसके बाद 
उसके मनमें ओर ही विचार आने -रूगे। बाबाजीपर कोई 
संकट तो नहीं आगया ? स्डेच्छोंको कहीं यह तो पता नहीं 
छग गया कि, वे ऐसे एक विचित्र स्थानके .अधिष्ठाता हैं; और 


यह छोग कोने के 
ला 











__ उषाकाल है द 


. खाहख न करता | चुपकेसे उतर | मेरी खुन ; ओर भीतर चल ।” 





ज्य्क्क्ड ४ ८८ 


इसीकारण शायद्‌ उनको पकड़कर कहीं मार डाला हो! 
अथवा--यह स्थान कहां है, क्‍या है, किसका है इत्यादि बातें 
उनसे जामनेके लिए कहीं वे उनको कष्ट तो नहीं दे रहे होंगे ? 
इस प्रकारके विद्वार उसके मनमें आये; ओर जम गये | 
वह बहुत कोशिश करता था, पर किसी प्रकार वे विचार उसके 
मनसे दूर नहीं होते थे। यहो नहीं, बल्छि उसने यह भी सोचा 
कि, यदि ऐसा ही है, तो इस अवखरपर मुझको थैयें धरकर 
आगे बढ़ना चाहिये; ओर यदि वे मिल जाय, तो उनको दुष्टोंके 
हाथसे छुड़ाना चाहिणए। इस बातपर उसका मन इतना जमा 
कि, वह तुख्त ही तैयार हो गया; ओर अपने घोड़ेपर जीन 
कसनेका विचार करने लगा। उसको पूर्ण विश्वास हो गया 
कि, जो भय मेरे मनमें आया है, वह सत्य ही होगा। बस, 
इसी जोशमें उसने सचमुच ही घोड़े पर जीन चढ़ा दी। अब 
वह घोड़े पर बैठकर, उसको उत्साह द्लाते हुए, यह कहनेही- 
वाला था कि, “चित्तल ! बेटा चलो,” कि इतनेमें “सीताराम ! 


सीताराम !” कदते हुए बाबाजी आपहंचे । आते ही उन्होंने 


सिपाहीसे कड़ा, “क्यों मेरे कहनेका तुझे अबतक विश्वास नहीं 
आया १ तू मुझसे छिपकर जानेकी तैयारी कर रहा था? में 
मोकेपर ही आगया; यह अच्छा हुआ तेरे लिए न जाने कितने 


... छोग जगह जगह घूम रहे हैं। इस बातकी यदि तुझे कुछ भी 


कल्पना होती, तो ऐ झूखे ! तू इस मन्दिरके बाहर पैर रखनेका भी 


3 यह लोग कोन 7 


चरम 








की. 0 आ  3 जा ३ २०००५०००० मई 9000%००७७ पक मई 


यह खुनकर सिपाही बेचारेकों बहुत खेद हुआ, उसने 
सोचा कि, देखो, हमारा उद्दे श्य क्या था; ओर इन्होंने समभ्का 
क्या ! बेचारा तुरन्त ही घोड़े परसे उतर पड़ा : ओर बाबाजीके 
साथ चुपकेसे भीतर चला गया । वहां कुछ देर तो वह स्तब्ध 
रहा; परन्तु अन्तमें बाबाजीसे इस बातका खुलासा किये बिना 
उससे नहीं रहा गया कि, वह उस जगहसे क्‍यों चल दिया था। 
परन्तु उसकी उस खिन्‍्नावस्थामें भी आनन्दकी बात इतनी ही 
हुई कि, बाबाजीने उसके उस कथनपर विश्वास कर लिया | 
यहांतक कि, उसका कथन उनको अक्षरशः सत्य मालूम हुआ। 
परन्तु उन्होंने यह नहीं प्रकट किया. कि, सिपाहीके उक्त सद॒द्दे- 
. इयसे उनको कितना आनन्द हुआ । अन्‍्तमें वे सिपाहीसे इस 
प्रकार बोले, “अब जरा सावधान रह | थोड़ी ही देर बाद अब 
मुझे वह घटना दिखाई देगी, जिसकी हमने चर्चा की थी |” 
इस बातवयीतको हुए लगभग आधी घड़ी हुई होगी कि 
इतनेमें सिपाहीकों क्या भास हुआ कि,द्श्से बहुतेरे मनुष्य आ- 
रहे हैं, उनके हाथमें पलीते हैं, कुछ घोड़ोंपर हैं; ओर बहुतसे 
पैदल हैं। परन्तु मनको पूरा पूरा विश्वास दि्लानेके लिए वह 
बाहर गया; औए खूब ध्यान छगाकर देखने रूगा, तो सचमुच 
ही दो-चार आदमी घोड़ोंपर आरहे हैं; ओर बहुतसे पैदल हैं। 
जो लोग आगे थे, उनमेंसे कुछ छोगोंके हाथमें पलीते थी दिखाई 
पड़े । वहांसे स्पष्ठ दिखाई दे रहा था कि, थे सब लोग मन्द्रि- 
की ही ओर आरहे हैं। पर वे थे कोन ? शत्र्‌ या मित्र? 














€ ५६ 2) 


कऋाां७ओ आल 


सो कुछ उसकी समभमें नहीं आया ! भीतर जाकर उसने 


बाबाजीको सप्रायार दिया; ओर पूछा कि, ये आनेवाले छोग 


कोन हैं? बाबाजी हसे ओर गोलमाल करके इतना ही उत्तर 
दिया कि, छोग जब यहां आजायंगे; तब आप ही आप मालूम 
हो जायगा। अभी चोथाई घड़ी भी बड़ी मुशकिलसे हुई होगी 
कि, इतनेमें “लय ! सवानी माताकी जय !” का घोष खुनाई 


दिया; ओर वे छोग मन्दिरके प्रांगण में आगये। हमारे सिपाही 


जवानने उनकी ओर एक नज़रसे देखा । थे सब लोग, उसीफे 
समान, मराठे जवान थे | उनमेंसे जो लोग घोड़ोंपर थे, उनका 
पेशा तो कमसे कम वही था, जो हमारे सिपाहीका था | 

उस मंडलीमें बहुतसे छोग आये थे । सबसे आगे दो नव- 
शुवक हाथमें पलीते लिये हुए मन्द्िरहीकी ओर आरहे थे। 
उनके पीछे चार-पांच जवान पैदल आरहे थे | उनके पीछे सर- 
दारी पेशेका एक युवक--बिलकुल नवयुवक-घोड़ेपर आ- 
रहा था। उसका रंग पक्का था। आंखे बहुत विशाल और 
तेजसे भरी थीं; परन्तु उनकी विशेषता उनकी विशालतामें नहीं 
थी, किन्तु उस अद्वितीय तेजमें थी, जो कि खूब चमक रहा 
था ! उसकी नाक बड़ी, गरुड़की चोंचके समान थीी। यह शरीर- 
से बहुत भव्य नहीं था। डीलडोल भी कुछ ठिगनासा ही 
था। डसके होंठों और तुड्डीपर अभीतक रेख नहीं फरकी थी | 


_ पोशाक उसकी बिलकुछ सादी ! एक रुम्बा अगरखा; और मरा- 
...... ठोंकासा पायजामा पहने था। सिरमें उस समयके मराठोंकीसी 








क्‍ (& रे ञ) 6 यह लोग सम 


बा कक मन न कल्स 





क छोटीखी पगड़ी थी। उसके चंचल नेत्र बराबर इधर-उधर 
घूम रहे थे, जिससे मालूम होता था कि, मानो सारी दिशाओं - 
की घटनाओंको वह एकद्म ही अरहण करता जाता था। 
जिस घोड़े पर वह बैठा था, वह जातका बहुत ही उत्तम था. 
ओर बार बार ऊपर-नीचे गदंन करते हुए चल रहा था। इससे 
ऐसा जान पड़ता था कि, मानो अपने ऊपर आरूढ़ होनेवाले 
अपने खामीके विषयमें अभिमानव द्खिलाते हुए औरोंको वह 
तुच्छ जतछा रहा था ! बार बार रूगाम चबाने और फडकनेमें 
वह अपनी ऐसो शान रखता था कि, जिसे देखकर लोग उसपर 
मोहित हो जाते थे। वह इस सप्रय बिलकुल धीरे धीरे चल 

था। जो नवयुवक उसपर आहरुढ़ था, बह इस समय 
अपनी एक ओर घूमकर, एक दूसरे व्यक्तिसे बातचीत करता 
हुआ आरहा था। उसीके समाव ओर भी एक-दो खासे 
सवयुबक थे। वे भी अवस्थामें उसी आगेवाले नवयुवकके 
समान ही--अथवा एक-दो वर्ष न्यनाधिक थे, और घोड़े पर 
ही सवार थे। उनके पीछे पांच-सात आदमी पेंद्ल आरहे 
थे। ये छोग जो पैदल आरहे थे, उनके बदनपर प्राय: कपडे 
कर ही थे। बे सब जवान ही थे, किन्तु बहुत मोटे अथवा 
ऊचे-पूरे यहीं थे। यद्यपि यह नहों कहा जञासकता कि. थे 
विछकुल दुबरे-पतले थे; तथापि बहुत मोशे भी म थे । परल्तु 
जिदना कुछ उनका डीलडोल था, उतना सब बहुत ह। मज़बूत, 
_ गठा छुआ; ओर छुट्ृढ़ था आंखें सबकी बहुत ही पानीदार 








५३ २१४८ ८८ 


हम उषधाकाल 


है 
ण्ह््टट्क््छ . ८ ७ 


(.. शीं। उनके मध्यभागमें कोईन कोई ऐसो चस्तु थी कि, 
जिसकी थे सब रक्षा करते जले आरहे थे। यह सब मराठा- 
मंडली ऐसी थी कि, जिनकी गणना नवयुवकोंमें ही की जा- 
सकती थी--उनकी बातचीत, उनका हंसना-खेलना इत्यादि 

ला सब बातें; ओर विशेषकर उनकी कुछ उद्दए्ड वृक्ति, उनकी 

द युवावस्थाको प्रकट कर रही थी। वे लोग जैसे जेसे निकट 
आने लगे, बसे ही घेसे हमारे मन्दिरके सिपाही जवानकों 
अत्यन्त अवम्भा मालूम होने लटगा। अबतकक्ी खारी बातें 
देखकर उसे जो आश्चर्य मालूम हुआ था, वह आश्चर्य इस समय 
दस गुना बढ़ गया । इतने छोग, इतनी रातको, ऐसे निर्जन 
प्रदेशके मन्द्रिमें क्यों आते हैं? ओर थे जो कुछ छाये हैं, सो 
क्या है ? इत्यादि प्रश्न उसके मनमें उठे; ओर वह एकठटक उनकी 
ओर देखने लगा । वह फिसी पाषाणमय सूत्ि की तरह स्तब्घ 
खड़ा था; ओर उन लछोगोंकी ओर--विशेषत: सबके आगे चलते- 
वाले उस नवयुवककी ओर--डउसकी बराबर नज़र रूगी थी। 
ऐसा जान पड़ा कि, उनकी ओर देखते ही उसके मनमें कोई 
विचित्रता विचार आया। वह विचार क्या था, इसकी चर्चा 
करनेसे यहां कोई विशेष तात्पर्य नहीं है। थे छोग मन्दिरके 
अगले प्रांगणमें आपहंचे । अब वह नवयुवक, जो सुन्दर घोड़े- 
पर सवार था, झटसे अपने घोड़ेपरसे उत्तर पड़ा । यह देख- 
कर तुरन्त ही एक मनुष्य आगे आया; ओर उसके घोड़े की 
बाग पकड़ छो। एक मनुष्यने कम्बल बिछा दिया; ओर उस- 


*- 20020: 












। २७६ ८८४ 5 हे हे 


हा. नस. अशोक पी ललल “डबल त्ल्क्द्य्य 








पर बैठनेकी उससे प्रार्थना की । अन्य लोग भी घोड़ोंसे नीचे 
उतरे, और उनके घोड़े भी पहले घोड़े की भांति ही एंक ओर 
मनुष्य वहांसे हटा ले गया। जो नवयुवक पढछोीते लिये आ- 
रहे थे; उन्होंने अपने अपने पलीतोंकोी हसुमामजीके दरवाजसे 
कुछ अन्तरपर . खड़ा कर दिया। आगेका वह बवय॒ुव॒क महा- 


शय, घोड़ेपर बैठे हुए जिन छोगोंसे बातचीत करता. आता था, 
उन्हींको साथ लिये हुए; ओर पहलेहीकी भांति उनसे 


बातचीत करते हुए, मन्द्रिके बिलकुल द्वारपर आया; ओर 
दो बार द्रवाओेसे ही पूछा कि, अ्ोधघर खामी कहां हें!” 
अवश्य ही बे प्रश्ष हमारे खसिपाहीकों सम्बोधन करके किये गये 
थे; क्योंकि वही उस समय द्वारपर था। परन्तु पूछनेवालेके 
मनमें उस समय यह विचार बिलकुल ही न होगा कि, जिससे 
हम पूछ रहे हैं, वह कोन है, कहांसे आया है, इत्यादि । ओर 
ऐसा ही उसकी चेष्टासे सी प्रकट हो रहा था । वह नवयुवक 
पुरुष अपने साथी अन्य दो नवयुवकोंके साथ ज्यों ही आगे बढ़ा, 


त्यों ही हमारा सिपाही जवान, जो अम्नीतक उस नवयुवक 
पुरुषकी ओर बराबर चकित द्ृष्टिसे देख रहा था, एकदम पीछे 


हट गया; ओर इस प्रकार उसने उन तीनोंको भीतर जानेका 
मार्ग दे दियए। वह नवयुवक सीधा ही गया; ओर बजरंगबलीकी 
मृत्ति के पास जाकर नमस्कार किया। वहांसे फिर वह बाबा- 
जीकी घूनीकी तरफ चछा । बाबाजी चुपके बेठे हुए यह सब 
तमाशा देख रहे थे। नवयुवकने उनके पास जाकर उनको भी 
नमस्कार किया; ओर हँसते हसते कहा :-- 











“खामीजी महाराज, आज आप भीतर ही चैठे हैं! हम 
आज ओर भी कुछ ले आये हैं। उसको आपके चरणोंपर अपेण 


करके हम कताथे होंगे।? इतना कह हो रहा था कि, इतनेमें 


उसकी द्वष्टि, द्रवाजेके पास खर्ड हुए, हमारे उस सिपाहीकी 
ओर फिर गई; और डसने तुरन्त ही खामीजीले “यह कोन ?”? 
इस अर्थका प्रश्न-सूचक्त संकेत किया। खामीजीने तुरन्त हो 
हंसते हँसते यह उत्तर दिया कि, 'घिशीही अ्रणीका यह भी 
एक है ।” इसके बाद खामोजीने उछ नवयुवकको; ओर उस- 
के साथवाले दोनों अम्य नवयुवकोंकों भी, ज़रा मिकट आनेका 
इशारा किया; ओर इस भांति कोई बात वतलाई कि, जो सिरे 
उन्हींको सुन पड़ी । उसे सुनते ही उन तीनोंने एक बार पीछे 


घूमकर हमारे उस घपिपादी जवानकी ओर ध्यानसे देखा; अं 


फिर तुरन्त ही आपसमें एक दूसरेकी ओर भी कुछ अर्थपूर्ण 
दृष्टिसे देखा । इसके बाद वह नवयुवक खाम्तीजीकी ओर देख- 
कर फिर बोला :-- 

“इस प्रकारके लोग मिल जायें; ओर भवानी माता तथा 
आपकी कृपा हो जाय, तो डस महापुरुषने जो काय मेरे द्वारा 
करानेका विचार किया है, वह. बहुत जब्दी हो जाय-! रात-दिन 
मेरे मनमें यही आता रहता है कि, ये बातें कब एक वार हों; 
ओर इसी चिन्तामें मेरा हृदय व्याकुछ रहता है। किन्तु क्‍या 
करू' ? बड़े महाराज़का, ओर अपने गुरुजीका बड़ा भय मालम 
होता है। मेरे ये विचार; ओर मेरे ये कार्य उनको बिलूकुछ ही 


के कर हि ( * 
न्ब्द्ड्स्ह्ट्ब्स्स्श्य्चछऋ््ः 
पसन्द नहीं हैं, सो आपको मालूम ही है। उनके यहांसे प्रति 
दिन किस प्रकारके पत्र आते रहते हैं, सो भी आप जानते हैं। 
ओर घरमें प्रति दिन कया क्या विचार होते रहते हैं, सो सब 

आप इन दोनोंसे पूछिये ।” 
इतना कहकर उस नवयुवकने दोनों साथियोंकी ओर घूम- 
कर देखा । तब उनमेंसे एक बीचहोमें कहता है; “खो कुछ 
सत पूछिये। मावाजों भी सदैव यहो उपदेश किया करती हैं 
कि,'ऐसा करना ठीक नहीं, बैसा करना ठीक नहीं; ऐसा करने- 
से ऐसा होता है, वैसा करनेसे अमुुक नाराज होगा; तू बड़ा 
उपद्ववी है। बड़े जो छुछ कहते हैं, उसे खुचना चाहिए | गुरूजी 
जो कुछ कहेंगे, वह हमारे हितका ही कहेंगे । ऐसी कोई बात 
मत कर, जिससे वे नाराज हों, अथवा उनको बुरा छगे! 
कभी कभी जब हम जाते हैं, हमसे भी जाशज होती हैं। हम- 
पर यह अपराध लगाया गया है कि, हमारी हो संगतिसे 
श्रीमानजी बिगड़ गये हैं। खामीजी महाराज ! देखिये, केला 
तमाशा है [” | 
आगे वह और कुछ कहनेवाला था कि, इतनेमें वह नव- 
थुवक बीचहीबें कहता है, “चास्तवमें हमारे अजुकूल कोई नहीं 
है, किन्तु हमने अपना निश्चय कर दिया है। आज अच्छा 
हाथ लगा है! यह अब आप अपने अधिकारमें लेवे । दिलीकीो 
. खज़ाना जारदा था ! इन दुष्ठोंके बापका घन है ? गरीब छोगों- 
को छूय्ते हैं, सरदार छोगोंके घरोंपर भी हाथ साफ करते है; 











है हु डपाकाल 


होगा, सो खब तेरे ही हाथसे| सब छोटे-बड अवसरोंपर 





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४८ 4 





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ओर इस प्रकार अपना घर भरते हैं। बाद्शाहके पास नाम- 
मात्रके लिये नजरानाभर भेज देते हैं! मुझे आपकी कछृपासे 
सात-आठ दिन पहले ख़बर मिली थी। और तभीसे हमने यह 
निश्चय किया था कि, यह खज़ाना दिल्‍ली कम्ती न जाने देगे-- 
यह तो माता भवानीके चरणोंपर छाकर अर्पण करेंगे। हमने 
सोचा था कि, ख़ज़ानेके साथ पछटल भी अधिक होगी; परन्तु 


जितना हम खयाल करते थे, उतना बन्दोबस्त नहीं था। कछ 


रातको हमने अपनी सदैवकी हिकमतसे उन्तको घेर लिया; और 
उनको घवता बताकर खज़ाना लूट लिया। हमने ज्यों ही उन- 


. पर अचानक छापा मारा, त्यों ही वे दुए “तोबा तोबा” करते 


हुए जडुलमें इधर-उधर भग खड़े हुए। एक-दो रह गये थे, 
उन्होंने कुछ देर हाथ-पैर मारे, पर अन्तमें इन दोनोंने उनको भी 
मार भगाया |” । । 

श्रीधर स्वामी चुपके सुन रहे थे। उसका कथन समाप्त 
होते ही स्वाम्रीजी कुछ इसे और बोले, “इसी विनयशीलतामें 
तेरी शोभा है! कलके धावेका सारा हाल मुझे मिल चुका 
है। उस धावेमें इन दोनोंने वो वीरता दिखलाई ही थी, किन्तु 
ओर भी किसीने दिखलाई थी, स्रो भी मुझे मालूम है। किन्तु 


देख, ( श्रीधर स्वाभीका कंठ इस समय भर आया; और उन्होंने 


उस नवयुवककी पीठपर हाथ रखा ) प्रत्येक अवसरपर तूही 
इतना आगे न हुआ कर। तू इन खबका नायक है | जो कुछ 








६ हा को 2) / यह लोग | कोन हे 7 
.. पक श्ष्य्ड्े ! का हर 


>दमके०-बर०- +फरपेर--श ९०-८८ ०७०-: पा आर 





बदि तू ही आगे बढ़ेगा, तो वक्त है, मोका है, यदि कोई अनि- 
ब्टकारक अवसर कम्ती आगया तो १" **” । 

इसके आगे श्रीधर स्वामीसे कुछ भी न कहते बना। उनका 
शरीर कुछ थर्रा गया। अगले कथनमें जो वित्ञार प्रकट होनेवाला 
था, बह मानो उनको बहुत ही असह्ायसा जान पड़ा । उनका एक 
हाथ उस नवयुवककी पीठपर था; ओर वे एकटक दृष्यिसे 
उसकी ओर देख रहे थे। उनकी उस दुष्टिमं अत्यन्त गुस्मीर 
प्रेम भरा हुआ था। उस नवयुवकने अपना सिर नीचे करके 
सिफी इतना ही कहा, “स्वामीजी महाराज | भवानी माता, बज- 
धगबली और आपके कृपा-प्रसादसे मुकपर कोई भी अनिष्ट- 
प्रसंग नहीं आवेगा, इसका मुझे पूरा विश्वास है। श्सके 
सिवाय, यदि में खय॑ ही अग्नसर नहीं हू गा, तो इन लोगोंको 
आगे रखनेका मुझे कौनला अधिकार है! बस, यही सोच- 
कर प्रत्येक संकटके अवसरपर इनके साथ में भी आगे रहता 
हूं। खययं पीछे रहकर हुकूमत चलाना मुझे अच्छा नहीं लगता | 
सखामीजी इसपर कुछ भी नहीं बोले । वह नवयुवक मंहाशय 
भी कुछ देर्तक छुप दी बैठा रहा । इसके बाई उसने बाहरके 
 छोगोंसे चहर्षपिद्ारा, जो उनके साथ था, भीतर छानेके लिए 
कहा |. पियारा भीतर छाया गया; और हसुमानजीकी मूत्तिके 
पीछे रखा भया। इसके बाद फिर वे छोग बाहर चले गये । 
बह नवयुवक, उसके दो साथी, श्रीधर खासी; ओर हमारा वह 
सिपाही -सिफ इतने ही मनुष्य भीतर रह गये । श्रीधर स्वामीने 








व क न... 


सा 





. उषाकाल है १५७ 


अच्छा हो आछ 2७७७॥७७४ ५ ऋ 





ड्स नवयुवकसे कहा, “जेसा कि तू अपने इन दोनों साथियोंकों 
सम्मता है कि, ये तेरे लिए ध्राण देंगे--ओर सचसुच ये है 
भी ऐसे ही--उसी प्रकार इस ( हमारे सिपाही जवानकी ओर 
संकेत करके ) भार पुरुषको भी तू अपना साथी समझ--यह को 
तेरे लिए प्राण देगा । तेरी तरह, इस पवित्र भारतव्षके लिये, यह 
भी अपनी जान देनेको तैयार है । तेरी ही तश्ह इसको भी उन 
दुष्ट स्लेच्छोंसे घणा है। यह कहनेमें भी कोई अतिशयोक्ति 
होगी कि, सर्वथा वेरीहीसी इसकी भी परिस्थिति है। यह 
अपना घर-द्वार छोड़कर वेरे ही गिरोहमें सिलमेको बला था 
बीचमें रास्ता भूछकर इधर आगया, सो मैंने इसको रोक 
लिया। और अब तुकसे इसकी मुलाकात भी करवा दी | 
श्रीधर खान्मी जब यह कह रहे थे, हमारा श्र सिपाही, 


का 


प्‌ 


ईद 
श्र 
आर 


वह पराक्रमी नवयुवक--दोनों एक दूसरेकी ओर अत्यन्त स्तव्य 


दृष्टिसे देंख रहे थ--मानों इस प्रकार वे दोनों अपने अपमे 
नेत्राकषणसे एक दूसरेके हृद्यकों खींच रहे थे | 





ड़ कीड द् 





/ सूट आया 4 


श्र 





१५७९ 


+9--$क- "हु३--पप- ्श्व्य्ज्स्स्ब्स्ल्स्द्र 

“हनुप्तानआकी जय !” का घोष किया। इसके बाद उन्होंने 
नियमानुसार हसुमानजीकी बैठक हटाई । फिर स्वामीजी उस 
तहखानेके मु हसे अन्दर गये;ओर उनके पीछे ही पीछे उस तरुण 
महाशयके साथियोंमेंसे एक साथी भी भीतर उतरा। दूखरेने, 
बह पिदारा, जो वहां रंखा था, उसको पकड़ा दिया | पियारा 
जब भीतर पहुंच गया, तब वह नव्रयुवक महाशय भी भीतर 
उतर गया। उसके पीछे पीछे दूसरा साथी भी भीतर गया । 
हमारा सिपाही जवान, जो वहां बाकी रह गया था, उसे उन्होंने 
ऊपर ही रहनेके लिए कहा | 

यह देखते ही उसके चेहरेपर असन्‍्तोषकी एक बारीकसी 
रेखा क्षणमात्रके लिए फलकती हुई दिखाई दी, तथापि उसने 
तिहपभर भी अपना पैर आगे नहीं बढ़ाया | जेंसे कोई सेनापति 
सिपाहीको आज्ञा देवे; ओर वह उसे शिरोधार्य करे, उसी भांति 
वह, जहांका तहां स्तब्ध खड़ा रहा | भीतर जो चार आदमी गये 
थे, थे एकके बाद एक, नियमानुसार भीतर अम्बिकाके मन्दिरमें 
गये। साथमें जो पिदार ले गये थे, उसे भी अग्बिकाजीके 
सस्मुख रख दिया। इसके बाद सब, कुछ स्तब्घसे होकर, 
भवानीकी उस भव्य सूर्तिके सामने खड़े हो गये । थोड़ी ही देश्में 








श्रीधर स्वामी उस तेजस्वी नवयुवककी तरफ देखकर बोले:--- 


“ज्सके विषयमें मेंने यह बतलाया कि, धू इसे अपने जीवन - 
का साथी बना, उसके विषयमें तूने विशेष पूछतांछ क्‍यों नहीं 


की ? उसके साथ जिस प्रकारका बर्ताव करनेके लिए मैंने तुझसे 








'डपाकाल 





कहा है, उस तरहसे यदि तू करने लगेगा; ओर उसपर शो 
दोनोंहीके सम्रान विश्वास रखने लगेगा, तो यह तू कैसे सलप+ 
गया कि, वह तेरे साथ विश्वासधात न करेगा 2?” 

स्वामीजीके ये वचन खुनकर वह नवजुवक कुछ हँखा, और 
उनकी ओर देखकर कहने छूगा:_- 

' आपके वचनोंसे अधिक और कया विश्वास हो सकता है? 
इसके सिवाय, उसको देखकर नेरे विदारमें भी यही आया कि, 
भवानी आताका डसपर अखाद अवश्य है; और उसके द्वारा मु 
उद्सुच ही बहुत सहायता मिछेगी । परूछु अब, जवकि आए 
ही कहते हैं, तो हैं इंछता --वतछाहएये, वह कौन है ? कहांसे 
आया है ?” क्‍ 

भीधर स्वामीने उसझते यह जिज्ञासा शीघ्र ही ठ्त की । 
उन्होंने जो कुछ वतलाया, उससे, जाम पड़ा कि, उस नय- 
शुवकको कुछ आश्चर्व भी 3; परन्तु उस आखश्चर्यको उसमे 
वयनोंदारा प्रकट नहीं किया | 

आधी घड़ी और हुई । इसके बाद उस ववयुवकके कहमेसे 
उसके एक साथीने ऊपरके उस व्यू क्त( सिपाही ) को नीखे 
आनेके लिए. कहा, जिसे सुनते ही वह नी उतरा; और 
शीघ्वतापूर्वक उसके पीछे ही पीछे भवानीजीदे मन्द्रितक गया | 
यहां जञानेपर बह नवयुवक महाशय डससे कहता है... 

.._ अब यहां अपनी अपनी सच्ची इशा एक दूसरेसे छिपामेका 
उँछ भी कांम नहीं है। और अबतक यद्यपि हम छोगोंने छिपानेका 










सडझुट आया कै 
्य्ध्च्च्च्चब्य्य्य्न्गा 





प्रयल्ल किया, किन्तु श्रीधर रुवामीसे कुछ छिपा नहीं है | 
उन्होंने मुद्दे खब बतलछा दिया है। इसलिए इस समय ओर 
कुछ अधिक में आपसे नहीं पूछता | परन्तु आपके बाद वहां 
क्या हाल हुआ, सो जाननेके लिए. आपको बड़ी उत्सुकता 
होगी। वह अवश्य ही “7? 

आगे वह ववयुवक्त कुछ कहनेहीवारा था, कि अ्रीधर- 
स्वामी एकद्म बोल डठे:-- 

. “बह पीछेसे बतलाया जासकता है। इस लग्य यहां जो 
विधियां करनी हों, सो थीड़ी देरमें कर छो ! ” उस नवयुवक 
पुछषने एक बार भवानीकी घृतिके आसपास परिक्रमा की | 
परिक्रमा करके वह फिर भवानीजीके खाम्रने आरहा था कि, 
 इसमेमें उसका तेज कुछ विचित्र ही दिखाई देने छगा। उसकी: 
पहलेकी सूति; ओर इस समयक्षी उसकी कांतिमें कुछ विशित्र 
अन्तर दिखाई पड़ने रूगा। उसके अन्य साथी उससे हर हट गये; 
ओर बराबर उसकी ओर एकटक दुश्टिसे देखने छगे | उस समय: 
पेखा जान पड़ा कि, वह नवयुवक पुरुष अपने आख-पासकी 
सारी बातोंसे अलिप्र होकर मानो किसी दूसरी ही परिस्थिसिमें 
पहुंच चुका कब | उस समय ऐसा कुछ मालूम हुआ कि, मानो 
उस पुरुषको इस बातका कुछ भान ही नहीं था कि, उसके आस- 
पाल कोई ओर भी मनुष्य मोजद है| उसकी चेष्टठासे उस समय 
ऐसा कुछ मालूम हो रहा था कि, उसकी डस अत्यन्त स्वब्ध 
द्ृष्टिको, उसके आसपासकी वस्तुओं अथवा प्राणियोंका ज्ञान 





रे ु ४पाकाल 


हर हा लिन व मल 
.. 5. “थे फलछ 





चाहे भले ही न हो, पर अन्य किसी “स्तु! का ज्ञान तो डर 
अवश्य ही हो रहा था; ओर उसी ओर उसका खारा ध्यान ण्क 
त्रित हो रहा था। बहुत देरतक वह कुछ भी नहीं बोला | परंट 
इसके बाद उसने दो-तीन बार भवानी माताके सामने द््‌रडवत 
प्रणाम किया; और फिर कुछ शब्द मुहसे निकाले | थे शब्द इस 
| प्रकार थे :-- 
“संकट आवेगा, पर विनाश नहीं होगा। सावधानीसे 
रहना' 'यवन प्रबल * 'कुछ साहसके साथ 

इतने ही शब्द उसके मुहँसे बाहर निकले | जिनको श्रीघर 
रवामी ओर अन्य छोगोंने भल्लीभांति ध्यानमें रखा | 

इसके बाद वह नवयुवक पुरुष डस देवीके आगे दृर्डबत 
करके बिलकुछ निश्चेष्टसा पड़ा रहा। उससे उसको जाग्रत 
करनेका किसीने प्रयत्ष नहीं किया । चारों मनुष्य बिल्कुल 
तट्स्थ-वृत्तिसे उसकी ओर शान्त चित्तसे वरावर देख रहे थे । 
भश्रीधर खामी ओर उनके दो साथियोंको तो, मानों डसमें कोई 
विशेषता नहीं दिखाई दी; परन्तु एक चौथा महाशय, जो चहां 
था, उसकी वैसी दशा नहीं थी | वह अत्यन्त तटस्थ होकर यह 
खारी घटना देख रहा था | उसकी सूरतपर--विशेषत: नेश्नोंमें-- 
, बहुत अधिक पूज्य भाव दिखाई पड़ रहा था | उसके सेहरेपर 
उस सप्य जो थोड़ासा अन्तर दिखाई दिया, उससे यह कहा 
जासकता था कि, वह सम्पूर्ण लीला देखकर, उस नवयुवकको, 
वह व्यक्ति ओर भी विशेष आद्रकी दृष्टिसे देखने गा होगा | 


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ध्त्स्स 9: 7 0अुक 





धीरे धीरे वह नवशुवक् पुरुष सचेत होने लगा | कुछ देश्में वह 
यारों ओर देखने छगा; और फिर अपने नवीब-पित्र, हमारे 
सिपाही जवानकों अपने निकट बुलाया, ओर उसकी पीठपूर 
हाथ फिरमे छगा। इसके बाए उसने अपनी तझघार लिकाछ- 
कर भवानी भावाके साममे रख दी; शोर फिर उस अपने नथीन 
साथीसे कहा कि, “यह कहकर कि, हें हवाती हे वर 
सवास:आर गा-आहाएंंका! कष्ट दर करनेसे छापने 
आहत जिछायुर कोर तशाए--सवानी साताको साथ्याण 
नमस्कार करो; छोर यह तरयार उठाओ |”? 

हमारे सिपाही जवाबको, मनसे यह छब फरनेकी इच्छा 
हो, चाहे व हो;--परब्तु उस समय तो उसने क्षणसरका थी 
विलस्ब न छगाते हुए चैखा ही किया; ओर उस नवयुवकको 
तलयबार उठादहर अपने भमस्तकपर घारण की | 
.. इतना सब हो जामेषर वह नवयुबक उठा । अब घह पूरा 
पूरा सेत होगया था। इसकछिए श्रीघर स्वामीकी ओर देख- 
व्चर वह कहता है:-- द 

 स्वाग्रीजी, कुछ बधीन समाचार है ?” स्वामीजीरे यह कद 
कर कि, हीं, है” इस अक्षरोंका उच्चारण किया--“संकाट 
आधेगा, विनाश नहीं होगा”,“यवन प्रवल कछ साहसके साथ।”? 
यह छुनते ही उस नवथुवक पुरुषके चेहरेपर कुछ चिन्तासी 
दिखाई देने लगी, पर यह बात उसमे क्िसीपर प्रकट नहीं होने 
दी; ओर सबकी ओर देखकर बोला:--.._ 












लक्षण अच्छे नहीं हैं, माता भवानीने जैसा कि सूचि 
किया है--संकट कब आवेगा, यह कुछ कहा नहीं जासकता 
तथापि यह तो निश्चित ही है कि, विनाश नहीं होगा | फिर ४ 
अत्यन्त सावधानोसे काम लेना चाहिए | अस्तु। अब इस 
पिटारैका प्रबन्ध करके यह से चल देना अच्छा होगा [” 
ः यह कहकर वह उठा; ओर स्वामीजीको जतला दिया कि, ये 
बहुत बड़े बे भारी जो पिटदारे रखे हैं, उनमेंसे एकको खोलकर 
यह नवीन खज़ाना भी रख छोड़ियेगा। इसफ़े वाद फिर 
उसने कहा:-- 
भवानी माताने हमको इस बातकी कभी कमी नहीं पड़ने 
दी; ओर उनकी कृपासे आगे भी ऐसा ही रहेगा। आवश्यकता 
है केवल दृढ़ भ्रद्धाकी ! यह नहीं कि, हमारे बड़े-बूढोंको यह 
बात अच्छी न छगती हो--वे भी इसको चाहते है परन्तु उनको 


यह भय मराल्यूप होता है कि, हमारे हाथसे यह होगा नहीं, और 


होजायंगे । भुम्डे मालूम है, जब किसी जगह हमारी जीत होती. 
है, गुरूुजीको भीतरसे, वास्तयमें, आनन्द होता है | किन्तु वे सदैव 

छुझे इसी डरसे निरुत्साहित क्रिया करते है कि, सें यदि बरावर 
ऐसे ही उद्योगमें छूगा रहूंगा, तो शायद्‌ किसी समय फिसल जाऊं; 
ओर यदि ऐसा हुआ, तो सारे डलका सत्यानाश हो जायगा। 


किन्तु हम सबके हाथसे यदि किसी दिन अभीष्ट-सिद्धि होगी, 


व्यथ्थमें फैसेंगे, अथवा इन मुसलोंके चक्ररमें पड़कर चकनाचूर 


तोन सिफ गुरूजीकों ही आनन्द होगा, किन्तु बडे महा- 





कं सझ्डट आया... 
््ध्च्स्ल््स्स्स्द्र्रः 





राज़को भी आनन्द हुए बिना न रहेगा। इसलिए हम सब 
लोगोंको बड़ी सावधानीसे काम लेना चाहिए। निष्फलता 
कदापि न होनी चाहिए। जबतक भवानी माताकी कृपा है 
खामीजी महाराजकी कृपा है, भवानी माताकी कृपासे खजाने 
की कमी नहीं है; ओर आप छोगोंके समान शररबीर साथियोंकी 
पूरी पूरी सहायता है, तबतक मुझे तो सफलता प्राप्त होनेमें 
किसी प्रकार भी शंका ही नहीं मालूम होती। बड़े-बूढ़े जो 
कुछ भी कहा कर,डसकी ओर विशेष ध्यान देनेकी आवश्यकता 
नहीं । अपना उद्योग जारी रखना चाहिए । न जाने क्‍या कारण 
है, मेरा मन आज कुछ उदाससा होरहा है। सच पूछिये, तो 
इनके समान नवीन साथी मिलनेसे उत्साह बढ़ना चाहिए, 
पर......” इतनेमें श्रोधर खामी कुछ आहटसी लेकर कहते हैं:--. 
“भग्रुआ, जान पड़ता है, द्रवाज़ेको ज़ोर ज़ोरसे खटखदा 
रहा है। किसीको जाकर देख आना चाहिए ।” उनके मुखसे ये 
शब्द निकलते ही,हमारा सिपाही जवान; ओर उन दो खाथियों- 
मेंसे एक मद॒ष्य, दोनों तुरन्त ही दोड़े | ऊपर जाकर क्‍या देखते 


हैं कि, भमशुआ, जो द्वारपालका काम कर रहा था, जोर जोरसे 
द्रवाज़े को ठेछे रहा है। दोनोंके पूछनेपर उसने कहा, “यह 
खबर दे दो कि, “एक शुसाई' यह सन्देशा छेकर आया है कि 
मुसदमानोंका एक बड़ा सारी गिशेह बिलकुछ निकट आगया 
है। जान पड़ता है कि, उन्हें कुछ पता लग गया |! सन्देह होता 
है कि, उस गिरोहने इधर ही अपना मोर्चा फिराया है। वह 
हमको घेरना ज़रूर चाहता है ।” 











पाकाद / (् के) 
गूछज. उलट 20 कं] रे ६ च्टे ४5 
ण्ययट्रडबलाछ | भरत ्थार कुक हयात कक ५ 


यह सुमते ही दोनों बहुत अचस्सेमं आगये। मबीनम साथी 
तो बिलकुछ ही स्तव्धसा खड़ा रहा। तब दूसरा साथी उससे 
तुख्त ही कहता है;-- 

“घाहू बाह ! इतनीहोली सबरसे ठछुच् इतने खसुलड्थ 
फिर आगे क्‍या करोगे ? ऐसी खबरें तो ऊाणों ही बार आयेंगी 


७ 


चलो, नीये चलकर खबर देखें, फिर देखो कया सपमत्कार 
होता है !” 

इतना कहकर दोनों नीचे गये | ख़बर दी । यह नवय॒वदध 
पुरुष श्रीधर खामीकी ओर देखकर दुछ इंसा ओर बोला :-.. 

“यह झुक़ाबिला करनेका मोका नहीं हे। इस समय यहि 
मुक़ाबिला किया जायगा, तो कठिनाई पड़ेगी, इसलिए ऊपर 
जाकर शाज्ञा दीजिए कि, कछ राततक लोग जहांके वहां बे 
जाय | हम अपना देख लेगे।” 

श्रीध्र खाम्मी चह् आज्ञा छेकर ऊपर गये । हनुमादजीको 
बेठक उन्हांने अहाको तहाँ कर दी । उपयु के आज्ञा बाहर दे ८ 


ऊ् 


क्ँ 


ँ 


ऐ लतण न 
हक 
। कै पु षु 


| 


अषमरपरक 


सब छोग तुख्त ही जहांके वहां होगये | वाबाजी अपनी धरीडे 
पं 
पास बेठ गये; ओर 'सीवाराम सीताराम! जपते हुए चुपके शैठे 


हुए अपनी विलमके फोयारे छोड़ते रहे । 





बच ३ हज 
हवा पारच्छद -॥। 
---+औ8-%------ 


गाटबशेरक मान्दरम | 


बे बाबाजीकी तो भजन झरनेके किए हम यहीं छोड़ दें, 
कट हर | हु 
आर दूसरी ओर ध्यान दें, क्योंकि आअम्य भी अमेक घटनाएं 


पे 


हमारे ध्यामकी अपेक्षा कश रही हैं. । 
विलकुछ संध्या-समय ही खुका है। जहुछ अत्यन्त घना 


' .. ७०५ 0 कु &"५ ह 


है। चारों ओर सन्नाटा बीत रहा है। एक छोटीली पथडरुडी, 
जो ठीक ठीक दिखाई भी नहीं पड़ रही है, उसीसे दो ममुष्य 
सरपंट यले जारहे हैं। एक मनुष्य बड़ा है, जो खब ही ऋषादे- 


के 


9 


४ 


४ श्र बे 
से यला आारहा है; आर दूसरा एक बिछकुछ छोटा लड़का ! 
आन पड़ता ६ कि, बहुत जर्द वे किसी न किसी बस्तीकी 


७,» ₹:१%॥ 


सलाशयें ४ | क्षण क्षणपृर उन्हें अन्यकार घेर रहा है; शोर ये 
भी भाजों अन्यकारकों पीछे हडानेके छिए ही जी छोड़कर सण 
रहे है। पाठकोंको अतुाव होगया होगा कि, थे दोनों कोन 
है | और यदि थे छुआ हो, तो अमी आप ही आप मालूम हो 
आयगा | उमध्दोनमिंसे बड़ा मंसुष्य उस ऊड़केकी पीठपर एक 
थाप देकर कहता है;-- हर 

“अरे श्यामा, तू अपनी माँकी नज़र बचाकर मेरे साथ आ- 
दीगया; परन्तु उधर वह बेचारी दूढ़ दूढ़कर थक्क जायगी! 


अरे, तुझे वह क्या कहेगी ?” 

















श्यामा ज़ोरसे हँंसकर कहता है, “कहने दो, कुछ भी कहा 
करे, में क्या जन्ममर उसके पैरमें पेर बांधकर बैठा रहंगा? 
देखो, खुभान दादा, यह छड़का ऐसा-वैसा होकर नहीं रहेगा-- 
सरदार होगा, एक दिन सरदार ! जागीर पावैगा । मैंने कभीका 
माँसे कह दिया है कि, मैं बड़ा होनेपर घरमें नहीं बैठा रहंगा। 
कहीं न कहीं निकल जाऊंगा, सछवार बजानेके लिए !” 

'डस छोटे लड़केका यह कंथन खुनते ही सुभान--यद्ययि वह 
आगे जानेके लिए उतावला होरहा था, फिर भी--कुछ ठहर 
गया; ओर पेट पकड़ पकड़कर हँसने रूगा | डसे उस लड़केका 
उक्त कथन बड़ा ही विचित्र जान पड़ा। इसके बाद फिर वह 
उसकी पीठपर एक चपत रूगाकर कहता है:--- 

वाह! वाह! तू सरदार बनेगा कया? और तलवार 
वजाबेगा ? पर तेरी वह तलवार कहां है? तलवार भी तो 
चाहिए ?” 

यह खुनकर श्यामा कुछ खिन्न खरसे कहता है:-- 

“क्या कहें, नानासाहब चले गये !. नहीं तो दिखलाता में 
तुमको, तलवार कैसी होती है! उन्होंने मुकसे तलवार देनेको 
कहा था ! खर, कोई हज नहीं, तलवार तो किसी न किसी 
तरह में पाही लूगा! किन्तु सुभान दादा तुम अब जा 
किस तरफ रहे हो ? मैं तो तुम्हारे पीछे ही पीछे चल रहा हूं 
कुछ पता भी छगने दोगे ?” 

... झुभान तुरन्त ही उसकी ओर देखकर कहता हैः-- 





4 गेटेरके मन्दिर ६ 
रे, तुकको ऐसी पतेकी क्या फिक्र पड़ी-है ? तू अभी 

बच्चा है। जैसे आया है, मेरे साथ चलाचल !” इतना कहकर 
उसने फिए अपना वेग पहलेसे दूना कर दिया; और दोनों वाखु- 
बेगसे चलने रंगे । श्यामा एक बड़ा होशियार छोकरा था । 
उसने देखा कि खुभान इस समय सुफको कुछ भी पता नहीं दे- 
सकता, इसलिए जितवा मुझे मालूम है, डतनेहीकी रखकर 
काम निकालना ठीक होगा। उसको इतना निश्चित मालूम था 
कि, खुभान जिस कामसे जाता है, वह कोई अत्यन्त नाझुक 
काम है | इसके सिवाय वह यह भी जानता था कि, खुमानके 
खीसे में सरकारका दिया हुआ बहुत हो महत्वपूर्ण एक लिफाफा 
है। फिर, जिस दिशाकी ओर खुभान जारहा था, उससे उसको 
यह भी मालूम होगया था कि, किस बरूुतीकी ओर लिफाफा 
जानेको है। परन्तु चूकि उसकी अवस्था थोड़ी थी, इसलिए 
उसकी जिज्ञासा भी बढ़ी हुई थो; ओर इसकारण देव ही 
उसकी यह इच्छा रहा करती थी कि, मुझको प्रत्येक बातका 
थूरा पूरा वृत्तान्त मालूम होना चाहिए | डसकी जिज्ञासा यद्यपि 
अधिक थी, फिर भी उसमें सारासार-विचारकी कमी नहीं. थी, 
अतएव वह कैसी किसीको अप्रिय नहीं मालूम हुआ । क्‍ 

अस्तु । बहुत देरतक वे दोनों ज़ोर ज़ोरसे चलते रहे, फिर 
भी जड़ुल ख़तम न- हुआ; ओर अब्घेरा बढ़ता ही गया। 
तब सुभान श्यामासे कहता हैः-- 

“अबे श्यामा, रास्ता तो नहीं भूल गये ? अरे देख, याँदि 




















३ श्ध्ट ५2 क्‍ 


० ७०» हे आम 


कहीं रास्ता भूछ गये; ओर इचरके उधर भटक गये, तो तेरी 
ही ऐसी नरम करूगा कि, जेसे तू हुआ ही न हो! देख में 
तो सीधा रास्ता था ही रहा था, छेक्षिन तू ही यह कहकर कि 
'यलो जल्दीका रास्ता दिखाता हूं! इधर छे आया...... । 
.. श्यामाने उसे पूरा पूरा बहीं बोलने दिवा, और बीच ही 
कहने लगा; ७... यु, 
“ कया कहा खुभाव दादा! ऐसा कहीं हो सकता है? है 
दजपाय बार, छड़कपनसे, इधर गया हूं | अभी दस ही बारह दिन 
पहले में इधरसे निकल गया हूँ। तुम चके खब्ओे | 


शत 





उधायाक कथनकी सत्यता सुभावकों तुखत है पं हो 
गई | थोड़ी ही देरमें थे दोनों उस बीहडसे मि में इायसें 
आये; थोर दृर्पर, छगमय एक कोसके सम्द रपर, एक आकाशी 
दीपक उनको दुष्टिगोचश हआ। उसे देखले ही सभामतमे 


है 


स्यामाकी पीठ ठोंककर कहा:-- .. हा 
..._  शाबाश | बेटा, शाबाश ! यह गार्मे मुझे भी मालूम था, 
पर तैशी परीक्षा लेनेके छिए ऐसा कहा था ?! | है; 
।. श्यांग्रा कुछ नहीं बोला । ऐसा जान ५ वह दृश्पर 


का कुछ न कुछ देख रहा था । कुछ देर उसी स्थितिफ्रें रहनेके बाद 
वह सुभानसे कहता है * 


। हमको इस समय बस्सीमें नहीं जञामा याहिए।. में समर- 
.. माता हूँ कि, इसी गोटेश्वरके मन्दिर्में. प्रातः:कालतक सप्रय 
.. विताया ज्ञाय | और उचह बहुत जल उठकर आगे चल देवे' । 








(हच्टीः यु बसे लि 

3०० । *शप्क््श्सससता ० 
ब्रस्तीम जायंगे, तो. पटेल इत्यादि आ आकर इचधर-ड्चरको 
जाँख करेंगे। यहांका पदैल सर्फोजीके यहां भी यदा-कदा जाया 
करता है |. मेंने उलको कई बाश देखा है । सो वह सर्फोज्नीसे 
जाकर सब हाल बयऊाबैगां ।* 

 सभामने उसके कहमेकी ओर कुछ विशेष ध्याव नहीं दिया। 
“रंलकी सीमादर पहंसकर देखा जायगा, यह काइणार बह 
पहजेहीकी भांति देख बलने छणा | 

अय मैदान था। घिरी हुई फाडियां नहीं थीं। एथकारण 

दोनोंकी बज़र - विशेषदः उस लछड़केली ध॑चलत दुष्थि तो ओर 
भी अधिक--चारों ओर बड़ी सेज़ीसे घूम रही थी। पेह इचर- 
उधर देखता; ओर बीयर ही सुधावसे बलक्ाता, अथवा कुछ 
देखछावा आता था। थोड़ी देखे जब ये बागके दिलकुछ नज्न 
दीक आगे, तय सभानने भी देखा ही घिदार क्रिया कि, 

व गाँव थे जाबे'. ओर श्थामा जिस मन्दिरों बतझाया है 
उसी गोथेश्यर महावेवफ अम्दिशय्य शाल व्यतीत करें । क्योंकि 

क तो गाँवमें जानेकी उनको कोई आवश्यकता वहीं थी; आर 
फिर, जैला कि- पयामाने बताया था, सवझुथ ही याथे उस 
गाँवके पशेलके० साथ सर्फोज्जीफी दोस्ती थी, थो सथ्कारका 
 बतलाया हुआ कार्य बिछकुछ गुप्त रुूपसे नहीं किया जालकता 
था। इसके सिवाय येदोनों अपने खामेका सामान भी. साथ 
ही लाए थे। ऐसी दशामें बस्तीमें जामेका उस समय : फामर ही: 
क्या था ? गोटेश्वर महादेवके मन्द्रिमें कुआं भी था, अतएय 








के 9३ १७० 2) 


पानी इत्यादिकी कोई कठिनाई पड़ ही नहों सकती थी | अस्तु 
कप ऐसा विचार करके सुभानने गोटेश्वरके मन्दिरका रास्ता 
द पकड़ा । मन्दिर बिलकुल गिरी हुई हालतमें था, हसकारण 
वहां विशेषकर किसीके आने -जानेकी भी सम्तावना नहीं थो--.. 
सब भ्रकारको सुविधा उनके मनके अजुलार ही थी, अतणच 
दोनोंने मन्दिर्में ही जाकर डेरा डालनेका निश्चय किया | 
श्यामा भूखके मारे बिलकुल व्याकुल होरहा था। ज्यों ही वह 
भीतर गया; ओर अपनी कमछी बिछाई, त्यों ही पहले डसमे 
सुभानसे रोटो निकालनेका आग्रह किया। थोड़ी ही देरमें, 
प्याज;और रोटी--जो मराठोंका खाना है--से खूब छककर,दोनों 
कमलीपर लेट रहे । 

रास्तेके परिश्रम्मसे दोनों ही खूब थके थे, अतएव लेते हो 
लूब गहरी नींदमें सोगये | हम समभते हैं, उस समय मन्दिरमें 

आग भी लग जाती, तो भो उनका जगना मुशकिल ही था। 

' मन्दिर्में एक दीपक रखा था, वह पहले ही बिलकुल टिप- 
टिमा रहा था, कुछ देर बाद उसके बुकनेकी ही नोवबत आगई, 
ओर जब उसने देखा कि; अब हमारे जागृत रहनेसे कोई छाम 
नहीं, तब उसने भी आसपासके अन्धकारमें विद्धीन होजाना 
ही उचित समका। मन्द्रिके भीतर-बाहर, चारों ओर घना 
अन्धकार छागया। घड़ी, दो घड़ी, चार घड़ी समय उसी दशामें 
गया। अब आधी रात बीत गई । चन्द्रदेवके उदय होनेका समय 

निकट आगया । -चन्द्रोदयकी दिशा. कुछ कुछ उजली दिखाई 












३ २8१ ४£ लीक असम 
। .. अब्सचसचाचपक 
पड़ने लगी । थोड़ी ही देरमें चन्द्रदेवने अपना सिर ऊपर निकाला; 
और धीरे घीरे उस गिरे हुए मन्द्रिपर अपनी कान्ति फैलानी 
शुरू की । वे भीतर खोये हुए दोनों प्राणी अबतक प्रणाढ़ निद्रामें 
थे, इतनेमें वहां दो मलुष्योंकी छाया मन्दिरके अग्रभाग- 
पर पड़ी हुई दिखाई दी; ओर धीरे धीरे स्पष्ट दिखाई देने गा 
कि, वे दोनों मनुष्य मन्द्रिकी ही ओर आरहे हैं। क्षण क्षण- 
पर वे दोनों छायाए' मन्द्रिके बिलकुझ पास-पास आने लगीं । 
उनकी पोशाकसे स्पष्ट मालूम होता था क , इसमेंसे एक स्थी है; 
और दूसरा पुरुष। वे छायाए' बहुत ही शीघ्रतापूर्वक मन्दिर- 
की ओर आरहोी थीं। मन्दिय्की चहांरदीवारीके अन्दर आकर 
वे ठहरसी गई; ओर बड़ी घबड़ाहटकी सूरतसे आख-पास 
देखने लगीं। उस समय ऐसा जान पड़ा कि, मानो किसीके 
हाथमें वे फँससे गये थे; ओर यही देखनेके लिए उनफी दृष्टि 
चारों ओर घूम रही थी कि, अब यहां आजानेसे हमारे बचत 
होती है या नहीं । क्योंकि दोनोंकी--उस पुरुषकी; ओर स्त्री- 
की भी--द्ृष्टि बड़ी धबड़ाहटले मरी हुई थी। कह नहीं सकते 
कि, उनके पीछे कोई जड़ली जानवर रूगा था, अथवा किसी 
मनुष्यने ही उधैदा यीछा किया था, जोहो। मन्दिरके घेरेमें 
आकर जब उन्होंने देखा कि, अब हम सुरक्षित हैं, तब कहीं 
उनको थोड़ासा घीरज बँधा। उनमैंसे स्त्री तुरन्त ही आगे बढ़ी; 
और कुछ हँसीकी आवाज़ निकालकर पुरुषसे बोली :-- 
“यही तुम्हारा घीरज है? जरा अपने लिबासको तो देखो; 











. उषाकाल £ व १७२ 2) 


जज - 2८७८० ० 

'र इसकी छाज़ रखो !” यह खुनते ही पुरुष उसकी ओर देख- 

कर कहता है :-- , ह द 

चुप रह, चुप ] बदमाश कहोंकी | यह हँसी करनेका 

सम्रय है ? ज्ञा, अब देख, मन्दिस्के भीतर अ च्छी जगह है या 
नहीं ।? क्‍ 





ख्री फिर कुछ नहीं बोली | आगे बढ़कर मम्दिस्के द्रयाज़ेसे 


शक 


भ्द्मा द्रव जब्यूक का | प्रच्छु ४ श्पूः गे! 0] भसीलर सष्टे ण्डंची 


[छा 


7 शत शत कि 
था। बह शिवमम्धिण यद्यपि ऐसा ही बमा हुआ था कि, 
अचार हब हे 4 ० न 0५९:७७० 'हुम्बक, श्पू रे , ३80 टू 
आदइनी शिवके भस्यकपर पहुंच सफती ; रश्सु सब्हला अधी 


है: हा बा करना का फ ह, झा ४ #' हर दि कक गप दि ॥ १ मे फ) 
ला ऊपर जहां आया शा कि, उप: जे द्ार्से भीसण् थे छग- 


ष्छ्‌ ५ 
अप! [ ः श्न्े शा । ० पक », यू रा आोण पर मभमकुत काछएए. शरपािकाकक पटक जि | 
छ आप "पर ९७॥ सकल | ९२६ ३४५ हि सल्रफ्र 2 4 ह जहुल ७.९० रे ५ 
'जह के (! /, श्ह््य भ कर एफ :्रटक >4 4 * हि कर. 000 मत अभन्‍्यका #न.। कि >> 0 ३४] + ड " 
(35 इएड अध्यकारके सिवाय आरर उसको कुछ भी दिखा 


[| 
०2०) आर आम] ज़्द्ू । हचयु न शक व तपष्य ५ की भे न कम 7१ भा) १२ 
हझा दुएा। अच्यर्य जब उसने समका कि भीतर कोई नही है 
हक 


कं 
गछे लोटकर पुरुषके पास (६; ओर बोली, “धंग्डियफें 


बय 
खा सा पिती नमी 50) के हे ज्ल्र श रा 
' कई महा है; परच्छु अब हम यहांयर ओर कितनी छेरः पैछ 


सकते हैं ! शीघ्र ही आगे सना चाहिए तो झुबह हो 
जआायगा; ओर बहलीके झछोग यदि इचर जले 'छ्गंगे, सो 
फिर "52 ह ४ का & द 
<चडीमर:ः मुझे भोतर बैठने दे, फिर मुझे जहाँ दोडाना 
हो, भले ही दोड़ा लेना!” इतना कहकर वह आगे चढ़ा 
चद्नीमें दिखाई देनेपर सालम हआ कि पुरुष अभी बिलकुछ 





ली ) गोटेश्वरक सन्दिस्स न्‍ 
१७३ ४2 लिन लक जब 


ही 2 मिल पाए राम पए समन जााक आशा 
नवयुवक था--यहांतक कि युवावस्थाकी विजय-पंदाका अभों 
उसके होंडोंपर अथवा छुड्डोपर वाममाजको भी नहीं दिखाई दे- 
रही थी। उसका घरीर बहुत हो उत्तम; ओर गो ष्द्ला 
था। होंठ विछकुछ छुघे ओर नेत्र अत्यन्त शेज्स्वी थे। 
उसका सम्पूर्ण डोलडोछ बहुव हो सुन्दर, परूचु शत्यन्त 
नाजुक, दिखाई देता था। सिरमें बड़ी मजबूव पगड़ी बाॉची 
थीं; ओर रश्या अंगरखा खब ढीला-ढाला पहने था । 

बह स्त्री उससे राफी बड़ी थी--कोई पाॉथ-साठत वष थे 
दिखाई देती थी । रंग उसका काछा था; और बोली इत्यादि- 
से किसी मीच कोमकी ज्ञान पड़ती थी । परन्तु उसके चेहरेसे 
देखा जान पड़ता था कि, घद बड़ी याऊछाक ओोर जतुर स्त्री हे 
ओर उस पुरुषपर उसका प्रेम भी बहुत अधिक है। जोहो। 
वह पुरुष आगे बढ़ा; ओर धीरेसे ही दृर्वाओम जाकर फ्राक्रकार 
देखा, तथा आगे कदम बढ़ाना याहा फि,इसनेमें समानते मींदरपें 
ही एक बड़ी छब्बी साँस ली, जिसे सुनते ही यह घवडाकर 
पाछे लॉट पडा । बात यह थी कि, झुभानकी बह ऊग्बी सांस 
उसको किसी शुजड़की फू्सकारके समान भास हुई, ओर इस- 
से खाभाविक ही वह नवथुवक पीछे हट गया | 

अब दोमैंसे किसीको भी सीवर आनेका साहल न हुआ; 
ओर वहांसे ओर कहीं जानेकोी भो उनके पैर नहीं उठते थे। 
उस नवयुवकने अपना भय उस छोीसे प्रकट किया, जिससे 
वह भी कुछ घबड़ाई। भीतरसे जो फुलकार कानोंमें आई थी, 





५१४ 





ओह 2 








सो वास्तवमें किसी विषधर भुजड्कीली ही थी। इतनेमें 
खुभानने भीतर एक जमुहाई छी; ओर वह भी इतने जोरसे कि 
बाहरके छोग और भी अधिक घबड़ाये; और यह मामला क्या है, 
सो कुछ उनकी समभमें नहीं आया । अन्तमें थे दोनों वहांसे 
भगनेद्ीवाले थे कि, इतनेमें सखुभान गिरता-पड़ता हुआ 
बाहरकी ओर आने लगा | इतमनेमें वे दोनों व्यक्ति वहीं एक 
ओरको खिलक गये | सुभान बाहर आया; ओर एक बडीसी 

डाई लेकर “ऊँ: राम, राप्र, हरे राम !” के शब्द ज़ोर जोरसे 
उच्चारण किये, जिन्हें खुनकर वे दोनों एक दूसरेकी ओर बड़ी 
विचित्र दृष्टिसे देखने लगे। अन्तमें वह स्त्री उस नवयुवकके 
कानमें बहुत धीरेसे, किन्तु स्पष्ट खरमें कहती है, “आवाज़ 
पहचानकी है! हमने पहचान छी !” उस पुरुषने सिफे गर्दन- 
भर हिला दी ! परन्तु उसका सारा चित्त अब इसीमें लूगा हुआ 
था कि, सुभान किस प्रकार जब्दी अन्द्र जावे | शायद सुभान 
इधर आ न जावे, इसी विचारसे वह और भी अधिक एक कोने- 
में छिपने लगा। यह देखकर स्त्री धीरेसे ही कडती है: -- 

“नहीं, नहीं, उधर नहीं, कहीं बिच्छू-विच्छू काट छेगा, तो. 
न पा 

वह नवयुवक बिलकुल ही धीमीआवाज़से, किन्तु चिन्ता- 

पूवंक कहता है, “चुप चुप चएडालिन ! अरे कहीं उसको यह 
शंका होगई कि, इधर कोई है, तो न जाने क्‍या होगा ! तू बिल- 
कुल सम्रझूती ही नहीं।” 


कह गटेखिरके मा गांटिथरके मान्दिरमें 7 


98५ ४८ 
(हु १ ह+ / ७५७-८-::--.०० ५७ ५-7८ कट 








ये शब्द उसने इतने घीमे खरसे कहे कि, साथ ही उसने 
उस ख्रीकी बांहमें खिप्टी न लो होती, तो शायद युवकका 
उदं श्य भी उसकी समझें न आता। परन्तु वे जिस संकटके 
भयमें थ्वे--कि मन्दिस्के भमीतरसे निककछा हुआ मनुष्य कहीं 
हमारी ही तरफ न आजाय--वह संकट उनपर नहीं आया। 
अब शीघ्र ही उन दोनोंने वहांसे चले जानेका विचार किया 
ओर उसी तरफसे पीछेकोी खिसक जानेवाले थे। इतनेमें 
उन्होंने सुना कि, भीतर गया हुआ मनुष्य किसीको पुकारकर 
नींदसे जगा रहा है; ओर कहता है कि, “चल, अब हमारे चलने 
का सप्रय आगया।” यह खुनकर अब खाभसाविक ही बाहरके 
दोनों व्यक्ति इस विचारमें पड़े कि, पहले हम निकल जाये या 
इन दोनोंको निकल जाने दें। भीतरके दोनों व्यक्ति नींद छेकर 
फिर ताज़े होगये थे; और जो लोग बाहर खड़े थे, उनको 
नींदका मोका ही न मिला था, इसकारण उन दोनोंने सोचा 
कि, ऐसो दशामें यदि हम पहले चल देंगे; ओर डसी रास्तैसे 
पीछे पीछे वे भी दोनों आवे'गे, तो बातकी बातमें वे हमारे पास 
आजायंगे। यह उनको अभीषठ न था। इसलिए अब क्‍या 
किया जाय,सो कुछ उनकी समभमें नहीं आया। दोनों विन्ता- 
मग्न अवस्थाम जहांके तहां खड रहे। भीतरके दोनों मनुष्य 
जगकर बिलकुल होशियार हो चुके थे; और अब बाहर निकलने- 
होवाले थे-यह देखकर उन दोनोंने वहीं खड़े रहनेका 
निश्चय किया | 














ः उषाकाल ३ . ५ १६६ 2) 
७चपट) 53८ ॥एणणशांध थी, 


हि] 


इसमैमें सुभावग और शपाशा कंग्रेपर अपनी अपनी कमकी 


(हर 


व््ष्प्स्य 


५ हल्का लि | 2 शा ५ सु 2) 8 पु | ायांव रा कम जद 
झाक्षकाश बाहर नमिकाझे। उमबके निकलते ही बाहरकोे लोए 


ओर भी अधिझ छिपनेका प्रथक्ष करने लगे। इतमेगें स्यासाज 


हि 


2. 
नि हे छः (८० पे है आल घ् ग्श या 
आवाज़ भी उनके काना पड़ जले खुनत हा दाना एक 


दूसरेकी ओर एकटक देखने लगे 


न्ल्न्निनि तक वनननतभ+ 


२ ४ प्‌ 6 
दरहवा पारच्छद 
पक पोटप्र० "रीता िदी न 
ल्‍ ... श्थामाका साहस 
.. श्याप्रा और खुमान, दोगों अपनी अपनी कमझछी छेकर बाह 
_कछे। उनके मिकलनेके साथ हो उस मवय॒षक और उस 
मी छेसी बुरी अवस्था हुई कि, कुछ पूछिये मत ! दोनों ही 


घबड़ा गये--विशेषतः पुरुष थो ऐसा थर थर कांपने रूगा कि, . ' 
जैसे झूड़ी यढ़ आई हो ! दोनोंकी आंखें और कान सुझाव ओर, 
शयाप्राकी तश्फ लगे हुए थे । उनकी जेशसे ऐसा जाग पडता था 
कि, खुभान और श्यामा कब वहांसे निकछकर उनकी हृब्टिकी 


ओट हों ? उनकी यह दशा क्यों थी ? बह नवथुवक तो बहुत ही 
उद्धास दिखाई दे रहा था; परन्तु उन दोनोंकी देखते ही इमकी 


' छेसी बुरी दशा क्‍यों होगई ? जो कुछ भी हो, किन्तु थे बहुत 


अधिक घबड़ाये हुए थे। क्‍यों ! यह भाछूम होनेके लिए इस 
समय हमारे पास कोई साधन नहीं है । क्‍ 


(५ क्‍ गा ) _इयामाका साहेस है साहस 
की हक बरी ह व्ल-पज्बबडलप कल. 





चल बे ! चल, जल्दी ही बाहर निकले चलें-- बहंसीमें 
चलकर हमको क्या करना है? चल, इधर पीछेकी तरफसे 
निकल चर । कहीं वह पटेल न मिल जावे, नहीं तो” 

५समैं भी तो यही कहता हूं कि, इस समय जहाँतक हम छोग 
बस्‍्तीको क्‍या सके, वहांतक अच्छा ही है। यहांतक कि, यह 
भी किसीको मालूम न होने पावे कि, तुम ओर में, दोनों साथ 
साथ, इधरसे गये है ।” 

दोनोंके ये शब्द उन बाहरवाले दोनों व्यक्तियोंके कानमें 
स्पष्ट रूपसे खुनाई दिये; ओर इतनेहीमें वे घृूमकर उनके पास - 
से आगे निकल भो गये । हां, श्यामाने अवश्य पीछे घूमकर 
देखा; ओर फिर आगे चला । यह बात उस पुरुषकों मालूम भी 
होगई| फिर उल्त नवयुवककों यह भी भास हुआ कि, 
श्यामाने ओर भी दो-एक बार पीछे घमकर देखा | इस प्रकार- 
का भास होनेपर नवयुवकक्ली अशान्ति ओर सी बढ़ती हुई 
दिखाई दी । 

द इसमें सन्देह नहीं, श्यामाने एक-दो बार पीछे घूमकर 
देखा अवश्य था। ओर यह कहना भी मिथ्या न होगा कि, 
उसको कोई न क्लोई शंका भी अवश्य हुई थी ; ओर इस्रीकारण 
उसने पीछे घूम घूमकर देखा था । हमने कई बार पीछे भी. 

_बतलाया है कि, इस लड़केके चश्चल नेत्रोंसे कोई भी वस्तु छूट 
कर बची नहीं ! वह उन दोनोंके पाससे जब मिकला था, तभी. 

उसे भास हुआ था कि, मन्द्रिकी दीवालके इस कोनेम कुछ 

१२ 











कर सफेदला दिखाई देता है। कोई न कोई खड़ा 
शवश्य है---फिर चाहे वह मजष्य हो या कोई जड़लो जानवर! 
ऊछ दूर चलनेपर उसकी यह इच्छा भी हुई कि, क्या है, तो 
देखना चाहिये;लेकिन उसने सप्रका कि, सुभान इल बातके छिए.. 
राजी नहीं होगा, अतएव उसने अपनी इच्छाको वेला ही दबा 
द्यि। . वैथापि बह बार बार पीछे शूमकर देखता जाता था, 
इस मतलबसे कि, सभान जब मुझसे कुछ पूछेगा, तो उसे 
बतद्ा दूंगा। इससे शायद मेरी तरह उसको भी इच्छा हो 
कि, देखें पीछे क्या है, और इस तरह कदाचित्‌ वह भी पीछे 
घूम पड़े । ः रे द 

. श्यामाकी यह आशा बिलकुल व्यर्थ नहीं गई । खुभानने 





जब देखा कि, यह पागछकी तरह बार बार पीछे देखता है,. 


तब उसने श्यामासे इसका कारण जानना चाहा। श्यापाने 
अपनी शंका उससे प्रकट की | छुमान ने पहले तो उसको हसी- 
में ही उड़ा दिया, परच्तु फिर पीछेसे कहा कि, “होगा - कोई, 
हमको इससे क्या मतछब ?” यह कहकर उसने श्याप्ाकों 
दबा दिया; ओर आगे चल दिया। श्यामाको जो थोड़ीसी 
आशा उत्पन्न हुई थी, खो भी अब चली गई। इससे उसको 
बेमनसे ही सुभानके साथ आगे बढ़ना पड़ा। एक बार 
उसने यह भी कहा कि, “में अकेला ही दोड़ता हुआ जाता हुं; 
ओर देखे आता हूं |” पर श्खसे भी कुछ फल न हुआ। सुभान- 
ने.डसको डांट दिया।. श्ससे अवश्य ही श्यामाको अपनी - 








बाल-जिज्ञासा भीतर ही भीतर दाब रखनी पड़ी । बेचारेको यदि 
कहीं यह मालूम होजाता कि, मेरी यह जिज्ञासा; कुछ देर बाढ़, 
एक सिन्न मार्गसे ही तृप्त होगी, तो क्‍या ही आनन्द हुआ होता ! 
अस्त। वे भागे चले गये। इधर उस नवयुवक पघुरुष 
ओर उल ख्रीको थोडासा धीरज हुआ। जो कुछ भय उनको था, 
खो अब दूर होगया। डस नवयुवकने वीसियों बार बड़े ध्यान- 
से दूरतक नज़र फेंकी होगी कि, श्यामा और खुभाव अब 
ओमल हुए या नहीं । अन्तमें जब उसने देख लिया कि, अब वे 
दोनों बहुत दूर निकल गये, इतने कि, हृष्टिले परे हो गये, तब 
उसको शान्ति मिछी; ओर संकटसे छूटनेकी उसने एक हरूम्बी 
सांस छोडी | इसके बाद फिए वह अपने साथकी स्त्रीसे बोला 
“कहां जाते होंगे ? ये भी उसो दुष्टकी ही तरह हैं न १ किन्‍्तु 
हम ठोगोंके बाद क्या हालत गुजरी होगी ? क्योंरी, एक आठ 
दिनमें ही हम ठोगोंकी कितनी विचित्र दशा हुई ! नहीं तो 
सुझे ऐसा! 
वह जी कुछ देश्तक बिल्कुलही नहीं बोली । किन्तु फिर 
एकदम कहती है, “पश अब केवछ खड़े रहनेसे ही काम नहीं 
चछेैणा । थूगे चलनेके लिए तो कहते हो शक्ति नहीं। . फिर 
यहीं खड़े रहनेसे काम कैसे चछ्ेणा! हम कोग अभी कितना 
कम आये हैं, सो जानते ही हो 77... ः 
“सो सब सच है, पर अब मेरे पेर ही नहीं उठते हैं, इसके 
लिए में कया करू ? में अब भीतर मन्द्रिमें जाकर बैठू गा | जो 

















उषोकाल 7 (6 9) पे 
| : डे कर 2 _ # के २८0 ८४ 


कुछ होना हो, सो हो। कुछ थकावट दूर हो जाय, तब फिर 





आगे चलनेकी बात हो !” 


“डीक | ठीक !” वह स्त्री कहती है,“ओऔर इसी तरह मंजिल- 
द्र-मंजिल चलकर वहां पहुंचोगे ? मेरी समभमें इस जन्ममें तो 


यह हो नहीं सकता !” 


“चाहे जो कह। मुझमें अब इस समय यहांसे हिलनेकी 


ताब नहीं। ओर पागल कहींकी, क्या तू यह नहीं समभती द 


कि, अब खुबह होनेमें भी कुछे देर नहीं। खुबह हो जानेपर 
फिर हम लोग मार्ग चल ही कैसे सकते हैं? कोई पहचानका 


मिल जायगा, तो फिर कैसा होगा ? और कुछ हो नहीं सकता 


हम तो अब सारे दिन यहीं रहेंगे; ओर फिर शाम होनेपर 


आगे चले'गे ।” क्‍ 
इसके आगे ख्री फिर कुछ नहीं बोली | बात यह थी कछि 


उस पुरुषका कहना ही कुछ ऐसी डांटका था; और इसके 
सिवाय उसके कथनमें त्लीको कुछ सत्यता भी जान पड़ी 


इसकारण कुछ देरके लिए वह चुप होगई। इसके बाद फिर 
उस पुरुषकी ओर देखकर कहती है:-- 

.. परन्तु, फिर इस मन्दिरमें ही दिन कैसे कार सकते हैं ? 
यहां बस्तीके लोग आते ही जाते होंगे। इसके सिवाय जैसे थे 
दोनों आकर यहीं सोये थे, वैसे ही अन्य कोई मुसाफिर आकर 
नहीं रहते होंगे, इसका क्या ठीक ?” परन्तु उसके इस कथन- 


पर उस नवयुवकने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। बह स्वय॑ ही 





(ष् ) 4 इयामांका साहस : # 
कटे १८ है (2280 ' जि. 
>उक-्योपफेन नरक ७९०0-८०: ७०२-:+प्मधा लए 











आगे बढ़कर आया; और मन्दिरमें चला गया. छाचार, उसके 
पीछे पीछे ल्लीको भी ज्ञाना पड़ा । उसकी कांखमें एक छोटीसी. 
गठरी थी। उससे. तुरन्त ही उसने एक चाद्र निकाली;ओर नीले: 
बिछाकर उसपर छेट रहनेके छिये उस पुरुषले प्रार्थना की | 
ल्लियों की चादरपर लेटनेका अवसर पुरुषोंको अच्छा नहीं रूगता, 
किन्तु यह मौका इस प्रकारके विचार करनेका नहीं था, अथवा 
और कोई कारण हो--जो कुछ हो--परनतु उस नवयुवकको उस 
खमय उस चादरपर छेटनेमेँं कोई संकोच नहीं हुआ। उसने न. 
तो शरीरके कपड़े उतारे; और न सिरकी पगड़ी, बढिकि वेखा.ही. 
लेट रहा। कुछ देर तो उसके नेत्र चटकीले दिखाई. देतें रहे; 
परन्तु फिर वे आप ही आप बन्द होने लगे | अन्तमें वे बिलकुल 
मुँद गये; ओर उसको प्रगाढ़ निद्रा आगई । वह -ख्री बड़े 
प्रेमसे उसके पायताने बैठकर पैर दाबने छगी। ... .: “| 
परन्तु अब हम इनको तो यहीं छोड़कर आराम करने दें; 
और अपने अन्य दोनों मुसाफिरोंकी ओर कुछ ध्यान देवें । 
खुभान ओर श्यामा, रातकों खूब नींद लेकर, अब नवीन 
उत्साहसे भर गये थे | अतएव अब वे बड़े उत्लाहके साथ मार्ग - 
क्रमण कर रहे थे। श्यामाके सिरमें अमी यही विचार चक्कर 
काट रहा था कि, “मन्दिरकी दीवारके पास मेंने देखा. कुछ 
अवश्य था; परन्तु वह क्‍या था, इसकी पूरी जाँच नहीं कर: 
सका |” बस, असीतक वह इसी धुनमें निमन्न था। परन्तु 
सुभानके सिरमें कोई दूसरे ही विचार चक्कर मार रहे थे।. वह 











इस सप्तय इन विचारोंमें डूबा हुआ था कि, इन दस-पन्द्रह 
वदिनोंके बीचमे हमारे किलेपर क्‍या क्या घटनाएं बीत चुकी; 
और इन सब घटनाओंका अन्त क्या परिणाम होगा? वह 
मन ही मन कह रहा था :-- 

हमारे सरकारका कैसा प्रभाव था | पर, आज देखो, उन्त- 
पर भी कैसा विचित्र अवसर आगया है ! बीजापएुरके दर बारमें 
उन्नका कितना वज़न था; परन्तु आज उनको यह भी सोचनेका 
अवकाश नहीं है. कि, अब हमारी क्‍या गति होगी; और क्या. 
नहीं | नाना साहब न जाने कहां चले गये ? आज सुबह...... 
क्या कहा जाय ! जबसे यह सुना, तबसे तो सरकारकी तबी:- 
यत ओर भी विचित्र होगई ! मुझे इधर भेजा है, पर न जाने 
इससे भी कुछ लाभ होता है या नहीं, क्या बतलाऊ' १ आज 
कितनी ही पीढ़ियोंसे जो थानेदारी चली आरही है, वही अब 
जायगी ! इस ढलती उम्रमें इस कठोर बुद् पर ऐसा विचित्र 
मोका आवेगा ! उस दिन नाना .साहबपर ये खब बके-कके ! 
मेंनें उसी दिन कह दिया था कि, अब दिन अच्छे नहीं! नाना 
साहब अब अधिक दिन किलेपर नहीं रह सकते थे, यह तो 
निश्चय था|. बादशाहके यहांसे उनको बुलावा अवश्य आया 
होता ; ओर उन्होंने भी साफ ही लिख दिया होता कि, हम 
नहीं आवेंगे। और कदाचित्‌ थे गये भी होते, तो ओर: 
भी अधिक भयंकर परिणाम होनेको सम्भावना थी। भरे दर- 
बारमें भी उन्होंने सलाम इत्यादि नहीं किया होता, अथवा 











हा 
न 20 4 





अत्यन्त उद्दए्डतापूर्ण व्यवहार रखा होता । इससे न जाने क्या 


भयंकर संकट उपस्थित होजाता।. ये सब बात में पहले ही 


जानता था| डनकी आदत ही ऐसी है! इसलिण एक तरहसे 


जो हुआ, सो अच्छा ही हुआ | किन्तु अब जो होरहा है, वह 
और भी विचित्र है। इसकी अब कहांतक नोबत पहुंचेगी 
इसका कोई ठीक-ठिकाना नहीं । उस बदमाश संफॉजीने उस 
रातको औैसा कुछ कहा, सो क्‍या. सचमुच ही सब वेसा ही 
होगा भी ? यदि सारा षड़यंत्र औसेका तैला सफल हो गया, 
तो चहत हो भयंकर, अत्यन्त सयंकर, घटना घटित होगी । और 
वह सफर भी हो जायगा, इसमें बिलकुल शंका नहीं।” 
.._यहांतक जब उसके विचार आये, तब उसके रोंगटे खड़े 


होगये । सर्फोजीके ऊपर उसे अत्यन्त क्रोध आया । उसने सोचा 


कि, “जो कुछ होना हो, सो हो ! छेकिन एक बार उस स्फोजी- 
को अवश्य यम-घार्म पहुंचाना चाहिए था। -आवजी पदेल, में 
तथा; ओर भी एक-दोने मिलकर यदि उसे नष्ठ कर डाला होता, 
तो इसमें कोई बुराई नद्दों थी। परमात्माके घरमें इसके लिए 
कोई पाप नहीं छगता। दुष्ट | दुष्ट | नीच कहींका | जब एक बार 
यह मालम हॉगया कि, यह इतना नीच है, तब फिर हमाओे 
सरकार चप कैसे बडे रहे ! पेड़में बंधवाकर इसको तुर्त ही 
मरवा डालना चाहिए था !” इस परकारके विचार भी उसके 
सिरमें घमने लगे ; ओर अब उनमें वह बिलकुल ही: निमझखा 
होगया । इतनेमें कुछ कुछ उजेला होने लगा; ओर श्यामाक्रो 








; ः उधाकाल श्र ४४) 
हे ले का: ६ मर > च् हर | 
&.2888/93757७ , | का आस औ 





'ऐसा आभास हुआ कि, वहांसे कुछ दूरपर बहुतसे लोगोंका 
एक गिरोह आरहा है। उसके आनेकी आहट भी कानोंमें पडी 
जैसे कोई खरगोश निश्चिन्त होकर दूब चरनेमें ऊूगा हो, और 
फिर अचानक उसके कानोंमें कोई आवाज आजे, जिससे उसके 


कान खड़े हो ज्ञायं; ओर वह चोकन्ना होकर गु'जाके समान 


अपनी छाल लाल आँखें चारों ओर फिरावे--बस, यही हाल 
उस समय श्यामाका हुआ | उसे कुछ और ही मामरझा समझ 
पड़ा | उसके ध्यानमें आया कि, सामनेसे जो लोग अररहे हैं, 
वे कोई साधारण बटोहियोंके समान नहीं हैं। थोड़ी ही देरमें 


उसे स्पष्ट दिखाई दिया कि सामनेसे जो गिरोह आरहा है, 
उसमें कोई सो-सवा सो आदमियोंसे कम नहीं हैं--उनमें भी 
कुछ घोड़ोंपर हैं, कुछ पैदल हैं। वे आनेवाले कुछ चुपके भी 


म्हीं आरहे है, किन्तु खूब शोर-गुल मचाते हुए, हंसते हँसते 
आरहे हैं। थे आनेवाले लोग हैं कोन ? इसकी उसे शंका 
नहीं थी। वह जानता था कि, यह किन लोगोंका गिरोह है। 
अतणएव वह तुरन्त ही सुभानसे कहता हैः--“सभान दादा, यह 
मुसद्मानोंकी. एक टोली आरही है। न जाने कौन हैं . और 
कौन नहीं | इसलिए अच्छा होगा कि,हम लोग जरा इनसे बच- 
कर एक ओरसे निकल जायें।” 


किन्तु खुभानके कानमें ये शब्द नहीं पड़े । वह अपना बैंसा 
ही.चला जारहा था। क्योंकि अबतक वह अपनी उपयु क्त 
विचार-परस्परामें ही मझ था। श्यामाने फिर पुकारकर उससे 








_श्यामाका साहस _ साहस _ ह 
सती चप7- कि ञय चर किड 





कहा, तब वह समझा; और कहता क्‍या है-- अरे जाने भी 
दो दुष्लोंको | चाहे कोई हों! हमें क्या मतलब :. हम अपना 
रास्ता छोड़कर क्यों जावे! ? रास्ता छोड़कर यदि जायगे, तो 
उनको और भी शंका होगी, फिर ओर भी अधिक वे पीछा 
करेंगे । चलो, हम अपने चुपके निकऊ जाय॑ |” इतना कहते 
हुए वे चार कदम आगे बढ़े थे कि, इतनेमें सामनेके लोग बिल- 
कुल ही नजदीक आगये | स॒भान यदि राजी भी हो जाता, तो 
भी अब रास्ता छोड़कर जा नहीं सकते थे । हां, उस गिरोहको 
मार्ग देनेके लिए वे दोनों एक ओर होकर खड़े होगये । 

. सामनेसे जो छोग आरहे थे, वे सचमुच ही सो-सचा सो 
आदमी थे। उनमें लगभग बारह तो धोड़ोंपर थे; ओर बाकी 
पैदल चल रहे थे | पीछे दस-बीस गाड़ियां सामानसे लंदी आ- 
रही थीं | तस्वू-कनात-रावटियोंकी भी कोई पन्द्रह-बीस गाड़ियां 
थीं। छोटीसी एक पलटन ही थी, इसमें सनन्‍्देह नहीं। अश्वा- 
रोही लोग आपसमें कुछ बातचीत करते और हँसते हुए जा- 
रहे थे। उनका सारा सम्भाषण विशुद्ध उदू-भाषामें था। उसमें : 
“सुलतानगढ़ सुतानगढ़” का शब्द्‌ बार बार खुनाई  देरहा 
था | ओर एकबार चन्द्राबाई, नाना साहब, हरामज़ादा सर्फोजी” 
इस प्रकारके नाम भी सुभानके कानमें पड़े । इससे अवश्य ही 
उसका पूरा पूरा ध्यान उघर गया। यही नहों, बढ्कि उसके 
कानमें ओर भी कुछ ऐसे वाक्य पड़े कि, जिनके कारण उसका 
ध्यान उधर जाना अनिवार्य था। उन वाक्योंने, उसे पागल ही 











५ श्ट६ 2) | 


द आओ 
बना दिया। उसने सोचा कि, जिम कामके छिए में जारहा हूं, 
डसे छोड़कर अब एकदम लौट ही जाना चाहिए, ओर इनके - 
आनेका समाचार इसी दम जाकर सरकारको बतलाना याहिये । 
बतलाना अत्यन्त आवश्यक है | परन्तु सरकारने जो कार्य बत. 
छाया था,वह भी अत्यन्त महत्वका था। और इस लप््य जो बात 
हमने देखी ओर सुनी है, वह भी जितनी शीघ्रतासे सरकारको 
मालूम हो जाय,डउतना ही अभीश है--यह अत्यन्त आवश्यक है। 
क्योंकिज़ो शब्द उसने सुने थे,दे अत्यन्त भयंकर थे करता क्या ? 
उसको कुछ सूफ ही व पड़ा | अन्त वह श्यामाकी ओर देखकर 
बोला,“श्यामा,इस सम्रय अत्यन्त विकट प्रसंग आगया है; ओर 
इसको बहुत जल्द, अभीका अभी, जितनी जल्दी होसके, किले- 
पर जाकर बतलाना चाहिए | जिस कामके लिए मुझे सरकारने 
भेजा है, उद्लीके समान यह्द भी अत्यन्त शीघ्र होना चाहिए |”? 

, श्यात्रा एकदम कहता है:--- रा | 

“दोनोंको दोनों ही काम करना चाहिए। में किलेपर जाता... 

हूं; और तुम अपने कामपर जाओ ।” सुभान न जाने क्या सोच- 
. कर कुछ ठिठका । द 

फिर एकदम उस लड़केसे कहता है, “नहीं, नहीं, में ही 
किलेपर ज्ञाऊंगा | तू यह छिफाफा छेकर. आ; और......” 
.._ कहते कहते डखने लिफाफा. निकाला, जो उसने अपने 
 झुरेठेमें बड़ी मज़बूतीसे छिपा रखा था। इतनेमें, दुर्भाग्यचश, द 
'डसी ग्रिरोहका एक सिपाही आनिकला, जो पीछे रह गया. . 








इयासाका साहस कै 
8... कक 





था| उसका आना था; और इधर सुमावका अपने मुरैठेसे 
लिफाफा निकाऊछऋर उस लड़केके सामने कप्ता! दोनों 
बातें एक हो समयमें हुई' ? सुभाव लिफाफेको श्यामाके सामने 
किये हुए यह बदला रहा था कि, वह लिफाफा कहां ले जाकर 
किसको देना होगा कि, इसनेमें यह सिपाही नजदीक ही आ- 
पहुंचा । उन दोनोंका उसकी ओर पूरा पूरा ध्यान भी महीं जाने . 
पाया था कि,उसका ध्यान, दुर्भाग्यवश,उनकी ओर चला गया। 
उसने तुरन्त ही ताड़ छिया कि, यहां कुछ गुप्त भेद्‌ है। अतणव 
वह एकदम लिहलाकर उनसे कहता है:--ऐ हरामज़ादो ! तुम 
कौन हो ? यहां क्‍या करते हो ? यह लिफाफा कैसा है ! देखें ! 

सचमुच वह मौका ही ऐसा अचानक आपड़ा कि, जिससे 
समान बहुत अधिक चकरा गया; ओर वह छिफ्राफा उसके 
हाथसे छूट पड़ा । 

“छऐे हरामज़ादो | काफिर !”......इत्यादि विशेषणोंका उच्चा- 
रण करते हुए वह सिपाही उस लिफाफैको उठानेके लिये *हुकने- 
हीवाला था कि, इतनेमें श्यामाने उसे तुरन्त ही उठा लिया; 
ओर इतने ज़ोरसे उसे लेकर वह वहांसे चम्पत हुआ कि, वह 
सिपाही कुछ क< हो न सका--उसको अवकाश ही न॒मिला 
कि, वह उसके पीछे दोड़नेकी बात सोचे; ओर अपने पैरोंको 
गति देवे--इतनी शीघ्रतापूवेंक वह वहांसे भगा, जैसे कोई 
बाधिन, बधिऋरके भयसे,अपने छोनेको मु हमें दबाकर, उछलती 

कूद्ती हुई चली जाती हे--डसी प्रफार श्यामा वहांसे भग चला। : 








वह मुसव्मान सिपाही. उसके पीछे लगता अवश्य, पर जिस 
 नौकरीपर वह उस समय था, उसको छोड़कर जाना डसके लिए 


उचित नहीं था, इसके खिवाय, झुभान उसके पंजेमें था ही | 
ऐसी दशामें शायद्‌ उसने यही सोया हो कि, सारा क्रोध इसीको 
दिखाकर बदला निकाल को | श्यामाकी वह चपलता देखकर 


सुभानको भी अत्यन्त आश्चर्य हुआ; ओर वह अभी अच्स्मेमें ही 


था कि, इतनेमें एक ओर झुचएडा आगया; ओर सुभानका 
वहांसे भगना असस्मव होगया। दोनोंने मिलकर उसे पकड़ 
लिया; ओर एकने उसे तड़ातड़ मारना शुरू किया। उसने भी 
काफी हाथ-पैर मारे। परन्तु इतनेहीमें उनके कोलाहलरूसे, आगे 
गये हुए छोगोमेंसे कुछ छोगोंका ध्यान इधर आकर्षित हुआ, 
अतएव उनमेंसे एक-दो और दौड़ आये । फिर क्या कहना हे? 
खुभानके ऊपर गालियों और छेड़ियोंकी बोछार शुरू हो गई । 


फिर अन्तमें उसे कद करके वे छोग आगे ले चले।. 


शा है 








गडबडम गडबड १ 


खुभानकी यह दशा हुई। परन्तु उसमें भी सम्तोषकी बात 
उसके लिए इतनी ही थी कि, श्यामाने बड़ी अहरुत चपलछता 
द्खिलाकर उस मुचंडेको खब ही छकाया | उस लिफाफेकी ही 
उसके मनको चिन्ता थी; क्योंकि सरकारने अत्यन्त विश्वास- 
पात्र समझकर उसके हाथमें वह लिफाफा दिया था। अतणय 
वह लिफाफा यदि उस मुचंडेके हाथमें पड़ गया होता, तो न 
जाने कोनसा भयंकर संकट आजाता ! क्योंकि यवन लोग उन 
दिनों सरकार साहबके पीछे पड़ गये थे। ऐसी दशामें चाहे कोई 
छोटी ही बात क्‍यों न होती, उसीको लेकर वे उपद्रव मचा 
सकते थे। अस्तु । क्‍ 

वे यवन जिस समय उसको धक्के देते हुण्,गालियां देते हए 
और उसकी हँसी करते हुए उसको आगे लिए जाते थे, उस 
समय खामिभक्त खुमानके मनमें दपयुक्त आशयके ही विचार 
आरहे थे। वे जुल्लकी ग्देनमें धक्के छंगाते हुए. उसको आगेकी 
ओर ढकेल रहे थे; ओर साथ ही इस प्रकारके अनेक प्रश्न उससे 
कर रहे थे--“तू कहां जारंहा था ?” “लिफाफा किसका था १” 
“कहां लिये जारहा था?” “किसने दिया था ?” “किसका 
नोकर है ?” इत्यादि । परन्तु वह किसी सूक पुरुषकी तरह ब्ल- 








ना 
विमिम म 


उपाकाल £ 
ज्च्च्छ्छ्ल््ड का 





कल चप था। उन्होंने हर तरहसे उसे तड़ किया; परन्तु वह 


एक अक्षर भी नहीं बोला । ज्यों ज्यों वह नहीं बोलता गया 
स्‍थों यों वे उसे और भी अधिक सताते गये। झुभानने जब 
देखा कि ये बहुत अधिक कष्ट देरहे है, तब उसने भी एक बार 
आस्तीनें ऊपर समेटकर ओर आँखे तथा भोहिं ऊपर चढ़ाकर 


अत्यब्त उम्र खरूप दिखलाया 4 जो ह आदमी ?से धक्का देश्दा 
था, उसको उसने एक ऐसा मज़े दार धक्का दिया कि,वह ज़म्तीन- 


पर गिर गया । इसके बाद दूसरे मुचंडेने उसको पकड़ लिया। 


अस्तु। इस प्रकार खुभानने जब अपना उम्र खरूप दि्खिलाया, 


तब उन मुचएडोंकी मस्ती कुछ कप्त होगई। हां, सु हसे फिर 
भी थे खब बकते-मकते रहे । सुभाव बंगुद देरसे सोथ रहा था 


कि, एक झटका देकर में इनके हाथसे छूटकर मिकल भसाशणू; 


परन्तु उसको विश्वास नहीं था कि, इस प्रकार छूटकर भगनेमें 
उसको सफलता होगी। इसके सिवाय उसने यह भी सोचा कि, 
अमी छुटकर सागनेकी अपेक्षा तो यही अच्छा है कि,कुछ समय- 
तक इनके साथ ही रहूँ ; ओर फिर पीछेसे राव-बिरात इनको 
आँख बयाकर भाग जाऊं । क्योंकि यह उसको निश्चय था कि, 


' थे छोग किलेपर ही जारहे हैं, ओर बह यहे भेद भी छेवा चाहता 


था कि, ये क्यों जा रहे हैं; ओर वहां जाकर क्या करेंगे। अत- 
एव जदतक यह भेद्‌ वह नहीं पा छेवा, तबतक उसके छूटकर 
भगनेमें कोई विशेष बात नहीं थी। इसलिए, ड्ख सप्नय उसने 
छूटकर भागनेका विचार छोड़ दिया। 


है 





तक 


सबक प्च््च्च्ल्ल्प्स्ल्स्क्ा | 
आंगेके लोग बहुत शीघ्रतापू्षंक नहीं चल रहे थे, और 
खुभानको पकड़कर पीछेके लोग ज़रा तेज्ञ चलने लगे थे, इस- 
कारण वे बहुत जद्द आगेवालोंमें जा प्रिले | इसके बाद उन्होंने 
अपने मुख्य सरदारके पास उसे लेजाकर सब हाल बतलाया 
कि, इस मलुष्यकों हमने इस प्रकार केदू किया है, इसके पास 
सील-मुदर किया हुआ एक लिफाफा था। उस छिफाफेको, 
वन्‍्द्रकी ओलाद्‌ एक लड़का, जो इसके साथ था, अचानक 
डेझर भाग गया। किन्तु इसको हम छोग कैद कर छाये हैं | 
अवश्य ही उस सुचंडेको यह बतलाते छज्जा मसाल्यूम हुई कि, 
हमारे देखते हुए बढ लड़का लिफाफा लेकर भाग गया। इस- 
लिए उसने उसके साथ इतना ओर कह दिया कि, जब वह 
लड़का भग गया, तब हमने देखा; ओर फिर सन्देहके कारण 
इसको पकड़ छिया। फिए भी उसकी बड़ी हँसी हुई। तथापि 
उसकी हंसी करमेका वह सप्रय नहीं था। उस समय तो उस 
कद किये हुए अनुष्यकों तंग करके, जो कुछ भेद उससे मिल 
सके, वह भेद्‌ झे केनेका ही मौका था। इसकारण उस सर- 
दारने यही हुब्म, विशुद्ध उ् भाषाओें, दिया कि, “अच्छा, के 
चला इसको, आगे जहां छावनी डाली जायगी, वहीं इसकी 
जांच होगी। णे करीसबरूा, तू आगे आकर छावनीकी जगह 
देखकर खेवा ऊूणा। दो घंदे वहीं उहरकर तब आएे चढेंगे। चलो 
ले चलो, इस नमकहरामको देख छंगे [7 हे. 2803 
करीमबख्ण ओर उसके साथ अन्य दृस-बारह आदमी, तथा 








हल टलर 





समय जो संकट उनको . मालूम हुआ था, उससे कहीं अधिक 





जेमेकी दो बड़ी बड़ी गाड़ियां ज़रा शीघ्रतायुबक आगे बढ़ीं 
करीमबख्श बहुत आगे निकल गया। छावनीके लिए. खान देखते 
देखते वह उसी गोथ्श्वरके मन्द्स्के पास पहुंचा। वेंहा उसने 
बर्तीके बाहर, छावनी लगानेका बड़ा अच्छा मोका देखा, ओर 
ठीक महादेवजीके मन्दिरके सामने ही मुख्य तस्वू लगानेका हुक्म 
दिया। उस हुक्मको खुनते ही एक सिपाही ने कहा:--“लेकिन 


यह तो हिन्दुओंका मन्दिर है!” उन शब्दोंकों खुनते ही करीम- 


बस्श उससे छुड़ककर कहता हैः-- 

“क्यों बे | क्‍या तू हिन्दुओंकी ओलाद है १ जो तुर्े हिन्दुओं 
के मन्द्रिकी इतनी फिक्र है! में तो मन्द्रिमें जाकर पेशाब 
करूगा। वाह | मन्द्रि भो क्‍या ही अच्छा बना है! चलो 
लगाओ तम्बू जल्दी | तबतक में मन्दिस्में जाकर हुका पीता हूं । 
अरे अहमद ! हुका तो छा भाई ! अल्छा: | अल्लाः : 

यह कहकर करीमबख्श कब्लोंपर हाथ फेरते हुए शीघ्र ही 
मन्द्रिकी ओर गया । इतनेमें भीतरसे चूड़ियोंकी आवाज़ आई | 
पिछछे परिच्छेद्मं जिस ख्लीका ज़िक्र आया है, वह इस समय 
अन्दर रसोई बनानेकी तैयारीमें थी। सामान इत्यादि लाकर 
रखा था| करीमबरूश ओर उसके साथके लोगों के-बाहर आनेकी 
आहट जबसे उसने खुनीःथी, तबसे वह खड़ी हुई थर थर कांप 
रही थी | उसके पास ही वह नवयुवक भी खड़ा था। दोनों 
अत्यन्त घबड़ाहटकी हालतमें थे। खुभान ओर श्यामाके रहते 





ही 











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'ब्यरी॥६०णहटकीर प्वर्टदी- “रिंए डिब्८--५ 9८ 


संकद उनको इस सप्रव जान पड़ा । दोनोंहीकी जाँखे' ज़मीन - 
की ओर लगी छुई थीं। खीने अपना मुख बिलकुल ढक लिया; 
ओर ज्ञान पड़ता था कि, पुरुष भी यही याहता था कि, में भी 
इसीकी वरह हो आऊं' तो अच्छा हो | दोनोंका हृदय घड़क रहा 
था। अहयद एक बिछोता ओ र हुका छेकर भीतर जाया। उसके 
पीछे पीछे करीमबख्श भी आया । सीतर आते ही अहमद उस 
ख्वी ओर पुरुष, दोनोंकोी देखकर खब ज़ोरसे इंसता हुआ कहता 
हे--“जनाब, यहां तो आशिक-माशक दिखाई दे रहे हैं !” 

करीमबस्श एकद्म एक कदम पीछे हटा, शोर “क्या | 
ज़वामा ?? कहकर तुर्त ही पीछे छोट गया । इसके वाद उससे 
याहर ही पेड़के नीचे बिछोना डालनेके किए कहा | अहमदमे 
बिछोना डालकर हुका दे दिया; ओर मसमद-तकिये मी श्ख 
दिये । करीमबख्शने हुका शुड़गुड़ाते हुए कुछ सोचकर महमदको 
बुलाया; ओर कहा कि, भीतर जाकर उस आदमीसे कह दो 
कि, “यहां खा साहबकी छावत्री पड़ गी। तुम कहीं दूर 
गांवबांवमें जाकर रहो।/.......... द 

भीतर उन दोनोंके सबसे भी यही विचार झारहा था। 
दोनों ही एक दूसरेसे खुसफुसाते हुए सामान इत्थादि इकट्ा 
करने; ओर किसी न किसी प्रकार वहांसे चल देनेका विखार 
कर रहे थे। इतनेमें अहमदने दश्चाजेके पाख आफर, उस नथ- 
युवकको ज़ोरसे पुकाश्कर करीमबसर्शका सन्देशा कहा, जिसे 
झुनते ही उस पुरुषको बड़ा आनन्द हुआ | सामान इत्यादिकी 











है. रा हु थथ्ट 


बहुत चिन्ता न करते हुए जददी जब्दीसे उन्होंने अपना डेरा- 
डंडा समेटा; ओर दोनों बाहर चलनेकों तैयार होगये। ख्नीने 
अपनी साड़ीसे अपना मुख बिलकुल ढक लिया था। परन्तु 
जिस ख्ीका मुह ढका होता है, उसके देखनेकी ओर भी आंतु 

रता बढ़ती है। उसमें भी मुसत्मान लोग उस समय मराठा 


_ स्रीको देखनेमें विशेष आनन्द मानते थे। अहमद सन्देशा देकर 


अभी द्रवाजेसे अलग नहीं हुआ था कि, उसे उस ख्ीकी सूरत 


देखनेकी बहुत इच्छा हुई। पहले वह बिलकुल द्रवाजेके 


बीचहीमें खड़ा था, फिर कुछ एक ओर हट गया! किन्तु 
उसकी आँखे' बिलकुल खीकी ही ओर लगी हुई थीं। रुत्रीने 
जब यह देखा कि, वह देख रहा है--बिलकुल दश्वाज़ेमें 
ही खड़ा हुआ है--तब बह कुछ पीछेको हटने छूगी; और डस 
पुरुषके कानमें धीरेसे कहा कि, इससे ज़रा अलग हटनेकों कहो। 
उस सूचनाकों पाकर नवयुवकने अपनी खुन्दर ओर मधुर वाणी- 
से, अद्बके साथ, अइमदसे ज़रा हट जानेकी कशा | अहमद हट 


गया, परूतु अब बढ़ डस खोकी ओर देखना बन्द करके पुरुषकी 


ही ओर बड़े ध्यानसे देखने लगा। कह नहीं सकते कि, उसके 
भवमें क्या बात आई | जो कुछ हो। अहमद ज्यों, ज्यों उस नव॒- 
युवककी ओर देखता, त्यों त्यों बह नवयुवकक उसकी नज़र 
बचानेकी कोशिश करता; ओर बीच बीचमैं यह ताड़नेके लिए, 
कि अहमदकी नज़र मेरी ओर तो नहीं, एक-दो बार उसमे उसकी 


ओर आंख छिपाकर देखा भी | अस्तु | करीमबरूश जिस चृक्षके,. 


सड्ूटे आया... कै 
च्य्ज्ल्ल्ब्च्ल्सय्न््न 





नोचे बैठकर हुका पीरहा था, उसी ओरसे बस्तोकी तरफ 
जानेका मार्ग था, परन्तु वद ख्री और पुरुष, दोनों उस ओरसे 
न जाकर एक दूसरी ही ओरसे जाने छगे। अहमद बराबर 
दोनोंकी ओर देख रहा था, बढिक पुरुषकी ओर विशेष रुपसे । 
वे दोनों अभी बहुत दूर नहीं गये थे कि, करीमबख्शके पास 
जाकर अहमदने डसके कानमें कुछ कहा | उसने भी कुछ पूछा, 
तब “हुज़ु र, जी हुज़॒र” करते हुए अहमदने फिर कुछ कहा । 
इसपर करीमबख्शने गदन हिलाई; ओर अहमद शीघ्रतापू्षक 
दौड़ता हुआ उस पुरुषके पास गया; ओर बोला, “अजी, जनाब- 
आढी, आपको हुज़्‌ रने ज़रा बुलाया है ।” अहमदने यह गाथना 
अत्यन्त नम्नतापू्वक ओर अद्बके सांथ की। अब, जावे या 
न जाबे', यह विचार आया। जाते हैं, तो क्‍या होगा? और 
नहीं जाते, तो क्या होगा ? यह सब सोचनेके लिये वहां अव- 
काश नहीं था | कुछ न कुछ शोघ्र ही निश्चय कर डाऊूना आव- 
शक था। अहमदने आकर सन्देशा इतनी नप्नतापूर्वक कहा 
था कि, इस समय इन्कार करना मानो जान-बूककर ओर भी 
सन्देह बढ़ाना तथा अपने मागमें बिना कारण विन्न उपस्थित 
करना था। यह# सोचकर वह तुरन्त ही अहमदको, उस्रीकी 
भाषामैं, उत्तर देता हैः:--“झुझे बुलानेका सबब क्या है? में 
इसको बस्तीमें पहुंचाकर जल्दी ही छोटता हूं।? 

ये वाक्य मानो उसने अपने अन्दर बहुतेरा साहस लाकर 
कहे | परन्तु अहमदने फिर उससे नप्नतायूबक कहा, “जनाव- 















9 (72) 002--७) 





मन्‌ | ज़नानेको ज़रा यहीं पेड़के नीचे बिठा दीजिएण। आपको 
वहाँ कुछ देरी नहीं छगेगो ।” इतना कहनेपरए फिर क्या इलाज 
था ? उसने एक बार उस ख्ीकी ओर देखा; ओर यह पक्को 
तोरपर समझकर, कि अब एक अक्षर भी कहनेको शुजाइश 
नहीं रही, अहमदके साथ होलिया। नियमालुसार बन्दगी 
इत्यादि होनेपर करीमबरुशने “आइये, बैठिये” कहकर उसका 
खागत किया। नवयुवक बड़े गड़बड़में पड़ा। अहमद ओर 
करीमबस्श, दोनों ही बे ध्यानसे उसकी ओर देख रहे थे, 
इसकारण उसकी ओर भी विजित्र दशा हो रही थी । 

अन्त करीमबख्शने उससे “आप कहांसि आये”, “कहां 
जायेंगे” इत्यादि प्रश्ष किये । इस प्रकारके प्रश्नोंके उत्तर देनेके 
लिए. वास्तवमें उस नवशुवककों पहलेहीसे तैयार रहना 
चाहिए था, किन्तु प्रश्षोंके उत्तर शीघ्रतापूर्वक देना तो दूर रहा, 


_ नवयुवक ओर भी अधिक घबड़ाता हुआ दिखाई द्या। अन्‍्त- 


में, उसने कुछ उत्तर दिये भी। परन्तु प्रश्षकत्ता लोग बावकी 
बातमें ताड़ गये कि, ये उत्तर सत्यसे बहुत दूर हैं। फलतः 
उन्होंने और भी अनेक प्रश्न, एकके बाद्‌ एक, किये। नवयुवक- 
ने उन प्रश्नोंके भी उत्तर, जो उसे खूफ पड़े, पये। परन्तु उन. 
उत्तरोंसे करीमबस्शको सन्तोष नहीं हुआ, वढ्कि अहमद ओर 
वह, दोनों, बीच बीचमें एक दूसरेकी ओर देखकर हँसते जाते 
थे इससे स्पष्ट मालूम होता था कि, उस नवयुवकके एक... 
उक्तर्पर भी उनका विश्वास नहीं होता था; और उसको 





. सक्कूट अञआअआया हि 


्च्ल्‍्््ल्््ट्टस्ट्फिण ह 





अधिकराधिक गड़बड़में डालनेके लिए ही वे प्रश्नपर प्रश्ष कर 
रहे थे ! क्‍ क्‍ 
इसनेमें वह नवयुवक बीयहीमेँ उठ खड़ा हुआ; ओर “ज़्वाना 
खड़ा है, जाता हूं? कहकर वहांसे चलने गा । परन्तु करीम- 
बख्णने उसे रोकऋर कहा, “आपने मेरे प्रश्नोंके उचर ठीक ठीक 
नहों दिये हैं, इसलिए खाँ साहब जबतक न आजावें, जाने नहीं 
दे सकते। आप ज़नानैको खुशीसे मन्दिरमें बैठने दीजिए, ओर 
रलोई-पानी, जो कुछ बनाना हो, क्ताइये--ख़ साहब भी आ ही 
रहे ३ै। उनसे अयना सच्चा सश्चा हाल बतला दीजिए; ओर 
फिर चछे जाइये ।” क्‍ क्‍ क्‍ 

कहते हैं. कि, “छिद्रे प्वनर्थाबहुली भवन्ति,” सो बिलकुल 
ठीक है | उस पुयघको उध् सप्रय इस लोकोकिका बहुत अच्छा 
अतुभव हुआ । उछने खोचा कि, एकके हाथसे तो छूटने नहीं 
पाये; ओर अब यह कहता है कि, दूखरा स्रां साहब आजाय, 
तब जाना--तबत के बैठो यहीं | क्या करता बेचारा ? उसने 
अपनी ओरसे बहुत प्रथल्ल किया, परन्तु करीमबरुशका उत्तर 
बराबर वही बता रहा। बेचारेने उस ख्ोको बाएस बुलाया; 
ओर मन्दिस्में ज्ञकर बैठनेके छिए. कड्ठा, तथा खय॑ भी मन्दिसमें 
गया। वहां खोसे बहुत देश्वक धोरे घीरे बातें कश्ता रहा। 
इसके बाद फिए वह बाहर आया। फिए श्ीवर गया। फिर 
बाहर आया । ऐपा जान पड़ता था कि, अहमदकां सारा ध्यान 
उसीकी ओर है। वह पुरुष चाहे भीतर जाता; ओर चाहे बाहर 











आंता, उसकी द्ृष्टिसे बच नहीं सकता था। उस पुरुषने उप- 
यु क्त रीतिसे चार-पांच चक्कर लगाये, इतनेमें तम्बू ऊंगानेका 
कार्य समाप्त होगया; ओर पौछेक्के ठोग भी आगये। उनके 
आते ही करीमबरूश उठा। पलटनके मुख्य सरदारको तीन बार 
सलाम किया। तस्बू तैयार होनेकी ख़बर दी; ओर घोड़ेसे नीचे 
उतरनेकी प्राथेना को । खां साहब उतरे ।. करीमबर्शके साथ 
जो लोग आये थे, उन सबने ज़मोनतक ऋूक ऋुककर सरदारको 
खलाम किया । उसने भी सबकी सलामें लीं। इसके बाद वह 
_ मन्दिर्के सामनेवाले तम्बूमें गया। 

यह सरदार बिलकुल नवजवान था। होंठोंपर ओर ठड़ी 
पर अब कहीं थोड़ी थोड़ी क्ृष्णध्वजा कलकने रूगी थी। 
पोशाक बिछकुछ सादी थो । एक कामदार लूम्बा अंगरखा, 
उसके अन्द्र कई बटनोंका हरा जाकिट, फिर कुर्ता ; ओर एक 
सफेद चूड़ीदार पायजामा। एक हाथमें रेशमी रूमालू ; और 
दुसरे हाथमें तिरछी तलवार | सिरमें चार अंगुल चोड़ी ज़रीकी 
ऊंची टोपी; ओर पीछेकी ओर गदंनतक रूटकते हुए घू“घर- 
वाले बाल, जो बहुत ही झुन्द्र दिखाई देते थे। पुरुष 
ख़बसूरत था। तस्वूमें जाते ही एक अद्‌ लीने,' तस्वूके अन्द्र 
पहननेका एक जोड़ा उसके आगे रखा। वहां बिछे हुए एक 
पलंगपर जाकर ज्यों हो बह बैठा, त्यों हो दूसरे एक अरद्दलीने 
उसके जोड़े निकाडे; और दूंसरे नवीन पहना दिये। एकने 
तस्तरी ओर तिपाई लाकर रख दी; और हाथ-मु'ह धोनेको 


सहक्टूट आया. 





छः हाफ 





प्रार्थना की |. दूसरेने आकर खूबना दी कि, जलपान तैयार है । 
इस प्रकार सब तैयारी हो जानेपर उसने भी जब जलपान कर 
लिया, तब हुक की तेयारी हुईं। हुका पीकर जब आराम कर 
चुका, तब उसे उस आदमीकी याद आई, जो मार्गमें कद किया 
गया था। उसको छेआनेके लिए उसमे अद्लीको हुक्म दिया | 
तुरन्व ही एक आदमी खुमानकों ले आया। खुघान भीतर आकर, 
सलाम करते हुए, अभी खड़ा ही हुआ था; ओर खा साहब 
उसको संम्बोधन करके कुछ कह रहे थे कि, इसनेमें करीमबरूशन्े 
भीतर आकर बहुत देरतक उसके कानमें कुछ धार्थना की। 
हुक्म हुआ कि, “डसे भी काओ |” अहमदने मन्दिरमें जाकर उस 
नवयुवकसे कहा कि, ख़ां खाहब आपको बुला रहे हैं। वंह भी 
इस समय हां, नाहीं, कुछ भो न करते हुए, चुपकेसे ओर गम्भीर 
घूरत बनाकर, उसके साथ चल दिया। जान पड़ता था कि, इस 
बार उसने खां साहबके आगे निधड़क बातवीत करनेका खूब 
निश्चय कर लिया था । बड़ी शान्तिके साथ वह अहमदके पीछे 
पीछे डेरेंमें गया; ओर भीतर क़दम रखकर, सलाम करके, ज्यों 
ही उसने ऊपरकी ओर देखा, त्यों दी खुभानकी ओर उसकी चार 
आँखे' हुई' । &ससे नवयुवककी गस्भीरता एकद्म जातीसी 
रही; और सुभान आश्वयंसे अत्यन्त चकित होकर घबड़ाया 
हुआसा दिखाई दिया । द है $ "0 ०५ 


हलक 2222 32502 257 + मै 








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मच 


बिक 


पन्द्रहवां ता 
- 8२४, 2 


बाबाजीसे बातचाति । 





४... ५ हमारे इस कथावकंमे अ्नी और भी कई ऐसे पात्र हैं कि 
जिनेफे विषयमें आननेके क्लिए हमारे पार्ठक उत्सुक होंगे। इस- 
लिए अब उन्हींकी और हमें: ख् 







कु बेड।पर हाथ देके हुए बाबाजी महाराज अपने सजनमें 


>ईलने तलीन होरहे थे कि, जैसे अब संखारतें एक 'सीताराम'के 
अधिरिक्त ओर किलामें चित्त छू ही नहों खकता हो परन्तु 
भजन करते सम्रय बाबाजीका ध्यान भजनमें ही था, अथवा 
ओर भी किसी बातकी ओर, सो सूद्म दृष्टिसि अवलोकन 
करनेयाले मनुष्यकों विशेष रुपसे माठ्म होसकता था। 
खामीजी प्रहाराज मु हसे यद्यपि सीतारामका ही जयघोष बरा- 
बर कर रहे थे; किन्तु, फिर भी, बाहरकी आहटकी ओर उनका 
पूरा पूरा ध्यान था; और यह स्पष्ट दिखाई देशहा था । भजन 


ज्ल्क 5 


/३#“ बाबाजीसे बातचीत | 
२७०६ है किक 20722 लकी लकी 


स्दक-पुडआ' पीर च्यीस 0० ४०००-१५ 0 ४ ०-7 विज 





करते करते वे घोरेसे उठे; ओर आगे द्रवाजैके पास कफनी 
शिजोड़ने, अथवा धुकनेके बहानेसे बीसियों बार गये; और 






कुबड़ीकी ओर शुत्त-अथ-पूण 
उसको एक बारै"उठाथा;। ओर फिर एक-दो 
बार खखारकफर गुनगुनाते हुए कहा--“अहांतक शबीरमें प्राण 
#, बहांतक तो दाल नहीं गलने देंगे, जान रहते उनके हाथमें 
गहीं पडगे ।” इसके बाद लछोणोंके व्यवेक्की आहट बहुव:मज़दीक 
सुनाई देने लगी-यहांतक कि, छोमोंका गिशेक्व/ दिखाई भी 
ते छमा। उसको देखते ही उन्होंने अपना सजन ओर भी 
जोर ज़ोस्से शुरू किया। इसमे ज़ोरले. कि, बाहर मन्दिरके 
आसपास यदि कोई आवे-जाये, तो उनकी आवीज्ञ सहज ही 
उसे झुनाई देह ओर ऐसा ही हुआ भी। बाहण्से जो छोग 
आये, अथवा आकर निकले, उनका ब्याय उस ओर आकर्षित 
हुआ; ओर उन्ममेंसे दो आदमी आगे आये; ओर मन्दिरकें द्वारपर 
आकर--“कोन है शुसाई' १ इधर आ खाले !” इस प्रकार 
धमकीके शब्द कहै। गुसाई' बाबा पहलेह्दीसे तेयार बैठे थे 


«दि 

















कि है  झंधाकाल !्‌ न 





बे बहुत जल्द आगे निकल आये; ओर “कोन है? महाराज ! 
मुझे क्‍यों बुलाया ?” कहकर पूछा । 
यह खुनकर उन दोमैंसे एक तुर्त ही कहता है, “यह 

मन्दिर किसका है ? यहां कोन कोन रहता है? तू यहां क्‍या 
करता है? तुझको रहनेके लिए यहां किसने कहा है?” इस 
प्रकार, एकके बाद एक, कई प्रश्न उसने कर डाले । अब बाबा- 
जी कुछ उत्तर देनेहीवाले थे कि, इतनेमें दूसरे साहब ख़्ब 
चड़बड़ाकर बोले, “आ: साले सुअर ! क्या कहता है? पकड़ो 
इसको ! बड़ा बदमाश दिखाई देता है! बतला, यहां और 
कोन कोन रहता है ?” 

बाबाजीने अपनी शान्ति बिलकुछ ही भंग नहीं होने दो | वे 
बिलकुल शान्तिके साथ उत्तर देते हैं, “यह हनुमानजीका मन्दिर 
है। में ही अकेला रहता हूं। आसपासके गांवोंसे मिक्षा 
मांगकर खाठा हूं। सीतारामका भजन किया करता हूं ।” 

“ओर कोन रहता है यहां ? बतला जल्‍दी !” 

“ओर कोई भी नहीं। मेरे ही समान फकड़ गुसाई', जिनके 
कोई घर-द्वार नहीं, कमी कभी आजाते हैं, चार घड़ी रहते हैं 
अथंबा बहुत हुआ, वो एक-दो दिन रह जाते हैं, फिर चले 


जाते हैं।” 


नहीं, नहीं, गुसाई' नहीं | ओर कोन आता है ?” 
ओर कोन ? कभी कस्मी मंगलवारकों अथवा हलुमान- 
जयस्तीके दिन, लोग द्रेन करने आते हैं। कोई मानताके लिए, 


है... क) याबाजीसे बातचीत 
कोई और किसी पूजाके लिए--इसछ प्रकार लोग आते रहते हे। 
और तो कोई नहीं आता।' ; « 

“कोई नहीं ?--* “ओर कोई नहीं आता? सच सच बोल ! 
गुसाई' बना फिरता है !” 

“हाराज, व्यर्थके लिए मुझे तंग न कीजिए। एक वाए 
मैने बतला दिया कि, यहां कोई नहीं आता-जाता। मेंने 
जिनको ऊपर बतलाया, उतको छोड़कर और कोई आदमी यहां 
बेकोम नहीं आता ।* ४: व 

नभौंने सुना हैं कि, यहां रातकों गदका-फरी ओर कुश्ती 
इत्बादिके खेल हुआ करते हैं; और बहुतसे लोग इकई होते हैं । 
सच बतलाओ ?” कक 08 38 ला 

“हां, ऐसे खेल भी कभी कमी हुआ करते हैं->यह मन्दिर 
ही ब॒जरंगबलीका है। फिर यहां ऐसे खेल क्यों न हों?” 
.. “बस, बख, हम बजर॑ंग-चजरंगबली कुछ नहीं जानते ! यहां 
कुश्ती-बुश्ती खेलने कोन लोग आते हैं ? किस वक्त आते हैं ! 
आज आये थे या नहीं १” $ 9 3 कक के 

“यहीं. आसपासके गांववाले आजाते हें; ओर कहांके 
आधेंगे ! घड़ीमरके लिये आये, अपना आनन्द किया, नारियल 
चढ़ाया, प्रसाद बांदा; और चलते बने |. और उनका काम ही 
क्या है? किन्तु सरदार खाहब, आप इतनी वारीकीसे जाँच 
क्यों करते हैं १” ३ 7३ 
... बाबाजीकै इस प्रश्कका उस सरदारने कोई सरल उत्तर 

















नहीं दिया। किन्तु उलछरे मस्तकमें बल डालकर कहा, “तुझे 
जांच-वांचसे क्या मतलब ? जो कुछ मैं इछता हूं, चही बतदा। 


अबे गुसाई', सच सच बता कि, यहां शाहजी भोसडेका क्‍ 
लड़का शिवाजी कमी आता है या नहीं ?«- बतला। यह 


उसकी झुकरेर जगह है या नहीं ? डसके साथ ओर भी कुछ --- 
देख, यदि तूने मुझसे कुछ भी छिपा था, तो कुशरू न सप्- 
कना। में जातका मराठा हँ--परन्तु बाहर बहुतसे मुखछू- 
भान खड़े हैं, जो बादशाहकी ओरसे, उल्े पकड़ने आये है। हम 
सब छोग गिरोह बांधकर आये है। तू यदि सीधी  तरहसे 
बता देगा, तब तो दीक है--नहीं तो... हु 

आगे बह और उछ कहनेवाला था कि, इतनेपें बाबाजी 
कहते हैं, “अच्छा! आप "तर सतलबसे यहां आये है ? तब तो 
ठीक है ! शिवाजो तो ध्यर कभी आते-जाते नहीं हैं। इसके 
सिवाय यहा यह सो विश्विन नहों कि, रोज़ रोज़ एक ही मनुष्य 
आवे हां। आठ आड़  वििसभझ कोई फट रैता भो नहीं -मैं 
अक्रेश्ा हो, इस पोपछपर रहनेवाले उल और चमगादड़ोंके 


साथ, अपने दिन काठटता रहवा हूँ । आप मराडे सरदार हैं; ओर 


आइशाहकी तरकसे आये है, : शिवबा” को पकड़नेके लिए, 
गोल बांधकर ! बाह ! वाह | प्रधूकों छोछा अगाध है” 

. बाबाजोमे अन्तिप्त शब्द कुछ ऐसी विचित्र आवाजसे कहे, 
ओर कुछ शेखो विचित्र दृश्िसे उछ जरदारकी ओर देखा कि, 


.. इसको भी कुछ विवित्रहीसा भास हुआ। और बह तिरछी 











ह 5 ह 2 
५ २०५ ८८ ह बाबाजीसे बातधा: ह& 


39०० ०६३०--०३१७० य्च्ः्स्स्््ब्स्ट्डत 








नज़श्से बाबाजीकी ओर देखकर कहता है--“बस ! बस ! 
शुस्‍्लाई'जी, व्यर्थकी बात मत करो। इसी प्रकारकी बातोंसे 
तुम लोगोंपर कैसी कैसी नौबत आजाती है, खो आमनते हो ! 
चुप बैठो, नहीं तो तुम्हारे ऊपरकी सारी छत फद पड़ेगी; ओर 
हसुभानजी रसावरहूकों यले जाय॑ंगे ! तुमको यदि कुछ मालूम 
हो, तो बतराओ ।”? ह 
“मालूम ? मुझको जो कुछ मालूम था, सो बतला दिया । 
अब तुम याहे जितने नाराज हो, धमकाओ--डरपाओ, पर में 
बतलाऊ' कहांसे ? जो मुझे? क्‍ 
“में मीवर आकर ज़रूर देशूगा । तुम्हारे ही समान 
शुल्ाई' ओर बाबा छोगोंकी उस लुख्रेकों मदद है'****” 
“लुटेरा” शब्द्को झुनते ही बाबाजीकी नस नसमें क्रोध 
व्यापघ होगया। उनकी आंखे' सुख होगई'; और मस्तकमें 
बल पड़ गये, तथा दांतोंसे अपने होंठ उन्होंने इस तरह चबाये 
कि, जैसे अब थे उस सरदारकी गदंनपर चढ़ ही तो बेठेगे। 
किन्तु नहीं, उसी दम उन्होंने आत्मसंयमल किया। यह 
आत्मसंयमन करनेमें उनको मानो बहुत प्रयास पड़ा; और 
यह उनकी चेश्टासे स्पष्ट दिखाई दिया। क्ोधक्रे प्रथम आबेगके 
वश होकर यदि उन्होंने कुछ कर डाला होता, तो यह नहीं कहा 
जासकता कि, उसका क्या परिणाम हुआ होता। पस्न्तु 
वैसा मोका नहीं आया। खाथ ही यह भी जान पड़ा कि, 
वाबाजीकी, क्षणमरकी, वह अत्यन्त क्रोधयुक्त चेष्ठा उस सर- 








कम है 2 


३ हा दि 

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की की +अन्क ही कक 
कम 


हि है की ० नल 25 
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५ हु ह' हु पु । ढ् कु 'फलनमीनता 
2 
हे 


.... 4. उषाकाह कै द 
3-बच्ब्हाकत्या 3 


_ रहे। दूसरा मुसत्भाव सरदार 





दारकी नज़रमें नहीं आई; क्योंकि यदि आई होती, तो आगे 
उसके व्यवहारमें भी कुछ अन्तर दिखाई देता। परन्तु ऐसा 
कुछ दिखाई नहीं दिया । मराठा सरदार तुर्त ही अन्दर 
बढ़ां। उसके साथ दूसरा सरदार भी बढ़ा। मराठा सर- 
दार ओर भी आगे बढ़नैबाला था कि, इतनेमें बाबाजी बिल- 
कुल द्रवाजेमें खड़े होकर कहते हैं, “ख़बरदार ! भराठाकों 
छोड़कर--हिन्दूके अतिरिक्त--यदि कोई भी भोतर आवैगा, 
तो बह मेरी छाशपर ही पैर रखकर भीतर आसकेगा | मैं 
जीवित हूं, तबतक बट द 

इतनेमें वह सरदार एकद्म बोल उठा, “बेशक ! बैशक ! 
में मराठा हूं, इसीलिए भीतर जाता. हूं, ये अब भोतर मत 
आदेंगे। पर यदि मुझे कोई सम्देह हुआ, तो फिर में नहीं 
जानता । तुम्हारा'*'*****' 

किन्तु, इतनेमें वह दूसरा सरदार भी भोतर जानेको बहुत 
ही उत्सुक दिखाई दिया। अवश्य ही उस मराठा सरदारने 
यह कहा कि, “ये भीतर नहीं आयेंगे,” किन्तु उसकी ओर 


उसका बिलकुल ही ध्यान नहीं था, अथवा जान- बूककर उसने. 


ध्यान दिया ही नहीं। उसका पैर अभी भावर नहीं पड़ने पाया 
था कि, बाबाजी आगे बढ़े; ओर हाँटकर बोले अन्द्र मत 
आना--अन्द्र !? साथ ही उन्होंने अपना अत्यन्त मज़बूत हाथ, 
किली फ़ौलादी बेंड़ेकी तरह, आड़ छगा दिया; ओर चुप खड़े 
हथियारबन्द्‌ था; परन्तु बाबा- 





जज 





बाबाजीस बातचात 
२०७0 /८ ' 





जीकी उस विशुद्ध उद्दए्डताके कारण वह कुछ ऐसा चकितसा 
दिखाई दिया कि, क्षणभरके लिए वह पीछे हटकर चुप खड़ा 
हुआ उनकी ओर देखता रहा । बाबाजीने बेंड की तरह अपना 
हाथ जो द्रवाजेमें आड़ा लूगा दिया था, वह ऐसा कुछ गठा 
हआ था; ओर ऐसा कुछ शक्तिका सार उसमें भरा हुआ 
दिखाई देता था कि, याहे कोई कितना ही ढीठ क्यों न होता, 
उसकी ठिठककर पीछे हटना ही पड़ता ! 

एक मासूली गशुसाईने घुसद्मान सरदारकों पीछे हटा 
दिया, इस बातपर उस मुखत्मान खरदाश्को बहुत खेद 
हुआ; ओर उसका बदला लेनेके लिए वह अपनी तलवार भी 
निकालनेहीवाला था; परन्तु इतनेमें उस मरे सरदारने भी उसे 
फिर भी पीछे ही रहनेके लिए कहा | विशुद्ध उढूं भाषामें उसने 
उससे कहा, “सरदार साहब, आप अन्दर आनेकी जब्दी न 
कर । में भीतर आहीगया हूं, सब अच्छी तरह घमकर देखता 

! यदि कोई बात होगी, दो ***? 

“बस | बस, में कम्नी नहीं सुनूगा । तुम मुझे कहनेवाले 
कोन हो ? तुम इस घप्रण्डमें न रहना कि, मैं तुम्हारे मातहत 
भेजा गया हूं। तुम यदि फ़ितृश्का काम करोगे, तो मैं तुम्हारी 
कमी न खुनू गा ।” ः 

इस प्रकार, अत्यन्च उद्दद्डतापूबंक, उस मुखद्मानने मराठे 
सरदारको उत्तर दिया। इससे मराठे सरदारको बहुत बुरा 
लगा। उसका शरीर जरू उठा; किन्तु उसके मुहसे एक 





हा. उपाकाल है । २०८ 2) 


५.२, ३ मार 4० हक रैक #८भ९ के “०-४ ५ ३० ॥| 


७ प्ट(७:९३५०22 +शकी+-म्मीकित मु जुवन्‍्व्यी कण... 


शब्द भी बहीं निकला--शायद्‌ क्रोचका अतिरेक ही इसका 


कारण हो ! हाँ, उसने एक बार उस झुसद्मान सरदाश्ती 
ओण ऐसे आजवदय कटाक्षोंरे देखा कि. जिनसे बह भर्य 
हो आसकता था। फिर कुछ देश बाद वह उससे कहता 
है--“भेश कहना व झुबोगे ? तो ज्बरसती सुनाऊंगा 
कभी मानू'गा नहीं | अबतक कहीं सन्देहके लिए स्थान ब्ड। 
तबतक में बिना कारण तुमको यहाँ प्रश्ाायार नहीं करते 
दू'गा। फिर जाहे मुर्दे सूलीएर चढ़ा दिया जाय, अथवा तोपडूप 
करा दिया आय, कोई परवा नहीं। यहां तुम अगर उद्दण्डता 
द्खिल्ाओगे,तो मैं यहीं उलट पड़ 'गा;ओर तुम्हारी एक भी न 
चलने दूगा।” बातों ही बातों जब यहांतक नोबत आपहंजी:; 
ओर मराठा सरदार विगड़ उठा,तब सुसद्शन सरदार कुछ नरम 


पड़ा; ओर दांत किटकियाते हुए दृरवाजैपर ही खड़ा रहा | 


... मुसदगाव खरदार दांत किटकिटाते हुए, मस्तकपर बार यार 
शिकनें डालते हुए, ओर कभी कभी उस मराडे सरदारकी ओर 


चघूरते हुए खड़ा रहा । इसके बाद्‌ वह भीतर ही स्लीतर कुछ 


खुसफूसाया, जेसे कुछ प्रतिज्ञासी कर रहा हो | परच्ठु उस 
मन्दिस्में ज्ञानेवाले मराठे सरदारका ध्यान उसकी ओर जिल- 


. कुल नहीं गया, अथवा जैसे उसकी ओर कुछ ध्यान देनेका 


प्रयोजन ही उसे प्रतीत न हुआ हो । अस्तु | वह उन गुसाई'जी 
के साथ भीवश गया | दरवाजेसे जब वह कछ दूर चला गया 
तब बावाज़ी कुछ ध्ृष्वापूचंक उससे कहते हैं, “सरदार साहब, 


प्पाजच 





ध्] 


का 2 आम 7 आज 


। २०६ ») . बाबाजीसे बातचील है 





आप बादशाहका काप्त करने तो आये ही हैं 
भी कुछ कह १? 

“हां, हां, अवश्य कहो। जो कुछ तुमको कहना हो, कह 
डालो, में हृदयले सुनूगा'*““पर मैं जो कुछ पूछता ह', खो 
बतला दो। सचमुच बतलाओ, आज़कलके ये छोकरे यहां 


बेठकर कुछ शुप्त मंत्रणा किया करते हैं या नहीं ? हमको पता 


पूरो मिल गया है। चाहे तुम छिपाओ भी, परन्तु हमको 
विश्वास होचुका है। हम खब बातें निकाल लेंगे। परन्तु 
तुमसे ही यदि मालूम हो जाय, तो और अच्छा, इसलिए तुमसे 
पूछता है ।॥ क्‍ 
“घरदार साहब,” बाबाजी कुछ चकित चेष्ा बनाकर 
कहते हैं, “आप फ्या कहते हैं; ओर क्या पूछते हैं, सो कुछ मेरी 
खसममभमें नहीं आता | मुझे जो कुछ माल्म था, सो मैंने आपको 
बतला दिया। इससे अधिक ओर क्या बतलाऊ' ? बतलानेको 
ओर कुछ है ही नहीं। आप अपने धमेको भूछकर यदि सुसवलों- 
के द्वारा मन्दिरको भ्रष्ट कराना चाहते हैं, उसको नाश करवा 
डालना चाहते हैं; ओर यदि आपको अपने घर्मका कुछ अभि- 
मान नहीं है, ठो जो कुछ आप चाहते हैं, खुशीसे करें। मेरे 
रोके आप मानेंगे थोड़े ही १--किन्तु मेरी प्रार्थना सिफे इतनी 
ही है कि, हम हिन्दू हैं; ओर उसमें मराठे हैं, हमको इन मुस- 
ब्लोंने मानो चूस डालनेका ही प्रबन्ध कर रखा है। इनके 
सामने हमारी कोई भी कीमत नहों रही है। ओर यह सब 
१७ 








लेक २१० ८८ 
८ मा ब  य 





हमने अपने ही हाथों कर रखा हे--आप मराठे ही तो हैं? 
फ्को अपने कुलका, अपनी जातिका, अपने देशका कुछ भी 
अभिमान नहीं है ?” 

. बाबाजी उपयु क्त प्रश्न करते हुए मानों बिलकुल तत्लीनसे 
होगये । यह रुपष्ट दिखाई देश्हा था कि, उनका पूरा पूरा 
हृदय उपयरक्त प्रश्षमँ ही उतर आया है। परन्तु उस मराठे 
सरदारको वह बिलकुल ही नहीं रुचा। एक सामूली शुसाई' 
हमको इस तरहसे कहे; ओर ऐसे समयमें ! यह उसको 

ही सहन नहीं हुआ । वह एकदम बाबाजीकी तरफ देख 
कर कहता है, “बाबाजी, आपके इस कथनसे आपके महात्मा- 
पनमें बट्ठा लगता है; और हमको सन्‍्देह होरहा है कि, आप 
उन उपद्रवी लोगोंके मददगार अवश्य हैं। ओर इसलिए इच्छा 
होती है कि, आपहीको हम कैदकर छे जायें। आपने सर्व-सग- 
परित्याग किया है| यह कोपीन, ये जदा; ओर ये सब संन्यासी- 
के विन्‍्ह, हमको ढोंग मालूम होरहे हैं। अन्यथा आपको ऐसी 
बातोंसे क्या मतलूब ?” 

“मुझे ? मुझे कौनसा प्रतलब ? मुझे कद करना चाहते 
हैं? खुशीसे कीजिए | कैद कीजिए सूलीपर यढाइये, तोपके 
मुहमें दीजिए, वृक्षमें उछटा शाॉंगकर प्राण लीजिए, या 
दोवालमें चुनकर मार डालिये, अथबा आज हाथ, कहर पै र, 
परसा कान-शंस प्रकार एक एक अड काटकर--रोज तिल 





तिल काय्कर-मेरी जान लीजिए, अथवा एक ही वारमें किसी 











: है... 5) बावाजासे बातचीत 
2४/७४/७७७७ व्य्च्च्ल्ल्स्य्स्ब्ब् 


किलेपरसे लेजाकर ढकेल दीजिए। इससे भी अधिक यदि 
आपको कोई विचित्र युक्ति खूक पड़े, तो उसीको सिड़ाकर मेरे 
!ण लीजिए। सुझ चाहे जितना कष्ट देलीजिए, मेरे पीछे कोई 
रोनेबाला नहीं बेठा है; ओर आपको इससे कोई लछाम भी नहीं 
होसलकता । चाहे जितने कष्टसे मुछे मरना पड़े, में तैयार हूँ 
ओर क्या चाहिए ? घुझे क्ेद्खानेका, सज्ञाका, झुत्युका सय 
दिखलानेसे क्‍या काम ? यवनोंकी नौकरी करके गो-ब्राह्मणों - 
पर आपको भी कोई तरस नहीं आता'। पेटके लिए आप अपना 
मरशाठापन्र भूल गये हैं। अपना हिन्दुओंका बत मूल गये हैं ! 
यही संसारपर प्रकट होगा | ओर क्‍या होगा !” 
बायाजी इतनी शान्तिस्े; ओर हृदयपूर्वक कह रहे थे कि, 
सुननैवालेके मनपर भी कुछ न कुछ घाव होता हुआसा 
दिखाई दिया, परन्तु उस प्रभावकों उसने बाहर नहीं प्रकट होने 
दिया; ओर इसी उद्ं श्यसे चह सरदार बाबाजीसे इस प्रकार 
बोला, “ठीक है,ढीक है,हमें आपका यह सिखावन नहीं चाहिए। 
हम जिस कामके लिए आये हैं, बह काम हमको करने दीजिये ।” 
इतना कहझूरोे उसने एक बार बाहर दरवाजेको तरफ 
देखा | उसने सोचा कि, हम इतनी देण्से इस शुस्ताईसे बात 
चीत कर रहे हैं। ऐसो दशामें हमारे सुसउधान साथीदो कहीं 
सन्देह न हो जावे, और वह कहीं भीवर न चला आधे । बस, 
यही सोचकर उसने अपने साथोकी ओर नज़र फै'की। इसके 
द्‌ हतुमानजीके पासका दीपक उठाकर उसने एक बार चारों 





2 











वर्फ निरीक्षण किया | तद॒नन्तर वह फिर एक बार बाबाजीसे 
पूछता है, “यहां नीचे क हीं न कहीं तहखाना है; ओर उस 


 तहखानेमें कुछ न कुछ 


उस मराठे सरदारका कथन अभी समाप्त भी न होपाया 
था कि, बाबाजी उससे कहते हैं, “क्या ? क्या ? यहां तहसख़ाना 
है? कहाँ, कहां है? आपको मात्यूम है? सुझे तो इसका बिल 
कुछ पता नहीं; पर आपको यदि पूरा पूरा माद्धूम है, तो में पता 
लगाऊगा | मेरे समान गरीब मनुष्यको छिपकर बैठनेफके लिए 
स्थान ही मिल जायगा । 
मराठा सरदार इसपर फिर कुछ नहीं बोला । एक-दो वार 
नीचे पड़कर मानो उसने ज़मीनके अन्द्रकी आहणसी ली। 
इसके सिवाय जहां जहां उसे सन्देह हुआ, वहां वहां हाथ-पैर 
पटककर उसने परीक्षा की। यह देखा कि, कहीं पोलाईकी 
आवाज़ तो नहीं आती । परन्तु वैसी आवाज़ कहीं नहीं आई. 
ओर यदि आई भी हो, तो उसके ख़यालरूमें नहीं आई। वास्तयमें 
डसको आई ही नहीं। क्योंकि नीचे शलुंहारेकी रचना बड़ी 
विचित्र थी। जहां हनुप्तानजीकी मूत्ति खड़ी थी, वहांसे पीछे- 
की ओर मन्द्रिका भाग बहुत थोड़ा था; ओर उसी ओर भुंहारा 
था । मन्दिर्के अगले भागमें उसका कहीं पता ही न था। ओर 
यदि कहीं था भी, तो बहुत ही थोड़े अंशमें | सो चह अंश संयोग- 
वश उस सरदारकी परीक्षामें नहीं आया । उसने बहुत देरतक 
इधर-उधर देखा | हनुमानजीके पीछेसे भी उसने चार-पांच बार 












ः 


प्रदक्षिणा की | सम्पूण ज़मीनकी खब अच्छी तरह जांच की ॥ 
सन्देह यह था कि, कहीं एक-आध द्राज़ दिखाई पड़ेगी, अथव।! 
और ही कुछ चिन्ह मिलेगा, तो हमारी जांच पूरी होजायगी। 
क्योंकि उसको इस बातका तो पूरा पूरा विश्वास होगया था 
कि, इस मन्दिरमें कहींन कहीं छुछ गड़बड़ अवश्य है। अन्तमें 
उसको यह सन्देह हुआ कि, बाबाजीकी घूनी जिस जगह है 
उसी जगह, राखके ढेरके नीचे, शायद्‌ कुछ न कुछ विशेष बात 
मिले। बाबाजी नाहीं, नाहीं करते ही रहे, पर उसने एक न 
सुनी; ओर उनकी घूनी भी हटाकर देखी, जगह साफ करके. 
देखी, किन्तु खब व्यर्थ ! कुछ भी पता नहीं लगा। तब कुछ 
निराशसा होकर वह बाबाजीसे कहता है, “तो फिर तुम्र हमको 
कुछ भी पता नहीं रूगने दोगे--एँ ? देखो,तुम बच नहीं सकते । 
कुछ पता हो, तो बतछाओ |” बाबाजी ख़ास तौरपर हँसकर 
कहते हैं, “घरदार साहब, आप क्या कहते हैं; ओर किस बात- 
का पता चाहते हैं, सो कुछ मेरे समभमें नहीं आता | जो कुछ 
मुझे मालूम था, सो मैंने आपको बतला ही दिया । अब ओर 
क्या वतलाऊ' ? मैं आपसे यह भी कहता हू' कि, जो कुछ आप 





: पूछते हैं, उसका यदि सुक्के पता होता भी तो मी मैंने आपको 


बतलछाया न होता । यही नहीं, बल्कि सुझको यदि मोका मिल 


गया,तो मैं किसी न किसीके द्वारा शिववाको--जहां वह होगा, 
बहीं--कहला भेज गा कि, 'मैया, तूने जिस कार्यकों हाथ 
लिया है, उसे नष्ट करनेके लिए मराठा कुलके ही. सिंह उद्यत 








 होरहे हैं। बादशाही ओहदोंके छालचने उनको पछाड़ा है!” 


हाय ! हाय | मुसत्मानोकी शुद्वामी करके हमारे मराठे सर- 
दारोंने खाभिमानकों बिलकुछ हो घिलांजलि देदी है! थे गौ- 
ब्राह्मणोंके उद्धारकी बात भो नहीं सोचते ! सब गरीब ओर हीन- 
दीव जनोंकी आाहें चुफ्केसे छुबते रहो, धर्मकी अवहेलना 
आंखोंसे देखते रहो; ओर यदि्‌ किसीसे वह न देखी जाये; ओर 
वह इस नरकयातनासे छूटनेका प्रयल्ल करे, तो उसके विरुद्ध 


.. होकर शजत्रुको सहायता करो--उस बेचारेकी निन्‍्दा ओर विठ- 


स्‍्वना करो ! इससे तो यही अच्छा है कि, राजपूत वीरोंकी 
तरह अपने घर-द्वारको आग लगाकर, बालबच्चोंकों अपने हाथसे 
मारकर, उन्हींकी चितामें हम कूद पड़ | राप्त ! राम! सीता- 
राम ! है ईश्वर ! तू ही रक्षक है !” 

बाबाजीके इस भाषणमें कोई विशेषदा हो, सतरो नहीं; किन्तु 


क्‍ इन शब्दोंके मु हसे निकछते समय उनकी चेष्टा अवश्य कछ 
विलक्षणसी हो रही थी। उस समय यदि किसीने उनकी वह 
सूरत देखो होती, तो यह कोई नहीं कह सकता था कि, ये 


. केवल गुसाई' ही हैं। उनका सम्पूर्ण हृदय मानो उस समय 
उनकी सूरतमें ही आगया था| उनके शरीरका प्रत्येक अंग 


मानो वही शब्द उच्चारण कर रहा था। बाबाजीके उन शब्दों - 


. का--अथवा उन शब्दोंके उच्चारण करते समयकी उनकी 


चेष्टाका--उस खुननेवालेपर कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य पडा । 


के क्योंकि उसकी सूरत कुछ नप्नसी दिखाई पडने छगी । उसकी 


























के , २१५७ ५८ 


बाबाजीसे बातचीत 9 


व आआ ००००० जे के 00७७अमाा सम 





आंखोंमें जो पहले उद्दरडताका पानी था, सो कुछ कम हो 
गया; और उनमें एक प्रकारकी शालीनता दिखाई देने रूगी | 


इसके बाद एकाएक कुछ हंलकर वह वाबाजीसे बोला, “धीरे 
धीरे ! इसने ज्ोरसे मत वोलिये | वह बाहर खड़ा है। उसने द 

दि सुन लिया, तो ओरका ओर होजायगा। आप जो कुछ 
कह रहे हैं, सो मेरे मनमें नहीं आता, ऐसा नहीं--मेरे मनमें सी 
आता है; किन्तु मेरी कुछ छकती नहीं। इस सम्तय उन्हींका 
इकबाल है । प्रत्येक मनुष्य यदि वही प्रयल करने रूगे, तो 
इससे कुछ नहीं होगा । भर्ीभाति सोच-समभकर काम 
करना याहिए |” 


उसी समय कुछ उत्तर देनेके लिए बाबाजीके होंठ स्फुश्ति 


हुए, सो सरदारने देखा। परन्तु ज्ञान पड़ा कि, अब विशेष 


वह उनकी छुनना नहीं चाहता था। इसलिए तुरन्त वह 


द्रवाजेकी ओर चला गया; ओर द्रवारी भाषामें गम्भोरता- 


पूवंक उस मुसत्मान सरदारसे बोला, “यहां सन्देहके लिए 
कोई स्थान दिखाई नहीं देता । मेंने ख ब जांच की | इस शुसाई'- 
से ओर कुछ विशेष मालूम होसकेगा, सो आशा नहीं | मेंने 
बहुत बहुत॑ पूछा,पर हम लोगोंको जो ख़बर मिली थी, चैसा यहां 
कुछ भी दिखाई नहीं दिया। इसलिए अब हमको यहांसे'''” 
“मेरे खबालसे इस गुसाईपर विश्वास रखनेका कोई 


कारण नहीं, ” मुसब्मानं सरदार मस्तक खिंकोड़कर कहता 
है, “यह बढ़ा घते द्खिलाई पड़ता है। में इसे केदकर ले 











व हे ६ , 


है 2 ५ १. 





जाऊंगा ; ओर मन्दिरके आसपास पहरा रख'गा। तुमने जो 
कुछ पता छगाया, सो सब मैंने देखा। मुर्ये तो यही शड्डग है 
कि, इस गुसाई ने तुमको पूरा पूरा चकममा दिया। तुम हिन्दू 
हिन्दू सब एक होगे, सो में अच्छी तरह जानता हू | कुछ भी हो 
मराठे छोग नमक *' 
उस मराठ सरदारकी उस सम्मयकी खझेष्टा देखकर 

पानो उस मुसब्मान सरदारके उपयुक्त शब्द अध्रे रह गये। 
ऐसा जान पड़ता था कि, उस समय उस मुखब्मान सरदारके 
मुखसे उपयु क्त वचन सुनकर उस मराठे सरदारके चित्तको 
बड़ा खेद हुआ। उसने सोचा कि, जिस समय देखो, उसी 
समय हमको ओर हमारी जञातिको ये परकीय लोग इस प्रकार 
'घिक्कारते रहते हैं; ओर जो मनमें आता है, वही कहते है ! इसके 
“सिवाय उस समय एक कोतूहरूकी बात यह भी हुई कि, उस 
झुसल्पात सरदारके मुखसे जिस समंय उपयुक्त अन्तिम वाक्य 
निकले, त्यों ही बाबाज़ी भी पीछेसे दरवाजेके पास आगये 
और प्रराठे सरदारकी दृष्टि भी उनकी ओर पड़ी 

.. जिस -समयकी आख्यायिका हम लिख रहे हैं, उस समय 
'झुसल्मान छोग बहुत ही उद्दए्डताका बर्ताव करते थे। मराडे 
संरदार बादशाही राज्यके लिए बड़े उपयोगी होते छे, अतणच 
उनको भिन्न भिन्न कार्य सोंपे जाते थे। बड़े बड़े उत्तरदायित्व- 
कि काय भी उनके सिपुद किये जाते थे | किन्तु साथ ही उनके 





9 "० पाता आप ३७५५ ३७३०६७४३३१०५४४+ कब बल बाय 55 


जोड़का एक एक मुसत्मान सरदार भी उनके साथ दिया जाता 












बाबाजीस बातचीत कै 
न्‍ ब्ह्च्््ल्स्स्स्ड 

था। विजित ओर विजेता लोगोंमें चाहे जितना सख्यभाव हो, 
फिर भी विजेताओंके मनका अभिमान और विजित लोगोंके मनका 
असन्‍्तोष पूर्णतया कदापि नष्ट नहीं होता , यही अबतकका 
अनुभव है । हमारे कथानकके समयमें भी ऐसा ही था । दक्षिणके 
सभी मराठे सरदारोंके हृदयमें इतना असन्तोष फैल रहा था 
कि, जिसका कुछ ठिकाना नहीं। द्रबारमें चाहे जितना मांन हो, 





अथवा बडे बड़े उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य भी क्‍यों न बताये 


जाय॑; किन्तु सुसदमान सरदार सदैव उन मराठे सरदारोंके 
साथ ऐसा ही बतांव करते थे, जिससे मराठे सरदारोंकों यह 
माल्यूप होता रहे कि, राज्यकी ओरसे उनपर बड़ा उपकांर हो. 
रहा है। उनको बड़ बड़े ओहदे दिये गये हैं। उनका मान 
होता रहता है ! इत्यादू। नवयुवक सुसतद्मान सरदार जिस 


प्रकार अपने उद्ण्डतापूर्ण व्यवहारमें और बातचीतमें उपयुप्त 


भाव दरखाते थे, उसी प्रकार दृद्ध सरदार भी किसी दूसरी 
तरहसे उपयु क्त माव प्रकट करते थे। मतलब यह कि, उस 
सम्रय सब जगह ऐसी ही अवरुथा थी कि, जिससे मराठे सर- 


दारों ओर महाराष्ट्र -प्रजाके हृदयमें असन्तोष उत्पन्न होचुका 


था। यही नहीं, बढिक प्रत्येकके मनमें यह इच्छा उत्पन्न हो- 
चुकी थी कि, किसी न किसी प्रकारसे इन सुसब्मान राजाओं- 
को यदि कोई नीचा दिखावे, तो बहुत अच्छा हो। किन्तु ऐसी 


दशा नहीं थी कि, उस इच्छा, ओर उस समयकी वास्तविक 
,परिस्थितिसे छाभ उठा सकनेकी आशा किसीके मनमें उत्पन्न 


















५3). 





"के २२८ ££/ 
"पककद-५०50" विश की 





हुई हो। खबके मनका यही भाव था कि, किसी न किसी 
प्रकार कुछ हो, तो अच्छा ! इनका राज्य किसी धकारसे नह 
हो | नवयुवक लोग जब एकत्र वैठकर इधर-उधरकी वाते 
करते, तब यह विषय अवश्य उनकी बातोंमें निकलता था-- 


फिर उस सम्मय वे छोग यही कहते कि, “यार, अमुक अमुक 
तरहसे यदि कोई यत्न करे, तो सफलता अवश्य हो, अ झुक 


अम्ुक बात यदि इस प्रकार होजाय, तो क्‍या ही आरन्द 
हो! सबका एका यदि हो जाय, तो कोई मुश्किल बात 
नहीं। अप्लुक व्यक्ति ऐसा ऐसा प्रयल्ल कर रहा है; किन्तु उसको 
सफरूता होगी, सो नहीं दिखाई देता | मुसत्मान बड़े ही घूते 
हैं।? बस, इसी प्रकारकी बातें नवयुवकोंमें हुआ करती थीं । 
ऐसी बातोंसे कुछ होता है, सो नहीं । हां, हवा किस तरफ बह 
रही है, यह जाननेके लिए ऐसी बातोंसे लाभ उठाया जासकता 
है। जब जब कोई राज्यक्रांतियां होती रही हैं, तव तब उनके 
पूव-लक्षण इसी प्रकारके दिखाई देते रहे हें, असनन्‍्तोष ! अस- 
_ न्तोष! और खो भी विशेषतः जनसाधारणके मनमें उत्पन्न होने- 
वाला असन्तोष ! बस, यही राज्यक्रांतियोंका आदि कारण है ! 
परन्तु जाने दो । हमको राजनीतिके सिद्धान्तोंपर यहां वाख्यान 
नहीं देना है । इसलिए हम अंपने कथानककी ही ओर आवें, तो 
अच्छा होगा। ््ि 

इस मुसत्मान सरदारने ऐसी बात कही कि, जिससे हमारे 
* गोरवको धक्का लगा; ओर बाबाजीके कानोंमें यदि यह बात पड़ 














धणणाा ७ 





. बाबाजीसे बातचीत _ 2, द 


गई होगी, तो वे हमको क्‍या कहेंगे--”बस, यही भाव तुरन्त उस 
सरदारके मनमें आया। परन्तु वह मौका कुछ कहनेका नहीं 
था । इसके सिवाय, उसके अनमें कुछ विचार भी आया कि 
जिससे उसने समझा कि, अब इस समय जियनी जब्दी हो 
सर, चल देना चाहिए । यदि ओर कुछ समय हम यहतं रहेंगे 
तो यद्द यवन, जैसा कि कहता है, बाबाजीको सयमुव ही के 
कर लेगा। मराठा सरदार यह नहीं याहता था । उसको स्रउसे 
स्पष्ठ कभलकता था कि, वाबाजीकफ कहनेका उसपर कोई न कोई 
प्रभाव पड़ा है; और यह बाय हम ऊपर बसला भी सके हैं। 
बाबाजीके विषयमें उस मराठे सरदारके मनमें एक प्रकारका 
पूज्य भाव उत्पन्न होचुका था, इसलिए उनको कीद करने देना 
उसे बिलकुल अनुचित मालूम हुआ; ओऔर उसने उन्हें बचानेका 
प्रयत्न भी किया, पर उसकी सफलताके कोई लक्षण दिखाई नहीं 
दिये । अन्तमें चह सफल नहीं हुआ | मुसद्मान सरदारने एक- 
दम बाबाजीको केद्‌ करनेका हुक्म दे दिया। 


श्ध्छ 





सोलहवां परिच्छेद । 


कक +५ 





बाबाजीको दण्ड ! 


बावाजीको पकड़नेका हुक्म हुआ; और अब थे पकड़े जाने. 
वाले हैं, यह बाबाजीको भलीभांति मालूम होगया | अब, 
ऐसी दशामें, बाबाजीकी चेषा #कतनी गस्भीर--कितनी उद्धत- 
दोगई होगी, इसकी कठपना पाठकोंको, अपने मनमें, करनी _ 
चाहिए। जिन छोगोंने बाबाजीके उस दिनतकके चस्थ्रिका 
निरीक्षण किया होगा, उन लछोगोंको भी, वावाजीकी उस समय- 
को सूरत देखकर, यह बतलाना कठिन था कि, उनके हृदयकी 
उस खमय क्या दशा थी। जैसे किसीके हृदयमें अत्यन्त तिर- 
रुकार ओर क्रोधके भाव उठते हों; और इन दोनों मनोविकारोंको 
अत्यन्त कष्ठके साथ बह भीतर ही भीतर दाब रहा हो । ऐसी 
हो दशा इस समय हमारे बावाजीकी होरही थी। “इसको 
पकड़ो; ओर अपने साथ छेचलो !” थे शब्द्‌ ज्यों ही उनके 
काममें पड़े, त्वों हो उनके शघेरफो चख नस, तनकर, फूल गई । 
उनके उस विशारू प्रस्तककी तीन नसें तो बविलकुछ उँगलीके 
समान ही तनी हुई दिखाई देने लगों। उनकी आँखें ऐसी कुछ 
कूर ओर तिरस्कारपूर्ण दिखाई देने रूगीं कि, जिसका कुछ 
ठिकाना ही नहीं ! अपनी कृष्णवर्ण और घनी घनी भोहोंके 
_नीचेसे उन्होंने उस मुसत्मान सरदारकी ओर आँखें फाड्कर 


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८ आल 





देखा। उस दृशिमें तथ्य भरा हुआ था, इसमें सन्देह नहीं | 
इसके बाद फिर उन्होंने अपनी उन्हीं तथ्यपूर्ण आँखोंसे 
एक बार अपनी कुबड़ीकी ओर देखा, ओर फिर उस मुसव्मान 
सरदारके हृदयकी ओर देखा...इसके बाद फिर अपने भेषकते 
“«.. ओर देखा ; ओर मन ही परत “अस्ती समय नहीं आया.” कहकर 
.. वे जपके खड़े रहे । द 
.. कह नहीं सकते, क्या कारण था; लेकिन. बाबाजीक्ो वह 
तिरस्कारपूर्ण दृष्टि मुखत्मान सरदारको अच्छी नहीं लगी 
उसने फिर उनकी ओर देखा भी नहीं। मानो वह मन ही भन 
सोच रहा था कि, अपने हुक्मकों अमछमें छाऊ' या न छाऊ' | 
जान पड़ता था, वह मुसलमान सरदार भी कुछ कम तककज्ञानी 
नहीं था। क्योंकि, उसने बाबाजीके केवल उस हश्क्षिपसे ही 
ताड़ छिया कि, हमारे सामने जो ये बाबा खड़ा है, सो केवल 
बाबा हो नहीं है! ओर यह बात उसकी घूरत भी बतला 
रही थी। खज पूछिये, तो जबकि यह शंका होचकी थी. तब 
फिर बाबाजीके पकड़ने न पकड़नेके प्रश्षपर बहुत सोच-विचार 
करनेका कोई कारण नहीं था । परन्तु शायद खाप्तीजीकी वह 
क्रूर ओर संतप्त चेष्ठा, तथा ऐसी ही उनको द्वष्टि, इन दो बातोंने 
ही उस मुसलमान सरदारके मनको गड़बड़में डाल दिया हो ! जो 
कुछ भी हो; किन्तु अन्तमें उसने यही निश्चय किया कि,बस,अब 
इसको पकड़ो ही ! ' इसके बाद्‌ उसने फिर एक बार उस परारे 
सरदारकी ओर देखकर कहा, “तुम्॒ चाहे जो कहो, मु विश्वास 








* है, 24 कद ७४ 
डा ७-५३ 522 





4 उषाकाल हे 





नहीं होता कि, यह बिलकुल बाबा ही होगा । इसलिए इसको 


में अवश्य गिरफ्तार करके ले चलू गा ।” यह कहकर उसने 


ज़ोरसे अपने साथ आये हुए अन्य छोगोंकों बुलाया; और फिर 
एक बार हुक्म दिया कि, “इस गुलाई को पकड़कर ले चछो |” 
हुक्म खुनते ही चार-पांच आदमो दौड़कर आये; और बाबाजीके 


शररीरमें हाथ लगानेहीवाले थे कि,इतनेमें ऐसी तेज़ीके साथ-- * 


जोकि केवल किसी जन्मसिद्ध राजत्व पाये हुए मनुष्यको ही शोभा 
देनेयोग्य थी--उन्होंने अपना केवर दाहिना हाथ ऊपर उठाया; 
ओर उतनी ही तेज़ीके साथ वे सब लोगोंकी ओर देखकर बोले, 


ख़बरदार ! ख़बरदार, हमारे शरीरमें हाथ लगाया तो ! बस्सो 


छोड़कर में मन्द्रिमें आकर बैठा हं--मेरे समान गरीब बैरागीको 
भा कष्ट देनेसे तुम छोग बाज नहीं आते ! तब, अवश्य ही तुम्हारे 
सत्यानाश होनेका सप्रथ निकट आगया है, इसमें सन्देह नहीं । 


. कोई परवा नहीं । तुम्हें मेरी तरफ़ दौड़कर मुझ पक डनेकी कोई 


ज़रूरत नहीं। में खय॑ तुम्हारे साथ होल गा। किन्तु जरा 
धीरजसे | एक बार जब में तुम्हारे पंजेमें फँस जाऊंगा, तब न 
जाने कब फिर इस जगह आना हो; ओर कब न हो, इसलिए 
चजरडूबलीकी चार परिक्रमा कर लू' |” इतना कहकर ठ॒स्‍न्त ही 
उन्होंने अपनी पीठ फिराई। उनकी उस तेज्ञीसे बह झुसद्मान 
सरदार ओर उसके अन्य लोग बिलकुल चकित होकर उनकी 
ओर देखते रहे । किसीके मनमें भी न आया कि, “जो कुछ होगा, 
सो देखा जायगा-इसे एक बार दोड़कर पकड़ ही लो !” केवल 





52 है रुक 








| ) बाबाजकको दण्ड 
उनकी उस उद्धत गति और उद्दए्ड वृत्तिकी ओर देखते रहनेके 
अतिरिक्त और कुछ भी मानो उन्हें सुफाई हो नहीं दिया; ओर 
वास्तवमें था भी ऐसा ही ! उस मुखत्मान सरदारका हृद्य तो 
खामीजीका वह बर्ताव देखकर विलकुछ वियार-म्रश्न होगया- 
था। “यह मतुष्य है कौन ? जिस वेशपें यह दिखाई देवा है, यह 
सच्चा तो हैं नहीं - कोई व कोई कपटजाछ है--”यह बात उसके 
समसें घर कर गई थो । बावाजीकी प्रत्येक बाठसे यही दिखाई 
देता था कि, इनका किसी न किसी उच्च कुछका ही अन्य है 
कम्मसे कम्म उस सुसव्यान सादारको यो ऐसा ही घालूम होता 
था। घराडे सरदारका हृदय भी कुछ उसी प्रकारके विचार- 
विज्ञारोंसे व्याप्त होरहा था; और बह भी उसी दृश्टिसे बावा- 
जीको देख रहा था | इतमेमें वह मसुसतमान सरदार उससे कहता 
है, “सनन्‍्ताजीराव, तुम उसपर अपनी नज़र रखो । बह हतु- 
मानजीकी धरद्क्षिणाके बहानेसे उघर गया है। सावधानीके साथ 
उसपर दृष्टि रखो। वह वबातकी बातमें घोखा देकर चला 
जायगा। तुप्र भोतर जाकर उसके पीछे ही पीछे रहो.। वह 
किसी न किसीको इशारा करके अपनी सब दशा जवका देगा । 
देखो, वह दया करता है; ओर कया नहीं करता, सो साथ हमको 
माडूम होना चाहिए । तुम इधः-डचर न देखो । भीतर उसपर 
पूरो पूरो नज़र रखो! । 

इतना तो उसने स्पष्ट रुपसे कहा; और फिए अन्दर ही अन्दर 
खुसफुसाता है, “परन्तु तुमपर इतना भी विश्वास कैसे रखें? 











उधाकाद 
न्ख्प्य्प्क्ाण कै 
क्योंकि तुम उसे भगा देनेमें भी वहीं चूकोरी । किन्तु में खयं ही 
नज़र रख गा। कभी यक गा नहीं !? यह कहकर वह सचमुच 
ही उस शुलाई'की ओर देखता हुआ खड़ा रहा। डसके साथके 


हे 





लोग भी उसीकी भांति देखते खड़े रहे | द | 

बाबाजीने दो-तीन दर अच्छी तरहसे परिक्रमा की | जितनी 
बार वे हतुमानजीके पीछेसे निकले, अत्येक बार उस ओर 
फर्तीके साथ नीचे ऋककर “टकू टक्‌ दक्‌! की तीन बार 
आवाज़ की | इस प्रकार जब तीन प्रदुक्षिणा हो गई', दब उन्होंने 
अत्यन्त चपलगति दिखलाकर हसुमानजीको एक-दो अंशुल आगे 
खरकाया; ओर उस द्राज़से कुछ डाल दिया, तथा, फिर उसी 
बम हलुमानजीको जहांका तहां कर दिया | यह कार्य उस समय 


बाबाजीने अत्यन्त ढिठाईके साथ और फुर्तोसि किया। बाहरसे 


जो लोग देख रहे थे, उनकी हृष्टिमें यदि हतुमानजीका हिलना 
ज़रासा भी आजाता, तो स्ववाश अत्यन्त निकट था; और 
बाबाजी यह बात नहीं जानते थे, सो नहीं । वे जानते थे; किन्तु 
अपनी कतेव्यदक्षताके विषयमें उनको इतना अभिमान था-- 


और चह अमभिम्तान बिलकुल ठीक था--कि, जिसका कुछ ठिकाना 


नहीं | जो कुछ भी हो, क्षणमरके लिए उस मुलव्मान सरदारके 


मनमें हनुमानजीके हिलनेकी शंका ज़रूर आई. परन्तु वह यह 
न समझ सका कि, हमने जो कुछ देखा, वह केवल ध्शासमात्र 
है या क्या ? उसने सोचा कि यह भास अवश्य हुआ, पर यह 
भास है क्या ? हनुमानजीकी मूर्ति हिली क्‍यों ? जो हो, यह केवल 








है 
हल | 
| य जा: 


४ 


हैं बाबॉजोीको दण्ड | 
व्श््स्ल्ब्स्य्स्क््ा. 











भास ही होगा; क्योंकि इतनी देरसे हम बराबर देख रहे हें, 
इस क्षणके अतिरिक्त और फिर ऐला भास भी नहीं हुआ । 
अम्तमें उस सरदारने सम्रका कि, यह केवल भासमात्र था; 
ओर कुछ नहीं । बस, यही समभककर वह कुछ नहीं बोला | 
इतमैमें बाबाजी भी यह कहते हुए आपहूँ चे--“हां, चछो, अब 
जहां छेचलनेको हो, छेचलो । चलनेके पहले एक बार फिर में 
तुमसे कह देना याहता हूं कि, तुम बिना कारण सुर गरीब 
बेरागीको कष्ट देर्हे हो ।” 

पर उनकी झुनता कोन है ? बाहर आते ही आसपाखसे 
लोगोंने उनको घेर छिया; जोर उनको बीचमें करके वहासे चल 
दिये | मम्दिरसे बाहर निकलते समय बाबाजीने एक रूबी सांख 
लो, ओर कुछ खेद्‌-प्रदर्शक हसोी हँलकर पीछेकी ओर देखा 

बाबाजीके मनमें क्या क्या वियार उस सम्रय आरहे थे, 
सो कुछ कहा नहीं ज्ञासकता | परन्तु उस सप्तयके उनके उस 
द्िन्त हाल्यसे; ओर पीछे घूमकर अपने मन्द्रिको. ओर एक 
विधित्र दृष्टि डालनेसे, यह अमुप्तान खामाविक हो होता है कि, 
उनके मनमें कोई न कोई विछ॒क्षण विचार आरहे थे । बहुत देश- 
तक वे छोग, एक दूसरेसे कुछ भी न बोलते हुए, चुपचाप, जा- 
रे थे। हाँ, सन हो मन वे शायद्‌ कुछ सोचते जाते थे, ओर 
कुछ खुसफुछाते भी थे। मराठा सबदार यह मो रहा था कि 
देखो, यहांपर हमारी एक भी नहीं चलने पाई, एक दूसरे मसुष्य 
( यबाबाज्ञी ) के आगे इस मुखठलेने हमारी बेअ दबी को-..- 











, लषाकाल हे 22 
७ ४५227 ० “38-48 “6७.६० 





वास्‍्तवमें यह हमार मातहत है, पर इसने हमारी न झुनकर 


अपनी मनमानी कार्यवाही को; ओर अन्‍्तमें हमारे देखते देखते 
: इस मनुष्यकों पकड़े लिये जारहा है--इस सबका कारण क्‍या 
, है ? यही तो कि, हमारे ऊपर विश्वास नहीं । बस, इसी प्रकारके 
विचार उस मराठे सरदारके मनमें आरहे थे; और वह मन ही 


मन जलता हुआ चला .जारहा था। उसके घोड़ेको भी, जान 


पड़ता था, अपने मालिकके मनकी दशा मालूम होगई थी, 


क्योंकि वह भी बिलकुल उदाससा होकर चल रहा था। मुस- 
व्मान सरदार भी अपने मनमें आई हुई शंकाओंके विषयपें 
विचार करता हुआ जारहा था। वह सोचता था कि, हम इस 


मनुष्यको कैद करके लिये तो जारहे हैं; पर कहीं यह, जैसा 


कि कहता है, कोई बेरागी ही तो नहीं है? हमने तो इसको 


यही समफकर पकड़ा है, कि यह कोई न कोई बड़ा चतुर षड्‌- 
यन्त्रकरत्ता है; ओर शाहजी भोसलेके छोकरेंके गिरोहका कोई 


व्यक्ति है | परन्तु अन्तमें यह कोई बिलकुल वैरागी ही न निकल 


जावे; और यदि कहीं ऐसा ही हुआ, हमारा अनुमान सत्य न 


निकला, तो अवश्य ही हमारी किरकिरी होगी। अच्छा यदि 
हमारा अनुमान सत्य है, तो फिर यह है कोन ? यह इस मन्दिर- 
में वेरागीके रूपमें क्यों रहता है ? हमारे सुननेमें आया था कि 
इस जगह वह शाहजीका छोकरा अपने ग्रामीण साथियोंको 
इकट्ठा करता है--लो क्‍या वास्तवमें सच है? इन बातोंका 
निश्चय केसे हो! बस, इसो प्रकारके प्रश्ष वह मन ही मन क्‍ 





ः बाबाजीको दण्ड - 


>> 42 :2250 » अल 
क शक्ल 





सोचकर, अपनी कव्पनाके अनुसार, उनके उतर भी देता 
जाता था | इस प्रकार कुछ देर सोयने-विचारमेके बाद अचा- 
नक॑ उसके मनमें यह आया कि, हतुमानजीकी सूत्ति हिलनेका 
जो भास हुआ था, सो क्‍या था? इस बातकी याद आते ही 
डसेकी विचारावलोमें ओर भी अधिकाधिक उलकन पड़ने 
लगी | उसके अन्तःकरणको यह विश्वास तो था ही कि. वह 
जो कुछ दिखाई दिया था, सो केवर भासमात्र था; परन्तु 
क्षण क्षणमें उसके हृदयमें एक प्रकारकी अत्यन्त सूक्ष्म शंका- 
ध्वनि भी उठ ही जाती थी। वह ध्वनि जड़से निमृ्‌ ल नहीं 
हुई; ओर जितनी बार उसने बाबाजीकी ओर देखा, उतनी बार 
उक्त शंकाध्वनि उसके हृदयमें ज़रूर ही उठती रही | यह बेरागी 
सच्चा चैरागी नहीं है--यह विचार तो उस समय उसके हृदयमें 
इतना जोर भरता था कि, उसको उस समय इसी बातपर 
बड़ा आश्चर्य हुआ कि, यह शंका ही मेरे मनमें क्‍यों आई? 
इधर बाबाजीके मनमें जो विचार आरहे थे, सो ऐसे नहीं थे कि, 
' उनकी चेष्टापरसे किसीकी समभमें आजाते | उनकी चेष्टा 
इस समय खिन्न अथवा उदास भी न थी। वे इस समय उतने 
ही मज़े से चले जारहे थे कि, जेसे वे नित्य भिक्षाके लिए जाया 
करते थे, अथवा ओर किसी खाभाविक्र कार्यके लिए चले 
जारहे हों! पहले की भांति अब तविरस्कार अथवा हंषकी भी 
कुछ छठा उनके चेहरेपर दिखाई नहीं देरही थी | वे इस समय 
बिलकुल शान्‍्त ओर गम्भीर थे। अन्य लोगोंका क्या पूछना 


कु >> अक 














है--वे अपने मज़े से इधर-उधर देखते हुए और मार्गसे आने 

जानेवालोंकी हली-दिलगी करते हुए चले जारहे थे। भार्मसे 
जाते हुए प्रत्येक हिन्दूकी हंसी उड़ाना अथवा उस हँखीको 
ओर भी कोई बीमत्स खरूप देना उन मुसब्लोंके बायें हाथका 
खेल था । मान को कि, दस-पाँच मुसब्मानोंका गिरोह मार्गसे 
जारहा है, ओर वहींसे कोई ब्राक्षण स्लाब-लंध्या करके, आच- 
मनी और पंचपात्र लिये हुण निकल्ा--अब उस बेचारेका 
कुशल नहीं ! बस, यही हाल उस समय था। इलके सिवाय 
कभी कसी वे शिखानपष्ण छोग हिन्दू-ख्ियोंकी विडुस्बना भी.. 
भरे रास्तेमें, कर दिया कश्ते थे | सारांश यह कि, उछल सप्तय 
उनकी  उद्डताकी कोई मयांदा मंहीं रही थी। सो उसी 
स्थितिका प्रत्यक्ष अछुभव इस समय हमारे बाबाजीकों होरहा 
था। वह सरदार अपना बिलकुछ चुपचाप बला आरहा था. 
परन्तु पीछेके लोग, जान-घूककर ज़रा पीछे ही रहकर, थीरे धीरे 

गेर एक दूसरेसे हँसते-खेलते, विनोद्पूबेक, तथा बाबाजीकी 
हँसी उड़ाते हुए और आजे-जानेवालोंकी भी ख़बर लेते हुए, चडे 
जारहे थे। एख्तु बाबाजीने अपना गोर्ब इतना बहीं घट 


दिया था कि, उन मुसहलोंकी हँसी-द्ललगीमें आजाते--यही 


नहीं, बिक उन्होंने इस बातकी खबरदाशी भी रखी थी कि. 
इनके सामने हमारा गौरव कम न होने पावे--वे अपने मजसे. 


_ छुबड़ी इस हाथसे उस दाथमें ओर उस हाथसे इस हाथमें 
लेते हुए, आनन्द्पूजक, धीरे घीरे--प्रस्तीसे--बले आरहे थे | 


नकद 09: 7 मदिएया "शक भूल १:५:: ० ६:८:-८:-प: कण डी 


चलते चलते वे लोग एक गाँवफे किसी परनधटके पाससे 
आनिकले | वहां बेचारी ग़रीब ग्रामीण स्त्रियां पादी भरनेमें 
लगी थीं। जब वे छोग बिलकुछ वहां पाल ही आगये, तब _ 
स्वाभाविक ही थे वेवारी लजाकर अपना आँचल संभालने 
छगीं. और कनखियोंसे यह देखनेके लिए, कि ये कोन 
है, कहां जारदे हैं, मुह ऊपर करके खड़ी होगई' । उनमेंसे 
घक स्त्री--जों ज़रा खुखूरी सी थी, अभी हालहीमें अपना 
घड़ा भरकर अपनी सहेलीके सहारेसे सिर्पर छेकर चलमेको 
थी | अवध्था विलकुल अब्हड़ थी-खाभाविक ही इच्छा ही 
ईई कि, देखें, ये छोग कोन हैं | इसलिये घड़ा बेला दी खिर- 
पर लिये हुए--लजाती हुई, ज़रा मुड़कर खड़ी होगई। उसकी 
ओर नज़र जाते ही एक झुसदमान दूसरेसे अपनो छकड़ी टोंच- 
कर कहता है, “ऐ म्यां, देखो तो, कैसो अदाके साथ खड़ी है ! 
वाह क्या कहना है! बिजलीसी चमकती है। यह नज़ाकत : 
दूसरेंने भी उस ओर देखा; ओर पहलेहीकी वरह कुछ शब्द 
कहे | वीसरेने दूसरेसे कुछ ओर अश्छील शब्द कहकर पूछा 
और सब छोग उठाकर हँसने छगे। दोनों सरदार आगे जा- 
रहे थे, इसलिए उनका ध्यान इस ओर जा ही नहीं सकता था 
कि, हमारे अनुवस्वर्ग पीछे कया कर रहे हैं। इसके लिवाय उन 
दो नॉका मन मी अपने अपने विचारोंमें ही निमन्न था, इसलिए 
उनकी ओर ध्यान जाना और भी. असम्भव था। पीछेवाले 
लोगोंमें, बीचमें हमारे एक बाबाजीको छोड़कर, ओर बाकी 

















दोनों हाथोंसे घड़ेको ज़रा ऊपर उचकाकर गर्देन ज़रा इधर-उधर 


ह उषाकाल 
्यूट्क्लन 





संब लोग उस ठटं में. शामिल थे। सब छोग डख समय उस 
पनघटके सामने खड़े होगये; ओर उन स्त्रियोंकी ओर देख - 
देखकर उनके विषयमें--विशेषतः उस बेचारी गरीब सन्दरीके 
विषयमें आपसमें हसी करने रंगे | बाबाजी अत्यन्त क्र द्ध हुए | 
मन्दिरमें जिस प्रकार उनकी चेष्टा अत्यन्त सन्‍्तप्त ओर छुब्ध हो 
गई थी, उसी प्रकार इस समय भी होगई--जैसे कोई ज़बरदंस्त 
शेर पिंजरेमें बन्द्‌ किया जावे; और फिर उसको छूकड्रियोंसे 
टोंचा जाबे, उस समय जैसी उस शेरकी अवस्था होतो है, बैसी 
ही इस सम्रय बेचारे बाबाजीकी भी होरही थी। उन्होंने सोचा 
कि,इस समय क्रोघमें आकर यदि हम कुछ कहेंगे, अथवा हाथसे 
इनको कुछ दण्ड देनेका विचार करगे, तो इससे कोई छाम 
न होगा; और उल्टे ये छोग बिगड़कर इन स्त्रियोंका और भी 
अधिक अपमान करेंगे। इसके सिचाय, इतने लोगोंके बीजों 
हम अकेले हैं; ओर अबतक खुले हुए हैं, सो ये फिर हमको 
बाँध ले गे। बस, यही सब सोचकर बाबाजीने उस समय गत 
। ये शिखानष्ट लोग हमारे मराठोंकी स्त्रियोंको इस प्रकार 
हँसी-द्ल्लगी कर; ओर हम चुपके देखते रहें--इससे अधिक 
ओर निर्बेछता क्या होसकती है? यह सोचकर उनका मन अत्यन्त क्‍ 
क्षुब्ध होगया । अपनी क्रोधाम्नमिको भीतर ही दबाकर वे उसे . 
जंहांको तहां ही खपा देनेका प्रयत्न कर रहे थे। इतनैमैं उस 
युवतीकी गदनमें न जाने छवक लगी या क्या--उसने अपने 





बाजाजीको दण्ड: छातकु 
अं ्चा जापनस 250 





घुमाई; ओर फिर घड़ा सँमालकर रख लिया। यह एकने 
देखा; ओर तुरन्त ही वह दूसरेसे कहता है, “आय हाय | क्‍या 
सुराहीदार गर्दन है! यह छचक कितनी प्यारी है ! घड़ेके । 
सबबसे बेचारीकों कितनी भारो तकलीफ होरही है! केसा घड़ा 
उठाया ! यह गर्दनकी छोच | यह नाज़ ! वाह वा !” सब लोग 
फिर खिलखिलाकर हँसने लंगे। इतनेमेँ फिर एक कहता 
हे, “धड़ेकी तक़लीफ़ दूर करनेकी में कोशिश करता हूँ ; ज़रा 
देखिये तो कया मज़ा आता है ।” यह कहकर चह नीचेको ओर 
फभका | बाबाजीकी आंखें अब क्रोधसे बिलकुल छाल सुख 
होगई थीं। उनके मनमें कोई न कोई भयंकर विचार अवश्य 
या। उन्होंने उस नीचे रूके हुए मनुष्यकी ओर अत्यन्त 
क्र रताके साथ देखा: ओर अब उसके पास जाकर वे उसकी 
कमरमें एक रात मारकर उसको नीचे गिरानेहीवाले थे 
कि, इतनेमें चह उठा; ओर हाथमें लिया हुआ एक छोटासा 
पत्थरका दइकडा उस बेचारी गरीब सन्दरीके घड़ेपर तानकर 
मारा, और कहता है, “अभीतक तो बिजली चंमकती थी; और 
अब देखो कैसा मेह बरसने लगा!” जैसीकि, डस दुष्टको 
च्छा थी, उस बेचारीका घड़ा प्ू८ गया; ओर सारा पानी 
उसके बदनपर गिरनेसे वह बिलकुल तर-बतर होगई। बाक़ी- 
के छोग “वाह | वाह | यार, खब॒ किया !” कहकर ज़ोर ज़ोरसे 
हँसने छमे | परन्तु अब उस पत्थर मारनेवालेकी दशा बहुंत 
ही शोचनीय हुई! बाबाजी अब अपना क्रोध बिलकुल ही न 





द.. / ४ 





१ उपाकाह हे 
" २2००टाकाा++ब्न्‍म«्ज+>भण» 4 20]. 


रोक सके। उन्होंने एकद्म जाकर, कुछ भी न बोलते हुए, डस 
मनुष्यकी कमरमें रूब ज़ोरसे एक छात मारी ओर डसे नीचे 
गिरा दिया । इसके बाद उसकी छातीएर सवार होकर उसको 
कोखोंमें मुक्ोंकी मार शुरू की | वह नीच ज़ोर ज़ोरसे चिल्छाने 
रऊूगा। बाबाज्ञीका यह काय इतनी तेज़ीके साथ हुआ कि 
अन्य लोग यही न सोच सके कि, यह हुआ क्या; ओर अब हम 
क्या करें| सब लोग भोचकेले रह गये; ओर उस धलमें छोटे 
वाले नीचकी ओर, तथा उसको  यथोथित दरड देनेमें निमग्न 
डस वैरागीकी ओर अचस्मेकी दृष्टिसे देखने रंगे | परन्तु अभी 
इस प्रकार एक आधा मिनट भी व्यतीत नहीं हुआ था कि, वे 
लोग चुपके न रह सके; ओर एकदम शोर-गुल मचाते हुंए उस 
वैरागीकी ओर दोड़ पड़े | इधर स्ज्रियोंने देखा कि, जिस नीच 
मुखल्मानने उनकी सहेलीका घड़ा फोड़ दिया, उस नीच पुरुषको 
वेरागी खूब दण्ड देखा है, इसलिए वे भी साहसमें 
आकर उस नीचको गालियां देने लगीं। उधर चैरागीकी ओर 
दोड़नेवाले, उन दुष्टोंका कोाहछ और इधर इन स्त्रियोंकी 
बक-भाक, दोनों आचाज़ें एकत्र होकर उन आगे गये हुए सर- 
दारोंके कानोंमें पड़ी | अतणच ज्यों ही उन्होंने. पीछे फिरकर 
देखा, त्यों हो एक प्रकारका बड़ा गड़बड़सा मचा हुआ ड 
दिखाई दिया | बाबाजीपर छोग एकदम ट्‌ट पड़े. और बावाजी 
बराबर उस दुष्टपर मुक्कोंकी मार कर रहे हैं। घलमें तडफडाने 
वाल वह आदमी अन्तमें रक्त-चमन करने .छगा।. तब कह" 








>> अशिवकओ अं 864 ्ल्स्क्र 
वबाबाओन दम लिया; ओर उठकर पहले अपनी कुबड़ी उठाई, 
जो वहीं एक ओर पड़ी हुई थो, इसके बाद फिर ये अत्यन्त 
घीर ओर गरमीर दृष्टिसे, इस प्रकारकी चेष्टासे . कि, जैसे 
कुछ हुआ ही न हो, खड़े होकर, देखने छगे । उस चूलमें छोटने- 
वाले मनुष्य को बाबाजीके पंजेसे छुड़ानेके लिए जो छोग दोड़ 
भे, उनमैंसे एक मसुष्यने बाबाज्ीको गर्देनपर कटारका वार 
किया था, पर लोभाग्यवश उनके रूगा नहीं, ऊपरसे निकल 
गया। इसके बाद दो- सिपाही उनके ऊपर ओर बार करने- 
वाके थे कि, इतमेमें चह मुसत्मान सरदार घोड़ा दोड़ाता हुआ 
वहां आपहुंचा; और “ख़बरदार ! ख़बरदार !” कहकर उन दोनों 
को पीछे हटा दिया। ऊपर बतलाया ही है कि, बाबाजी इस 
समय बविऊझकुल शान्त थे। उस सरवदारने इस गड़बड़ी ओर 
मार-पीटका कारण पूछा | उसझे सिपाहियोंने, जो मन भाया, 
सो बताया। किन्तु एक बात अवश्य ही थे छिपा नहीं सके, 
ओर वद यह कि, बाबाजी उस समय क़ेदीकी हालतमें थे, उनके 
आखपास इतने छोगोंका घेरा था; परन्तु फिर भी उन्होंने साहस 
करके एक मुसज्मान लिपाहीको 'श्ूलमें गिराया | . यह देखकर; 
ओर सारा बृत्तान्व खुनकर, सरदार चुप खड़ा होगया। जैसे 
यही उसंकी सममझमेंन आता हो कि, वेशगीको दण्ड दिया 
जाय या उसके साहसपर आश्चय्पष किया जाये।. अन्तमें वह 
बाबाजीकी ओर देखकर कहता है, “क्यों बाबाजोी, तुम बतलाओो 
तो सही, यह्‌ हुआ क्या १ तब हम सच-्ूूठका निपदार। झरें ! 








अं अर 











बाबाजी तिरस्कांस्युक्त हंसी हंसकर कहते हैं, “घुझसे 
पूछनेवाला तू कौन है? जो कुछ द्रुड घुके देना हो, खशीसे 
सकता है !” 


सलहवा पाोरच्छद । 
६६ 
मन्दिरसे डेड कोसपर 
समय, बाबाजीको कैदकर लेजानेके बाद लगभग दो घण्टे- 
का; और स्थान, उस मब्द्रिसे डेढ़ कोसपर । 
जिस जगह हमारी इस कथाको अधिकांश महत्वपूर्ण घट- 


नाए' अबतक पाठकोंको द्ृश्गिोचर हुई हैं, उसी हसुमानजीके 


मन्दिर्से लगभग डेढ़ कोखपर अब हमको चलना है। जिस 

स्थानंपर हमको जाना है, बह स्थान बिलकुल जड़्लमें-- 
पहाडइुकी घराईमें--दो ऊ'ची ऊ'ची पहाड़ियोंके बीचकी घाटीमें, 
अवस्थित हैं। इस स्थानमें पास ही पास दो मोपड़ियां हैं; .. 
परन्तु उन फोपडियोंम मनुष्य हैं, अथवा नहीं, सो मालम नहीं 
होता। चारों ओर बिलकुल खुनसान है। इन फोपडियोंके 


अतिरिक्त कोखों आंसपास मनुष्यबस्तीके कोई चिह क्रहीं 


दिखाई नहीं पड़ते। ओर इस समय, जबकि हम वहां' देख 


रहे है, तब तो यह भी निम्वयपूवेक नहीं कहा जासकता कि; 


इल दोनों कोपड़ियोंमें भी कोई है, अथवा नहीं। बस्तीका 


! मान्द्रिसें डेढ़ कोसपर है 
| छः 





अनमान सिफे एक इसी बातसे होसकता था कि, वहां कोप- 
ड़ियां बनी हुई थीं; ओर बिना हाथके भोपड़ियां बन नहीं 
सकती थीं । इस समय वहां इतना खुनसान था कि, एक 
उड़ते हुए घुम्धूके मोटे पंखकी फड़फड़ आवाज़के अतिरिक्त, 
अथवा दूरपर गिरे हुए सूखे पत्तोंमें दोड़नेवाले किसी जीव- 
जन्तुकी मर-मर आवाज़के अतिरिक्त ओर कुछ भी खझुबाई नहीं 
देता था। हाँ; उपयुक्त आवाज़ोंके अतिरिक्त एक आवाज़ 
वहां ओर भी खुबाई देरही थी, ओर वह थी उन दो भोपड़ियों- 
मेंसे एक फोपड़ीमें किसीके खुर्ण' टे भरनेकी - आवाज़ ! कोपड़ी- 
अन्द्र निगाह पहुंचाना बिलकुल असम्भव था; क्योंकि यारों 
ओर अत्यन्त घना अन्धकार छाया हुआ था। किन्तु खुश टे 
भरनेकी आवाज़ काफ़ी आरही थी। हां, दूसरी भोपड़ीसे 
सिवाय सन्नाटेके ओर कोई भी आवाज़ कानोंमें नहीं 
एड रही थी। जिस भोपड़ीसे खुर्श'टेकी आवाज़ आरही थी. 
ओर जिस मकोपड़ीसे कोई भी आवाज़ नहीं आ रही थी-- 
दोनोंके दरवाज़े बन्द थे। एकका भीतरसे ओर दूसरीका 
बाहरसे | 
' मोपड़ीमें सोनेवाले मनुष्यके खुर्य थे भरनेकी आवाज़ बिल- 
कुल ताल-छुरखे आरही थी। इतनेमें फोपड़ीसे छगभग बीख- 
पच्चीस कदमपर पहाड़ीमें ऊपरकी ओर एक कोनेसे कुछ उज्ञेले 
का आभास दिखाई दिया। उजैला मशालका था. और वह 
मशाल एक भजुष्यके हाथमें थी। वेह मनुष्य पहाडीकी एक 





उचाकाल कै 


“क्यएड्का- 
छोटीसी गुफा था; और एक अधेबृताकार छिद्र जो वहांसे 
दिलाई देशहा था, उसीसे अपना सिर निकालकर धघीरेसे भांक क्‍ 
रहा था। “जीवा! जीवा !” पुकार करके उसने दो-तीन 
आवाज़ भरी दीं; परन्तु कोई बोला नहीं । फिर उसने “जीवा! 
रे जीवा !” करके ज़रा ज़ोरसे पुकारा; ओर शीघ्र ही बाहर आ. 
करके भीतर गुफाके अन्द्र फिर फांका; ओर पीछेक्नी तस्फ 
फिसीसे पूछा कि, “आगये न” उसे उसका अभीष्ट उत्तर 
मिल गया; ओर उसने मशाल बुष्मा दी। इसके बाद वह 
बाहरे आया हुआ मनुष्य उस झोपड़ीके पास गया कि, जहांसे 
खुर्य 2 भरनेकी आवाज़ आरही थी, और वहां जाकर उसने थे 
शब्द कहै--“जीवा । थरे ज्ञीचा | क्या मर शया, या जीता है ? 
ऐसे ही एहरा दिया करता हे ? दुछ कहींका !!” द 
द्वारके पाससे जब उपयुक्त शब्द ज़ोर ज़ोरसे झुनाई दिशे, 
तब जीवाका खुर्स टे भरना एकदम बन्द, होगया:ओर बह बिल 
कुल घबड़ाया हुआ उठा, तथा लड़खड़ाते हुए द्वारके पास 
आया। इसके बाद ये शब्द उसके मुखसे खुनाई दिये, “कोन! 
कोन ? येसाजी ? एँ ? ए ? ओर भी" '*” आगेके शब्द दर- 
.... वाज़ां खोलनेकी आवाज़में ही छुप्त होगये। भोपड़ीके बाहर 
जो व्यक्ति खड़ा था, उसका ध्यान भी उस ओर न्त था। 
द भीतरसे द्रघाज़ा खा; ओर छंगोटी सभालते हुए, क्‍ तथा 
शरीरके भिन्न भिन्न भाग; एकक्े बाद एक, खुजराते हुए. ओर 
घत्‌ तेरीकी | आज ऐसी नींदू आई!” कहकर पश्चात्ताप दिख 


| 
|; 
| 





। २३६ 2) 





( मन्दिरस डेढ़ कोसपर कि 
49-> बल 2 है च््य्य्ड्स्ल्ब्स्स््ऋ 








छाते हुए, एक काछा-कलूदा, जवान मसुषष्य उसके सामने 
आकर खड़ा होगया। जिसको उसने येखाजी कटटकर स्बो 
घन किया था, उस मजुष्यने तुरू्त ही उसे एक थप्पड़ जमा- 
कर एक ओर हटाया; योर बोला, “जीवा, तुझसे कितनी बार 
कहा, फिर भी तेरी आदत गहीं जाती। अरे | बेरे लिए यहां 
हो फोपडियां बनवाकर रहनेके लिए कहा गया है, सो क्या 
इसी तरह ? छुष्ट कहींका | यही तेरी ख़बरदारी हैं 

“खबरदारी” शब्दके सुनते दी उस द्रयाज़में खड़े हुए 
परगष्यक्ों बहुत वश छगा; और यह उंसकी सूरतसे रुपए दिखाई 
दिया | इसलिए वह फिर उद्यास होकर कहता हैं,. “ज़रूर भूल 
तो हुई सरकार |”? 

“थज्छा, कोई हरज़ नहीं | पर आगेसे ख़बरदाण रहो | आाओो 
और अपनो हमेशाकी जगहसे घोड़े मंगाकर खड़े कशोे। आज 
चार घोड़े खाहिए। वह यमाजी कहां गया ? यमाजञी १” 

ध्यप्ाओी अ्मी अनो घड़ीभरमें आता हूँ कहकर बला 
गया, पर अमो कोटा नहीं |. जाव पड़ता है, कहीं तमाशे- 

मैं फँख गया; भर जया ?? 

यपेसाओ फिए कुछ नहीं बोला। जीया फिर लेगोटी संभार- 

तुस्न्त हो कोपड़ीके बाहर निकला; और बातकों बांसमें 
न आने फियरका कियर गायब होगया ॥ डसके चले आनेपर 
थेसाओ पीछे छोटा; ओर शुफाके पास गया। घहां उसके पीछे 
पीछे गुझ्कासे तीन मंसुष्य आकर खड्ड हुए थे । उनसे उसने 














कहां, “अब यहां बहुत देशतक रहनेकी ज़रूरत नहीं है। ज्ञीवा 
उधर गया है। वह घोड़े तैयार करेगा । आप सवार हों। है 
ओर ये यहां रहेंगे । यमाजी आंजाय, फिर हम अगले प्रबन्धों 
लगें। आप ज़रा भी चित्ता न कर । श्रीधर खामीका यदि बाल 
भी बांका हुआ, तो दक्षिणमें स्लेच्छोंका नाम-निशान भी नहीं 
रहने दंगे--यह प्रतिज्ञा है !...... हां, अब हम लोगोंकों कोई न 
कोई किला बहुत जदद्‌ हस्तगत करके सारा बन्दोबस्त करना 
चाहिए, यह बहुत आवश्यक है। क्योंकि यह स्थान जंबंतक 
किसीको मालूम नहीं हुआ है, तबतक तो ठीक है। किन्तु यदि 
किसी अच्छे सरदारको पता लूग गया, तो सेंभालना मुशक्तिल 
होगा; ओर फिर बड़ी गड़बड़ी मचेगी। इस द्वारके लिए तो 
कोई भय नहीं | यह तो बातकी बातमें बन्द करके दूसरी तरफ- 


से. मिकला जासकेगा, पर उधरका क्या होगा ?” 


अब पाठकोंकों शायद्‌ यहांपर इस बातका कुछ अनुमान 
होगया होगा कि, उपयुक्त छोग कोन थे। हमारे उस हसन 
मानजीके मन्दिरके भरु हारेमें हमारा सिपाही जवान,णक अत्यन्त 
तेजखी नवयुवक ओर उसके दो साथी, तथा श्रीधर खामी-- 
इतने छोग उतरे थे। जिनमैंसे श्रीधर खामी उपनाम बाबाजो 
कुछ देरके बाद ऊपर आगये थे। आोधघर सखामीके ऊपर आ 
जानेपर उस मन्दिर्में क्या क्या घटनाए' हुई', स्रो पिछले दो 
परिच्छेदोंमें बताई गई' । श्रीधर खामी ऊपर आकर उन सर. 
दारोंसे भगड़ने छगे; ओर भीतर, भ्रुहारेके अन्दर, उन चारों 











आदमियोंमें बहुत कुछ इधर-डयरकी बात होसी रहीं। बे बातें 
अवश्य ही, ऊपरकी घटनाओंकों न जानते हुए ही, हुई' | उन 

ग्रेगोंको यह खप्तमें भी खयाल न था कि, हमारे बाबाजीके 
कैद हो जानेतककी नोबत आवेगो। मुखठपान सूबेदारोंका 
उस समय यह खयाल ज़रूर होगया था कि, हनुम्ानजीके इस 
मन्द्रिमें कुछ बागी लोगोंका अड्डा है; पर निश्चयात्मक यह 
कभी किसीको मालूम नहीं हुआ था कि, इस मन्दिरमें अप्ुक 
ही अप्ुक मनुष्य एकत्र होते हैं, अथवा अम्लुक लोगोंने अमुक 
जगह भगड़ा-फिसाद किया, अथवा डाका. डाला, इत्यांदि | 
हां, एक-दो बार किसी किसीको सनन्‍्देह अवश्य हुआ था, पर 
उस सन्देहकों मिटानेका कोई मार्ग न. था | क्योंकि इस बातका 
कुछ पता था ही नहीं कि, अमुर ही सम्यपर छोग जमा होते 
हैं, अथवा अप्ठुक ही लोग जप्ता होते हैं। इसके सिवाय, अभी 
इस बातकी आवश्यकता भी उनको मालूम नहीं होती थी कि, 
निगहवानीके लिए बराबर मनुष्य ही रख. दिये ज्ञायें। आस- 
पासके किलेदार लोग यही सोचते रहते थे कि, गाँवके यार-छे 
आदमी जिस प्रकार गप्पं मारनेके छिए अथवा खेल इत्यादि 
खेलनेके लिए किसी चोराहै या मन्दिरके मैदानमें जमा होजाते 
है, उसी प्रकार कुछ नवजवान वहां भी इधर-उचरकी गप्पें 
लड़ानेको कमी कभी जमा होजाते होंगे; ओर कुछ डपद्गव 
रचते होंगे; उनको चाहे जब दाब देंगे। हां, मराठे किलेदारोंके 
कानोंमें कमी कभी, इस मन्दिरमें होनेवाली बासोंका, अति- 




















द है, 'छषाकाल आप ९९५ २७० ८ 


_ रख्ित वणन पहुंचा करता था; परन्तु वह इतना अतिशयोक्त 
होता था कि सिवाय ज़ोर ज़ोरसे हसमेके ओर कोई सी महत्व 
उन्हें कमी मालूम नहीं होता था। प्रायः अधिकांशक! ख़याह _ 
यही था कि, कुछ आवारा छोकरे वहां जमा होकर इधर-उधर 
के उपदृव किया करते होंगे; ओर उसमें कोई महत्वकी बात 

नहीं । पुरन्‍्द्श्के किलेदारका तो पूरा पूरा यही खयाल था कि, 
यह छोकफरोंके हँसमे-खेलमेकी जगह है, और कोई वत्य नहीं | 
यह बात तो किसीको खप्नमें भी माह्ूप्त यहीं थी कि, इस 
मब्द्रिमें हवुमानजीकी घूसिके नीचे एक सुहारेका झुह है, जो. 
कि डेढ़ कोलपर कहीं जाकर निकला है, अथवा भीतर भञ हारे ल्‍ 
भवानीजीका एक भव्य मन्द्रि है, जहाँ अल्य-शस्त्र ओर विपुर्_ 
दृष्य इकट्ठा किया जारहा है। मालूम कैसे होता ! अच्चढ तो . 
अमी वह दशा ही नहीं आई थी कि, जिससे. ऐसी बातोंका 
किसीको खप्त होता । इसमें सम्देह नहीं कि, झुखठ्यानी अमढ- 
दारीके अनन्धित अत्याबाशेंसे सारी घज्ञा पीड़ित होरहो . 
थी; ओर प्रत्येककी हृदयसे यही इच्छा थी कि, कब पस्मात्मा 
वह खुद्न लछाबे कि, जब इस शासंनका अन्त हो; ओर हम 
इस कश्से छूट। परब्तु उस खुद्निके उदय होनेकी आशा, ल्‍ 
महाशघुके एक तेजी नवयुवकके अतधिरिक्त--ओर कुछ ऐसे 
नययुवकोंके अतिरिक्त कि, जिन्होंने उसके अत्यन्त निकट 
रहकर उसके प्राणोंके लिए प्राण देनेका क्षत छिया था-- 
ओर किसोके भी हृद्यमें ज्ञागृत नहीं हुई थो। यही नहीं 


खा 


मन्दिरसे डेढ़ कोस पर | 


'अकडटाआ « ४-- ऑरिक)डक "४०७, धपफअाक न. २० बा>न्यूजपदटा2डक 





बिक किसी दुद्ध मराठे मनसबदार अथवा क़िलेदारके 
कार्नोंमें यदि कमी यह बात पड़ती कि, “राजा शाहजी भोसले- 
का लड़का शिवबा मराठोंका खराज्य स्थापित करना चाहता 
है,” तो वह यही कहता कि, “वाह! वाह ! इस.छोकरेको भी 
कहाँकी खुकी है! जान पड़ता है कि, अपने पिताकी भी सारी 
कीरति और सम्पत्तिपर चोका छऊगाकर कुत्तेकी मोत मरना 
चाहता है !” मराठोंका स्वराज्य ओर मुसब्मानोंकी पराजय, 
दोनों बातें केवल असम्भव मानी जाती थीं। उस समय तो 
वहांके छोगोंका यही खयाल था कि, मराठोंको अब मुसव्मान 
बादशाहोंके ही द्रबारमें रहकर बड़ बड़े पद्‌ प्राप्त करने चाहिए--- 
कहीं किलेदारी, कहीं मनसबदारी, कहीं सरदारी प्राप्त करनी 
चाहिए; ओर जन्ममर “जी हुज़र, जी हुज़ र” करते हुए मुस- 
व्मानोंके दरबारमें राजभक्तिक्ता प्रद्शान करते रहना चाहिए । 
बस, यही उस समय एक परम्र पुरुषाथे समझा जाता था। 
हां, बहुत हुआ, तो बीज बीचमें ऐसी भी घटनाएं होजाया 
करती थीं कि, कोई सरदार, बादशाहसे पूछे बिना ही, कोई 
प्रदेश जीव लेता; ओर उसकी मालगुज़ारीका अधिकांश भाग 
एक-दो बार शाही खज़ानेमें भेज देता; ओर फिर मनमाने तौरसे 
खय॑ ही उस प्रदेशकी हुकूमत करता रहता | ऐसी ऐसी घटना- 
ओऑमें पूरी पूरी सफलता प्राप्त करना अथवा न करना प्रत्येककी 
गग्यतापर निभेर रहता था। जो मनुष्य जितना ही अधिक 
साहसी ओर शूरवीर होता, वह उतनी ही सफलता भी पाप्त 








हे उषाकाल है 


५9 ७8७) (००३१-०७) 





करता था। ढीले-ढाछे आदमीसे कोई भी काम कभी हो ही 
नहीं सकता। यही हाछ उस सम्मय भी था| अस्तु । इच्ची 
प्रकारकी सम्पूर्ण अवस्था होनेके कारण, डस समय हमारे 
हलुमानजीके मन्दिरमें जो छोग एकत्रित होते, और जो कुछ 
विचार अथवा कार्य वे करते, वे सब उपयुक्त लोगोंको बिल 
कुल तिरस्कार ओर उपेक्षाके योग्य मातम होते थे, और थे. 
उन लोगोंकी नज़रमें विशेष रूपसे नहीं आते थे। इसमें 
सन्देह नहीं, नदीका उद्गम बहुत छोटा होता है, और फिर 
आगे चलकर उसरीकी यहुत बड़ी नदी बन जाती है । परन्तु यह 
बात किसीके ख़यालमें कैसे समा सकती है कि, प्रत्येक जगह- 
से, जहां जहांसे छोटे छोटे स्रोत निकलते . हैं, वहां वहां, समी 
जगहसे महानदीका ही उद्गम होगा ? पर्वत और पहाड़ियों- 
पर न जाने कितने छोटे छोटे करने व्यर्थ ही चले जाते होंगे! 
ऐसा भरना तो शायद ही कोई होता है कि, जो सब रुकावटों 
को दूर करते हुए, और दूसरे ऋण्नोंकों भी अपनेमें मिलाते हुए 
बराबर ज़ोर ही बांधता जाता है, और थोड़े ही अवकाश 
महानदीका प्रचएड खरूप धारण करके मुष्यमातरका कष्ट-हरण 
करते हुए सबको शीतल करता है.। बल, राजा शाहजी भोसडे 
के वेटेका प्रयत्न भो ऐसा ही होगा, सो किसी बडे सरदार 
अथवा क़िलेदारके ध्यानमें उच सम्रय नहीं. आया; और उस 


सम्पको परिस्थिति, जैसो ऊपर बंतराई गई, उसको देखते 
हुए ऐसा होवा खाभाविक ही था | 








आप अप २ 


बे 





हि हक 2 े्व्ड्र्ड्व्ल्प््व्स्त्ल 


जबसे कि हमारे कथानकका प्रारम्स हुआ, राजा शिवाजी 
(वे अमी महाराज नहीं हुए थे ) ओर उनके छँगोटिये मित्रोंके 
मनमें यह प्रवछ इच्छा होरही थी कि, कोई न कोई क़िला हमारे 
कव्ज़ेमें अवश्य होना चाहिए--बास्तवमें इस बातकी अब 
उन्हें आवश्यकता ही मालूम होने लगी थी। आजवछ श्री- 
भवानी माताकी छृपासे द्वव्य और अल्य-शख्रकी सामग्री काफी 
एकत्र होचुकी थी; परन्तु अबतक इन दीज़ोंके रखनेकी जगहें 
जितनी सुरक्षित समझी जाती थीं, उतनी ही खुरक्षित आगे भी 
वे बनी रहेंगी,इसमें सन्देह था। इसके अतिरिक्त अनुयायियोंका 
गिरोह भी दिन दूना-रात चोगुना बढ़ रहा था। ऐसी 


दशामें राजा शिवाजीके मनमें यह विचार भी आने छगा कि, 


अबतक जितने प्रकारके पराक्रम किये हैं, उनकी अपेक्षा श्र छे 
ओर विशेष साहस तथा चीरताके प्रयल करनेका अवसर अब 
आगया है; ओर ऐसे प्रयत्नोंके शुरू होजानेपर हमारे गिरोहकी 
परीक्षा भी भलीभांति होज्ञायगी। येसाजी ओर तानाजी 
उनके मानो दो हाथ ही थे | उनको भी उपयु क्त वियार पसन्द 
आया था। अतएव आज दूस-बारह दिनसे यही सलाह-मशविरा 
होरहा था कि, पहलेपहल किस क़िलेकी ओर दृष्टि रखी जावे। 
कोई द्स-पन्द्रद दिनसे हनुमानजीके मन्दिरिके नीचे, सवानीके 
मन्दिरमें, बैठकर वे लोग यही विधेचन किया करते थे कि, कोन 
किला कितना सुरक्षित है, तथा किसमें कया क्या शुण अथवा 
अवशुण हैं। खय॑ राजा शिवाजी, तानाज़ी, येसांजी ओर 











2 उधाकाल न्‍ . 
४ 


 , है ० &। 





श्रीधर खामी, इन चारोंको दक्षिणके क़िलोंका पूरा पूरा परिज्ञान 
था। किस क़िलेपर कौन कोनसी सुविधाएं अथवा अखु- 


विधाए' हैं, इस विषयमें उनको इतना परिज्ञान था कि, खय 


उनके किलेदारोंको भी उतना परियय होगा, अथवा नहीं, इसमें 
सन्देहं था। अब वे छोग इसी बातका विचार कर रहे थे कि 
आज दिन हम किस क़िलेको सहजमें प्राप्त कर सकते हैं. और 
अपना खज़ाना यदि हम मन्द्रिके भरुहारेसे उठा लेजावे तो 
ऐसी कौनसी जगह होगी कि, जहां वह सुरक्षित रह सकेगा | 
जिस रातको हमारे सिपाही जवानके साथ राजा शिवाजीका 
परिचय कराया गया, उसी शातको कुछ देर बाद उपयुक्त 
विषयमें कोई न कोई निश्चय होनेवाला था; किन्तु जैसाकि 
ऊपर बतलाया, बीचमें विज्च आगया; ओर श्रीधर खामीको 
ऊपर जाना पड़ा । फिर इसके बाद क्‍या हुआ, सो पाठकोंको 
मालूम ही है । 

बहुत देर होगई, जब देखा कि, श्रीधर खामी अभीतक नीचे, 
भुद्धारेमें, उतरकर नहीं आये, तब सबको खाभाविक ही चिन्ता 


: उत्पन्न हुई। छोगोंने सोचा कि, अवश्य ही श्रीधर खामीपर 


कोई संकट आया | येसाजी तीन बार ऊपरके दरवाज तक आकर 
आहट लेगये । पर सिवाय इसके कि, ऊपर कुछ गडबड़सा 
होरहा है, ओर कोई समाचार उन्हें विद्त नहीं हुआ। चोथी 
बार तानाजी आये; और आहट ली, उस समय बिलकुल सुन- 
सान.था। उनको बड़ा आश्चर्य हुआ, ख़ब ध्यानसे उन्‍होंने 











| सके कद कोपर, डेंढू- कोसपर: 








>कदी--कदो, नीच कस३ 


बार बार आहट ली, पर कुछ भी मात्दूम न हुआ। अन्‍्तमें जब 
इधर-उधर देखा, तो एक खज्जर उस द्वाएकी. द्रारसे भीतर 
चुभा हुआ दिखाई दिया, जिसके सिरेपर एक फूछ टोंचा हुआ 
था। तानाजी इस संकेतको सम्रक गये; ओर तुरन्त ही 
अन्य छोगों को जाकर समाचार दिया। इस खसंकेतका आशय 
यही नियत था कि, अब सीधे रास्तेसे न जाकर दूसरे रास्तेखे 
जाओ, क्योंकि सीधे रास्तेसे जानेमें ख़तंरा हे। बस, इसी 
संकेतके अनुसार कार्य करना निश्चित हुआ, परन्तु तानाजी 
एक बार फिर ऊपरकी ओर मन्दिरमें गये; ओर बहुत ही सघ 
सधकर आहट लो। इससे उनको मालूम हुआ कि, श्रीधर 
खामी पकड़े हुए जारहे हैं। अतः वे फिर नीचे चले भाये । 
वहां आकर उन्होंने अन्य छोगोंको वह खारा समाचार दिया; 
और आगेकी कार्यवाहीका निश्चय करके चारों मनुष्य, अं हारेके 
दूसरे मार्गसे, जोसा कि इस परिच्छेदके प्रारस्ममें बतलाया है,उस 
गुफाके मुँहपर गये। यह सारा मार्ग भीतर ही भीतर भु हारेसे 
गया था; ओर ख़ ब मुड़ता हुआ जाकर उक्त शुफासे बिकला 
था। मार्गमें कोई विशेष घटना नहीं हुई । उस दूसरे द्वारपर 
जाकर क्या हुआ, सो ऊपर बतलाया ही है। क्‍ 
जैसे कोई बड़ा भारी. काछा पहाड़ी चूहा हो; ओर उसे 
पहाड़ोंमें इधरसे उधर कूदते हुए कोई कठिनाई मालूम न हो, 
पैसा ही हाल हमारे जीवाका भी था। . वह विचित्र चपलताके 
साथ उछलता-कूदता हुआ चला जाता था। जेसे कोई काला 





हिरन व्याघरसे पीछा किये जानेके कारण तीरके समान नीचेसे 
ऊपर चला जाता हो, उसी प्रकार जीवा भी, इस बातका ज़रा 
भी विचार न करते हुए कि, हमारा पैर कहां पड़ता है; ओर 
कहां नहीं पड़ता, बराबर ऊपरकी ओर चढ़ता. चढा जाता था। 











न्‍ 


वह पहाड़की चढ़ाई क्या चढ़ रहा था--ऐसा जान पड़ता था 


कि, जेसे किसी ज़ीनेकी सीढ़ियां चढ़ रहा हो ! इसके सिवाय, 
वह बारम्बार सोचता जाता था कि, देखो, हमसे कभी चूक नहीं 
होती थी; ओर आज चूक गये। यह सोच सोचकर वह 
उदासीनसा होरहा था। पर साथ ही उसके मंनको यह उत्सु- 
कता भी थी कि, जबकि आज हम ऐसा चूक गये, तो आज 
हमको, कोई न कोई विशेष सेवा करके, येसाजीकों खुश करना 
चाहिए, जिससे वे हमारी उक्त चूकको भूल जावें। बस, इसी- 
लिए आज़ वह ओर भी विशेष तेज़ीसे चला जारहा था। जीवा 
एक सीधा-सादा 'हेटकरी' जातका आदमी था | उसे अत्यन्त 
सांहसी ओर सच्चा समफकर येखाजी ओर तानाजीने, अभी थोढ़े 
हो दिन. पहले, दक्षिण कोकनसे बुलाया था। उसीके साथ 
उसका चचेरा साई यमाजी भी था | उसको भी अत्यन्त साहसी 
ओर ख़ब मज़बूत देखकर बुलाया था। राजा शिवाजीने अभी 
हालहीमें कोकनकी ओर एक धावा किया था|... उस समय 
इन दोनोंका. साहस देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए; और अपने 
साथ देशको लेते आये । यहां. छाकर उनको. दो काम साँपे 
ग्रये थे। एक तो अंहारेके मुखपर पहरा देनेका काम;ओऔर 


७ २४७७ /2 





दूसरा आखपासके किलोंपर जाकर, कड़ी बेवनेके बहाने अथवा 
अन्य किसी निम्मित्तसे, सब ख़बरें लेते रहना । इस दूसरे कामके 
लिए जीवाजी बिलकुछ बेकार था। परन्तु यमाजी इस फ़ाममें 
बड़ा चतुर ओर चालाक था। वह तरह तरहसे भेष बनाकर 
आसपास, द्स-बीख कोस अथवा ओर भी अधिक इर्देगिदमें 
घूमा करता; ओर सब प्रकारकी खबरें लाता रहता था। 
अस्तु | जैसाकि ऊपर बतलाया, जीवा बराबर पहाड़ीपर 
चढ़ता गया; और दूसरी ओर जाकर डतरा। वहां तराईमें 
जाकर उसने एक बार, दो बार, तीन बार सीटी बजाई। 
खीटीकी आवाज़ खुनते ही रँगोटी छगाये एक दूसरा बारगीर' 
सामनेकी, गुफाके समान, एक जगहसे दोड़ता हुआ आया । 
जीवा उसके कानमें लगकर कदता है, “चार घोड़े तैयार करके 
लछाओ। अमी यहां लोग आवेंगे। सवार होकर पूनेकी ओर 
जायेगे, शायद्‌ !” जिससे यह सन्देशा कहा गया, वह एक क्षण- 
भर भी नहीं ठहरा; ओर न कोई अन्य वात पूछी ॥. वह जहांसे 
निकला था, उसी, गश॒ुफाके सदह्ृश, द्वाससे भीतर चला गया। 
उसके पीछे यदि हम भी जाकर देखे, तो हमको पहले एकद्म 
अंधकार ही दिखाई देगा। परन्तु एक-दो मोड़ोंके समाप्त होते 
ही फिर चार-पांच दीपक जलते हुए दिखाई देंगे; और फिर रूग- 
भग चालीस-पचास धोड़ोंकी एक घुड़लाल दिखाई देगी । वहां 
कुछ तो काठियावाड़ी | और कुछ :अन्य उत्तम: जातिके घोड़े 
बकायदा चैंथे थे। सब घोड़े ख़ब मज़बूत-पुष् थे। लेँगोटी 


फ्‌ 











कि, कई घोड़े अपनी अपनी गदेनें मोड़कर उसकी ओर एक्क ही 
दृष्टिसे देखने छगे । हमारे बारगीरने दो-चार सखाईसोंके नाम 
लेकर उनको पुकारा; ओर चार घोड़ोंके नाम लेकर उनको: 
तैयार करनेका हुक्म दिया। हुक्म पाते ही वे यारों साईस 


: अपने अपने घोड़ोंके पाल गये; ओर जीन इत्यादि कसकर घोड़े. 


तैयार किये। उन घोड़ोंकोी मानो यह अभिमान हुआ कि, इतने 
सब घोड़ोंमैंसे उन्हींकोी किसखो विशेष महत्वपूर्ण सेवाके लिये 
चना गया. और इसकारण वे सब विशेष उत्सछुकताके साथ 
अपने अपने पैर उठाकर चपलता दिखाने छगे । घोड़े ज्यों ही 
तैयार हुए, त्यों ही बाहर निकाले गये; ओर जीचाजीके बतलाये 
हुए स्थानकी ओर चलाये गये । चलते हुए उन साईसोमेंसे 
एकने खामाविक ही पूछा, “जीवाजी, अरे आज किस तरफ 
धावा है ? देखो, घोड़े भी क्या ही चोकन्न होरहे हैं !” 
जीवा कहता है, “भरे, तुकको इससे क्या मतरूब ! हम 
लोग तो हुक्‍्मके ताबेदार हैं। ओर बातें जानकर हमको क्या 
करना? 
जीवाजीका रूखा उत्तर पाकर फिर साईसोंने कुछ नहीं 
पूछा। चुपकेसे वे लोग अपना अपना घोड़ा नियत स्थानपर ले 
गये | तबतक जीवा आगे ही जाकर वहां खड़ा होगया था । 
. जीवाने आकर यह सब प्रबन्ध किया; ओर इसमें अम्ी दो 
घड़ी भी नहीं हुई थीं कि, 'इतनेमें हमारा. युवक सिपाही 











२४६ ४2 


तानाजी और वह नवयुवक तेजस्वी. पुरुष--ये तीन महुष्य 


पहाडपरसे उतरते हुए दिखाई दिये। हमारा सिपाही जवान. 
ग्रवि उन दोनों के समान शोब्तापूतेक (नहीं उतर सकता था; 
परन्तु फिर भी उसने जहांतक दोसका, अपनी. हेठी नहीं 
दिखने दी। तथादि उन दोनों व्यक्तियोंके ध्यान्में वह बात 
आहीगई। परन्तु वह पहाड़ी प्रदेश हमारे युवक सिपाही - 
के लिए बिछकुल अपरियित था।. ऐसी दशामें उसके उतरने- 
चढ़नेमें यदि्‌ कुछ न्यूनता दिखाई दी, तो . कोई धाश्यर्यकी बात 
भी नहीं थी। अस्तु। वे तीनों ज्यों ही. पहाइपरसे उतरकर 
आये, त्यों ही तीन साईसोंने घोड़े आगे किये | उस तेजस्त्ी 
नवयुवकते एक बार उन धघोड़ोंकी ओर दृष्टि. डाली। इसके 
बाद एक घोड़ेकी ओर देखकर कहा, “बेटा, चल, तू. ही. आज 
मुर्े छे चछ ।” यह कहकर तुसत हो उछलकर उसपर सवार 
हुआ। फिर उसने एक. घोड़ेको ओर इशारा करके हमारे 
सिपाही जवानको उसपर सवार होनेको कहा | शेष दो घोड़ों 
मैंसे एकपर तीसरा महाशय सवार हुभा।. इसके वाद यह 
तीसरा महाशय जीवाकी ओर देखकर कहता है, “तू थोड़ी देर 
चोथा घोड़ा रखकर यहीं खड़ा रह । .येसाजी अमी आवेंगे। 
आज राजा साहबने तुझे क्षमा किया है; परन्तु फिर कभी यदि 
इसी प्रकार गाफिल दिखाई दिया, ती'''ट हा 


_ आगेके शब्द पूरे भी न. होने पाये थे कि, इतनेमें उस तेजस्वी 
नवयुव॒ंकने अपने घोड़ेको छोड़ दिया। डसकी एक ओर बह 


श्ै 


>> फेक 








युवक सिपाही ओर दूसरी ओर तानाजी तुरन्त ही रवाना हो- 
गये। साईस ओर जीवा, सब दांतों तले उँगली दबाये, अवस्े- 
में आकर देखते रहगये । 
इधर येसाजी उस पहाड़ीकी दूसरी ओर, उपयु क कोपडीके 
पास ही, खड़े थे। उनके मझुख-मए्डरूपर कुछ चिन्ताकीसी 
मलक दिखाई देरही थी, जेसे किसीकी पतीक्षामें हों! 
वास्तवमें वे यमाजीकी रास्ता देख रहे थे। अन्तमें यम्ाजी 
आया। येसाजी उससे कुछ पूछनेहीवाले थे कि, इतनेमें: 
वह खयं ही कहने लगा, “सरकार ! आप यहां ! अच्छा हुआ, 
जो आपकी मेंट होगई | में आपसे मिलनेके ही विचारमें था|” 
“क्या १ क्‍या ? ऐसा क्‍या महत्वका काम है? कोई विशेष 
खबर ! मातम होता है, पुरन्द्रकी ओर गया था? क्या हाल- 
चाल है उधरका ?” 
“खुना है कि, राजा शहाजीका पत्र आया है, उसमें आप- 


की इस खब कार्यवाहीके बारेमें बहुत कुछ लिखा है, और उसमें: 


शायद्‌ ऐसा भी कुछ लिखा है कि, इन सब बातोंके बन्द करने-. 
का जहांतक होसके जल्दी ही प्रयल्ल कंरना चाहिए ।” 

“बस | इतना ही तो १ अच्छा, देखा जायगा। मैंने समझा, 
शायद्‌ बीजापुर इत्यादिकी तरफ़्से . किसी सखंरदार इत्यादिके 
चलनेकी ख़बर लाया हो ! उसे पत्रमें क्या है, सो सब में बातकी 
बातमें समझ लूगा; ओर आवश्यकता होगी, तो पत्रतक मँगा 
ल्य्गा । इसके सिवाय उसमें येदि कुछ होगा भी''*'*'शआगे 





५५ २५१ ८८ 4 सन्दिस्से डेढ़ कोसपर 
हि व्च््च्ह्व्व्क्स्स्य्कर 





छ भी न कहकर उन्होंने अपनी जीभ दांतों तले दबाई | ज्ेसे 
जो कछ वे कह रहे थे, सो कहना नहीं चाहिये था, यही समभ्त- 
कर उन्होंने ऐसा किया । इसके बाद वे कुछ समयतक 
विचाय्मगसे दिखाई दिये। किन्तु फिर थोड़ी ही देश बाद ये 
उससे कहते हैं :-- 

“यमा, आजतक तूने जो सेवा बजाई है, सो में जानता 
ही है। तेरा चातुर्य, तेरी कक्तेव्य-दक्षता ' राजा शिवाजीके 
ध्यानमें भी आगई है। ओर मोका आनेपर तुके इनाम भी 
अच्छा मिलेगा । किन्तु आज तुझे ओर एक विशेष कारये बत- 
लाता हूँ। चह कार्य यह कि, हसुमानजीके मन्द्रिके उन बाबाजी- 
को तू जानता ही है, उचबको आज एक मराठे सरदार और एक 
मुसव्मान सरदारने क़ैद कर छिया है, सो तू अभीका अभी 
जा; और उनपर नज़र रख । जो कुछ खबर हो, समय सम्रयपर 
बतलाते रहना | वाबाजीकी जानको यदि कुछ खतरा हो, तो तू 
जो चाहे सो करना,पर मुझे ख़बर ज़रूर देना। ओर यदि ऐसी 
कोई बात न हो,तो सिफ़ उन दोनों सरदारोंपर नज़र रखना ओर 
जो हालयाल हो, हमको बतऊाते रहना | तीन दिनके अन्दर में 
उनको छुड़ाकर रह गा। जा; और डस भोंदू जीवाको इसका 
पता बिलकुछ न लगने देना | जा, बहुत जल्द यहांसे | घबड़ाना 
बिलकुल नहीं । ज्यों ही तू यहांसे गया, मे पहाड़ी चढ़ना शुरू 

रूगा। | 0० 
यह सुनकर यमाजी तुरन्त ही अपनी भोपड़ीमें गया। 








4 4 उपाकारू & 





अभी सिर्फ दूस-पन्द्रह मिनट हुए होंगे कि, इतनेमें पैसोंमे 
घ घुरूु इत्यादि कनकाते हुए ओर हाथमें डफ छेकर उंसपर 
थाप मारते हुए, कंध्ेपर फोली इत्यादि डालकर तथा चेहरेपर 
सिन्दूर इत्यादि छगाकर वह जोगिव बनकर निकल पड़ा, 
ओर येखाज्ञीकों राम राप्र करते हुए वह मंद्रिकी ओर चल- 
दिया। येसाजी उसकी ओर हास्यप्ुखसे कुछ देशतक देखते 
रहे | फिर उसके दृष्टि-ओट होते हो पहाड़ो चढ़ने छगे | 
पहाड़ी चढ़कर अभी वे बहुत दूर नहीं गये थे कि,इतनेमें कुछ 
हरकरें उल्होंचे. चारों ओर चरज्ञेर डाली; ओर एक दीघ निःश्वास 
गीड़ा | यह निःश्वास किस दुःखर विचारके कारण उनके अन्द्रसे 
निकला, इसका कुछ अनुमान करना सहज नहीं था। उस टम्बी 
सांसके छोड़नेके बाद लगभग आधी घड़ीतक वे बैसे ही खड़े हुए 





बिलकुल तिरच श्य-हृश्टिसे किसी ओर देखते रहे; ओर इसके 


बाद फ़िर उन्होंने अपना चढनेका सिलसिला ज्ञारी किया। 
नवयुवक येलाजोके मतमें इस समय जो विवार आरहे थे 


.. उनको ज़ाननेका इस सप्रय यदि हमारे पास कोई साधन होता, 


तो क्‍या ही अच्छा होता। हमको पूर्ण विश्वास है कि, उस 
समय:उनके मनमें जो विचार आरहे थे, वे कोई न कोई अत्यन्त 
उदासीनताके थे | यह देश, जो सचघुव आज मशठोंके अधिकारमें 
होना चाहिये था, मुसव्मानोंके हाथमें चछा गया है--फिर इस 
ज़द्मी राज्यकी हम प्रशंसा करें | दास्यभावमें आकर राजभक्ति 
ओर स्वामिभक्तिक्के गीतः गावें |! जैसाकि हमारे 'शिवबा'के 





आ्इा ८ 


न मन्दिरस डेद कोसपर 
>्कीकि-काक ०६९०-०:२० ९७७८-३७ सेट का 








मना आया है, क्‍या कभी सी हमारे हाथोंसे--कमसे कम 
_ इस प्रान्तका उद्धार होगा? अवश्य होगा । होगा ओर जददी 

होगा। राजा शिवबापर भवानी माताकी सच्ची हरपाहै। 
बिलकल लडकपनसे में देखता हूं । हम लोगोंके खेलमें भी हार कभी 
उसे हुई ही नहीं | ओर आज दो-चार वर्षसे तो हम छोग पराक्रम- 
के ही कार्यों में छगे हैं। इसमें भी निष्फठता कभी नामको सी 
नहीं आने पाई | निष्फछताके लिये उसका अवतार ही नहीं हुआ। 
कदापि नहीं, सफलताहीके लिये उसका अवतार हुआ है। 
उसके हाथसे यह महान का पूण-कशानेके लिये ही भवानी 
माताने उसे जन्म दिया है, इसमें तिलमात्र भी शंका नहीं | अब 


हमने किछा छेनेका इरादा किया है, इसमें भी सफलता होगी या 


नहीं, इसकी उसे बिछ॒कुछ चिन्ता नहीं । वह तो कहता है कि 
चाहे जिस किछेको हम बातंकी बातमें लेसकते हैं। 
लगता है, तो हमींको। इतनी अवस्थामें इतना खाहस ओर 
इतना चातुर्य भवानी माताकी कृपाके बिनां हो ही नहीं सकता । 
बस, इसी प्रकारके कोई न कोई विचार उस समय येसाजी - 
मनमें आरहे थे। उनके घीर ओर उदार हृदयमें उस समय 

और विचार आ ही कोन सकते थे ? अपने उन विचारोंके जोशमें 
ही वे बड़ी तेज़ीके साथ ऊपर जारहे थे |:कुछ ही समय बाद 
वे दूसरी ओर जा उतरे। परन्तु जीवा जिस ओर खड़ा था 
उस ओर पहले वे नहीं गये--किन्तु पहले वे घुड़लालकी ओर 
गये. और वहां जाकर एकबार सारे घोड़ोंका उन्होंने भलीभांति 





|] 






9... 





हि. लि॥ ७ हु हर । .. हे ब्‌्छु 4) 
्य्क्कााओ | पक कक जप 


निरीक्षण किया, फिर घ्‌ ड्खालके अधिकारीसे जो कुछ पूछना 
था , सो पूछा; ओर जो कुछ कहना था सो कह्ा-- इसके बाद्‌ 
फिर वे वहां आये, जहां उनके छिय्रे जीवा घोड़ा लिये हुए 
खड़ा था। जीवासे फिर गाफ़िड न रहनेके छिपे ताऊोद्‌ की, 
ओर पहलेके तीन सरदारोंकी तरह थे भी फिर घोड़ा बढ़ाकर 


वहांसे चल दिये। द 
अठारहवां परिच्छेद । 
जज अफीी ०2.2) था अप ---++ 


र्यासाने क्‍या किया ? हि 

छुभान गड़बड़में पड़ा, श्यामाने उसके हाथते गिरा हुआ 

काग़ज़, बड़ी चपलताके साथ, तुरन्त उठा. लिया; ओर वहांसे 

लम्बा हुआ, से सब पाठकोंको याद ही होगा-यही नहीं, 

चढिक अब वे यह जञानमेक़े लिए उत्छुक भी होंगे कि, श्यापाका 

फिर क्या हुआ; ओर उसने उस कार जको क्या किया, इत्यादि । 

अच्छा, आश्ये, अब हम उसके पीछे पीछे चलें, जिससे हमारी 

वह जिज्ञासा पूर्ण हो। श्यापा, एक चपलताकी भानो छोटी- 

; ... सी मूत्ति ही था, सो पाठकोंकों अबतकके उसके तत्तान्तसे 
मालूम ही होगया होगा। उस मुसत्मानको घता बताकर 

लिफाफै सहित वह वहांसे पो-बारह हुआ, और बराबर ए्कली 
चाल रखकर सरी दोपहरीमें 'वह धारगाँव जापहु बा। इसी 















या इ्यास ने क्या किया # 
न्मीजीःन्‍पोशेए पुएन नहा फब्बब- ९5८73 के ८": धाणा हक; 


गाँवमें जाकर वह लिफाफा उसे देगा था। लिफाफा. इस 

दंगसे देना था कि, वह मुख्य मालिकके अतिरिक्त और किसी 

के हाथमेँ भी न जाबे। श्यामाके हाथसे उसका दूसरेके हाथमें 

जाना बिलकुल ही असम्भव था--ओर कोई होता, तो बात ही 

दूसरी थी। हां, उसके सामने अब यही श्रश्व थाकि, वह ' 
लिफाफा मुख्य मालिकके हाथमें किस ढंगसे जावे कि, जो 
किसी दूसरेको मालूम सी न होने पावे। आमकी खीमापर 
पहुँचकर श्यामा कुछ देरके लिए बाहर ठहर गया। उसने 
सोचा कि, देशमुखके घरमें शायद्‌ हमको पहचान लेंगे; ओर 
पूछ-तांछ करेंगे कि क्या है, क्या नहों, इसलिए हमको बड़ी 
सिताबीके साथ जाकर अपना काम करना चाहिए। श्स 
प्रकार वह क्षणसर विचार करता रहा। बात यह थी कि, देश- 
मुखके मह॒लोंमें वह एक-दो बार नहीं, कई बार गया था, इस 
लिए वहांके सब छोग उसे पहचानते थे। अतणएव डसके नन्‍्हेसे 
शरीरका गम्भीर मन अब कुछ कुछ इसी वियारमें ऊलूगा था कि, 
अखली जगहतक ख़बर कैसे पहुँ चावें; ओर वह कोनसी युक्ति 
करे कि, जिससे बीचमें कुछ पूछना ही न पड़े--ओर यदि 
पूछना भी पड़े, तो कोई बात ख्‌ छने न पावे--ओर हमारा काम 
ठीक ठीक निकछ जाय। वह एक बहुत ही तेज़ लड़का था, 
अतएव बातकी बातमैं, उसने, अपने उपयु क्त विचारोंके विषयमें 
जो कुछ निश्चय करना था, सो कर लिया; ओर सीधा देशमुख- 
के महलोंका, रास्ता पकड़ा! वहां जाकर क्‍या देखता है कि, 











। १५१६ &£ 


*७७४७४०-मं॥९ -पइ्हल-नबुफ- 





सारे गाँवमें चारों ओर पकड़-धकड़ ओर भगदड़ मची हुई है 
जिसको देखिये, वही बड़ी तेज्ञीसे भागा जारहा है।- घरोंके 
छोग बहुत ही घबड़ाहटमें हैं; ओर अपनी अपनी छतोंकी खिड़ 
कियों इत्यादिसि अत्यन्त उदासीनतापुवंक देख रहे हैं। “प्य 
हो क्या रहा है, सो कुछ श्यामाके ध्यानमें न आया। कई ई 
. भागनैवालोंसे उसने पूछा भी कि, यह क्या बात है; पर किसीने 
.. डच्तेर न दिया; ओर दो-एकने द्या भी, तो अत्यन्त विचित्र[ ४ 
... शकेने कहा, 'तिरे बापकी बरसी है।” दूसरेने कहा, “तेरी मा- 
की छठी है !” श्यामा बेचारा बड़े गड़बडमेँ पड़ा; और इधर 
* बे परन्तु ज्यों ज्यों वह देशमुखके महलोंके 








यह बात क्‍या है ? अबतक तो वह इसी चिन्तामें था कि, यह 
पत्र सीधा देशमुख साहबके हाथमें केसे पहुंचेगा; ओर यहां 
यह' हाल दिखाई देरहा है! देशमुखके महलोंके आसपास इतनी 
भीड़ क्‍यों है? सोचता हुआ वह चालाक लड़का कुछ ओर 
आगे बढ़ा--इस आशासे कि भलीभांति निरीक्षण करनेसे, और 
कान छगाकर सुननेसे, जो कुछ होगा, सो मालम हो जायगा 
और उसकी यह आशा किसी अंशर्मं सफछ भी हुई। क्योंकि 
उसी देश आगे घुसकर उसने देखा कि, देशमुखके महरोंको 
सशस्त्र मुसलत्मान लिपाहियोंने आ घेरा है;ओर महलोंके 
अन्दर भी मुलत्मान लोग, हथियार ढिये हुए, घुसे हैं। कोई 





(्‌' इयामाने क्या किया - / 
० 0३-84" व्च्स््व्ल्य्च्ल्स्क्ा 








न कोई बीचहीमें खिड़कोके पाल आता है ओर कुछ न कुछ 
देता है, अथवा जो लोग नीचे एकत्रित हो रहे है, उनके 
ऊपर थक देता है; ओर थूक पड़नेके कारण क्र होकर यदि 
>ई ऊपरकी ओर देखने भी लगता है, तो उसके ऊपर फिर 
शक देता है, अथवा कुछ कूड़ा-कचरा डाल देता है। बस, 
यही हाल हो रहा था। जो लोग नीचे एकजित थे, वे दूर दूर 
हटने लगते थे, अथवा कोई कोई मन ही मच क्रू.द्ध होकर दांतों 
से होंठ चबाने लगते; ओर कुछ शुनशुनाकर गालछियांसी देने 
रगते थे ।। इंसके.-सिवाय,.. मंहंलोंके अन्दर बड़ा कोलाहल 
ग़सा हुआ था। पर यह सब क्‍या था, कुछ पता नहीं रगता 
पर एक ननन्‍्हासा छोकरा, पर उसकी जिज्ञासा बड़ी 
ही भी देशमुखक्रेन्मदलोंमें छुसल्मान घुसे थे 
सो कुछ यों ही नहीं घ्‌ से थे, कोई न कोई अत्याथार ओर अप- 
मसानकी बात अवश्य थी। इस मारो सनन्‍्देहके कारण उसके 
सनमें क्रोच्य मी बहुत आया। अपने सन्देहको मिदानेके लिए 
आखसपासके लोगोंसे उसने बहुत कुछ पूछा; पर वहाँ खुनता 
जैन है ? सब अपनी अपनी छुतमें मस्त! अण्तमें एकने अत्त 
होकर उससे कहा, अबे छोकरे, देखता नहीं कया ? यादशाहके 









सिपाही महलोंमें घ लकर सबको कैद कर रहे हैं। और लूद- 


पाट मया रहे है १” 
परन्तु इतनेसे उस बेचारेका समाधान कहा 
था ? मुसस्मात छोग महलोंमें घू से थे चारों ओर 


५३ 






हक. 





2] 


गण, 


है उषाकाल द [हू 





चः 
(8 कै फ्ि की श्ण्८ ई2पप ' 
.. ७ पट ० | 


५00 07 ० 


मचा था, ऐली दशामें यह तो उसे प्रत्यक्ष ही दिखाई देर था 
कि, सुसब्माव छोग उपद्रव करके कोई न कोई विडम्बना का 
रहे हैं; पर ऐेला क्‍यों होरहा है? देशमुख साहब कहां हैं ! 
खो कुछ मालूम नहीं पड़ता था। श्याम यह सोचकर कि, 
अब हमको ख्यं ही इसका पता छगाना चाहिए, क्रम ऋमसे 
 आगेकी ओर घ॒सा। परू्तु अभी वह बहुत दर नहीं घुसने | 
पाया शा कि, भागेसे फ्क जियाहीने उसे पड़े हडानेके छिए 
बन्दुकका कुन्दा माया। गरीब बैचारा--क्या करता ? एकदम 
बेहोश होकर पीछे गिर पड़ा--अच्छा हुआ, जो किसीने पीछेसे 
उसे सम्हाल लिया,नहीं तो मर ही जाता । किन्तु कुछ देरमें 
होशमं आनेपर क्या देखता है कि, अब वे मुसद्मान लोग, जो... 
अबतक महलोंको घेरे हुए थे, भीड़के ऊपर अपने घोड़ोंकों बढ़ा... 
कर छोगोंको दूर हटा रहे हैं; ओर महलके द्रबाज़ोंकी भीड़ भी 
क्रमशः दूर होरही है। इसलिए श्यामाने अब समका कि, 
इस भीड़में हम पार नहीं पासकते, अतए्व वह पीछेकी ओर 
हुदा। उसी सप्तय उसके मनझें यह भी विश्वार आया छि, 
अब हमको महलोंके पीछेसे जाकर कुछ पता रूगाना चाहिए । 
... सचमुच ही वह बेवारा उस समय अत्यन्त निराश होगया था। 
... परन्तु फिर भी उसमे अपने उपयुक्त विचारकों पूर्ण करनेक्े 
ह .. लिए भीड़के अन्वरले निकलना शुरू किया । इतमेरें सब लोग 
अत्यन्त घवड़ाकर इचर-उच्चर भागते ऊगे | महरुके आसपासके 
_घुड़सवारोंने एकदम भीड़पर अपने घोड़े छोड़ दिये; और 





(ई हे 0) ः श्यामाने क्या किया 7 
के ८८ हे 


"की कीत 'कपलनरीफन नल्च्य्य््च्ल्ल्च््ट्ल्स्ब 

अपनी रूम्बी रूस्बी सलवार इधरसे उथर घुमाते हुए-तथा 

इस बातकी भी कुछ परवा न करते हुए कि किखीके प्राण 

जायेंगे था क्या--जिधर ही मन भाना, उधरको जाने लगे। 

लोग जश्दी जल्दीसे आखपासके घरों, क्ोपड़ियों, खेतों ओर. 
बाड़ियोंमें घसमे छगे । ऐसा न समभिये कि, उनके हाथमें 

शुद्ध नहीं थे, अथवा शब्मोंका उपयोग उन्हें मालूम वहीं था।. * है 
परन्तु बादशाहकी हुकुमत तो ठहरी--डसके अत्याचारके 
सामने मामूली छोग क्या कर सकते हैं! बस, यही सबके विचार 
थे !.गाँवके लोगोंका देशसुखपर बड़ा भें म था, पर लाभ क्या : 
पौका आनेपर कौन खड़ा हो ? सब मन ही मन ऋ,द्ध होरहे 
थे; दांतोंसे होंठ चबा रहे थे--करते ही क्‍या ! 

कुछ देरके बाद महलोंके आगेको; ओर गाँवकी भी भीड़ 

बहुत कुछ कम होगई; अथवा यों कहिये कि, उन सवारोंने ज़ब 
भीड़पर अपने घोड़े छोड़ दिये, तब भीड़ तितर-बितर हो- 
गई। रास्तेमें कोई नहीं दिखाई देता था। हों, दोनों तरफ 
घरोंके चबूतरोंपर और छतोंकी खिड़कियोंपर छोय दिखाई देर्हे 
थे! ये सब छोगएपुरुषही थे। ह्लियोंका तो पुतला भी 
दिखाई नहीं पड़ता था। इल प्रकार पहलोंके सामनेका माग 
जब निर्जन होगया, तब महकोंके अन्दरके छोग बाहर निकलने 
ल्गे। महलोंके अन्द्रसे निकले हुए. सवार बिककुछ रक्तसे 
नहाये हुए दिखाई देते थे। आगे कगभग छे आदधी आये। 
उनके पीछे पांच-छी आदमी पैद्क चल्ले .जारहे थे। उनके 








उधाकाल 
नल्््च्््ट्ऋ़्दाा 


पीछे एक छुद्ध महाशय गदन नीची किये धीरे-धीरे चले ज्ञा- 





रहे थे। उसके पीछे पीछे दो लड़के १० ओर १५ वर्षकी उम्र. 


के होंगे। लड़कोंके पीछे बुर्का डाले हुए एक ख्वी, ओर उसके 
पीछे दो-तीन ओर ख्वथियां-उसीकी तरह बुर्का डाले जा- 
रही थीं। ख्तियोंके पीछे पांच-सात पैदल; ओर फिर उनके 
पीछे पहलेहीकी भांति पांच-सात सवार थे | इन सबके पीछे 


एक अत्यन्त भयंकर सूरतका सवार था, जो अकेला ही चल 
रहा था। उसकी चेशासे स्पष्ट दिखाई देशहा था कि, इस 


खारे कार्यका संचाकक ओर प्रेरक यही है। इस प्रकार 
एक अत्यन्त उदासीन समारम्भ बाहर निकला! श्यामा 
अत्यन्त उदास भावसे, एक घरके बबूतरेपरसे, यह साश हृश्य 
देख रहा था। जो वृद्ध महाशय--वृद्ध न कहकर यदि उन्हें प्रोह 
कहा जाय, तो विशेष सयुक्तिक होगा ओर सत्य भी होगा-- 
आगे चल रहे थे, वेही देशमुख साहब थे। कुटम्ब-सहित 
उनकी विडम्बना करके उनन्‍्हींको इस समय बाहर निकाला गया 
था। इसके बाद, अब जो सुखद्मान सवार और सिपाही 
भीतर रह गये, तथा उस समय जो ओर भीतर गये, उन सबने 
मिलकर, फिर छूट-मार ओर तोड़-फोड़का उपद्रय शुरू किया। 

ठीक दोपहरका समय, सूर्य सिर्पर आया, कहीं न कोई वृक्ष 


ओर न कोई छाया; ओर यदि हो भी, तो उसका उपयोग कौंन 
करने दे ? स्पष्ट था कि, उन छोटे छोटे बच्चों, उन वृद्ध महाशय 


ओर उन बेचारी स्लियोंको संकटमें डालने और उनकी विडस्बना' 
करनेके लिए ही यह सब किया गया था | 





श्ट् द थ हल विम2 0 क्या किया. है 


परन्तु अचानक यह सब क्यों हुआ ? व्िसीको कुछ मालूम 
नहीं । जो कुछ हुआ, सो बिलकुछ अचानक  एकाएक दस- 
ग्यारह बजेके छगभग करीब पचाल सवारोंक्ता--जिनमें अधि- 
कांश झुलव्मान ही थे--गिरोह एंकद्म कोलाहल मचाते हुए 
गाँवमैं पैठा। कौन हैं, क्यों आये हैं, कुछ पता नहीं | लोगों ने है 
खोचा, कोई डाकू, चोर, उठाईगीरे होंगे,दिन-दहडे डाका डालने 
आये होंगे। इसलिए कुछ लोग ड्चेजित होकर अपना शोये 
दिखलाते हुए उन पचासों सवारोंको काद डालनेका विचार 
करके दौड़े । किन्तु गिरोहका सरदार एकदम चिल्ाया, 
“खबरदार | खबरदार, यदि किसीने इन सवारोंके शरीरको हाथ 
लगाया, तो उसको टुकड़े टुकड़ करके सारे गाँवकों भस्म कर 
दूंगा, कभी छोड़ गा नहीं। तुमको यदि अपने प्रा णोंकी परवा 
हो; और अपने घरद्वारको बचाना चाहते हो, तो छुफकेसे अपने 
अपने घरोंमें जाकर बैठो--कमसे कम होता क्या है, सो चुपकेसे 
देखो | हम आये हैं बीजापुरके बादशाहका हुक्म छेकर-सो 
उस हुक्‍्मके बजा लानेमें जो कोई विश्न डालेगा, बह व्यथ के 
लिए अपनी जानसे हाथ थो बैठेगा; ओर सारा गाँव जला 
दिया ज्ञायगा, सो अलग !” 

इससे अधिक उसने ओर कुछ कहा ही नहीं, बढिक एक- 
दम वह अपने गिरोहके साथ महलोंपर ही पहुंचा । वहां कुछ 
लोगोंको तो उसने बाहरसे महल्वोंको घेस्नेका हुक्म दिया; और 
बाकी लोगोंकों दीने-इस्कामके नामपर जोश दिलाते हुए मह- 















( उषाकाऊ । 
के हे # 


ज्य््ड्लाय "कीफे ...९/००९६३९० पा 





लोंके भीतर अपने साथ लिया। सिपाही भीतर घुसते हुए 
कहते हैं, “कहां है देशलुख ? पकड़ो बद्माशको ! उसका ज़नाना 
कहां है? बगावत | बगावत करता है--ए ?” इस प्रकार कुछ 
बकते-फकते हुए उन्होंने एकदम उपद्वव मचा द्या। खद्र दूर... 
वाज़े और ब्योढीके लोगोंने, जहांवक होसका, मुक़ाबिला किया; 
पर अन्त वेचारे कहांतक टिक सकते थे ? लिपाहियोने हथि- 
यारोंसे ही काम लिया;,ओर अस्तमें स्थ्री,बच्चों ओर बुड़ोंकी दुर्देशा 
करते हुए तरुण सिपाही आगे बढ़े । महलके छोगोंको मारलने- 
काटनेमें भी उन्होंने कसर नहीं की; ओर इस प्रकार शक्तञ्लाव 
करते हुए वे सोधे देशमुख साहबके कमरेमें पहुंचे | उनको कैद 
किया, उनके कुटुम्बको कैद किया । फिर उनको लेकर, जैला- 
कि हमने पीछे बतलाया, वे लोग भरी धूपमें बाहर निकरू पड़े; 
और पीछेसे महछोंकों लछूृषकर विध्वंस करनेका हुक्म दिया । 
एकद्म ऐसा क्यों हुआ, किसीके कुछ समभझमें न आया | सब 
अपने पासवालोंसे पूछने ऊछगे। पूछते पूछते छोग आपसमें 
अनुमान भी करने लगे;ओर अनुमान करते करते परस्पर विश्व: 
सनीय उत्तर भी देने रंगे | 
अस्तु। श्यर देशमुख ओर उनके आदप्नियोंकों भरी धूपमें 
धर घसीटा । उनको ओर उनके बालबच्चोंको इस प्रकार कष्टित 
देखकर ऐसा कोन था, जिसका हृदय भर न आया हो? पर 
़् 'बेंचारे करते ही क्या ! चुपके उनकी वह दुःखदायक दशा देखकर 
“7... दीथे निःश्वास छेते रहे; ओर मन ही मन मुख्मानी राज्यको 











(६ । द (स्पासाने क्या किया 
3५ २६३ ८2! है 





काएप्थत भफ 4 बा कर ऋा्क-कापफादालपअकत, 


>अ७०-पाल- अं. केक द ध््ाइ्ट्स्फसससड 
गालियां देते रहे । इसपर हमारे पाठक शायद कहेंगे कि, क्या 
मराठे लछोगोंमें उस समय सेजखिवाक्षी कुछ कमी थी ? उनके 
गाँवके सुखियाक्रो-उस वृद्ध देशमुखको, कि जिघपर सारे 
आमका इतना प्रेम था--बालबशों सहित दखबीस मुसल्ले 
सिपाही भरी दोपहरीमें घरलीट छेगये; और मराठे छोग, मर्द हो- 
कर, अपनी आँखों देखते रहे | क्‍या घारणगांवमी एक भी मराठा 
न था कि, जिसका हृदय, उस अत्यायारकों देखकर, विदीण् 
नहीं हुआ ? एक भी मराठेका, ललूवाश धारण करनेवाला हाथ 
स्फ्रित नहीं हुआ १ एक भी मराठा वीर क्र छ होकर तलवार 
लिये शुण आगे नहीं बढ़ा ? वे तो मराठोंके पराक्रमके दिन थे,फिर 
ऐसा क्योंकर हुआ ? इस प्रकारके प्रश्न पाठकोंके हृदयमें उठ 
सकते हैं | पाठउकब्ृन्द ! निस्सन्देड इस प्रकारके मराठे वीर उस 
गाउमें थे, उनके हृदय सी विद्वीण छुए, उनकी शुजञाए' भी 
फड़की, उनमेंसे एक-दो मराठे अपनी तलवारकों मज़बूतीके साथ 
पकड़कर आगे बढ़े भी थे। किब्तु उनको सफरूता प्राप्त होने- 
का समय अश्ी नहीं आया था | मुखब्मान सरदारों और सिंहा- 
समाधीशोंके पापका घड़ा अभी इसना नहीं भरा था कि, जो 
ठुश्शेका निदेछम करनेके लिए परमेश्वर अवतार छेता । उनके 
पायका घड़ा भसलनेमें अम्मी थोड़ीसी देरी थी। बस, इसीकार्ण 
वे मराठे चीर अपने मनको शोफे हुए जैठे रहे । जो हो, अब 
हमको इन बातोंको यहीं छोड़कर, सखिफ श्यामाके पीछे पीछे 
चलना चाहिए । 








है उषाकाल / जे (&€ बे 
टज्ख्क्श््ा «९०-४७ ०ह$-०६६० 


श्यामा उन सम्पूर्ण घटनाओंकों देखकर क्षणमरके लिए... 
ठहर गया। इतना छोटा छड़का, फिर सुबहसे उसको कुछ 
खाने-पीनेको भी नहीं मिला, परन्तु उस सर्यंकर अत्यावारको - 


. देखकर उसकी भी भूख-प्यास सारी हट गई। उसकी उसे 


याद भी नहीं आई। उसका हृदय बिलकुल मर आया। अयने 
हाथकी काव्पनिक तलवार कि, जिसे प्राप्त करनेकी उसे भारी 
महत्वाकांक्षा थी, उसने मज़बूतीके साथ पकड़ी । इसके बाद 
फिर उसने उन मुसद्मान सिपाहियोंकी गदंनपर कि, जो उसके 
आगे जारहे थे, अपने काल्पनिक वार, एकके बाद एक -बिल- 
फुल अवकाश न लेते हुण -किये । इतनेमें वे छोग दृष्टिकी ओट 
होगये। इसलिए वह भी अब इस विचारसें लगा कि, आब 
हम कहां जायें; ओर आगे क्या करें। उसने सोचा कि, जो 
लिफाफा हम लेआये हैं, चह अब देशभुख साहबके हाथमें 
पहुंचा नहीं सकते; ओर न ऐसा करना अब इछ् ही है। इस- 


लिए अब उसने सिफ इतना ही ट्योलकर देखा कि, छिफाफा 


अपने पास जहां रखा था, वहां है या नहीं। इसके बाद फिर 
वह कुछ विचार करता हुआ महलोंके पीछेकी ओरको चला | 
महलोंमें अब भी थोड़ा-बहुत उपद्वव हो ही रहा था। महलोंके 
पीछेकी ओर श्यामा इस विचारसे जारहा था कि, उस ओरसे 
हम भीतर चले जायेगे; ओर देखेंगे कि बात क्‍या है; और तब 


. फ़िर लोगथेंगे--बिना कुछ पता लिये यहांसे जाना ठीक नहीं है 


यह वह सोच ही रह; था कि, इतनेमें उसे कुछ स्मरण आया; 








0०. 








(€ ... $) श्यामाने क्‍या कियां कु 
3 २२५ €£ ... # स्चिद्स्लं कर: 

ओर भन ही मन वह बोला, “क्यों ; इख गड़बड़ीमें सूर्याजी राव 
दिखाई क्‍यों नहीं दिये ? इन सुसलोंने उनको कहीं मार तो नहों 
डाला ? अवश्य ही, उनको मार डाले बिना महलोंमें इतना उप- 





द्रव मचानेका इनकों साहस ही केले होसकता था? जो कुछ 


हो, जान तो यही पड़ता है कि, इन वदमाशोंने सूर्थाजी शावका 
ख़॒न कर डाला | हाय हाय ! नाना खाहबको जब यह वृत्तान्त 
मालूम होगा, तब उनको न जाने कितना दुःख होगा ! वे इसका 
बदला लिये बिना भी नहीं रहंगे। उन दोनोंका प्रेम ही ऐसा था ! 
दोनोंमें बड़ा ही स्नेह था | अच्छा, अब एक बार भीतर जाना 


चाहिए; ओर देखना चाहिए कि, क्या बात है। सूर्याजी राचके 
दशन जबतक नहीं कर लेवें, उनकी क्‍या दशा है, सो प्रत्यक्ष 


जबतक नहीं कर लेवें, वबतक यहांसे लौटना कदापि मुनासिव 
नहीं |” इयामा यही सोच रहा था 


अब यहांपर पाठकोंको सूर्यांजी राबका थोड़ासा परिचय दे- 


. देना अतुचित न होगा। वास्तयमैं सूर्याज्ी राव देखमुख साहबके 


बड़े बेटे थे। वे अभी बिलकुल नवयुवक. अत्यन्त श्र ओर 
उत्तम छुरुष थे। किलेदार साहबके ऊड़के नाना साहबके जो 
विचार थे, वही विचार सूर्याजी राजके भी थे। मुखब्मान 


राज्यके ये भी कट्टर द्ोही थे। हमारा श्यामा उनपर भी बडी 


भक्ति रखता था; ओर इसीकारण वह इस समय सोच रहा था 
कि, सूर्याजीके रहते हुए उनके मा-बाप ओर घरद्वारकी ऐसी 
इेशा मुसल्मान छोग कदापि नहीं कर सकते थे, ओर न अपनी 


हः 








हू, शचाकाली 


(0) छू 





्॒र्ली 


अरे कीफक० 68 
जीवितावस्थामैं वे मुलब्मानोंकी अपने महरोंमें ही घुसने दे- 
सकते थे। इसलिए यह निश्चय है कि, या तो सूथोजी रावको 


मुस्धानोंने मार डाला,अथवा नाना साहबकी तरह ये भी कहीं 


ने कहीं चछे गये | अन्यथा मुसद्गानोंकों ऐसा साहस नहीं हो- 
सकता था । बस, यही समझकर श्यामा चुपकेसे महरूके अन्द्श 
जानेके लिए पीछेकी ओर गया। वहां जानेपर पुदके उसने 
इधर-उधर देखा | परन्तु टस ओर कोई था ही नहीं । बिलकुल 


सुनसान था| पिछला फाटर बिलकुछ टूटा पड़ा था। श्यामा 
आगे कुछ भी विचार न छण्ने हुए एकदम भीतर घुल पड़ा; 


ओर प्रत्येक योकसे खूब देखते-साऊते हुए अन्दर जाने था । 
देखता कया है कि, चारों ओर बहुतसा सामान ओर बह्तुएं टूदी- 
फटी पड़ी हैं। बोकोंकी कितनी ही कोठरियोंमें छाशे पड़ी 
थीं, इस प्रकारका दृश्य श्यामाने अपने उस छोटेसे जीवनमें 


पहले ही पहल देखा ! आजतक ऐसा भयंकर दृश्य कभी उसकी 


नज़रेंमें नहीं आया था; परन्तु फिर भी वह छोकरा ज़रा भी 
नहीं घबड़ाया । वह पहले ही जानता था कि, हमें अन्दर जाकर 
ऐसा ही कुछ द्वृए्य देखना पड़ेगा । इसके सिवाय उसको लाशोंके 
अतिरिक्त ओर विशेष देखना ही क्या था! उसको तो यही देखना 
शा कि,सू्योजीकी भी छाश कहीं दिखाई देती है या गहीं-- दुष्टोंने 
उन्हे मार तो नहीं डाला ] वह आगे बढ़ा । सूरयका प्रकाश अभी 
काफी था। उसने प्रत्येक लाशको गोर्के साथ देखा; परच्तु 
सू्याज्ीकी लाश कहीं दिखाई नहीं पड़ी। तब वह पहले चोकसे 





& २६७ है महलाका भसर्यकर दृश्य 
कि ८० आ+:300- 7-57 अल्छ 


दूसरे चौकम गया | वहां उसे क्‍या ही सयकर दृश्य दिखाई 
द्यिा ! 


उनन्‍नीसवां परेच्छेद । 


/589 पट, फ जलती 
ओला सी ह6ू काम की 


महलोंका भयंकर दृश्य / 


यामाने दूसरे चोकमें अभी क़द्म दी रखा था छि, इतनेमें 
जो दुएश्य उसे दिखाई दिया, वह अत्यन्त भर्यंकर था ! उसका 
कदप चौकमें पड़ते ही ऊपरसे एक काश बीखे बोकमें आकर 
गिरी, जिसे देखकर वह बिलकुल भोंचक्का रह गया। यह लाश 
एक ख्वीकी थी। श्यामा क्षणमर उस लाशकी ओर एकटक 
देखता रहा ! बह छाश एक दासीकी थी; ओश यह पहचाननेमें 
उसे विल्ण्ब नहीं लगा | किन्तु ऐसा हुआ दयों ? इस दालीकी 
लाश इस समय नीचे कैसे आई ? क्या किसीने फेंकी ! क्या 
अभसीतक कोई ऊपर मार-काट कर ही रहा है ? श्यामाने ऊपर- 
नीसें, दायें-बायें देखा | एकद्म उसके मनओें आया--थयह ज़बाना 
चौक है। ऊपरके कमरों में सूर्याजीकी खतरी, बहिन, मा इत्यादि 
खियां श्हती थीं, सो उसके ध्यानमें आया । यह लाश-एक 
दासीकी ढाश--ऊपरसे डाली किसने ? क्‍या इन दुष्योंकी निदे- 
यताकी सीमा यहांतक पहुँच गई |! क्या अब वे डाकुओंकी 


तरह घरके भीतर घुसकर अपने हाथोंसे--डस अपनी कायरता- 











छह (६ (९: ः ० 
है 6 है) | 
8: ५8 
के श्द्ध (६ 
0 मे कह 
(५ निक्क। (की 


किक. * 8 





भर तलवारसे--ओरतोंका भी खून करने रंगे ? श्यामाने अभी: 
तक तलवार अपने हाथमें कभी नहीं पकड़ी थी; पर यह वह 
भलीभांति ज्ञानता था कि, तलवार पकड़नेयाले मनुष्यको 
स्रियॉपर कभी हाथ न चलाना चाहिए। अवश्य ही उस 
समय उसने यही समझा कि, यह कोई अत्यन्त नीच मुख- 
व्मान सिपाही है कि, जिसने इस ख्लरीका ख़न करके ऊपरसे 
उसकी लाश नीचे घड़ामसे डाली | छाश ऊपरसे नीचे बड़े 
ज़ोर्से गिरी, जिससे उसका मस्तक दकरशाकर टूट गया; ओर 
वह बहुत ही विद्रप दिखाई पड़ने छगी ; छाशका बचस्त ज़रा 
अस्तष्यस्त होगया। यह खब देखकर श्याभाके शरीरके रोंगटे 
खड़े होगये। छाश नीचे कैसे गिरी, यह देखनेके लिए उसने 
ऊपरकी ओर देखा; पर उसे कुछ दिखाई नहीं दिया । लाश 
किसी मन्ुष्पहीने डाली; पर यह बांत क्‍या है, सो कुछ श्यामाके 
ध्यानमें नहीं आया। इसनेमें उसे ऐसा सास छुआ कि, जैसे 
कोई चीख मार रहा हो | उसने फिर ऊपर देखा। ऊपरकी खिड़- 
कियां सब बन्द्‌ थीं। उन खिड़कियोंसे तो छाश नीचे आई नहीं; 
क्योंकि एक भी खिड़की खुली नहीं थी। फिर कहांसे आई ? 
डाली किसने १ फिर ऊपर देखा | ज़रा ओर ऊपर नज़र डाली | 
हां, ऊपर छत थी। शायद्‌ छतपर ही कोई बात हुई हो ! यह 
विचार अभी उसके मनमें आया हो था कि, डसको निश्चय हो- 
गया कि, छतपर ही अभी कुछ उपद्रव होरहा है। उस्तके साहस- 
. कै लिए अब ओर किसी उत्तेजनाकी आवश्यकता न थी। कोई 





:7 2 इस 3. 








0 २६६ 4 . महलांका भयंकर दृश्य 7 
२ आवक की 2 4 ्स्च््स्ब्च्ल्प्क््ा 


न कोई भयंकर घटना अभी यहां होरही है। बस, इतना हीं 
उसके लिए काफ़ी था। वह तीरकी तरह एक कोनेके ज़ीनेसे 
ऊपर चढ़ गया। जीने, एकके ऊपर एक, बराबर छततक चले 
गये थे । वह अन्तिम ज़ीनेपर अभी आधी दृर्तक नहीं पहुं था 
था कि, इतनेमें उसे खुनाई दिया कि, किसीने बर्ड ज्ोरसे सीस्त 
मारी । वह फिर इधर-उधर कुछ भी न देखते हुए एकदम 
ऊपरकी ओर चला । ऊपर जीनेके मत्थेपर पहँ बकर उसने 
भांककर क्या देखा- एक ओरके कमरेके द्रवाज़ बिलकुल खुले 
हैं, ओर एक अत्यन्त युवती तथा रुपवती स्त्री बेहोश पड़ी है । 
वहीं एक मुसण्डा यवन एक छोटीसी दरी बिछाकर, उसीपर 
उस स्त्नीकों रखनेका विचार कर रहा है। पास ही एक झुन्दर 
हंडोलेकी एक तरफ़, बाहरकी ओर, एक बालक पड़ा हुआ रो- 
रहा है। बालक अब ज़ोर ज़ोरसे रोने ऊगा। बह सुलब्मान 
मुसणएडा उस वेहोश पड़ी हुई युवतीकी ओर एक बार देखकर 
कहता है, “ऐ सुन्दरी, बहुत दिनसे तेरे ऊपर मेरी आँख थी | 
सो आज पूरी हुई। अब में तुझे ले जाऊंगा । तेरे उस ( थूक 
कर)--थू: उसकी छाशपर--द्रिद्री पतिको मैंने कमीका शैवान- 
के घर भेज दिया। तेरी उस दाखीफो भी, जो बहय इधर-उधर 
करती थी, नरकमें ढकेल दिया । ओर इस अभागी बच्चे को मार 
डालमनेका भय दिखाया, इतनेमें तू बेहोश होकर गिर पड़ी। 
सो अच्छा ही हुआ । अब में तुझे इस दरीमें लपेटकर घोड़े पर 
रख लेजाऊ'गा । ( बीचमें कुछ अस्तसा होकर ) अरे ! यह कमप्त- 





2] 


ग चचाद्षाक 


अप पक ५५ २७० ८2 
हँ (02 ७) 


की आम 





बख्त दौसा चिल्ला रहा है--अमी गलेपर पर रखकर मारे डाछूता 

१ यह कहकर वह दुष्ट लखझुच ही उस बालककी ओर व 

पी तलवार उसमे अमी डाल दी थी। श्यामाने यह सब 
दैखा। अब एक कछणका 
शैतान--अपना जता पकुँते हुओ पैर उस निरफ्राध बालकके 
गझिपर रखना ही आहत है! हुशकी अत्यन्त भयंकर था, जिसे 
बेखकर श्यामाका अजरूप एकदम बद्छ उठा | उसकी देहमें 
किसी विचित्र ब्रॉर्ने संचार किया। ओर इसने जोशके साथ 
बह आगे बढ़ा,ईतने वेगसे उसने उस मुसंड की तरूवार उठाई 
और इस ख्रपलतास उसने उस दुष्ठकी पीठपर वार किया कि 
थह सब॒/लिखनेमँ तो हमें कुछ समय ऊगा; पर इसका शर्तांश 
सम्र्थ भी उसके इतना सब करनेमें लगा होगा अथवा नहीं 
इसमें सन्देद्ठ है। उस समय वह मानों कोई और ही जीव बच 
गया! बार उसने इतने जोशके साथ किया कि, झुलत्मान 
'सिपाहीकों पीछे झुड़कर देखनेका सी अवकाश नहीं मिलता। 
बह एकदम घड़ामसे पोछे हो उताव गिर गया । बालक बच 
गया। ठुश्का पैर उसको गदनपर नहीं पड़ने याया था, 
शयामाका वार इसके पहले ही उसपर हांगथा | वार 
-बिलकुछ अवानक हुआ। उस सिपाहीकी यह खयाल खप्नमें भी य 
था कि, इस समय हमारे सिवाय यहां ओर भी कोई है--आओर 
बह भी ऐसा, जो हमपर वार करे! ओर सचझुुव उसको ऐसा 
खयाल हो भी कैसे सकता था--त््योंकि जिनको तलवारका 










| 





अवकाश था वह दुछ--वह 














हैः 
| महछाका सथकर दृश्य # 
>पमीन बकरे ब्यूप०+नी 2: 222 आह 


उसे भय था, उन सबको तो उसने ओर उसके साथियोंगे 
कभीका यमलोक मेज दिया था, अथवा कौद कर छेगये थे । 
अब ओर कोई बाकी भी बच्चे होंगे ठो छुक-छिपकर बैठी हुई 
स्त्रियां कहीं सले हो रह गई हो। हिसी खथाऊमें वह चर था। 








ऐसी दशासें पीछेसे जब एकदम उ्ख्ंपर वार हुआ, तब बह 


पद 8 


बडे अजस्मेमं आया | सच फूछेये, दो 
उसे जितना दुखित होना पड़ा, उससे 
होना पड़ा 
श्यामाने उस समय ऐसा विलक्षण कार्य किया, जोकि 
किसी वर्ड मनुष्यसे भी नहीं होसफता था। उसकी सप्रय- 
सूचकता अत्यन्त प्रशंशनीय थी | उसे यह भालम था कि, हंसारे 
शत्रुकी शक्ति ओर हमारी शक्तिमें ज़मीन आसमानका अन्तर 
है| इसलिए उसने सोचा कि,इस समय यदि हम चूक जायेंगे-- 
यह इस सप्य वारसे घायल होकर ओर चालाकीसे चकित 
होकर गिर पड़ा है, इसी हालतमें यदि हम इसको मार नहीं 
गे, अथवा कमसे कमा लशडा-लला नहीं कर डालेंगे, तो 
यह बातकी बातमें उठकर हमको साफ कर देगा, बातकी बातमें 
हमकी कुचल डालेगा। यह सोचकर उसने, कुछ भी आगे-पीछे 
न देखते हुए, जहाँ बन पड़ा, अपने उस ननन्‍्हेसे हाथकी बमैस- 
शिक वयलतासे, उसके शरीरमें एक-दो-तीन-चार बार किये | 
नाकपर, मुंहपर, छातीपर! आख़िर तलवार उसके हाथमें 
थी ही ! उसने सोच लिया था कि, बार हमारे चाहे जैसे हों, 






उस वधारके होनेसे 
* अधिक उसे यक्तित 











“उप -३:३- ०६३०-६३» 





शत्रु के ऊपर कुछ न कुछ प्रभाव होगा ही ! तलवार उससे ण्कः 
प्रकारसे कभी छुई ही नहीं थी, तलवार उठाकर बार करना 
तो दूर रहा। फिर भी उसने इस समय ऐसी सप्तयसूबकता 


दिखलाई | उस समय यदि कोई बीर पुरुष उसकी उस सप्तय- 


सूचकताको देखनेके लिए वहां उपस्थित होता, तो उसके 
विषयमें उसने क्‍या भविष्यद्धाणो कही होती--उसे कैला गौर- 


वान्वित किया होता ! परन्तु श्यामाने चह पहलेपहऊर जो परा- 
क्र्म द्खिलाया, उसको देखनेके लिए उस दुष्ठके अतिरिक्त -- 
जो [कि उसीक्की तलवारसे घायछ हुआ था--और कोई शी वहां 
उपस्थित नहीं था । हां, एक्क प्राणी ओर भी था--और चह था 
वह छोटा बालक, जो रोते रोते थककर बीचमें उप होगया था 

'र आंखें खोले डुए उसकी ओर देख रहा था। जैसाकि हमने 


ऊपर बतलाया, श्यामाने पहले चार-पांच बार किये. और फिर 


इसके बाद चार-पाच बार उसने ओर भो उसके पै रॉपर कि 

क्योंकि उस समय वह यही सप्मझ रहा था कि » रस समय हम 
जितने ही धार इसके ऊपर करें, उठने थो ही हॉगे। कहां 
किस प्रकारका वार करनेसे हमार काप्र सहज होजायगा 
सो उस वेचारेको क्‍या माऊम ! बह दुष्ट बहुत कुछ तड़फड़ाया, 
बहुत कुछ उठनेकी कोशिश की, पर क़ाम्रयाब न हुआ | जिस 
प्रकार किसी रखीले वृक्षके तनेमें, एक्रके बाद एक इस प्रकार 
कई बार करनेसे उसमेंसे तमाम रख बहने लगता है, उसी 
भकार उस दुष्के शरीरले भी, जगह जगहसे छोह बह निकला 








हि करके क 

है सहदराका भायकर दृश्य 
400 २७३ ५; गज 
"यकशिलबफरेफेक:. ब्लीएगान्वीलिक्ण ९० फल 


सारे शरीरमें घाव होगये। उसको इचधरसे उचर ओर उचधरसे 
इधर तड़फड़ाने अथवा मु हसे गाछियाँ देनेतककी ताकत नहीं 
रह गई । वह जो कुछ शुनशुगाकर गाछियां देशहा था, अथवा 
विछख रहा था, सो उसके मनको ओर होठोंकों ही मालूम ! 
इतनी देरशक उस भारों तछवारके चलछानेसे, अथवा यों 
:... कहिये कि, उस सुसदलेके स्माशुमय पुष्ट शरीरमें उस दलवारके 
बारस्वार घुसेड़ने ओर मिकालनेके परिश्रमसे, श्याप्षाके हाथ 
बिलकुछ थक गये। यहांवक कि, अब वह तलवार उससे 
उठने ही न ऊगी; ओर अब आवश्यकता भी न रही थी। उस 
दुश्के आसपास रकके पनाछझे बह रहे थे। यह सब देखकर 
स्याप्राकों अन्तमें चक्करलणा आगया। एक यार उसने यारों ओर 
देखा, ओर घह छोटासा छोकरा एकद्म नीचे बैठ गया। बैठते 
बैठते बह गिर पड़ा ओर बेहोश भो होगया। उसका परिश्रम 
बहुत सारी था। इधर वह छोटा बच्चा भी रो रोकर थककर, 
खोगया। क्‍ 
उस समय उस कमरेका वह दृश्य बहुत ही भयंकर दिखाई 
देशहा था। एक ओर रछके नाछे बह रहे थे, जिनमें वह दुष्ट 
तड़फड़ाता हुआ पड़ा “हाथ | हाथ!” कर रहा था। दूसरी ओर 
व छोटासा बच्चा पड़ा सोरहा था; ओर ख सके पनाडे उसके 
नीजेतक पहुँच रहे थे। इधर उस दुश्की एक्र ओर बह छोटा 
छोकरा, चक्कर आजानेके कारण, अत्तव्यध्त पड़ा हुआ था, वथा 
वहीं दूसरी ओर ब्रह युवती, झुन्द्री व्ठुतकक्की भांति शाम्त पड़ी 








 उषाकाऊू है 
4 बात 





हुई थी! इस समय यदि वहां किसीने आकर वह दृश्य देखा 
होता, तो वह क्या कहता ? उसके मनमें क्‍या अनुमान होता ? 

एक तरफ़ तो ये सब ध्राण़ी, उपयु क्त रीतिसे, पड़े हुए थे; 
ओर दूसरी ओर महलके,एक ओर कमरेंमें एक मजुष्य और भी 


५ 
$ 








खतवत्‌ पड़ा हुआ था । उसके एक घाव तो बड़ा ज़बरदस्त हुआ 
था; भस्चफेशबहइुए घाव लगे थे, इस प्रकार कुछ तीन घाव 
थे। पहला घाव उसके गददे: ओर शेष दो धावोंमैंसे 
एक सिरमें ओर दूसरा ने हाथमें था। इन घावोंसे ऐसा 
रक्त उ्कालंदी, प्राय: इसीकारण, वह मरा हुआसा पड़ा था | 


५३ 


>_कमसे कम जिसने, अथवा जिन्होंने, उसे घायल किया था, 









ध्ख्ख 


( 


है। पर वास्तवमें उनको वह सम श्रमपूर्ण थी ! 


उन्होंने तो यही समझ लिया होगा कि, यह अब ज्ञिन्दा नहीं 





ड़ 





'डसके मुख्से एक 
 लम्बीसी सांस निकली । उसका शरीर थर्सया, और 

जैसे किसी मनुष्यकी जिहामें विशेष शक्ति न हो; ओर 

वह बोलनेका प्रयत्न करने लगे, तो जिस प्रकार डसके होंठ 

हिलने लगते हैं, उसी प्रकारे उसके भी हॉंठ हिलते हुण्से 

..._ दिखाई दिये। यही नहीं, बल्कि उसने अपना एक्क पैर इधर-उच्चर 

.. किया; और “हाय हाय !” अथवा “आह ! आह !” के समान 
कोई शब्द भो उच्चारण किये। इतना हो नहीं, किन्तु सुननेवाला 

यदि अपना कान उसके मुंहके बिलकुल पास लेगया होता, 














हि की ली 














ह $ , महलोका भयकर हृइ्यं 2 द 
गा आप) य्श्ज्य्ख््ल्नल्ज्द्र 


तो उसके ये, आगे लिखे हुए, शब्द भी खुनाई दे सकते थे:--- 
हाय ! हाय ! पिताजी, माताजी, चहणजी ओर मेरी व्थीकी इन 
शिखानष्टोंने बहुत ही विडम्बना की होगी, अथवा कर रहे होंगे ! 


ओर मैं! में किसी कायरकी भांति यहों पड़ा मर रहा हूं! .. 
आह , आह! झन तो ऐसा ही होता है के कलेसेकी 


चूल लू'! पर क्या करू' ? क्यका करू' ? सुर अकेलेएर वे तीन 

छुसंडे एकदम टूट पड़े; ओर तानैंशे-तीन ओरसे मुकपर बार 
3 ० हि 2207 हा ल्‍् 

किये। मुखंडे थो बड़े धूत्त.! उन्हान सरेंक अक. कि 


» 
/' 

















22027, 











६९) 


' 
(5 
[2 
क 


अकेले थदि कोई मुझसे ,मुक़ाबिला करेगा, तो उसमें जीत 
मेरी ही होगी । इसीसे तीनोंने एकदम मुकपर आक्रमण किया | 
ईश्वरकी इच्छा | किन्तु अब मैं कया करू ? महलूमें तो चारों 


ओर सुनखान दिखाई देता है। क्या विताजीको कैट कर.ल्े- 


है ऑिकाफ (४ (2220: 
है, हा ॥े 
! 4४04 


॥०%४ 


गये £ माताजी, बहनजी और मेरी ख्री, तथा बच्चेकों भी शायद 
पकड़ लेगये हों ! कहीं सबका ख़ून तो नहीं कर डाला ? और 
सचमुच ही पकड़ लेजानेकी अपेक्षा तो सबका खन ही कर 
डाला हो, तो अच्छा ! इन शिखानशोंकी सेवा करना मानो 
बिलकुल कृतप्लोंकी सेवा करना है। बह बिलकुल घूलीपरकी 
रोटी है ! हा परमेश्वर ! क्या कभी हमारे इस दुर्भाग्यका अन्त भी 
होगा ! हमारे धर्मका, हमारी गोमाताका यह कष्ट क्या कभी 
दूर होगा! हा ! हा! अरेये डुष्ट हमारे देखते हुए हमारी मा 
बहनोंका अपमान करते हैं| हमारी आँखों देखते गोओंका बच 

करते हैं; ओर- हमारी ओर देखकर हँसते हैं...” द 












 उच्चाकाछ - कट >) 
ब्श््ट्प्ट्कुरऋाा ७7 /2/0%+ छे 


इस प्रकारके प्रत्यक्ष उद्दगार मानों उसके सुहसे बाहर 
निकल रहे थे। बेचारा इधरसे उधर ओर उधरसे इधर छठ- 
पा रहा था। एकबार उसके मनमें आया कि, हफपको उठना 
याहिए; ओर अपनी शक्तिका बिरूकुल ख़याल न करते हुए बह 
उठने भी ऊरूगा--उठनैका उसमे प्रदल्ल किया--किन्तु उसकी 
इच्छा जितनों ध्रवछ थी, शरीर उतना घवरछ नहीं था | अतझच, 
अपना सिर उठाकर, उसे एक हाथसे टेककर, ज्यों ही वह 
उठने छगा, त्वों ही उसे भारी यकर आया; और वह फिर 
४ होकर गिर पड़ा । 


७०००० मन “+ ब्रा /०काग्जताा:9 0४:25/080): 


बीसवां पारिछेद । 


के ५ न»न>-न»>>गन%नम«+मम०« ०५७ कक दर 599- बपटीदंटीआ/ल्‍५५७५ ७५ 40९०० +०«५७ ७ ++म५३> का 


पंख 





.. आन्तिम सन्दस्न । 

इधर उस शुवतीकी, उसके छोटे बच्चे की, श्याम्ाकी, ओर “+* 

डस मुसब्लेकी क्या दशा हुई, सो देखिये ! 
. युवती वहां बिलकुछ बेहोश पड़ी हुई थी। मालूम नहीं 
होता था कि, वह मर गई है, अथवा अभी जीती है। न कुछ 
हिलती थी, न डुछती ! पास ही इतनी देरसे बच्चा रोरहा था; 
पर उसको उसकी कुछ ख़बर न थी । यह संसार उसके लिए अब 

भारमात्र था। श्यामाने आकर वहां क्‍या किया; और पीछैसे.. 

क्या घटना हुई, सो उसको रचीसर भी ख़बर नहीं थी | उसको.“ 


5. हैः 














यदि यह मालूम होजाता कि, जिस दुछने हमको ऐसी भयंकर 
दशामें छा छोड़ा है, चह हमारे निकट ही दुर्देशाप्रस्त होकर मर 
रहा है,उसको अब हाथ-पैर हिलाबेकी भी शक्ति नहीं,तो उसको 
बहुत ही आनन्द हुआ होता; परन्तु जिस प्रकार अपने बच्चे तथा 
घरके अन्य छोगोंकी संकर याववाओंके कारण होनेवाले 
डुःख्से वह अज्ञात थी, उसी प्रकार अपने शत्र्‌ को अत्यन्त 
दुगति देखकर होनेवाले आनन्द्से भी वह अज्ञाव ही थी । उतने 
बड़े उस कम्ररेमें, एक उस घायछ होकर मरते हुए दुष्टके अति- 
रिकू, ओर कोई भी प्राणी सेत वहीं दिखाई देता था। हों, 
वह दुष्ट अवश्य ही छठ्पठा रहा था; ओर उसको विश्वास हो- 
गया था कि, अब में चच नहीं सकता | क्षण क्षणपर वह अधि- 
काधिक क्षीण होता खला जारहा था। फिर सी वह तड़फड़ा 
अवश्य रहा था। बड़े कण्टसे उसने करवट बदली; ओर आँखें 
खोलीं | आँखें खोलते ही उसकी दृष्टि उस खुन्दरीकी ओर गई, 
जिससे एकाएक उसे ऐसा मालूप हुआ कि, जैसे कुछ शक्ति- 
सी आगई हो | अद्दया | आज कितने ही दिनसे मेंने इसको प्राप्त 
करनेका प्रयल्ल किया, कितने ही अवसरोंसे लाभ उठानेकी 
कोशिश की, कितनी ही कारस्तानियां कीं; ओर अन्‍्तमें यह 
हाथ भी छगी। यह पक्कान्ोंसे सरा हुआ थाल सामने खींचा; 
आर अब आस झुँहमें डालनेभरकी देरी थी कि, इस द्स-बारह 
बषके छोकरेने मेरी यह दशा कर दी | इसने मेरा सब अभिमान 
चूर कर दिया ! धिक्कार है मेरे पोरुषको.! इन सूं छींको रखकर 














क्या किया ? इस दाढ़ीका अब क्या होगा ? इस प्रकारके 
विचार उसके मनमें आये ; ओर - उन विचारोंके आवेगमें उसे 


जोश भी आगया | वह नखसे शिखतक रक्तसे नहाया हुआ 
था, रक्तकी घाराएं अभी भी उसके शरीरसे बह रही थीं, फिर 
भी उसे दूसरा कोई विचार नहीं सूका | वह बिलकुल अंधा हो- 


गया। उसको यह विश्वास होचुका था कि, अब में मर 
'जाऊंगा-ऐसी दशामें ख़ दाका नाम छेते हुए उसे पड़ा रहना 
चाहिए था। परच्तु नहीं,शैतानने उसके मनको अखसा, शेतानने ही 
'डसके भनको शक्ति दी। मरते दम्रतक किसीकों सुविचार नहीं 
सूमने देंगं--यही शैतानका शत है; ओर ऐसे लोग शेतानको 


अत्यन्त प्यारे हैं। अवश्य ही,उसने अपने प्यारेकी इस समय भी 
नहीं छोड़ा | उस दुष्ट मुसद्मान सिपाहीने सोचा कि, आज- 
वक जिस बातके लिए हमने इतने प्रयल किये,उस बातको तो अब 
सिद्ध कर ही लेना चाहिए--कमसे कम इस तरुणीका ओष्टप्पश 


करके तो हमें कृतार्थ हो ही लेना चाहिए--छुत्यु तो घरी-धराई 
है, सो तो कुछ मिठती नहीं। इस -प्रकारके विचार उसके मनमें 
आये; ओर उन्होंने किसी प्रकार भी उसका पिंड नहीं छोड़ा । 


बस, इन्हीं विचारोंके आवेगमें वह दुष्ट चांडाल सचमुच ही 


डठनेकी कोशिश करने लगा। किन्तु जब उसमें सफल नहीं हो 
सका, तब इस प्रयत्षमें लगा कि,घिसलते घिललते जाकर अपना 


मनोरथ पूछ करू । इसमें उसे कुछ सफलता प्राप्त हुई। उस 
युवती, सुन्द्रीके बहुत पासतक वह पहुँच गया; ओर अब वह 












हा अन्देददी पा 
अन्तिम लन्‍्देश 6 
य्य्प्च्ल्य्च्ल्स्ड्ट 








कक सन 5० 





अपना दुष्ट सुख ऊपरको उठानेहीवाला था कि, इतनेमें वह 
युवती इस प्रकार छुब्ध होकर जाग उठी, जेसे कोई मनुष्य 
किसी संकटके समय अवानक किसी कारणसे उठ पड़े । ऐसा 
मालूम हुआ कि, वेहोशीकी हालतमें उसे खम्न हो पड़ा। उस 
अवस्थामें उसे ऐसा सास हुआ कि, जेसे उसके पवित्र शरीरपर 
किसी चांडालकी छाया पड़ती हो! बस, इसीकारण घह 
शुब्ध होकर उठ पड़ी । देखती क्‍या है कि, सचमुच ही उसके 
पास वह चांडाल आकर पड़ा हुआ है। जैसे कोई किसी काल- 
सर्पंकोी देखकर एकद्म दूर होजाय, उसी प्रकार वह “मर 
जा !” कहकर चीख मारती हुई दूर होगईं। उस समय उसके 
मनमें यही आया कि, इस समय में बड़े संकटसे बची | इसके 
बाद सकबव॒काकर वह चारों ओर देखने रगी | उसकी चैष्टा इस 
समय अत्यन्त सयभीत और थोड़ी थोड़ी कुद्ध भी दिखाई देरही 
थी | शायद उसकी चीख कानमें पड़ी, इसीकारणसे उसका 
वह बच्चा, जो एक ओर पड़ा सोरहा था, जाग पड़ा; और रोने 
लगा। यह सुनकर वह दौडी, ओर तुरन्त ही, “बेटा ! अरे मेरे 
छोने ! इतनी देर में तुझे छोड़कर कहां चली गई थी [!” कहकर 
उसे छातीसे लगा लिया; ओर बार बार चुम्बन लेने छगी | 
बच्चे के हाथ लग जानेसे उसे अत्यन्त आनन्द हुआ | उस 
आनन्दमें मानो वह यही भूल गई कि, मैं. कहां है; ओर कहां 
नहीं | ऐसा जान पड़ा कि, अब उसे यह भी भान नहीं रहा कि, 
अभी क्षणमरके पहले में किस बड़े संकटसे बची । वह बिलकुछ 


कलपमलनाअ>के कप 











हेड 2८७ 
अक्फप *+ ० २ 3बीशिइरपी (4९, 





पागरूकी तरह इधर-उधर डोलने छगी | इतनेहीमें उसकी नज़र 
डस पड़े हुए दूसरे छोकरेकी ओण गई। ओर किए वह एछदप 
“अरे यह कोन |” कहकर दिहकाई | उस समय यदि किसी दूसरेने 


 डसका वह बोल झुमा होता, तो उसे यही मास होता कि, कहीं 


यह पागल तो नहीं होगपी। किन्तु उस सप्य उसकी वह दशा 
देखने ओर उसका वह वचन सुननेके लिए वहां कोई भी जायत 


नहीं था। उसके उस खिह्लानेकों सुनकर ही श्यामा जाग पड़ा | 


उसने एक लम्बी सांस ली, हाथ पैर तम्ताये, जम॒हाई की. और 
आंखें खोलीं--देखा, तो उसके सामने वह स्त्री खडी है। उसे 
देखते ही वह चैतन्य लड़का एकदम उठकर खड्ा होगया। 
इसके बाद एक बार उसने चारें ओर देखा। पहलेपहर तो 
उसके स्मरणमें सब बातें नहीं आई' । किन्तु धीरे घीरे सब बादें 
उसके ध्यानमें आगई' | क्षणमर तो यह कुछ भी उसके ध्यानमें 
न आया कि, में कहा हूँ; ओर कैसे आया । क्योंकि जिस समय 
वह चक्र खाकर गिरा था, उस सप्रय इतना बेहोश होगया था 
कि, उसे कुछ भी भान नहीं रहा था। परन्तु अब, जबकि चारों 
ओर उसने देखा--ओर विशेषत: उस छटपटाले हुए दुष्टकी 
ओर जब उसकी दृष्टि गई, तब उसे सब कुछ याद आगया । 
इसके बाद, जिघ तलवारसे उसमे उस शिखानष्ट घिपाहीरडो 
जर्जर किया था, उसकी ओर जब उसकी नजर गई, तब तो 
उसे फिर सारी बातें पूरे तोरपर याद आगई' | वह उस खोकी 
ओर देखने रूगा; और चह स््री उसके मुखक्की ओर देखने छगी। 














कुछ सोचा; ओर गोदके लड़केकों तुरन्त ही नीथे हाल 





9 2८९ 22 लव 


स्ध््क के बडे | ०...» 
इतनेमें शयामा एकदम उससे झहता है, 'सूर्याजीराय कहाँ है 


इस प्रशफे काममें पड़ते ही उल खीकी जो दशा हुई, उसके 


वर्णन करनेकी हमारी ढेखनीयें शक्ति नहीं है। बह एकदम वहांसे 
आऋपदी; ओर तीरकी तरह उस कमरेसे अदृश्य होगई। उसके 
पीछे पीछे श्याप्ता भी शया । शयाध्राको यह सलीभांति मालूम 
था कि, यह सूर्याजोरावकी स्त्री है, ओर इसीलिए उसमे उससे 
यह प्रश्न किया था। उस बेचारेको यद कया सालूम कि, उसके 
मनकी उस समय क्या दा थी। वह यदि माल्यूप होती, उसके 


विषयय उसे यदि थोडाघा संशप भी होता, तो उसने वह प्रश्न 


न किया होता । जो हो, वह उसके पीछे पीछे गया। किसी 


चकित हिस्मीकी भांति घह इस दरश्वाज़ेंसे उस दरवाज़े में ओर 


उस द्रवाज्ञ से इस द्श्वाजेमे छलांगे भरती हुई जारही थी। 
अन्तर वह उस जगह पहु ली, जहां वह चीर पुरुष छट्पटाता 
हुआ पड़ा था; और जिसका उठ्छेख पिछछे परिच्छेद्के अम्तमें 
हुआ हे। घहाँ आकर वह चायें ओर शून्य दृष्टिसे देखने ऊूगी । 
जिस पुरुषको दू ढ़नेके लिए यह आई थी,वह पुरुष--वबही उसका 
प्यारा पति--अबतक उसकी दृष्टिकों छटपटाता हुआ दिखाई 
नहों पड़ा | वह चह्दींकी वहीं पागछूकी तरह घूमने रूमी । उसके 
मनको यह भासल तो अवश्य होसुका था, कि जिसकी सल्शश्म 
आई हूं, वह पुरुष यह्टींपर कहीं है अवश्य । वह बार बार 
डसके पास जाती; और फिर दूर हुट जाती। अच्तमें उसमे 









जैसे २८२ ; 


पट 
दिया | फिर उस शान्त परे हुए-ग्लानिके कारण बेहोश पड़े 
हुए--वीर पुरुषके पास गई । उसकी ओर ज़रा ग़ौरसे 
देखा, ओर बड़े ज्ोस्से चीख मारकर एकदम बेहोश 
हो गिर पड़ी । श्यामा उसके पीछे पीछे उसे दूँ ढ़नेके लिए आ ही 
रहा था;परव्तु वह अत्यन्त वेगके साथ भागती हुई ओर छलांगें 





मारती हुई जलरही थी, इसकारण वह बराबर उसके साथ 


नहीं रह सका--वह इस बातपर ध्यान नहीं रख सका कि, 
जरदीसे वह किस कमरेमें चली गई। वह इल कमरेसे उस 
कमरेंमें ओर उस कमरेसे इस कमरेमें घूम रहा था। इतनेमें 
उसके उपयुक्त चीखनेकी आवाज़ उसके कानोंमें पड़ी, जिसे 


लक्ष्य करके चह दोड़ता हुआ उसी कमरेमें आया | देखता क्या 
है कि, सूर्याजीराव बिलकुल घायल होकर ग्छतवत्‌ पड़ हैं--यही 


नहीं, बढिक श्यामाने तो पहलेपहल यही समझा कि, वे बिल- 
कुल मर ही गये है । उनके मरनेका, विचार मनमें आते ही 
जसके मनकी कुछ विजित्रसी दशा होगई। क्योंकि जैसी 


. सानासाहबपर उसकी भक्ति थी, बेसी ही सूयोजीपर भी थी। 


नानासाहबके सन्देशे-बन्देशे और पत्र इत्यादि छेकर इधर कई 
बार वह आचुका था। सूर्याजी ओर नानासांहब दोनोंमें बड़ा 
स्तेह था। दोनों मिलकर जब कभी शिकार-विकारकों जाते. 


तब इस छोकरेने कई बार उनका कोशल देखा था।. इसके 






अतिरिक्त उनके पटा-बनेदी, कुशती, मरूखम्भ, इत्यादि खेलोंके 
कोशल भी उसे माल्म थे। उस छोकरेको उक्त खेलोंका मर्म तो 


प्र 





७७० 









3 २८३ 2) |. आलन्तिम सन्देश है 
करके इक कर 2०8 250: न 

बहुत मालूम नहीं था--हाँ, इतना वह अवश्य जानता था कि, 

याजी भी हमारे नानासाहबके समान ही एक वीर पुरुष हैं 

ओर इसीकाश्ण, महरोंके अन्दर प्रवेश करते ही,यह बात उसके 
खयालमें आई थी कि, सूोजी यदि महलोंमें होंगे, तो, जबतक 
उनकी लाश न गिर जाय, वे कदापि शत्र ओंको अन्दर नहीं 
घुसने देंगे। यह सब चूंकि पहले ही उसे मालूम होचका था 
ओर इस्रीकारण, सूर्याजीको जबकि उसने स्तवत्‌ पड़ा हुआ 
देखा, तब उसे कोई आश्चर्य नहीं हुआ | फिर भी उसके मुहसे 
“हा | हा! अन्तमें मुसल्मानोंने इनको मार ही डाला”-इस 
प्रकारके वचन निकले बिना नहीं रहे | क्षणभर उन दोनोंकी 
ओर---डस स्त्री ओर उस पुरुषकी ओर--उसने देखा। फिर 
सूर्याजीके बिलकुल पास वह गया; ओर उनकी ओर ज़रा गौरसे 
देखा । इतनेमें सूर्माजीके एक दी्घ निःश्वास छोड़नेका उसे 
भास हुआ। उसे मालूम था कि, बेहोश आद्मीकी आंखों 
इत्यादिमें पानी छगानेसे ओर उसके मुखपर जल छिड़कनेसे वह 
होशमें आजाता है | उसने अपनी माको इसी प्रकार एक बार एक 
स््रीको होशम लाते हुए देखा था। वैसा ही सूर्याजीके साथ भी 
उसने किया। उनकी आंखोंमें पानी लगाया,णएक शूट पानी उनके 
मु हमें डाला, उनके सुंहपर पानीका एक छींटा मारा | इलाज 
जर्दी ही काम कर गया, सूर्याजीने फिर एकबार एक रूस्बीसी 
सांस ली; ओर तुरन्त ही आँखें खोल दीं श्यामा, यह देखते ही, 


सूर्यांजी राव, सूर्याजी राव! ” करके बड़े ज़ोरसे पुकारने 








और उसका ( स्त्रीका ) हाल कुछ मालम है ?” इन प्रश्नोंका 





हे ३ 7((.. 





लगा । सूर्याजी राव अभी पूरे पूरे होशमें नहीं आये थे, 
श्यामाके पुफारनेसे ये कुछ ज्ञाशुतसे हुण | उन्होंने इधर-उधर 
देखा | फिर भी बह रूड़का कोन छै, ओर यह व्या हो रहा है, 
सो कुछ उनके ध्यानर्मे नहीं आया। तथापि जैसे कोई मजुष्य 
दूरसे ऐसी किसी घोजु को गोस्से देखता हो, जोकि उसको 
पहचानकी हो--बस,इसी प्रकार सूथाजीशव उस छड़केफी ओोर 
देखने रंगे । जान पड़ता था कि, उनके मनमें यह सम्देह हुआ 
हैं कि, जो ऊड़का हमारे साएने खड़ा है, उसे हमने कहीं देखा 
है। क्योंकि वे उसकी ओर बड़े गोरसे देख रहे थे। कुछ देरके 
बाद ऐसा माछूम हुआ कि, जैसे उन्होंने पूर्णतया उसे पहचान 
लिया हो | छुण्न्त ही, अत्यन्त क्लोण स्वरसे, उनके मँहसे ये 
शब्द्‌ बाहर निकछे-- “ कोम ? श्याधा, तू कब यहाँ आया? ” 
श्यामाने तुरन्त उनकी ओर देखा, ओर कहा, “ में कमीफा 
आया हूं। हमारे सखरकारने देशघु्ख साहबको देनेके लिये सुमान- 
को एक चिट्ठी दी धी--सरो डसे पहुंचानेके छिये में यहां आया; 
ओर गाँवमें आकर यह सब गड़बड़ी देखी | सूर्याओ राष,यह बात 
क्या हुई ? एकाएक ये झुसल्ल आये कहांसे और किसके हुक्मसे ! 
सूयोजी राबमे उसके प्रश्नोंको लिफे सुनभर छिया। उत्तर 
देनेकी उन्हें शक्ति ही न थो; भोर उनका ध्यान भी पूरा पूरा 
उचर नथा | थे बीवमें ही एकदम अपने क्षीण खरसे कहते ह 
श्यामा, पिताजी कहां हैं रे | माताजी कहां हैं? बहन कहां है 








8 कु) ः आन्तंम सन्देश कै 


कया डसर दे, सो श्याम्राक्ो कुछ सूक न पड़ा | हां--“थे देखो, 
यहां अपने बच्चे के पाल पडडी हैं? कहकर वह परकदम उस 

बदी, सुन्द्रीके पास गया। युवतीकों दशा पहलेहीकी भांति 
होरही थी। श्यागाने अपना पानीका उपचार फिर किया, 
इससे बह होशमें तो आगई, पर पहलेसे थी अधिक्क पागल 
दिखाई पडो। डठते ही उसने बालकको फिर पहलेहीकी 
भांति उठा लिया, और एक गाना गाने छगी। फिर 
पूर्धाजीकों ओर देखकर--भरे ये कोन हैं? बाम इनका क्‍या 
१? अजी यहां आकर क्यों पड़े हो ?” इत्यादि कोई व कोई 
प्रश्य करके हँलने छगी । यह ओर क्या हुआ ? सूर्याजी बड़ी 
खित्तामें पड़े। परन्तु उन्होंने ल्लोको पुकारकर--“यह क्या ? तुम _ 
ऐसा क्‍यों करती हो ? पिताजी कहां हैं ? माताजी कहां हैं? 
तुम अकेली यहां केसे आई' ?”-...इस प्रकारके प्रश्य, एकके बाद 
एक, किये। परन्तु कई पश्तोके उसने उलडेखुलदे उसर दिये, 
ओर कईके डर दैना तो एक ओश रहा, वह इसमे छलगी। यह 

खकर सूर्याजीने श्यामाकी ओर जिज्ञासाद्शंक दृष्टिसे 
कम्से कम ऐसी दुृश्टिसे देखा कि, जिससे श्याधाको घकर हो- 
गया कि, थे हमसे कुछ पूछना चाहते हैं, ओर इसकिए उसमे 
सोया कि, अब श्यकोीं सब चृलान्त बता देवा जाहिए । तद- 
चुलार जबसे बह गाँवमें आया था, तबसे छेकर और छलूर्याजीके 
पास आनेतकका सारा वृवान्त बतरका गया | छूर्याजीने सब 
वृत्तान्व शान्तिपूवंक खुब लिया; ओर एक रूश्बीसी सांख लेकर 











4 उधषाकाल कै । (्‌ कुछ. कु) 
कै बार ह.... || € ६ 3 


>>ग्दाह 


बडुत देरतक बिलकुछ चुप रहे। उनकी ख्ोका परागलपत्रका 
अलाप अथची जारो ही था। इसलिए सूर्याजो फिर अपनी ख्ोकी 
ही ओर देखकर कहते हैं, “श्याप्रा, तूने आज इसनी चीरताका 
काम किया है कि, में यदि अच्छा होता, तो तू जो कुछ कहता, 
वही मैं तेरे लिए करता | श्यामा, तूने आज जो कार्य कर दिख- 
लाया है, उसका महत्व तुझे कुछ नहीं मालूम है। तूने आज 
किसका प्राण लिया है, सो तुझै नहीं मालम है। में अब यहां 
इस हालतमें पड़ा हूं। आशा नहीं है कि, बच'गा। पर यदि 
मैं अच्छा होता, तो तुझे अपने पुत्रकी जगह रखता | बेटा, आज 
तूने मेरे एक बड़े भारी दुश्मन को--गौ-ब्राह्मणके बड़े भारी 
कष्टदाताको, मराठोंके एक कट्टर शत्रु को--नष्द किया है। 
निसछन्देह वह एक माम्रूठी आदमी है, पर है बादशाहका बड़ 
भारी प्यारा | उसके बिता क्षणसर सीं बादशाहक्ा नहीं 
चलेगा। पर सचप्ुव क्‍या वह मर गया ? क्‍या डप्तक्े 
प्राण निकछ गये? श्याम, जो कुछ हुआ, सो अच्छा 
हुआ। किन्तु इसका परिणाम बहुत भयंकर होगा | तू अब 
यहां क्षणमर भी मत रह। बागमें चछा जा; ओर घोड़ा छे । 
इसको एक घोड़ेपर बैठा; ओर एकदम यहांसे चछा जा। शखब 
सिपाही चले गये, किन्तु यह शेतान अमी नहीं गया। सो यह 
बात आगे गये हुए सिपाहियोंके ध्यानमें आगई होगी। थे 
लोग कुछ देश्तक इसके आनेका रास्ता देखेंगे, परन्तु अब 
बहुत देर होगई; और यह अभी पहुंचा नहीं है--इसके बिना 








३ ७ 2) ५ आह सूकद शा 
(₹ ८७ 2) ॥ आन्तिम सम्दे £ै 


>कड-नक- न(: ॒ कर जा 2202 2202 0,480. 





उनको आगे जानेका साहख नहीं होगा । इसके बिना यहि ये 
चले भी जायंगे; ओर फिर याहे जितने पराक्रमके कार्य कर 
जावें--डनका कुशरू नहीं। बस, घड़ीमरके अन्दर ही वे 
लोट पड़ेंगे, ओर जहां उन्होंने उसकी छाश देखी कि, फिर 
क्या अनर्थ करेंगे; ओर क्या नहीं करेंगे, सो कुछ कहा नहीं जा- 
सकता | जा, अधथ तुरन्त हीजा। गाँवके लोगोंकों देख, 
'कतने डरपोंक हैं--अभमो एक भी आदमी इधर फ्रांकने नहीं 
आया"“'जा"“ जाए... द द 
यह एकद्म रूस्वासा भाषण यहां बराबर दिया गया है, पर 
सूर्याजीके मुखसे यह सब लड़खड़ाते लड़खड़ाते और ठहर ठहर- 
कर निकछा। पत्येक दो शब्दोंके बीच बीचमें वे कराहते जाते 
थे। बीच बीचमें उनको विस्मरणसा होजाता था। वे ठहर 
जाते थे। गर्दन इधरकी उधर करते थे। होंढोंपर जीस 
फेरने लगते थे; ओर फिर कहने रूगते थे। किन्तु इस प्रकार 
भी वे और कितनी देर बोछ सकते थे ? उनका गला बिलकुल 
घूख गया; ओर फिर बोल ही न निकलने रगा। “पानी” 
“पानी” का शब्द उन्होंने एक-दो बार कहा, किन्तु चह शब्द 
उनके होंठोंके बाहर नहीं त्रिकला। श्याप्ता सिर्फ अनुमानसे 
समझ गया; ओर उसने उन्हें दो छूट पानां दिया। पेटमें 
पानीके जाते ही वे फिर होशियार हुए। कमसे कम, आगे जो 
कुछ कहनेवाले थे, उसको कहनेमरके लिए उनमें शक्ति आई | 
वे फिर श्यामासे बोले, “जा। घुड़खालसे दो घोड़ोंके उपर जीन 





उषा 





निकाली; ओर सो भी अवानक | मैं सो अब जी नहीं सकता 





उषाकाल कै 
“७922७ ५20) ), दट  3. 





५ २८८ 2 


डाल के; ओर इसको ( ख्ीकी ओर संकेत करके ) अभी छेज़ा | 
यहांसे उगोती गांवकी ओर दो कोसखपर जा। वचहांसे यार 
रास्ते फणते हैं । उन राष्तोंके पास जानेपर दाहिनी ओश्के रास्तै- 
पर मुड॒ना । वह राप्ता कुछ दूर बाद छण जाता है, फिर जंगल 
प्रिकता है। उस जंगलमें एक बड़ा सा बरणद्का तुश्ष है। वृक्ष 
बड़ा भारी है। उसके नीचे एक कोपड़ी है | पहां एक बुड़ा तुझे 
मिलेगा | जब घू उस बुढ़ के पाल जायगा, सब पहलेप्हल वह 
तुझे मारने दोड़े गा; पर तू उसे तुरूत ही यह कटार और ताबीज 
दिखा देवा | इसके बाद यहाँंका खब हाल उसे बताना । कहना 
कि, सूर्याजीने अपनी खो ओर बच्चे को तुख्हें सौंपा है |” 
अग्तके शब्द्‌ फिर अत्यन्य क्लीण खण्से निकलने रंगे । एक 
शब्द कहते, किर होंठ बबाते और कराहते जाते थे | इसके बाद 
एक बार फिर उन्होंने पानी मांगा | श्याझाने फिर उन्हें दो घट 


पानी द्या; ओर फिर बे--इस बार बहुत हीं ज़ोस्से बोलने लगे 


#और श्यामा, नाना साहब यदि तुझे कभी मिल जायेँ, तो 


उनसे ये मेरे अन्विम वचन कह देवा कि, यदि तुम सच्चे 
मराठे हो; और यदि, हमारी-तुम्हारी जो शाप्थें हो चुकी 
है।वे शपथें तुम्हारे ध्याममें हैं, दो मेरी इस झुत्युक्ा बदका 
जुकाये बिना तुम कम्मी म रहता | झाज मेरे कथ्म्ययर जो बीती 
हे, बही तुम्हारे कुडुम्बपर भी बीती है । मेरे हाथसे सहायता 
हुई होती, किन्तु उन्होंने एकदम दोनोंका गछा पकडनेकी यक्ति 











क्चु आन्तिम सन्देश. 
है) 3 अश्तिम सन्देश. 


मेरे कुटुम्बका अपमान हुआ। तुम्दारे कुटुम्बका भी, आज या 
कल, शीघ्र ही, होनेवाला है । अब तुम्हारे हाथमें ओर क्या रह 
गया है--खिवाय बदला लेनेके । सो तुम यह करनेमें. भी नहीं 
चूकोगे, यह में जानता हूं। किन्तु मेरी जो दशा हुई है, उसको 
ध्यानमें छाकर दूने ओर चोगुने ज़ोरसे बही करो। किसी 
प्रकार भी अब-श्यामा,मेरे ये अन्तिम शब्द्‌ कहना | तू कभी न 
भूलमा, उनसे कहना कि, 'मराठोंकी सन्तानके लिए जो उचित 
है, सो करनेकी--ओर पूरा पूरा बदला लेनेकी--अपनी शपकें 
कभी भत भूलों ।' इतना कहकर मेरी यह कटार उनको दे देना | 
जा, अब तुरन्त जा ।” | 
अन्तिम जा! उनके मु हसे निकलने नहीं पाया था कि, फिर 
उन्हें बेहोशी आगई। अन्तके उनके वचन बहुत ही अस्पष्ट 
निकले; क्योंकि क्षण क्षणपर उन्हें क्षीणता आरही थी। किन्तु 
हां, जबकि वे ये वचन कह रहे थे, उनमें एक प्रकारकी विल- 
क्षण स्फूति, एक प्रकारका विचित्र जोश, आगया था। किन्तु 
जब किसी वातका अतिरेक होजाता हे,तब उसका परिणाम भी 
वैसा ही होता है । जोशके जाते ही क्षीणताने अपना साम्राज्य 
इतना बढ़ाया कि, बेहोशी ही छा दी। श्यामा अवश्य ही बहांसे 
. नहीं हिला | उसने पानीका प्रयोग फिर किया | लूर्याजीकी स्त्री 
अपने बच्चे को लिये हुए, उसकी ओर देख देखकर, हँस रही थी | 
यह क्या होरहा है; ओर क्या नहीं होरहा है-इसका उसे 
. कुछ ज्ञान ही न था। वह बिलकुल पागल होरही थी। श्यामा, 














१ दपाकाल है 03 २६० 2) 


45 ७२५५२ (022 (के है मं नरीवफननबुधरक. 


जबकि सूर्याजीके मुखपर पानी छिड़क रहा था, कुछ ब'दें उस 
युवतीके शरीरपर जाकर पड़ीं। उनके पड़ते ही--“अरे, _ शरे, 
यह क्या | आग लग गई ! चिनगारियां उड़ी [” कहकर वह 
वहांसे तुरन्त ही चलती बनी । उस समय श्यामाको यही न 
सकने लगा कि, अब वह उस खस्वीके पीछे जावे, अथवा सर्या- 
जीको होशमें छावे । किन्तु इतनेमैं सूर्याजीने आँखें खोल दो 
ओर श्यामाको देखते ही कहने रंगे, “अरे छोकरे, तू अभ्षी गया. 
नहीं? जा, तुरन्त ही उसे लेकर, जहां मैंने बतराया,जा। 
जिससे मेरी आंखोंके देखते मुसहमान छोग आकर उसका अप 
मान न करने पाये | जा, चला जा |? 

“आप इस तरहसे पड़े हुए हैं, में आपको अकेले छोडकर 
केसे जाऊ' ? यह हो कैसे सकता है ?” ए्यामा एकद्म उनसे 
कहता है, “आपको इस प्रकार छोड़कर मैं कभी नहीं- 
जाऊगा।” द 
“अरे, मेरी चिन्ता न कर। मेरे विषयमें अब याहे जितनी 
चिन्ता की जाय, में जी नहीं सकता | वह्द पागल होगई, अपने 
भानमें नहीं हे,सो भी एक तरहसे अच्छा हो हुआ में मरू'गा। 
मुझे कोई बहा देगा ही | ऐसा ही को मुझे बहावे तो ठीक 
शिखानष्टोंके यहां रहक्कर जो मनुष्य अपने बतको भूछ गया 
है, उसका अन्तिम संस्कार अच्छी तरह होना ही क्‍यों 
चाहिए? जा,जा। में तुकसे बार बार कहता हूं, श्यामा, 
जा। तू जितनी ही देर अब यहां रहेगा, उतनी ही जह्दी मैं... 








श्ध्ह गो | अ्तिम सल्देश हैं 


-अहए'-ह नि <बुन--श-०-73 २३ ०-+ 5 ल द 








मरूगा। तू जा; ओर उसे छेजा। मेरी दृष्टिके आगे अब 
तू मत रह। वह कटार ले। वह तावीज रख छे। जा, उसी 
जगह, जहां बतलछाया; ओर फिर नाना साहबसे मेरा सन्देश 
कहना न भूलना !?” 
इसके आगे सूर्याजीके मुखसे कोई शब्द नहीं निकला. और ४ 
वे ऐसी दृष्टिसे श्यामाकी ओर देखने छगे कि जिससे श्यामाने 
यह सम्रका कि, अब आगे यद्दि हम रहेंगे, तो इनके लिए अच्छा 
नहीं है। डखने सोचा कि, हम रहेंगे तो इन्हींके लिए अवश्य 
पर इससे यदि इनको अच्छा नहीं रूगा, तो फिर हमारे उस 
रहनेसे कया लाभ ? यह सोचकर वह उठा। इसके अतिरिक्त 
उसके मनमें यह विद्यार भी आया कि, इनका बतराया हुआ. 
काम करके फिर आदें; ओर फिर इनके पास बैठे, तो क्‍या. 
हाने ? यह सब सोचकर वह वहांसे चलनेहीवाला था कि... 
सूर्याजीने फिर उसे इशारा किया कि, “पानी दे, प्यास रूगी 
है ।” इशारा पाकर श्यामा तुरन्त ही उनके होंठोंके पास पानी 
लेगया; परन्तु वे पीने ही न छगे, बढिक यह इशारा किया कि, 
लोटा पूरा पूरा हमारे हाथमें दे दे, और वे छोटा अपने हाथमें 
लेने भी लगे। श्यामा अब इस विचारतें पा कि ल्ोठा इनके 
हाथमें देवें या न देवे । अन्तमें छोटा उसने उनके हाथमें दे दिया। 
उसके हाथमें आते ही सर्याजी श्यामाकों जोर ज़ोरसे इशारा 
करने लगे कि, “अब तू जा, जञा।” साथ ही होंठोंसे कुछ खस- 
फुसाये भी । ऐसा जान पड़ा कि, उपय॑क्त अर्थके ही शब्द उन्होंने 














हि उजाकार की । 





कहे भी | श्यामाने देखा कि, अब हमारे यहां रहनेसे कोई 
नहीं। अतणव अब वह द्रवाजेके बाहर पैर रखनेहीवाला था कि 
इतनेमें सयोजीने फिर उसे अपने बिलकुल पास आनेका इशारा 


किया | उसके पास आते ही उन्होंने उसके कानको बिरूक॒ल अपमे 


मुं हके पास लानेका संकेत किया । अब कुछ बातयीत केवल 
इशारोंसे ही होने लगी थी। बोलनेकी शक्ति ही न थी | 

जो कुछ इस सम्रय उन्हें कहना था, सो इशारोंसे कहनेयोग्य 
नहीं था, कमसे कम इशारोंसे बताकर समम्कानेयोग्य तो नहीं 
था | श्यामा अपना कान उनके होंठोंके पास छेगया। उस समय 
ये अक्षर उसके कानमें पड़े:--“ताबीज ओर कटार किसी दूसरे 


के हाथ न लगने देना | नाना साहब जबतक न मिलें, कदार तू 


अपने ही पास रखना। तावीज यदि बुड़ा मांगे, तो उसको 
दे देना,अथवा तू अपने ही हाथसे मेरे बच्च के गलेमें बांध देना] 
ओर जो कुछ करना होगा, सो सब वह बुड़ा ठीक ठीक करेगा। 
कमंधम-संयोगसे यदि वह अच्छी होजाय तो... ... किन्तु मेरे 
मरनेपर यदि वह नहीं अच्छी हो, तो ही अच्छा ! क्‍योंकि यदि 
वह अच्छी होजायगी; ओर उसे यह मालम ह 
गया, तो......तो ... ...न जाने अपना वह क्या कर डाले !” 
. “किन्तु आप बार बार मरनेकी बात क्यों करते है?” आप 
मरे नहीं। आप शाल्तिसे रहें। मैं अभी आपका बतलाया 


करें 


हुआ काम करके, ओर :लछोटते समय किसीको लिये. आता 


हूं । फिर आपके घावोंको बांधकर आपको अच्छा करता हूं। 





५६ २ है ह) 4 अन्तिम सन्देश 9 
कण ब्ध््च्््च्स्ल््छर 








सू्या ज्रीका चेहरा उस समय क्षण क्षणपर स्याह पड़ता जारहा 
था; परन्तु श्यामाके उपयु क् वचन सुनकर,उनके उस क्षण क्षण- 
पर स्थाह होते हुए चेहरेपर भो, मद हास्यकी एक मकलरक 
द्खाई दी, फिर ये शब्द श्यामाके कानमें आये:--“अरे, अब 
मेरे जीनेकी आशा [” श्यामा मानों उन शब्दोंका ठीक ठीक 
अर्थ ही नहीं समझ सका । आगे वह और भी कुछ कहनेवाला 
था कि, इतनेमें सूर्याजोरावकी आँखे मुँ दीं--हां, वे हाथोंसे 
बराबर “जा, जा, जा [” का इशारा करते रहे। श्यापाने अब 
आगे-पीछे कुछ नहीं देखा; ओर वहांसे एकद्म चलकर सूर्याजी 
की पत्नोको दूं ढ़ने लगा । अवश्य ही अंब वह उस मुखंब्मान 
सिपाहीके किये हुए अपमानके कारण बेहोश होकर पागछ हो 
गई थी | द 

महरांमें जिस समय, यारों ओर गड़बड़ी मची, सूर्याजीकी 
पत्नी अपने कप्रेंमें अपने बच्चे को दूध पिछाती हुई खिला रही 
थी; और सूर्याजीका रास्ता देख रही थी कि, अब बे पानका 
बीड़ा खानेको आते होंगे। किन्तु अचानक ही चारों ओर कोला- 
हल मच गया । जिसे खुनते हो उसने बाहरकी ओर दृष्टि डाली, 
तो “भारो-काटो, पकड़ो, तोबा तोबा [” की ध्वनि चारों ओर 
खुनाई दो | मुखद्मान लोग प्रत्येक चोकके सब कमरोंमें घस 
रहे थे; ओर उस स्वीके श्वखुर और पतिका नाम छे लेकर चिल्ला 
रहे थे; ओर कह रहे थे--“कहां हैं. साले, बदमाश? पकडो 
जल्दी !” इस सारी गड़बड़ीका वह कुछ भी कारण समझ न॑ 











. : 4 उषाकाऊक # हे 
ही है: 








बट जा 


७० ॥७८:० शआ -क० २ पर 0 
ध्कु ह५0 8 ९०  पँ (97 न 
है कक: 


खकी। अभी हालहीमें उसके बच्चा पैदा हुआ था, जिसके बाद 
बीचमें वह कुछ बीमार होकर, अब कहीं कुछ कुछ अच्छो होने 
छगी थी। उसका पति तो उसका सर्वे्व ही था। इसलिए जब 


उसने देखा कि, उसकी जादपर अब कोई भयंकर संकट आते- 


चाला है, तबचद अत्यन्त घबड़ाई, और यह सोचा कि, जहां 


हमारी सास, ननेंद्‌ ओर श्वखुर इत्यादि लोग हैं, वहीं जाकर 
पतिका प्रता लगाना चाहिए। यह,सोचकर बह अपने बच्चे को 


रोता हुआ छोड़कर बाहर निकली; किन्तु अभी वह अपने कमरे- 


के दरवाज़ैसे बाहर पैर रखनेहीवाली थी कि, पीछेसे उसकी 
दो दासियोंने उसको पीछे खींचनेका प्रथल्ल किया। उन्होंने वार- 


सवार उससे यही कहा कि, “तुम इस समय बाहर न जाओ | 


बाहर जाओगी, तो तुमको वे पकड़ छे जायेगे | वह दुष्ट यवन 
आगया है। अभी अमी उस दुष्टको मैंने देखा है |” यह कहकर 
उन्होंने उसका हाथ पकड़ लिया, अंचछ खींचा परन्तु वह 
निकल ही गई। एक चोकसे वह अभी दूसरे चौकमें गई थी 
कि, इतनेमें, जैसाकि पिछले परिच्छेदमें यतलाया, उस चांडाल 
शिखानष्टकी दृष्टिमें चह पड़ गई। बस, यह“अहा हा ! मेरी ज्ञान ! 
यही है मेरी बिजली !” कहकर उसके पीछे लूगा । इतनेपर उस 
वेचारीकी क्या दशा हुई होगी, उसका पाठक हो अनुमान करें ! हे 
जैसे; कोई हिरनी भेड़ियेके पंजेसे छूटनेके लिए जी छोड़कर | 
भागती है, वैसे ही चह क्तहाशा भागती हुई अपने कमरेकी ओर... 
गई.। भेड़ियेने जब एक बार. हिरनीको देख लिया -+और विशे- 








* आम क अल" 
च्य्ज्य्च््य्ख्य्श्ना 
घंत: उस हिस्नीको कि, जिसके लिए वह बहुत दिनोंसे हज़ारों 
प्रयल कर रहा था; ओर फिर अवाबक उस सप्तय वह हाथ 
आनेवालो हे--तब भला वह उसके पंजेसे के छूट सकती थी ? 
वह उसके लिए बिलकुछ उतावला होरहा था ! वह बराबर 
उसके पीछे ही पीछे, उससे भी अधिक वेगके साथ, छलांगें 
मारते हुए दोड़ा; ओर एकदम उसके पीछे ही पीछे उसके कमरेमें 
घुसा । उसकी दासियोंमेंसे एक दाखी अपनी खामिनी और 
उस दुष्टके बीचमें आई । इसपर उस नरपिशाचने उसे मिड़ककर 
शक ज़ीनेके नीचे अत्यन्त ऋरतापूर्वक ढेकेल दिया। इसके 
आगे उसकी क्या हालत हुई, सो उस अंधेको क्या मालूम ? 
दूसरी दासी अवश्य ही चहांसे तुरतत सटक गई। अब वह 
अन्धा भीतर जाकर उल्ल युवतीसे मिड़ने रगा। यह देखते 
ही उसका शरीर जरूू उठा। लरूगभग पन्छह-बीस मिनटतक 
उसने बड़े प्रयल्नके साथ आत्मलंरक्षण किया; परन्तु अन्‍्तमें 
यहांतक नौबत आगई कि, सन्तापके भारे चीख मारक्रर घड़ाम- 
से वह नीचे गिर पड़ी; ओर बेहोश होगई। इसके आगे जो 

कुछ हुआ, उसका वर्णन पीछे हो ही चका है। 

श्यामाने जब देखा कि, सूर्याजी आँखे मूँदकर शान्त हो 
रहे, तव वह उनको चेसा ही छोडकर बाहर निकला; ओर इधर- 
डघर घूमकर उस सत्रीकी खोज करने छगा । उस समय वह 
इस चिन्तामें था कि, इस स्त्रीको मनाझूर अब उसे घोड़े पर 
केसे बेठावें कि, जिससे वह चुपकेसे हमारे साथ चल देवे | 











४ उषाकाल है 


७ ६०० (७22७ 





सूर्याजीसे तों उसने कह दिया कि, अच्छा, जो काम आप बत- . 
लाते हैं, में अभी किये आता हूं; परन्तु यह नहीं सोचा कि, घोड़ - 
पर ज्ञीन कैसे करेंगे, अंथंवा इस स्त्रीको बैठावंगे कैसे ? सूर्या- 
जीको भी शायद यह विद्यांर नहीं सूका कि, यह इतना छोटां 
छोकरा है--यह ये काम कैसे करेगा। किन्तु, कुछे भी हो, 
श्यामा पीछा पकडनेवाला रूडुका नहीं था। उसने यही सोचा 
कि, आओ, पहले सूर्याजीकी स्त्रीका पता तो लगावें--बस, 
बद इधर-उधर घूमने रूगा; परन्तु कहीं उसका पता न छूगा। 
उसने बहुत दू ढ़ा; और अब ऐसा मालूम होने छूगा कि; कोई 
जगहं बाक़ी नहीं रही, जहांकि दूँढ़ा जाय | इतनेमें उसके 
. कानोंमें ऐसी आवाज़ आई कि, जैसे कोई अत्यन्त मधुर खरसे 
गाता हो । उस आवाज़को बह भलीभांति पहचान गया; और 
उसीको लक्ष्य करके वह चला। अन्‍न्तमैं महलरके पूजा-यृहमें 
जाकर वह क्या देखता है कि, सूर्याजीकी स्त्री देवताओंके 
सामने बेठी कमी हँसती, फिर रोती, बीयमें फिर हंसती और 
चुटकी बजाती हुई निश्चल्ेखित उलटा-सीधा गाना गारही है। 
उस रूत्रीने अपने बच्च को देवस्थानकी सीढ़ियोंके पास, देव- 
ताओंके सामने, बैठा दिया था; ओर खय॑ उसके आगे चुटकी 
बज्ञाती हुई अपने घिचित्र गानेमें अत्यन्त निम्न होरही थी। 
निस्‍्सन्देह, उसके संस्पूर्ण कुदुस्बपर भयंकर संकट आया था, 
जिसे जानंकर उसे अपर्पार ढुःख होना चाहिए था; परन्तु 
फ़िर भी वह, अपनी उस अज्ञानावस्थामें, अपना वह 





त् औऑ) . अन्तिम सन्दृश 
ली अं ९०७-->- लक सलका कल 








गाना गाती हुई उसीमें तदकीन होरही थी! वह गाना इस 
प्रदार था: -- कु 
 दद्ू । 
मसल गये सब मेरे फूल | ः 
किसी दुष्टने पैरतले ये, कुचल मिलाये घूल ॥ घु० ॥ 
फुलवाड़ीसे चुंनकर लाई, किया देव-उपचार । 
किन्तु दुष्तन कुचल कुचलकर, इन्हें मिलाया छार ॥ १॥ 
मालीसे लगवाकर . इनको, सिंचन किया सप्रेम | 
बड़े जतनसे इन्हें बढ़ाया, करके प्रेशा नेम ॥ २॥ 
ताजे थे सब; कुम्हलानिकी, नहीं कभी थी आस | 
किन्तु दुष्टन कुचल कुचलकर, किया सभाका नास ॥ ३॥ 
चम्पा गया; जुद्दी मुरमाई, कुम्हत्ा गया गुलाब । 
हाय ! ह्वाय | अब इन फुलेंभ, रही न कुछ भी अब (४॥ 
यह गीत, बिलकुल तन-मन लगाकर, वह अपने ही आप 
हरा दहराकर गारही थो । श्यामा उसका वह झुन्द्र गाना 
सुनकर तदलीन होगया। वह छोटा था, इसलिए उस स्त्रीके 
इस गीतका सच्चा खरूप उसके ध्यानमें नहीं आसकता था । 
युवती बीच बीचमें खुटकी बजाकर हँसलती जाती थी, फिर एकद्म 
फूट फथकर रोने छगती थी | फिर भी उसका वह उलदा-छुलदा 
गाना बन्द नहीं होता था। कभी कभी, बीचहीमें, वह अपने 
बच्चे को गोद्में लेकर, छड़कोंकी तरह, चाई'-माई' फिरने लगती 
थी. और कहती थी, “अब मैं नहीं आऊ'गी......नहीं आऊ'गी । 









ट उषाकाल 


* ै 
ज्न्य्ूख्रलः पा ड़ 





पहली ही ब।र क्‍यों नहीं अपने साथ लिशय “जी !” हँसती, 
चुटकी बजाती; ओर चारों ओर हाथ करके फिर अपना वही 
गीत गाने छगती | आखपालका वह दृश्य देखकर उसका मन 
बहुत ही बिगड़ा। सूर्याजी जहां पड़े थे, वहां रहते हुए वह 
जितना पागरूपन करती थी, उससे भी अधिक पागरूपन श्स 
समय कर रहो थी ! ज्याप्रा बड़ चकरमें पड़ा। 


हे 


इकीसवां परिच्छेद। 
.. >> त- 
वट-वक्षके नाच । 
उस छ्ीको किसी प्रकार भी बाहर मिकालना, बाहर 


_ लिकाछकर उसको धोड़ेपर बैठाना ; ओर फिर बहांसे उसे, 


जितना गुप्त रुपसे होसके, सूर्याजीके बतछाये हुए खानतक ढे- 
जाना, इत्यादि बातें किसी साधारण पुरुषके लिए शी अस- 
म्भवसी ही थीं--फिर श्यामाके समान छोटे लड़कैको यदि वे 
असस्भव जान पड़ी हों, तो इसमें आम्यर्य ही क्‍या हैं? अबतक 
जो कथानक लिखा गया, उससे पाठकोंकोी कई बार माप हो- 


चुका है कि, श्याघरा एक छोटासा छ़का था। इसफे साथ 


ही: खाथ पाठकोंको यह भी परिचय मिल चुका है कि, श्यामा 


ययपि शरीरमें और अवस्थामें छोटा था; परन्तु उसकी बुद्धि और 
_उका खाहस किसी घीर-वीर और खाहसी. पुरुषके समान 


॥॥॥॥0७ए0एएशशशश/॥/ए%णशणणण 3 ्मनशनद विवश 
























8. 


भा । फिर भी, इस समय जो अवसर उलके सामने आंया था, 
वह एक बिछकुछ विलक्षण अवसर था; और यह एक ऐसा 
अवसर था कि, जिससे उसका मल घबड़ा सकता था। वह 
युवती यदि इस समय अपने होशमें होती, तो पतिकी उस भर्य॑- 
कर दशाके कारण शोकान्ध होकर वह आकाश-पाताल एक 
कर डालती । परन्तु, फिर भी, उस दशामें, एक बार उसे 
सप्तका-वुभ्यकर, गुप्त रुपसे वहांसे उसे ले जासकते थे; किन्तु 
उसकी वतेमानव दुशामें उचको समझामा-बुकाना, उसकी भयं- 
कर स्थितिका उसको ज्ञान कराना; ओर यह बात उसके भनमें 
जमा देगा कि, इस सम्रव यदि तू जल्दी नहीं चलेगी, तो फैसा 
भयंकर मोक़ा तुकपर आनेवाछा है, इत्यादि बातें बहुत ही 
असम्भव थीं! जेसाकि पिछले परिच्छेद्में बतलांया, इस 
समप्मय उसे बिलकुल खुध-बुध नहीं रही थी, वह अपने भाममें 
नहीं थी। हा, उसके पाल उसका जो बालक था, जो गीत वह 
गाती थी; ओर जो विचार उसके मनमें आते हों--बस, इतनी 
ही यातोंके विषयमें शायद्‌ उसको कुछ ज्ञान हो, तो हो! ओर 
बाकी वाह्म खुष्टिका ज्ञान सो उसे बिलकुल ही नहीं था। कभी 
वह अपने कच्चे को देवताओंके सामने रखकर ताली ओर चुटकी 
बजाती,कभी उस बच्चे को ही दोनों हाथोंसे ऊपर उठाकर ज़ोरसे 
चाई'-माई' घूमते हुए खूब हंसती, कभी उपयु क्त गीतका कोई 
अन्तरा अथवा अन्तरेका कोई भाग गाती, कभी. एकाएक रोने 
लगती; ओर कभी कुछ बकने-फकने छगती। यह सब देखकर 





कक बरकन-ी 




















है डउचाकार # ; ह कफ 3) 
. » अकेला 0 । * + अब के हट 


“कक <५--< 
वह छोथासा छोकरा, किसी बंडे मनुष्यकी तरह, अपनी छुड्डी 
पर हाथ रखकर, चिन्तापूवक, खड़ा रहा। पहलेपहल तो 
उसे यह सब दशा देखकर थोड़ीसी हँसी भी आई। परन्तु 
वह छोकरा, ऐसे अवसरोंपर, केवल हँसनेके लिए ही पैदा नहीं 
हुआ था। इसलिए बहुत जरूद उसे इस बातकी चिन्ता हुई 
कि, सूर्याजीका बतलाया हुआ कार्य किस प्रकार पूर्ण किया 
जाय। अपने उस छोटेसे मस्तिष्कमें अथ वह इस बातका 
विचार करने लगा कि, में अपना उक्त कठेव्य निविन्न रूपसे पूर्ण 
केसे करू | हे गे 
' खारे महठमें, घायल होकर मरे हुए, अथवा ऐसे लोग, जो 
मरनेपर आरहे है, जहां-तहां पड़े हुए हैं। एक यह युवती 
पागल होकर अपने बच्च को छियें हुए हंसती-रोती है, ओर 
श्यामा अकेला वहां चिन्तामें खड़ा है! बस, इनके अतिरिक्त 
और किसी प्राणीकी वहां आहट भी नहीं मिल रही है। यह 
दशा तो देखिये ! बस्तीका अथवा महलका ही यदि एक भी 
मनुष्य इस समय वहां सहायताकों उपस्थित होता, तो बहुत 
अच्छा हुआ होता; पर इसकी कोई आशा नहीं दिखाई देरही 
थी कि, कोई मसुष्य वहां आवेगा । इसलिए श्यामा बड़े कश्ठ- 
के साथ वहांसे चला; ओर घुड़लालकी ओर जाने छगा। 
मार्गमें वह सोचता जाता था कि, में यहांसे' जा तो रहा हूं. 
परन्तु इतनेमें सूयाजोकी रत्री यहांसे कहीं चली तो न जायंगी !? 
इसके बाद उसके मनमें आया कि, संयोगवश घुड़सालमें यदि 














हक वट-बुक्षके नाचे ... | 


क्र पमरे धरना मंदथ न ९७-०9: कट 
कोई सहायक मिल गया, तब तो ठीक ही है; पर यदि न मिला, 
तो में क्या करूंगा ? अन्तमें उसने खोला कि, जो कुछ होगा, 
सो देखा जायगा, इस समय तो मैं घ्‌ ड्सालमें जाऊ'। हां, 
जाते सम्रय उसने उस अमागिनी यु वतीसे इतना अवश्य कह 
दिया कि, दिखो, तुम यहांसे कहीं जाना नहीं, में घुड़सालमें 
जाकर घोड़ा इत्यादि तेयार करनेका प्रयत्न करता हू' (? 

बेचारा छोकरा ! शायद्‌ अभी भी उसे उस युवतीकी सच्चो 
सच्ची द्शाकी पूरी पूरी परीक्षा नहीं होसकी थी। आजतक 
सिफ उसने एक ही पागल स्त्री देखी थी। ओर वह थी उसके 
गाँवकी एक बुड्ी। किन्तु उसका पागरूपन कुछ दूखरे ही 
प्रकारका था। अस्तु | | द 

वह चिन्ता करता हुआ घ्‌ ड़्साछकी ओर गया। वहां 
लगभग सो-सबा सो घोड़े बँघे थे; और कमसे कम इतने ही 
घोड़ोंके स्थान खाली पड़े थे। ऐसा जान पड़ा फि, जैसे कोई 
छोड़ लेगया हो । परन्तु मनुष्य वहाँ एक भी दिखाई नहीं 
पड़ा। श्यामा चारों ओर खोज खोज़कर थक गया | मरे 
बारगीरोंके वे घोड़े, कि जिनको सदैव ही मनुष्योंके निकट 
रहनेकी आदत थी, उस समय वहां एक भी मनुष्यके न रहनेके 
कारण, चकितसे होरहे थे। पास पासके घोड़े गदंन फटकार 
फटकारकर एक दूसरेकी ओर देखते हुए ज़ोर ज़ोरसे फुड़क 
रहे थे, हिनहिना रहे थे; ओर अत्यन्त अशान्तिके साथ अपने 
अगले खुरोंसे नीचेकी ज़मीन खुरचना चाहते, तथा पिछले पैर 















फरकार फटकारकर पिछाड़ी छोड़नेके लिए प्रयल्ल कर रहे थे | 
मानो उनको, वहां न रहनेवाले अपने साथियोंकी यादसी 
आरही थी; और इसीकारण मानो थे इस बातके लिए तड़फड़ा 
रहे थे कि, चलो, जिस मार्गले गये है, उसी मार्गसे हम भी 
जाबें। पर उन बेचारोंकों क्या माहछूप्र कि, उनके साधियोंपर 
सवार होकर जो कितने ही बारगीर वहांसे चले गये हैं, वे. 
केवल अपने कर्तव्यसे च्युत होकर अपने स्वामोक्ी,उस सं॑कण्से, 
रक्षा न करते हुए, अपने प्राण छे कर भाग गये हैं? ओर सच- 
मुच ही यदि उन घोड़ोंको यह बात मालूम होती, तो वे कमी 
अपने स्थानसे हिलते भी नहीं, इसका हमें विश्वास है। 
श्यामाने बारों ओर बड़े गोरे देखा। देखते देखते उस- 
की दृष्टि एक छोथेसे टड्टू पर पड़ी; ओर बह उस यद्दु को देखते 
हुए क्षणभर खड़ा रहा । उसके मनमें अपने विषयमें कुछ 
महत्वाकांक्षाकाता विचार आया। उसने खोथा कि, यह 
छोटासा घोड़ा मेरे लिए बहुत भला दीखेगा । यहः यदि झुभाको 
घमिछ जाय; ओर एक छोटीसी तलवार भी मेरे योग्य मिल्क जाय, 
तो क्‍या ही अच्छा हो ! इतनेमें उसने अपनी कऋद्पनासे यह भी 
देखा कि, जैसे बह उस घोड़े पर सवार हो; ओर अपने ही योग्य 
अत्यन्त सुन्दर ढाल तथा तलवार भी हाथमें लिय्रे हो ! फिर 
डसको यह्‌ स्मरण आया कि, सूर्याज्ञीने कहा था कि, यदि में 
जीविद रदा, तो तुकझो अपने रड़हेक्के तोरपर रखा होता। 
इस बातके मनमें आते ही उसे कुछ दुःखसा हुआ। किन्तु 











3३० 2 ->0/3/3503 
इस प्रकारके विचारोंमें उसने अपना समय नहीं गमाया, अथवा 
यों कहिये कि, उसको ऐेसे विचारोंमें समय गमानेके लिए अब- 
काश ही नथा। क्योंकि बहुत जदद--जवकि वह विचारोंमें 
निमझ खड़ा हुआ चहां उन घोड़ोंकी ओर देख रहा था--उसे 
ऐसा भास हुआ कि,जेसे आसपाससे किसी मन्नुष्यकीसी आहट 
आई हो। तुरन्त ही उसने अपने कानोंको सावधान करके 
आहट छी। तो सचमुच ही स्पष्ठटतया उसे सुनाई दिया कि, 
कोई मनुष्य बोल रहे हैं। किन्तु यह बात उसके ध्यानमें न 
आई कि, वे मनुष्य हैं कहां। डसको उस समय सिर्फ यही 
जानकर कुछ धीरजसा आया कि, जो कुछ हो, चलो; मजुष्य 
पास तो हैं! और अब हमको जो कुछ करना है, उसमें कुछ 
सहायता मिलेगी, यह सोचकर वह कुछ आनन्दित हुआ। बस, 
तुरन्त ही,इल बातकी खोज करनेके लिए कि, ये मनुष्य कहां हैं, 
वह इधर-उधर देखने छगा । इसमेमें उसे यह भास हुआ कि, द 
वहां एक ओर जो घासका बड़ा भारी गश्ज लगा था, उसके 
अन्द्रसे एक मनुष्य कुछ कॉककर देख रहा है। अब बिल- 
कुछ सूर्यास्तका सम्रय होगया था; और घुड़सालू भी चू'कि 
बिलकुल एक ओर थी, इसकारण बहुत अशेरला होरहा था, 
अतणव श्यामाकों इस बातका विश्वाल न हुआ कि, जिसे उसने 
देखा, वह मजुष्य ही है या क्या ? तथापि धीरज घरकर वह 
उस घासके गश्धक्ी ओर चछा। ओर जिस जगह उसने 
मनुष्य देखा था, वहां जाकर एकदम पूछता है कि, “कोन है 














है उंषाकाले है - 
है 2 


अदा 
; ७ 
७ जहर के... 


'ल्कीे०-जीशटरेन ३६९७० ब्शुप- 





रे!” यह खुनते ही एक महुंष्य उस गज्से फिर सिर निकाल- 
कर चुपकेसे बाहर देखने छगा; ओर ज्यों ही देखा कि, “कोन है 
३ !१ कहनेवाला एक छोटासा लड़का ही है, त्यों ही उसका 
वह जोश, जो अभीतक उस घासके गज्ञमें ही दवा हुआ था, 
बाहर निकल पड़ा; और यह कहता हुआ कि, “कोन है--यह 
जरा बाप है |” वह मनुष्य एकदम बाहर निकल पड़ा; ओर 
श्यामाकों मारने दौड़ा । श्यामा दो कदम पीछे हट गया सहो; 
परन्तु बहुत जल्द्‌ फिर उस मनुष्यकोी पहचानकर वह उससे 
बोला, “कोन हैं? हरबा नायक! अभी तुम्हारा जोश कहां 
था? सारे महरोंमें इतना भारो उपह्रव मयचाकर यवन 
तुम्हारे परालिकको कैद कर छेगये, सूर्याजीराव मारे गये,महल्लोमे 
लाशोंके ढेर छगे हैं, उस समय तुम कहां गये थे ? इस घासके 
गज़में १” 

डस छोटे से लड़केके ये हृद्यवेघक शब्द कानोंमें पड़ते ही 
हरबा नायकके गलमुच्छे खड़े होने लगे; ओर उसने अपने 
नथुनोंको विचित्र तरहसे फुलाकर अपना बायां हाथ श्यामाको 
पंकड़ने और दाहिना हाथ उसके मुँहपर थप्पड़ जमानेके लिए 
आगे बढ़ाया । परन्तु श्यामा बड़ा उस्ताद था ! वह काहेको 
ऐसे भगोड़े सिपाहियोंकी परवा करता है! बातक्ी बातों 
चह एक ओर भग खड़ा हुआ; ओर ज़ोरसे हँसकर बोला, “हरवा 
नायक ! अजी हरवा नायक ! ज़रा सोचो तो सही ! सूर्याजीराव 
मरे पड़े हैं, देशमुख साहबको, बाई साहंबको ओर बहनजीको 












पकड़ लेगये--अब  महऊमें रह गई हैं अकेली बेचॉरी 
भौजाई साहबा; और वह उनका छोटासा दुधमुह्ां बच्चा | ओर 
सूर्याजी राव हमको, तुमको, दोनोंकी यह अन्तिम काम बतला 
गये हैं कि, उनको अम्लुक जगह पहुंचा दो। सो, यह अन्तिम 
आज्ञा तो, आओ, हम दोनों चलकर पूरी कर दें। सूर्याजी राव 
चले गये; ओर इलपर तुपको कुछ भी तरस नहीं आता ९?” 
“सूर्याजी राव चले गये; ओर इसपर तुमको कुछ भी तरस 
नहीं आता ?” ये शब्द उसके मु हसे अभी पूरे पूरे - निकले भी 
नहीं थे कि, इतनेमें घासके उल गज्जसे एक दूसरा मजुष्य घब- 
ड्राया हुआला बाहर मिकछा; ओर श्यामाके बिछकुछ पास 
आकर उससे बोला, “क्या ? छूर्याजी राव चले गये ? कहां चले 
गये ? कैसे जले गये ? कहां हैं ?” श्यामा तुरत्त ही कहता है, 
“े चले गये ज़रूर, परन्तु अब मोका नहीं है कि, इसका 
वुत्तान्त हम बतलाते रहें; ओर तुम बैठकर सुनते रहो। इस 
समय तो भोजाई साहबाके प्राण बचाकर उनको सूर्याजीकी बत- 
लाई हुई अगहमें पह चा देनेकी जरज्दी करनी याहिए। दो घोडों- 
पर ज़ीन कसकर तैयार करो, में उनको लिये आता हु'। तुम 
मेरे साथ लछो। हम दोनों ही उनको पहुँचा आधें। मार्गमें 
में तुमको सब वृत्तात्त बतरा दूंगा। उनकी दशा अत्यन्त 
शोचनीय होरही है ।? 9... क्‍ 
श्यामाका यह साथ भाषण यहांपर बिलकुल खाभाविक 
रूपते दिया गया है, परन्तु उसने इसको इतनी दीन वाणीसे 








& 


0 0 60।((७)0 8.5 » ७ हे 





कहा कि, उल निष्ठुर सिपाही  हरबा नायकके मनपर चाहे 
इसका कुछ सी प्रभाव न पड़ा हो, किन्तु उस दूखरे मनुष्यको: 


ओर उसके पीछे पीछे गज्जसे निकले हुए अन्य दो मनुष्योंको 
बहुत ही दया आई; और हरबा नायककों तुरन्त ही पीछे हटा- 
कर वे आगे आगये; ओर फिर उनमेंसे एक मनुष्य श्यामासे 
पूछता है, “क्या महलोंमें कोई नहीं है ? एक बिडिया भी नहीं 
है!” 
... श्यामाने ज्यों ही “नहीं? कहकर उत्तर दिया, त्यों ही वह 
कुछ सचिन्त दिखाई दिया; ओर फिर बोला, “किन्तु, क्या यह 
निश्चित है कि, महलोंके आसपास बादशाहका पहरा नहीं है ? 
यदि हम जाना चाहे', तो क्या बिलकुल गुप्त रूपसे जासकते 
हे 
..._ यह प्रश्न अबतक श्यामाके मनमें न आया था ॥। उसको 
तो अभीतक इस बातकी शंका हो न थी कि गुप्त रुपसे बाहर 
निकलकर वह निविध्न रूपसे, किसीको नमालम होते हुए, 
अपने नियत स्थानपर पहुँच सकता है या नहीं। अभ्ीतक तो 
वह यही समझता था कि, महलोंमें जबकि कोई एक चिडिया 
भी नहीं है, तब और कौनसा विध्न आवेगा; परन्तु जब उपयु छू 
कठिनाई उसके सामने उपसित की गई, तव उसे भी उसका 
महत्व मालूम होगया। इसलिए वह तुरन्त ही उन दोनोंसे 
बोला, “फिर अब कैला होगा ?” कुछ देरतक कोई भी कुछ 





। नहीं बोला ।' इसके बाद उन दोनोंमेंसे एक व्यक्ति दूसरेसे शदगद | 





कि भू ४५ 
* 












लकी: + 5 लेडी 





कंठ होकर कहता है, “शकराजी नायक ! अवतक जो कायरता 
दिखिलाई, सो दिखलाई--किन्तु अब तो, आओ, अपना अपना 
नमक अदा कर! में घोड़ोंपर जीन कखता हूं । तुम जाओ, ओर 
चुपकेसे देख आओ कि, महलोंके आसपास पहरा हैं अथवा नहीं; 
और यदि है, तो कहां कहां। जो कुछ होना हो, सो हो, हम 
आठ आदमी हैं, भोजाई साहबको नियत स्थानपर पहुँचा द, 
ओर फिर चाहे इस कामके लिए एक-दोको मरना भी पड़े, 
तो मर जाये !” क्‍ 
इतना कहकर वह उनके पीछेसे आये हुए एक-दो आदमि- 
योंसे कहता है, “जाओ जी, जाओ, तुम इस रड़केके साथ 
जाओ;ओर बाईसाहबाकों ले आओ ।” यह कहकर वह तुरन्त ही 
घोड़ोंकी ओर चल दिया | महलोंके आसपास पहरा कहां कहां 
है, इसकी जांच करनेके लिए दूखरा आदमी भी चढा | हरबा 
नायक अपने गरमुच्छे फुलाते हुए जहांका तहां ही खड़ा रहा | 
अन्य दो आदमी तथा श्यामा, महलोंमें जाकर, भोजाई साहबा- 
का पता लगाने छगे। परन्तु विचित्रता यह कि, भोजाई साहबा- 
का वहां कहीं पता ही नहीं था ! 
श्यामाने ज्यों ही यह देखा कि ,भोजाई साहबाको, जहां हम 
छोड़ गये थे, वहां वे अब नहीं हैं, त्यों ही उसने अपने साथियों- 
सहित चारों ओर उनको खोजना शुरू किया, पर कहीं पता न 
रूगा । इसलिए उन्होंने सोचा कि, अब एक तरफसे सार 
महल दूँढ़ना चाहिए; ओर सूर्याजी राव जिस कमरेमें पढ़े हैं, 








हैः उद्योकील है... 


बह 7772 हु ॥ 
.# ६६ 





उसको जाकर अवश्य देखना चाहिए; क्योंकि शायद वे डसी 
ओर गई हों | यह सोचकर वे उसी कमरेको ओर मुड़नेवाले ही 
मे कि, इतनेमें आगेके चोकसे एक बड़ा कोलाहरू उनके कामोंमें 
सुनाई दिया | कोलाहलकी भाषा मसुखस्मानी थो, इससे श्यामा 
और उसके दोनों साथियोंने यह समभ्का कि, भोजाई साहबा 
शायद उसी तरफ कहीं हैं, इसीसे यह कोलाहल मचा हुआ है । 


इसलिए एयामाने सोचा कि, अब इस कोलाहलकी ओर चलकर 


ही इसका पता लगाना हमारा कर्तव्य है। अतणव बह अपने 
दोनों साथियोंसे उस ओर चलनेका आम्रह करने लगा; पर 
उसमैंसे एकदहीने उसका साथ दि्या। दूसरा पीछा पकड़ने 
रूगा। श्यामाने समका कि; यह समय एक दूखरेकी न्न्दि 
करने, अथवा एक दूसरेसे चिल्लानेका नहीं है, अतणव॒ वह खर्य॑ 


और उसका एक साहसी साथी, दोनों उस कोछाहलूकी ओर 


आगे बढ़े। परन्तु उनको इधर-डघर बहुत घूमता नहीं पड़ा; 
क्योंकि अमी वे सिर्फ दो ही कदम आगे बढ़े होंगे कि, रूगभग 
दस आदमी हाथमें जूता हुआ पलीता लिये हुए, उनकी ओर 
आये। इन दसमेंसे पाँच-छ सुसत्मान थे। सिर्फ चार ही 
मरे दिखाई पड़े । द 

“देखिये तो, कैसो विचित्रता हुई--हम लोग अपीतक इसी 
आशासे जारदे थे कि, अब आते होंगे, अब आते होंगे; पर जब 
सुक़ाम बिलकुल नज़दीक ही आगया; ओर फिर भी जब उनका 
कोई पता नहीं छगा, तब हमको वापस भेज दिया। 





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है. कक पल उ-वृक्षके नाच ट 


हम लोगोंने कितना मारा; ओर वे भी खब वेगसे आये!” 
बस, इसी प्रकारकी बातचीत वे आपसमें कर रहे थे। महलके 
द्रवाज़ पर आकर उनमेंसे एक व्यक्तिने तीन पहरेदार सिपाहि- 
योंसे प्यारेखांका सम्राचार पूछा; परन्तु उन पहरेदारोंने सिर्फ 
इतना ही कहा कि, “हमको कुछ मालूम नहीं है। हम तो पहरे- 
की जगह छोड़कर अपने स्थानसे हिले भी नहीं, बाहरका कोई 
आदमी भीतर नहीं गया; ओर न सोतरका बाहर आाया।” फिर 





प्यारेखां कहाँ गया ? पहरेवाले तो यह समझकर भीतर नहीं 
गये कि, शायद हम अकेले-दुकेले भोतर गये; ओर वहां कोई . 
आदमी छिपे बैठे हों, तो अवश्य हो वे हमें मार डालेंगे। इधर 
गाँवके आदमी द्रवाजेके पास आ आ करके भी यह समककर 
पीछे कौट जाते कि,ये तीन बड़े ज़बरदस्त सुखदपान सिपाही पहरे- 
पर बैठे हैं, हम यदि पास जायेंगे, तो न जाने ये क्या कर डालें! 
बस, यही हाल उस सप्रय महलोंके आसपास था; और इसी- 
कारण महऊकी पिछली ओरसे श्यामाकों भीतर घुसनेका मोक़ा 
मिल गया था। अन्य छोगोंकों यह भय था कि, महलके चारों 
ओर ऐसा ही पहरा होगा । निर्सन्देह कुछ थोड़ेसे लोगोंके 
मनमें ये प्रश्ष अवश्य उठे कि, देशमुख साहबकों एकाएक पकड़ 
लेजानेका कारण क्या है? तथा भौतर जो छोग जीवित शह 
गये थे, उनकी दशा क्या हुई होगी ? किन्तु भयके मारे कोई 
अपने घरसे निकला नहीं । हां, धरमें बैठकर उल द्निको घटना- 
पर इधर-उधरकी बातें करनेमे कोई हानि नहीं थी, सो सभी 











लोग वैसा कर रहे थे परन्तु वह बातत्रीत भी बिलकुल शुय- 
चुप होरही थी। शायद बातचोत करनेवालोंके मुखसे कभी 
कोई शब्द होंठोंके बाहर भी निकल आता हो, तो हम नहीं कह 
सकते ! का 
वे नवीन छोग प्यारेखांको दू ढनेके लिए आये थे, यह स्पष्ठ 
था। अब श्यामा ओर उसके साथोके मनमें यह आया कि, 
इन लोगोंने यदि हम दोनोंको देख लिया, तो न जाने क्‍या कर 
डालेंगे। श्यामाकों तो यह माल्यूम हो था कि, उस मुसत्मान 
सिपाहीको, कि जिसको उसने घायल किया था, अब क्या द्शा 
हुई होगी। उसके मर जानेमें अब श्यामाको अणुपमात्र भी शंका 
नथी। अब उस लड़केकी यही प्रबछ इच्छा होरही थी कि, 
देखे, उसको मरा हुआ देखकर इन छोगोंकी क्या दशा होती 
है; ओर ये क्‍या करते हैं। श्यामाने ज्यों ही यह देखा कि, उन 
लोगोंके बीचमें सूर्याजीरावकी र््री नहीं है, तब उसको कुछ 
सनन्‍्तोषसा हुआ | क्योंकि उसको इस बातकी चिन्ता थो कि, 
वह न जाने कहां चली गई--उसके मनमें यह भी आया था कि, 
कहीं अगले द्रवाज़ेसे वह बाहर न निकली- हो; ओर इन लोगों- 
के हाथमें सहज ही फँस गई हो | किन्तु यह भय अब दूर हो- 
गया--अब उसे सिर्फ़ अपने विषयपें ही भय उपस्थित हुआ | 
उसने ज्यों ही देखा कि, ये लोग पलीता आगे लिये हुए आरहे 
है, त्यों ही उसने एक खस्भेका आश्रय लिया;भर अपने साथी- 
'की भी बैसा ही करनेका इशारा किया । किन्तु कुछ छाम न 

















बकीक--क- नह 


व्योहन्‍न-०5+- - 





हुआ | उन लोगोंमेंसे एक व्यक्तिकी नज़र उसके साथीपर पड़ ही 
गई; ओर उसने घ॒ डुककर पूछा, “कोन है रे! हरामज़ादे ?” 
यह सुनते हो उस बेचारेकी बड़ी बुरी हालत होगई। भयके 
मारे वह कांपने लगा; और “म"'म-मैं--में ''” करते हुए वह 
कुछ बोलनेका प्रयत्न करने गा | इतनेमें एक मुसद्मानने उसके 
मुँ हमें थप्पड़ जमा दी;भोर जूतेकी ठोकरसे उसे नीचे गिरा द्या। 
इयामा जिस खस्भेकी ओटमें खड़ा था, उस खस्भेपर आगेके 
पलीता पकड़नेवाले मनुष्यकी छाया पड़ गई थी, इसकारण 
उसपर किसोकी नज़र नहीं पड़ सकती थी। उस महलूके वे 
पुराने चोकोने बड़ बड़े खस्भे श्यामाके समान लड़केके छिपनेके 
लिए काफ़ी थे। श्यामाका वद्द साथी जब जूतेकी ठोकरसे 
नीचे गिरा दिया गया, तब वह और भी अधिक घबड़ा गया; 
ओर उस बेचारेको उठनेकी शक्ति ही न रही । अवश्य ही उस 
बेचारेकी उन यवनोंकी ओर भी कुछ ठोकरें खानी पड़ीं। सभीने 
एक एक लात जमाई। बेचारा कर ही क्‍या सकता था ? उस- 
की यह दशा देखकर श्यामाको उन यवनोंपर अत्यन्त क्रोध 
आया। परन्तु उस ऋ्रोधसे लाभ क्या ? वह अपने साथीकों 
बचा नहीं सकता था। यही बड़ा कुशल हुआ कि, वह अपने 
लड़कपनके क्रोधके वशीभूत होकर आगे नहीं बढ़ा, अन्यथा 
उन ऋर यवनोंने डख लड़केकी भी, उसके साथीकी तरह, 
कचलनेमें कोई कसर न की होती | 

अस्तु । इस प्रकार जब उन छोगोंने उस आदमीकों ख़ब 








लिया, तब फिर उन्होंने उसे उठाकर खड़ा किया. और 
डससे पूछने ऊगे कि, तू कौन है, कहांसे आया, इत्यादि | कोई 
कहता कि, यह महलको सूना देखकर यहां चोरी करनेके लिए 


आया। कोई कहता,नहीं, यह महलूका ही कोई नोकर है, इसको 


यहांका जवाहिएत और खोना इत्यादि सब माल्यूम होगा, 
कि, कहां क्या रखा है, सो आओ, हम लोग इससे उसका पता 
छगावें; ओर यदि यह न बतछावे, तो इसके शरीरसें पलीता 
लगाकर हम लोग स्वयं खब दूढ़ दूँढ़कर लेजावें। कोई 
कहता, हम, पहले, जिस कामके लिए आये हैं, उसको तो कर 
ले। इस प्रकार वे सब आपसमें कहने-खुनने रंगे। इतनेमें 
उनका नायक उनकी ओर एकदम डपटकर बोला, “हमको 
समयपर ख़बर पहुंचाना चाहिए, नहीं तो अच्छा नहीं होगा | 
क्या तुमको मालूम नहीं कि, हमको किसकी खोजके लिए भेज्ञा 


है? उसकी खोज करनेके पहले यदि तुम अन्य किसी काममें 
हाथ डालोगे, तो मैं एक एकको मार डालू'गा। अरे नीचो, 


तुम्हारे वे बाप अभी हालमें ही तो तुम्हारे हाथों सब माल- 
मसाला उठवा लेगये ! अब यहां क्‍या रखा है ?” 

इतना कहकर उसने अपने पाछ्के व्यक्तिकी गद॑नमें एक 
धक्का देकर उसे आगे बढ़ाया, ओर :श्यामाके उस साथीके 
सु हमें भी एक जमाई; ओर कहा, “चल,आगे बढ़ | हमको महह- 


के सब कमरे दिखला। तेरे बापका पता रूगाना है!” यह 


खुनते ही सब लोग आगे बढ़े। श्यामा अपनी जगहसे खड़ा 





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(& ३१३ ः वट-बृक्षके नीचे है 

नके- कप "पल 82५० ख्््ख्ट्य्प्स्श्स्क््गा 
खड़ा यद सब दशा चुपके चुपके देख रहा था। उसके मनमें अब 
यही आया कि, जिस कमरेमें खूथाजी पड़े हैं, उस कमरेमें जाकर 
जब ये उनकी लाश देखे गे, तब थे जाने ये उनका क्या करूँगे!? 
भोजाई साहबा भी यदि अपनी समकमें कहीं महलोंके अन्दर ही 
इन्हें दिखाई पड़ गई', तो न जाने उनका ये क्या कर? परन्तु उस 
सप्रय इस विषयमें चह और कर ही क्‍या सकता था ? आखिर 
उसने यही सोला कवि, आओ, चुफकेसे एक वार फिर हम इधर- 
डघर घूम लें; ओर भोजाई साहबा कहीं मिल जाय॑ेँ, तो अच्छा 
हो, अन्यथा अफेले ही सूर्याजी रावके बतलाये हुए उस वरघ्षक्ष- 
के नीचे फोपड़ीकी ओर जाबव; ओर उस बुड़े को यहांका सब 
वृत्तान्त बतलाकर अपने घरको छोट जावें। बस, इसके अति- 
रिक्त ओर उसके हाथमें उस समय कुछ भी नहीं था। अपने 
इसी विचारके अजछुलार अब वह उच मुसब्मान सिपाहियोंकी 
ओर न जाते हुए इधर-उधर घूमकर आहट छेने गा; पर 
भोजाई साहबाकी उसे कहीं टोह नहीं लगी | मुसद्मान सिपाही 
एक कमरेसे दूसरे कमरेमें आ-जाकर प्यारेसांको दूढ़रहेथे। 
श्यामा उनकी भी आहट रखता ही था; ओर जबतक उनकी 
कोई विशेष गड़बड़ी नहीं सुनता था, तबतक यही समझता था 
कि, अभीतक इनको कोई नवीन बात दिखाई नहीं दी। कुछ 
देर बाद वे सिपाही उस कमरेमें पहुचे, जहां प्यारेखा 
दोपहरको घायल होकर विरूख रहा था। वहां जानेपर उनकी 
दृष्टि उसकी लाशपर गई ! 














दुछ यवन मर चुका था । उसे देखते ही सिपाहियोंके नायकका 
सारा शरीर ज़लू उठा। उसने बड़ा भारी कोलाहरू मयाया। 
इथर श्यामाने ऑँथेरेमें चारों ओर आहट लेकर महरुसे चले 
 जानेका विचार किया। सिपाहियोंके उल कोलाहरूसे उसे 
इस बातका भी पता रूग गया कि, जिस दुष्ठको उसने घायल 
किया था, वह समाप्त होचुका । इसपर उसे थोड़ासा सन्तोष 
हुआ; ओर उसने इच्छा न होते हुए भी महरूकों छोड़कर बाहर 
जानेकी ठानी। शीघ्र ही वह वहांसे निकल पड़ा; और पीछेके 
मागसे बिलकुल चुफ्याप घुड़लालकी ओर गया। वहां घोड़ोंको 
तैयार करके एक व्यक्ति खड़ा ही था, उससे उसने, सब वृत्तान्त 
बतलाकर, कहा, “अच्छा, अब हम दो-तीन व्यक्ति यहांसे उस 
वरबक्षकी ओर चलें; ओर सूर्याजी रावके इच्छाजुसार सिफे 
उनकी निशानी ही उस वृद्धको दिखिलावें।” जो आदमी घोड़े 
पकड़े खड़ा था, वह पहले ही, सारा द्त्तात्त खुनकर, घबंड़ा 
गया -था। उसको श्यामाकी, यह---वहांसे चल देनेकी --बात 
बहुत ही पसन्द आई। सूर्याजोका बतराया हुआ मार्ग श्यामा- 
द को भलीमभांति मालूम नहीं था, इसीकारण उसे इस मनुष्यकी 
बड़ी आवश्यकता थी। दोनों घोड़ोंपर सवार हुण। मुसद्मान 
लिपाहियोंका वह कोलाहल, जो उन्होंने उस दुछ सुखत्मानकी 
लाशको देखकर मचा रखा था, बहुत दूरतक छुनाई देरहा था। 
_ इसकारण उन दोनोंने वहांसे चल देनेकी ओर भी शीघ्रता की | 





/ / वट-कृक्षके नीचे - ५ 
कक यम कजर य्य्स्झ्ल््य््स्ऋ 
श्यामाकों इस बातका वड़ा खेद रहा कि, भोजाई साहबा नहीं 
मिलीं, ओर हम चल दिये । छिन्तु करता क्या ? उसका कोई 
इलाज नहीं था | 

शयामा अम्मी अच्छी तरह घोड़े पर बैठना नहीं जानता था | 
परन्तु सोभाग्यवश जिस घोड़ेपर ब्रह बैठा ,था, वह सीधा था, 
इसकारण मार्ममें उसे कोई कष्ट नहीं हुआ । उसका साथी 
आगे चल रहा था; ओर श्यामा उसके पीछे । 

अच्छा, अब हम श्यामाकों तो, वव्युक्षकी ओर जाते हुण, 
कुछ देर्के लिए, यहीं छोड़ दें।ओर उधर महलोंमें चलकर देखें कि, 
क्या हुआ । ऊपर हम बतला ही चुके हैं कि, प्यारेखांकी लाशको 
देखकर उन मुसद्मान सिपाहियोंने बड़ा गोलमाऊल मचाया। 
खांसाहब इतनी देरतक महल में ही होंगे, इस बातकी उन्हे 
कद्पना भी न थी। वे यह सम्रकते थे--कमसे कम उनका नायक 
तो अवश्य ही अपने मनमें समझता था-कि, खांसाहब सू्याजी 
रावकी सरूत्रीको छेकर, इसके बहुत पहले ही, किसी दूसरे मार्गसे 
निकल गये होंगे। क्‍योंकि उस नायककों यह भललीभांति 
मालूम था कि, सूर्योजी रावकी रूत्रीपर उनकी दृष्टि थी। इसके 
सिवाय वह यह भी जानता था कि, सूर्याजीकों तो पाँच-सात 
जंनोंने मिलकर पहले ही खतम कर दिया था; ओर अन्य लोग 
जबकि देशमुख तथा उनके कुटुम्बियोंको कैद करनेमें रूगे 
थे, खान अकेले ही सूर्योाजीके महलोंमें गये थे। ऐसी दशामें 
खानकी लाश जब अचानक उसको दृश्मिं पड़ी, तब क्या क्या 








८ आय 





विचार उसके मनमें आये, इसका पाठक खयं ही अनुमान करें। 
स्च तो यह था कि, वह अपने ऊपरके हाकिमकी आज्ञासे हो 
खानंको हूँ ढ़ने आया था; ओर यह भी उसने सोच लिया था 
कि, ख़ान यदि नहीं मिलेंगे, तो महलोंमें यथेच्छ लूट मचाकर 
अपना मतरूब सिद्ध करेंगे। परन्तु यहां आकर जब उसने चह 
अनपेक्षित घटना देखी, तब उसे यही न सूकने छणा कि, अब 
क्या करें; ओर क्या न करें । उसने सोचा कि, अब ख़ानकी 
लाश लेकर तो जाना ही चाहिए; परन्तु ख़ानका जिन्होंने ख़न 
फिया, उनका कुछ न कुछ पता लगाये बिना, अथवा ऐसा कोई 
न कोई कार्य किये बिना--कि, जिससे यह कहा जासके कि,देखो, 
हमने उसका बदला लेनेके लिए ऐसा ऐश्ला किया--यहांसे 
जाना बिलकुल उचित न होगा । बस, यही सोचकर वह कुछ 
देरतक चिम्ताक्रान्त होकर खड़ा रहा। इसके बाद्‌ उस कऋर 
मनुष्यके मस्तिष्कमें कोई विचार आया; और तदनुसार करनले- 
का उसने निश्चय किया । दो आदभियोंको उसने बस्तीकी ओर 
दौड़ाया; ओर खानकी छाश उठा छेजानेके लिए अपने ज्ञात- 
भाइयोंको बुलाया; और लाशको बाहर निकालते ही महलोंमें 
चारों ओंस्से आग छभगा देनेका विचार किया। उद्देश्य यह 


कि, जिससे यह हम कह सकें, कि देखो, जिन लोगोंने खानका 

बघ किया, उनको हमने जला डाछा। द 
मसुसव्मानोंके मनमें जहां एक बार कोई भयंकर बात आई 

कि, फिर उसको कर डालनेमें देर किस बातकी ? यों ही विवेक 



























नव हप्क न्यह0- ह...शीक७लक गटर 





. वट-वृक्षके नीचे हे 


अब्ययासायप क्षमता ०९फनए पाप पाप कफ पत्र फरप पका व २१ +३वडस पाक क का उड कनएगहाआ, 
जद आता +०-->००ब 40७०००३००० प्यलुक 





अथवा द्याक्ना जहां लेश नहीं, वहां अपने शत्र का घर जंला 
देनेमें वियेक अथवा दया कहांसे आवेगी ? महरोंमें चारों ओरसे 
आग लगा देनेका विचार उसके मनमें आये हुए अप्नो बहुत देर 
नहीं हुई थी कि, खानकी लाश बाहर निकाली गई; ओर बसरूतीके 
छोगोंके देखते देखते देशमुखके महलोंमें चारों ओरसे आग लूगा- 
ऋर वे लोग, “अलविदा-अलविदा” कहते हुए, वहासे चलते 
बने ! द 

इधर शयामा ओर उसका साथी, दोनों, कुछ ही समय बाद 
सूर्याजीके बतलाये हुए उस वटवृक्षके नीचे पहुँचकर उस वृद्ध 
मनुप्यसे मिक्के। जेखाकि सूर्याजीने बतलाया था, पहले- 
पइल तो बह बुड़ा उन दोनोंकों मारने दोड़ा; पर सूर्याजीकी 
निशानीकों देखकर उसने उन दोनोंकी अपनी कोपड़ीके अन्दर 
बुला लिया; ओर सब हाल पूछा | वृत्तान्त सुनकर कुछ देर तो 
वह चिन्तामें बेठा रहा, पर फिर बहुत जरद वह एकदम वेगके 
साथ उठा; और आप ही आप कुछ शुनगुनाकर उसने बड़े 
ज्ोर्से खीटी बजाई, जिसे खुनते ही एक काला-कछूटा बड़ा 
जबर्दस्त आदमी दूरले आकर उसके पास खड़ा होगया | 
बुड़ु ने उसके कानमें कुछ कहा, जिसे खुबते ही चद बाहर गया; 
और एकदम, श्यामा तथा उसके साथीके लाये हुए एक घोड़े पर 
सवार होकर, घोड़े की भी छाती फट जानेबाडे वेगके साथ, 
'बहाँसे रवाना हुआ | ) 








बाइसवां परिच्छेद । 

“४४ ४४४४०- 

रे आमेके मुखते |... “४. | 

. महलूमें ज्यों ही चारों ओरसे आग छगी, त्यों ही, कुछ देर. 
उठ, वह ज़ूब घड़ाकेके साथ फौलने छगी | महरू बहुत पुराना 
था। उसके खम्मों इत्यादिने न जाने कितना तेल खाया था, 
उड़ता मसाला खाया था, इसकारण आग फैलनेमें बहुत देर 
नहीं लगी । सारे खम्से दीपकोंकी भांति जलने छगे | सारा काछ 
जल जलकर, उसके घथघकते हुए अंगारे बनने लगे। बीच 
बीचमें “ घड़ाम ” “घड़ाम” का भयंकर शब्द होता जाता था। 
ऊपरके काप्ठ जल जलूऋर नीचे आते; ओर वहां आकर अस्य 
ज्वालाग्राही पदार्थोकी अपना तेज प्रदान करते । दुरसे देखने- 

वालोंको तो यही ज्ञान पड़ता कि, जेपे सारी बह्वीकी]बस्ती 

हो जल रही हो। वायु भो मानों यह सम्ककर ही कि, जेसे 

इस महलके खामियोंकों यातना सहनी पड़ो, बेखी ही यातना 

इसको भीन सहनो पढ़े, बड़े बेगसे बहने लगो ; ओर उस 

महलको बहुत शोघ्र “आत्म-क्षा ” करनेके लिये सहायता 

पहु चाने छगी | हवा एक बार जहां चल गई,फिः पूछनाहो क्या | 

हे--सम्पूर्ण महलके आखपास ज्वाला घूमने लगी-- मानो. | 

नल + ” ... अस्िनारायणने अपने तेजका चक्र ही उस महलके आस-पास 














ह/00जा ) ऐ 2 हम की हद | 
बीमिमल्द.... बिक िकीत वि आय कि: 


चला रखा है ; ओर यवनोंके कष्ट से उसे मुक्त करनेके लिये उसको 
अपने अधिकारमें कर लिया हैं! महरूकी किसी ओरसे भी 
भीतर जानेका मार्ग अब नहीं रहा । सब दिशाओंके दरवाज़ों, 
खिड़कियों ओर भरोखों इत्यादिसे घुए' ओर आगकी बड़ी बड़ी 
लपयटे! बाहरकों निकलने छूगों; और वह सारा महरू मानो 
सहस्रदूखल कमलको भांति दिखाई देने रूगा | मुखत्मान छोग 
इस प्रकार अपना भयंकर कारये करके जब वहांसे चले गये, 
तब बस्तीके लोग धीरे घीरे महलके आसपास एकत्रित होने 
लो | परन्तु उल समपर अग्विक्री अवरुथा उतनी प्रयएड नहीं हुई 
थी। यद्यपि किसी किसी तरफसे ज्वालाए' ख,ब निकलने लगी 
थीं; परन्तु फिर भी, एक-दो दिशाओंकी ओर कुछ शान्ति थी | 
आखपास जो छोग जपा हुए थे, वह कह रहे थे-- “ क्‍या भीतर 
कोई होगा ?” “कोई दिखाई तो नहीं देता! ” “ यदि कोई 
होता, तो चिल्लाता !” इत्यादि। परन्तु “आओ, भीतर 
चलकर देखे” ऐसा फक्रिघ्तोके मुखले भो नहीं निकला | 
निस्लन्देह,बस्तीमें उस समय ऐेला एक सी मनुष्य न होगा कि, 
जिसे वह सब हालत देखकर दुःख न हुआ हो प्रत्येक मनुष्य 
मन हो मन यह कहकर तड़फड़ा रहा था कि,हाय ! हाथ ! दुशेंने 
सत्यानाश कर दिया ! ” आज देशमुख साहबका सत्यानाश 
होगया ! ” “ हे ईश्वर, क्या कोई भी इन दुष्णोंकों दुरुड देनेवाला 
उत्पन्न न होगा ?” इत्यादि। प्रत्येक पुरुष अपने ही आप होंठ 
चबाते हुए क्ुद्ध होरहा था। प्रत्येक वृद्ध और युवती ख्रियां हाथ 






















मल- मऊकर सुसद्मानोंको और उनकी हुकूमतको कोस रही थीं, 
बह्तीमें पानीकी भी कुछ अधिकता न थी, ओर महरूकी आग 
कोई मासूठी आग न थी, जिसको बुकानेमें थोथे पानीसे काम 
चल जाता | यही खब सोचकर मानो छोगोंने !महरूकों बुक्काने- 
का कोई प्रयत्न नहीं किया | महरू जबतक अच्छी तरह जल नहीं 
डठा, तबतक उन आग रूगानेवालने भोतर किलीको घेसने 
नहीं दिया; ओर जब वह चारों ओरसे ख़ब जलने छूगा, तब 
किसीको उसके बुकानेका साहस हो न हुआ। जो हो, इसमें 
सनन्‍्देहद नहीं, महल जलकर खाक होगया। 

ऊपर बतलाया ही गया है कि, महलके दरवाज़ों, खिड़कियों 
फरोखों--औओर जहां जहांसे प्रकाश अथवा वायुक्के आने-जाने- 
का रास्ता था--सप्तो जगहसे ज्वालाएं बाहए निकल रहीथीं। 
ओर अब वो वायुके फॉकोके वेगसे वे ज्वालाए' इतनी भयंकर 
रीतिले लपलछया रही थीं कि, यदि उस सम्रयथ कोई एक-आध 
बेचारा प्राणी उस आगक्े बीचमैं पड़कर अपने छटकारेके लिये 
रोता-चिव्छाता भी, तो किसीके कानोंमें उसकी आवाज़ भी न 
पड़ी होती | परन्तु क्या इस घकारसे रोने-चिह्लानेवाला उस 
सम्रय॒ वहां कोई था ? हां, था। ऐसा जान पड़ता था कि, 
कोई उसके भोतर है। क्योंकि उन ज्वालाओंके सों-सों शब्दके 
भीतरसे, ओर क्षण क्षणपर “घड़ाम घड़ाम” करके नीचे गिरने- 
वाले प्रस्नक्तित काष्टोंके शब्रके भीतरसे भो, एक-दो अथवा 
तीन अत्यन्त दीन वाणीपूर्ण मानवी चीख़ें, स्पष्टतया खुनाई दे 











अशिके मुखसे न 





३२१. 


बकडि--पादी- नहुएदीतन-ीवत 
रही थीं, इसमें सन्देह नहीं | वे चीख पहले तो मानों किसी 
गहरी जगहसे आरहोी थीं; परन्तु अब धीरे धीरे वे बिलकुल 
स्पष्टसी सुनाई देने लगी थीं। वे एक खिड़कीसे निकलनेवाली 
ज्वालाओंके साथ साथ बाहर निकल रही थीं; ओर 
किसी न किसी स््रीकीसी जान पड़तो थीं। आसपासके 
लोगोंकोी यह भी भास हुआ कि, उस ख््रीकी चीखोंके साथ ही 
साथ किसी छोटे बच्चे की चिह्काहट भी सनाई देरही है। अब 
क्या कहना है! सभी छोग उस ओर एकजत्रित हो होकर आपसमें 
शोक करने रूंगे। भीतर कोन है, यह कोन चीख रहा है, 
इस विषयमें अनेक लोगोंके अनेक तके-विवर्क होने छगे | 
अनेक छोग यह भी कहने लगे कि, भीतर जो कोई हो, उसे 
बचाना ही चाहिए | परन्तु कहना एक बात है; ओर तद्नुसार 
साहस करके उसको कर दि्खिछाना दूसरी बात है! दोनोंमें 
बहुत अन्तर है ! लगभग सो-पचास आद्मियोंके झुहसे उत्त 
दयाके शब्द निकल रहे थे, पर अप्निके मुखमें प्रवेश करनेके लिये 
सिफ एक ही व्यक्ति आगे बढ़ा | भीतर जाकर इन प्राणियोंको 
बचाना चाहिए--इस बातका उसमे निश्चय कर लिया; ओर-- 
“चाहे जो हो जाय,कहीं न कहींसे भागे निकारऋर भीतर घुसू गा 
ही--फिर जो कुछ होना हो, सोहो”-- इस प्रकारका साहसपूर्ण 
उच्च विचार उसके हृदयमें उपस्थित हुआ | उस समय अन्य कई 
लोगोंने उसे पीछे खींचा, किन्तु उसके मनने नहीं माना। 
उसने सोचा कि, देशमुख सखाहबका मैंने नमक खाया है, 











+>ज्च्य्फाबा 





६ ३२२ 2 





इस समय यदि उनके घरके छोगोंको वचानेमैं मेरे प्राण हो 
चले जाये, तो कोई हामि नहीं। आज दोपहरको ही मुर्छे कुछ 
न कुछ करना चाहिए था; परन्तु मेरे हाथसे उस समय कुछ 
भी न होसका, यह अच्छा नहीं हुआ। इस प्रकारके वियार 
ज्यों ज्यों उसके मनमें आने छूगे, त्यों त्यों उसका जोश बढ़ता 
ही गया। वह जह्दी जद्दीले महलके यारों ओर चक्कर रगाने 
लंगा। “लटवाजी नायक, तुम इस भगड़ेमें प्रत पड़ो। 
व्यर्थंके लिए जान मत दो । अब भीतरसे कोई जीवित निकल 
नहीं रुकता ।” इस प्रकारके वचन कई बार उसके कानोंमें आये | 
परन्तु उनको सुनमेके लिए इस समय उसके पास कान हीन 
थे । उसका तन-मन-धन, सर्वेख, उन प्राणियोंके चीत्कारकी 
ओर रूगा था। जिस खिड़कीके पाससे वे चीखें उसके कानोंमें 
आरही थीं, उसकी ओर बराबर वह द्स-बारह मिनटतक देखता 
रहा । उसको ऐसा भास हुआ कि, जो व्यक्ति ये चीखें मार 
रहा है, वह कोई स्त्री है; ओर उसकी गोदमें एक बच्चा है | बस, 
तुसनत ही उसके मनमें यह अनुमान भी आया कि, हो न हो 
वह स्री अघ्ुक ही है। बस, फिए तो उसे बचानेके लिये उसको 
और भी अधिक जोश आया। अब उसने इस बातका निश्चय 
किया कि, जिधरसे आगरा ज़ोर कुछ कम हो, उसी ओरसे 
भीतर घसना चाहिए | बस, ठुसन्‍्त ही उसने अपने शरीरके 
ऊपरका वल्य निकालकर फेंक दिया, और घोती भी खोलकर 
फेक दी, क्योंकि भीतर ढेंगोट बँधा हुआ था। इसके बाद उसने 












की आश्निके खुखसे & 
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«साधक महा ७. "पान +--जयेरुनएन्‍० जा एप-55 थ ८८० कलया 





पक बार ताल ठोंकी; ओर यह निश्चय करके, कि अब जहां 
आगकीो लपदें कुछ कम्र होंगो, बहींसे भोतर घुसंगा, वह फिर 
के बार महलके आसपास घूमनेकों चला । लोगोंने देखा कि, 
इसका जोश अब फिर बढ़ा; और अब यह अपने प्राणोंक्ते 
ति देनेहीवाला है, इसलिये फिर एक बार उन्होंने उसे 
लमकानेका प्रथल किया | इधर सटवाजी आतुर होकर किसी 
तरफसे मार्ग देखनेके लिये आगे बढ़ रहा था, अतणव उसमे 
लोगोंकी ओर बिलकुल ही ध्यान न देते हुए अपनी प्रदक्षिणा 
पूरी की। अब, भीतर घुसनेके लिए ज्ञो एक द्वार उसने देख 
रखा था, उससे आगे बढ़कर वह कदम रखनेहीवाला था कि 
लोग उसे पीछे खींचनेका प्रयल्ल करने लगे । इतनेमें बेतहाशा 
दोड़ते आनेवाले घोड़ेकी टापें लोगोंकों पीछेसे सुनाई दों। घोड़ा 
बातकी बातमें वहां आकर ठहर गया; ओर उसपर जो मनुष्य 
सवार था, वह एकदम नीचे कूद पड़ा | फिर उसने पासके एक 
मजुष्यसे डपटकर घोड़ा पकड़नेके लिए कहा; और बोला, “क्यों रे 
क्या है? इधर सटवाजी सामने ही भीतर जानेको तेयार 
था। उसको देखकर डसने उसकी पीठ ठोंकी; और कहा 
शाबास ! शाबास [ तुम ओर मैं, दोनों, साथ ही भीतर जायेगे 
ये सब छोग डरपोक ओर नमकहराम हैं! अरे हरामखोरोंकी 
ओलाद ! तुमको खयं तो साहस नहीं है, और दूसरेको भी पीछे 
द खींचते हो ! घिक्कार है, तुम्हारी ज़िन्दगीकों ! तभी तो तुम्हारी 
बहा की तीकोी रोदकर मुसत्मान तुम्हारे घरोंमें आग लगाते है! 

















27 2 आय 0 





गुलामो ! तुम कबतक इसी तरह चड़ियां पहने रहोगे ?” उस 
काछे-कल थे आदमीने घोड़ेपरसे उतरकर सिफे इतना दी 
कहा। फिर तुरन्त ही उसने उस खिड़कीकी ओर देखा कि 
जिससे अत्यन्त दीन वाणीसे चीखोंकी आवाज्ञ आरही थी। 


इसके बाद एकदम उसने प्रत्येक मशठ के शरीरमें जोश उत्पन्न 


करनेवाले ये शब्द कहै--“हर हर महादेव !”“जय भवानी माता 

तुम्हारी जय हो |-- इसके बाद फिर आगे-पीछे कुछ भी न 
देखते हुए वे दोनों पासके एक द्रवाजेसे भीतर घुसे | उनको 
घसते अभी देर नहीं हुई थी कि, एक पटाव जलकर “'अर्र्‌र 
धम' करके गिरा हुआ खुनाई दिया। बाहरके छोगोंने समझा 
कि, यह पटाव उन दोनोंके--कमसे कम दोनोंमेंसे एकके शरीर- 
पर तो अवश्य ही गिरा। इसलिए यह आशा किसीको नहीं 
रही कि, ये दोनों अब जीवित दिखाई देंगे, अथवा कमसे कम 
इनकी छाशें ही दिखाई देंगी । सबके मनको यही विश्वास हो- 
गया कि, जिसको बचानेके लिए ये भीतर गये है; उसके सहित 
ये दोनों ही जलकर खाक हो जायंगे । इस प्रकारके विचार मनमें 
आरहे है, ओर लोग चिन्तापूर्ण नेत्रोंसे देख रहे हैं कि, इतने 


.. में जिस खिड़कीसे चीखनेकी आवाज़ आरही थी, उस खिड़को 


सहित वह दीवाल फटकर गिर पड़ी, उसके नीचे एक आदी 
भी दव गया। कुछ देर बाद जिस छतमें वह खिड़को लगी थी 
वह छतकी छत ही ढह गिरी | छोग एकदम वहांसे दूर भागे 


अब उसके ऊपरके भाग इतनी जद्दी जल्दी गिरने लगे कि, क्‍ 








कल नरक ब 
आइक मुखसे हक ही 





का नकदकीण फट, ऑिल्टओका <>.८-०--२.९--:- का आ० 


आसपास चालीस-पचास हाथतक खड्ड होनेका किंसीको 
साहस न रहा। खब लोग दूर दूर खडे थ्रे; और लम्बी लम्बी 
गर्दनें कस्के तथा आँखे फाड़ फाडुकर इस ज़िज्ञासाको दृघत 
करनेका मार्म देख रहे थे कि, जो दोनों पुरुष भीतर गये हैं, 
उनकी क्या दशा होती है--अब वे बाहर आते हैं. या नहीं! 
भीतर जो मनुष्य घ॒ से थे, वे आगकी लपटॉमें और चुदकी 
गुजारमें पड़े सही, परन्तु निश्चय --कसी न डगमगानेवाला, 
ग्राणोंपर भी खेल जानेवाला निश्चच--जव छक्र वार किसी 
बातके पीछे पड़ जाता है, तब फिर चाहे जहाँ जावे, चाहे 
जहां घ्‌ से, सफलता घातत किये बिना, अथवा प्राण दिये बिना, 
मान नहीं सकता ! जिस खिड़कोंसे चोख़नेकी आवाज़ आई 
थी, वह खिड़की जि ओर थो, उसो ओरको उन्होंने अपने 
कदम बढ़ाये। मार्गमें कितने ही अंगार,कितने ही दीपककी भांति 
जछते हुए काठोंके द,कड़े पड़े हुए थे, चारों ओर खूब घुआँ 
गृ'ज रहा था ! दो हाथ आगे भी कुछ दिखाई नहीं देरहाथा ! 
बड़ी सयड्भुर दशा थो । नाक ओर मुँहसे घुआं भीतर घुस रहा 
था, शरीरको आगकी छूपरों चादे जातो थीं; शरीरका एक रोम क्‍ 
मो जले बिना नहीं रहा। परन्तु इव सब वातोंकी ओर ध्यान क्‍ 
देनेको उन दोनोंकी--विशेषतः उस काले-कल टे व्यक्तिकी-- 
पंचेन्द्रियोंकों फ्रसत कहां थी ? उनके नेत्रोंकी अपने 
लक्ष्यके अतिरिक्त और कुछ दिखाई ही नहीं देता था ॥ 
उनकी प्राणेन्द्रियोंकों घुएसे कुछ भी हानि नहीं पहुंच य्द्ी 






“०० पहु:हैं ० 4ुफण 





ज्ञडसख स्त्रीकी चीखोंके अतिरिक उनकी कर्णन्द्रियोंको और 
कुछ भी छुनाई नहीं देशहा था। उनकी त्वचाकों ज्वालाए' 
चाट रही थीं, पर इसका उन्हें भाव भी न था। उनकी खारी 
इन्द्रियां मानो एक अन्तरिन्द्रिय्में ही जालगी थीं | चह काला- 
कलूटा ज़बरदत्त आदमी झूब आगे बढ़ा चकछा आरहा था। 
. दूसरा आदमी उसके पीछे था। वे सब प्रकारके प्रयत्न करते 
हुए उसी खिड़कीके पास पहुं ले, जहांसे चीख़नेकी आवाज़ आ- 
रही थी। वहां जाकर वे क्या देखते हैं कि, सचमुच ही एक 
स्त्री बिलकुल बेहोश होकर पड़ी है | उसीके पास उसका बालक 
भी उसी हालतमें पड़ा हुआ है | उसका चीखना न जाने कबका 
बन्द होचुका था । अब उन्होंने क्षणमर इस बातका विचार 
किया कि, इसे किस प्रकार उठा छेजावें। उस काछे पुरुषने 
देखा कि, नीचेकी छत ढ॒ह रही है, न जाने किस सप्तय यह 
बिलकुल दह गिरेगी, इसलिए अब इस सरुत्रीकों उठा लेजानेमें 
एंक क्षणका भी विलम्ब न रणाना याहिए। बस, उसने एक 
क्षणमभरका भी विलस्ब न लगाते हुए तुसभ्त ही उस रुत्रीको 
उठाकर अपने चोड़ से कंघेएर रख लिया; ओर दूसरे हाथसे 
. उस बालकको उठाकर “हर हर महादेव !” “भवानी माताकी 
जय हो ! जय हो !” कहते हुए वह बातकी बातमें उस कमरेसे 
' बाहर निकल पड़ा। उसका कदम उस कमरेसे बाहर निकलनेमें 
यदि एक पलसरकी भी देरी ऊूगी होती, तो वह भी उस कमरेके 
साथ ही साथ अस्निमें गिर पड़ता; परन्तु वह अभी उस कमरेसे 














अप्निके सुखसे है ः 
पं 4 | है, 


छ ज्च््््स्स्ल्ब्स्स्स्ऋ्च 
232 





ही 32 


>यकमु॥०-बरीऐक "००4! 
बाहर निकला ही था कि, इतनेमें ऊसाकि पीछे बतलाया, 
उस छमरेकी छत विलकुछ ढहकर गिर पड़ी; ओर साथ ही' द 
पूरा ऋमरा भी नीचे बैठ गया । इधर वह काला मजुष्य उस 
कमरेंडे बाहर निकलते हो अपने साथोसे कहता है, “सटवाजी- 
राव, अब इधर-उधर मत देखो । आगे बढ़कर बाहर निकलनेके 
लिए रास्ता करो, में उस रास्तेसे तुम्हारे पीछे ही पीछे आता 
ह॑ | जब बिलकुछ द्र्वाजेके पास पहुँचो, तब इसको ओर इस 
बच्चे हो तुम ले लो; और इनको कहीं दूर छेजाकर दोशमें 
ठामेका प्रयल करो । तबतक मैं फिर छोटकर, एक ओर मेरा 
काम रह गया है, उसे दिये आता हूं।” ये सब शब्द वह खूब 
ऊल्दी जल्दी और अत्यन्त शान्तिके साथ बोल रहा था, ज॑ से 
क्रिसी शाम्तिके स्थानसे ही वह चल रहा हो ! सदवाजीराव, 
जो आगे जाग्दा था, उसकी उस शान्तिकों देखकर कुछ अच- 
स्मेंमें भी आया। परन्तु अचस्मेमें ही आकर रह जानेका घह 
समय नहीं था; ओर न वह स्थान ही ऐसा था । इसलिए बहुत 
जव्द वह रास्या करते हुए आगे बढ़ा । उसके भी साहसकों 
ज्ञतनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी ही है ! क्‍योंदि मागमें कितनी 
ही यार उसने जलते हुए काठोंको दूर हृदाकर रास्ता निकाला &॥ 
उस स्त्रीको लिये हुए जो काछा मजुष्य पोछे पीछे आरहा 
था, उसके साहलकी तो बात हो न पूछिये; क्योंकि|डसने आस- 
पासकी वे सयंकर ज्यालाए' उस स्त्रीके वस्चमें, तथा उसके 
बालोंमें, अथवा उसके बालकके बालेंमें अजुप्तात्र भी न लगने 











आ उदाकोंल !्‌ 





दीं--इस विषयमें जहांवक सावधानीसे वह काम लेसकता था, 
वहांतक उसने लिया; और सोमाग्यर्से उसके उस अपूर्व 
सोहसको सफलता भी प्राप्त हुई। उछ ख्री और बालकको वह 
अपने कंश्रेपर इस प्रकार बाहर लेआया कि, अभि उनको स्पशे 
भी नहीं कर सकी | इसके बाद उनको सट्याजीके सिपुदे करके 
स्वयं अत्यन्त फुरतीके साथ पीछे छोट पड़ा। परन्तु इस 
बातका उसे विचार भी नहीं आया कि, जिस रूत्री ओर वर्च को 
अग्निस्पशंसे बचाकर बह बाहर निकाल लाया है, थे वास्तपमें 
है| किस अवस्थामें ? 


लेइंसवां परिच्छेद' । 
फड<ू 
प्रन्द्रका किला । 
प्रातःकालका समय है। सूर्यनारायण अब कहीं थोड़े 
थोड़से ऊपरको आरहे हैं। उनके बाल-किशण अपने छाल 
लाल रंगकी छटा किलेके ऊपर डाल रहे हैं| ऐसे समयमें हमारे 
बाबाजी मन ही मन तड़फड़ाते हुए इधर-उधर घूम रहे थे। 
कोठरीके द्रवाजेंमें बाहरसे ताला पड़ा हुआ था; ओर पहरा 
देनेके लिए दो सिपाही मोजूद थे। कोठरीके अन्दर अबतक 
अंधेरा ही था। हां, एक ओर छोटासा एक भरोखा था, 
उससे अवश्य ही उन कोमल सूर्यभमगवानका एक छोटासा- किरण 











(.. %) , पुरन्दरका किला हि 
लि ये 0६ /(£, ्घ्च्च्ल्च्च्ह्स्क्र 
|... कन्‍न>यल्यात जहर) अटल "ा आधयभभ्भ्भ्आ “का 





भोतर घु सकर उस अधेरेको ओर भी अधिक दुस्सह बनानेका 
प्रयल कर रहा था। जेंसाकि, हमने ऊपर बतलाया, बाबाजी 
इल समय उसी कालकोठरीमें थे; ओर सन ही मन कुछ तड़- 
फड़ाते हुए इधर-उधर चक्कर मा रहे थे । आज दूसरा दिन था, 
जवकि बाबाजी हजुमानजीके मन्द्रिसे पकड़कर वहां लाये गये 
थे। मार्ममें उन्होंने क्या क्या किया, -जो सुसद्मान उनको 
पकड़े लिये आरबदे थे, उनके द्वाश जब उन्होंने एक मराठा 
युवतीका अंशवः अपमान होते छुए देखा, तब उन्होंने क्रोचके 
आवेगमें किस प्रकार उसकी मरस्मत की, इत्यादि तृत्तान्त हमारे 
पाठकोंकों मालूम ही है। मुसदमान सरदारकों उनका वह साहस 
देखकर अत्यन्त आश्चय हुआ; यही नहीं, बल्कि उनके उल साहस 
ओर शूरताको देखकर उसके मनमें पूज्य भाव भी उत्पन्न हुआ। 
परन्तु केवल आश्चर्य और पूज्य भावमें ही भूलकर वह सरदार 
उस समय चुप नहीं रह सकता था। इसलिए डसने अपने 
मुसदमान लिपाहियोंकों पहले कुछ थोड़ा-बहुत धमकाया; ओर 
फिर वबाबाजीको भी कुछ डांट-डपट दिखाकर आये बढ़नेका 
हुवम दिया । जिस शंकाके कारण वह मुसद्माच सरदार अपने 
उस मराठे स रदारको साथ केकर हनुमावजीके मन्दिरिपर गया 
था, वह शैका अभी उसके मनको टोंच रही थी। इसलिए वह 
यही चाहता था कि, कोई न कोई युक्ति करके इस वैरगीको 
पूरा पूरा अपने कबज़ में करके--आवश्यकता हो, तो उसको 
कष्ट देकर भी--उससे अपनी अभीष जानकारी प्राप्त कर लेनी 











/ उचाकाल | ९ शी 2) 
५५ जज 6 द 
हे “ ड्यछूडएा 45 6022-“ ७ ञे | ३३० & 


याहिए। अपने इस उद्ं श्यको सिद्ध करनेके लिए अब उसके 
पाख एक ही उपाय था; ओर वह यह कि, बावाजीको फिट्लेमे 
कद कर रखा जाय; ओर उनको खाने-पीनेको बिलकुल न देकर, 
जितना कष्ट दे सकें, दिया जाय; ओर इस प्रकार जो पता 
लगाना है,छगा लिया जाय। हसुमावजीके उस मण्द्रिसे पुरन्दरका 
किला बहुत नज़दीक था;ओऔर जो काम इस समय उस खरदारको 
लिद्ध करना था, उसके लिये वह किला पूरा पूरा उपयोगी श्री 
था। किला बीज्ञाघुर्वालोंके अधिकारमें था | यही नहीं, बहिकि 
हमारे बाबाजी जिस झुसब्मान सरदारके आज कोदी थे, उस्लीके 
हाथमें उस प्रान्तकी सूबेदारी भ्रीथी। किलेदार एक वृद्ध 
मजुष्य था। उसके तीन लड़के थे; परन्तु तीनों ही पुच्नोंमें 
पररुपर बहुत बनती नहीं थी; ओर उस वृद्ध किलेदारको दो 
आजकलके नवीन छोकरोंकी नवीन चालें बिछकुल ही पसन्द 
नहीं थीं। फ़िलेकी स्थिति च'कि इस प्रकारकी थी, अतएव 
बाबाजीको क़ेद कर रखनेमें यहां तत्काल हो सब खुबिधा हो 

गई। साथ ही साथ द्रबारमें इस आशयका एक पत्र भी भेज 
दिया गया कि, एक ऐसे गुलाई'को पकड़कर किलेमें कोद कर 
रखा है कि, जिससे षड्यंत्रका कुछ न कुछ पता मिलनेकी 
सम्भावना है, इतना ही नहों, किन्तु जिसको पूरा पूरा कष्ट 
पहु चानेसे बलवाइयॉकी--विशेषतः: राजा शहाजीके उपठयी 
लड़केड्ी भयंकर कारवाइयाँ सारी मालूर पड़ जायँगी। अस्तु | 
उस झुसत्मान सरदारडे साथ जो मराठा सरदार था, उसे ये 

















ह 5) पुरन्द्र हक 
५ १ न्द्रका किका . 5 
पड कक है ४ 4८ हा. अधायरफअमककयान प्रा श्थयाा पक कफ कर ण््स्स्श््ऋर सा साले ै छि 
०७४ ॥४४७४७ ४७१ू-१८-००३७४८-:-ऋ ! 


सब बातें केवल विषवत्‌ मालूम हुईं । किन्तु उल समय वह 
लाखार था। जो कुछ हो रहा था, उसको झुपकेले देखते रहनेके 
अतिरिक्त और वह कुछ कर ही नहीं सकता था। उसकी परि- 
सिथति ही उस समय ऐशी थी। हलुप्तानजीके मन्द्रिमें वाबाजीने 
जो दो-चार मर्मस्पर्शी वचन उससे कहे थे,वे अबतक उसके हृदयमें 
सल रहे थे। तिसपर भी जब उसने यह देखा कि, झछुसट्मान 
सरदारने अब विलूकऊ ही हमें ताकमें रख दिया; ओर यों हो 
जिस मुसत्मान सरदारको हमारे साथ कर दिया गया था, वह 
जब अपना ही हठ चलाता है, हमारी बिलकुल परवाह ही नहीं 
करता, तब उसको बहुत ही सन्‍्ताप हुआ; पर बेजारा करता 
क्या ? उस समयकी परिस्थिति ही ऐसी थी कि, सुसदमान सर- 
हार्सेके आगे मराठे सरदार किसी गिनतीमें नहीं थे । दो-चार 
सगधरोंकी बात जाने दीजिए---जिनकी ईमानदारी ओर नेक- 
यतीका, तथा जिनकी शरदीरताका भी, वादशाहकाी अदुंभव 
दोचुका था-बाकी और सरदारोंके साथ चाहे जो झुसदगान 
सरठार अथवा बयाब, चाहे जैसा व्यवहार किया करते थे 

साल पूछिये, तो उस समय वीजापुर-द्रवारसे उस मराडे सरदार- 


6 


को ही इस कामपर भेजा गया था कि, इस समय पूना, सास- 
बड़ झोर मावल इत्यादिके इलाकोंमें जो बार बार लूटगार करके 

क्लो कष्ट दे रहे हैं, उन नवशवक यागियोंका पता लगाकर 
उनका दमन किया जाय; ओर वास्तवमे उस मराठे सरदाश्के 
साथ मुसत्मान सरदाश्को सहायकके तोरपर भेजा गया था। 








डे 












4 उदाकाक . है 


३३२ ८2 


गिर 0०- व कक दा "हु. 





परन्तु वे दोनों सरदार जबसे हसुमानजीके मन्द्र्पर गये, तबसे 
मुसब्मान खसरदारने कैसा व्यवहार किया, सो हमारे पाठकोंको 
मालूम ही है। बाबाजीको कैद करनेके बाद सारा अधिकार 
मुसब्मान सरदारने अपने ही हाथमेँ छेलिया; ओर मराठे 
सरदारको बात ही न पूछने रूगा । अस्तु | 

ऐसी परिस्थितिमें हमारे बाबाजीको, जैसाकि हमने ऊपर 
बतलाया, किडेकी एक काल-कोठरीमें कद कर रखा | बाबाज़ी 
डस जगह, मन ही मन तड़फड़ाते हुए अपने के दखानेमें--जेसे 
पिंजरेमें कोई शेर बन्द हो, उसी तरह--इधरसे उच्चर ओर उच्चर- 
से इधर चक्कर लगा रहे थे। उनकी संगिनी--उनके जीवनकी 
एकमात्र सहिली---बस, एक कुबड़ोमर उनके पाल थी। उसी- 
को वे बार बार इस हाथसे उस हाथमेँ ओर उस हाथसे इस 
हाथमें लेरहे थे। उसकी ओर एक विशेष अर्थपूर्ण दृष्टिसे 
देखते, कभी कभी कुछ हँखते; ओर फिर घड़ीसरके लिए उसको 
एक ओर रख देते थे। इस प्रकार उद्वेग-चंचछ-बृसिसे बाबाजी 
घूम रहे थे। इतनेमें यदि ज़रासा कहीं कोई खुसफुसा देता, 
अथवा कोई द्रवाज़ा ही ज़रासा खथ्का देता, तो चोकन्ने होकर 
अपनी कुबड़ी हाथमें लेलेते; ओर यह देखने रूगते कि, क्‍या 
कोई अवानक आता तो नहीं है। इस प्रकारकी अवस्थामें ज़ब- 
कि बाबाजी थे, तब अचानक क़िलेके नीचेकी ओरसे, कहींसे 


 ज्ञोर ज़ोरसे एक डफ़्ला बजता हुआ खुनाई दिया; ओर ज्यों 


ज्यों उचकी आवाज़ उनके कानोंमें आने रूगी, त्यों त्यों वे 











कि पुरन्द्रका किला 
वय्य््च्स्य्ल्क्य्स्य्क्र्ना 
इ॥ल बातके लिए और भी अधिक उत्कंठित होते गये कि, देख, 
य्रह डफ बजानेवाला हमारी पहचानका ही हैँ अथवा अन्य कोई 
बस. जिस मरोखेसे सर्यदेवता अपने प्रकाशका अशुमात्र अश 
थाबाजीको देर्हे थे; उसी करोखेसे उन्होंने देखनेका प्रयत्ल किया 
कि, देखें, यदि कुछ दीखता हो | पर चहांसे क्‍या दीख सकता 
था ? हां, इतना अवश्य हुआ कि, वहांसे उस डफ़की आवाज़ 
जण और स्पप्ट सुनाई देने छगी; ओर उनको इस वातका 
अधिकाधिक विश्वास होने लगा कि, यह डफ़ सचझुच वही है 
के, जिसके विषयमें हमको शंका हुई थी। इस बातका 
विश्वास होते ही उनके चेंहरेरर कुछ उदलासकीली रूलक 
दिखाई दी | इसके बाद उसी उठ्ल सित वृत्तिमें कुछ विचारसा 
करते हुए वे फिर इधर-उधर घूमने लगे । द 
कछ देर बाद वह डफ़ बिलकुल ही न सुनाई देने रूगा 
इसलिए उसीके विचारमें वे निमन्न होगये। आधी घड़ी हुईं 
पक घड़ी हुई -वाबाजी सिवाय इधर-उधर घूमनेके ओर कुछ 
नहीं कर सके । इतनेमें उनकी कालकोठरीका दरवाजा खुला; 
और एक पहरेदार भीतर आया | पहरेदार एकद्म उनसे कहता 
है,“बाबाजी, खांसाहबकी वारी ब आपके पास आने - 
वाली है। इसलिए आप अपवा खत्चा सच्चा हाल बतलाऊः 
क्यों नहीं छटकारा पा लेते 7” यह सुनते ही बाबाजी अत्यन्त 
क्र द्ध और तुच्छ दृष्टिसे उसकी ओर देखकर मत हा मत कुछ 
हँसे. और फिर उससे कहते हैं, “अरे, जा, जा। खांसाहवसे 














जचबाकाल 3 
हे ल््य्क््त- 48) ई 3१३७४ हैः 


यह खन्देशा कह दे कि, अकैड़े भव आशो--अपने बाप, दाद, 
परदादे, जो कोई हों, उनको भी साथ लेते आओ 
यह सन्देशा सुनऋर पहरेदार भी बेचारा कुछ चकराया 
पर पीछेसे कुछ हंसा भी, क्योंकि वह जातका मराठा हीथा। 
बाबाजीका कथन झुनते ही वह उनसे कहता है बाबा: 
क्यों व्यर्थ कण्ण उठा रहेहै? थे मुसत्मान आपको इस 
प्रकार कभी नहीं छोड़ेंगे। व्यर्थके लिए आप अपने पराणयेसे 
हाथ धो बेठेंगे। इससे तो यही अच्छा है कि , दो-चार सद्ी- 
ऋूठी कहकर अपना छुटकारा पा लीजिये |” 
बाबाजी एक अक्षर भी न बोलते हुए सिफे उसकी ओर 

देखकर हँसभर दिये। फिर थोड़ी देश बाद उससे कहते है 
जा, जा। सुखत्मानोंकी पीकदानी उठानेवाले, तेरे समान लोग 
खामने नहीं आने चाहिए | जा, मुह काला कर यहांसे | नीयो 
चाहे तुम्हारे सामने गाय मारें--यही नहीं, बल्कि तुम्हारे हाथ- 

से पकड़कर परवाबें भी, तो भी तुम यही कहकर टाल देने 

वाले हो कि, “जाने दो, क्या हुआ जी [?.. ऐसी दशामें मेरे 

समान वरागीके चाहे प्राण भी छे लें--फिर भी तुमको कुछ 

'तश्स नहीं आयेगा ! गौलआह्मणोंका कष्ट दूर करनेके लिए जो 
. प्रयल्ल कर रहा है, अपने प्राणोंको भी न्योछावर करके जो इसझे 

लिए तेयार है, उसीके विरुद्ध सच्ची-कठी कहनेके लिए तू उपदेश 

दे रहा है ? तेरी यह जीम क्‍यों न काट ली जाय ? अरे, धिक्कार 
है, तेरी ज़िन्दगीको ! जा, जा। अब खड़ा मत हो, मेरी आँखोंफे क्‍ 














४ पुरन्दर जन ७ 
5०3-कम० "8ए०-बाड न्च्य्स्ल्श्तन्य्ल्य्त््रः 


सामने । जा जब्दी ! बुला छा, उस खानको; ओर उसके कहेे 
ही उड़ा दे मेरी गर्दन | वहीं तो, किलेके कोटपरसे ढकेल दे! 
लेकिन इस समय यहांसे चका जा ।” 

बाबाजीके ये शब्द हमने यहां देदिये हैं, लेकिन उस समय 
उन्होंने इस प्रकार इनको उच्चारण किया कि, वह पहरेदार 
चुपकेसे खड़ा हुआ उनको खुनता रहा। बाबाजीकी वाणीमें 
कुछ ऐसी ओजखिता जो मरीहुई थी कि, उसको जो, कोई सुनी 
उसके मनपर कुछ न कुछ असर किये बिना यह रह नहीं 
सकती “हृदय” जिस चीजको कहते हैं, वह 
उसमें किसी त क्विसी अंशमें मोज द हो। परन्तु यहां तो पहरे- 
दारकी बात थी--फ़िर भी बाबाजीके उन निन्दायुक्त वचनोंसे 
उसका दिल बहुत कुछ हिल गया; ओर वह सचप्तुच ही एक 
कद्प पीछे चलता हुआ बिलकुल दरवाजेतक गया; ओर फिर 
कुछ सी न बोलता हुआ द्रवाजेके बाहर निकल गया | पहरेदार 
जबकि पीछे छोट रहा था, तभी बाबाजीको, उसके चेहरेसे ही, 
मालूम होगया कि, हम्तारी मात्रा इसपर कुछ न कुछ काम कर 
गई, ओर इसलिए बाबाजी, मन ही मन, कुछ हँसकर कहते हैं, 
“देखना चाहिए, अभी हारऊूमें जो डफ़ सुनाई दिया था, वह 
यदि सचमुच उसीका डफ़ है, तो आज या कर यहांसे निक- 
लनेका कोई न कोई प्रयत्न होगा ही; ओर यदि ऐसा हुआ, तो 
फिर इस मनुष्यसे अवश्य ही कुछ काम निकलेगा। हमारे 
कार्येमें जिन मलुष्योंले कुछ काम नहीं निकल सकता--ऐसे 




















१ उचाकाली 
य & २ 033. हटने 


लुष्य बहुत थोड़े हैं। दो-चार बूढ़ी खोपड़ियां मरे ही हों । ओर 
दो-चार नवयुवकोंमें भी खार्थों निकल ही आवंगे !” 
इसी प्रकारके विचार उनके मनमें आरहे थे कि, इतनेमें 
फिर उनको ऐसा भास हुआ कि, अभी जो डफ़ बजता था, 
फिर वही बज रहा है। इससे उनको फिर यह जाननेकी इच्छा 
हुई कि, सचमुच यह वही डफ़ है या नहीं। बस, तुर्त ही 
उनके मनमें आया कि, अभी हमने जिस मात्राकी रूकीरं घिस- 
र दी हैं, देखें, उस मात्राने कहांतक पहरेदारपर काम किया 
हे। यह सोचकर उन्होंने द्वार खटखटाना शुरू किया | कुछ 
ही देर बाद क्‍या बात है, सो देखनेके लिए वही पहरेदार भीतर 
आया। उसे देखते ही बाबाजी उससे कहते हैं, “क्यों जी 
जमादार | आजकल द्निको भी सुबह क़िलेपर, जान पड़ता 
है, तमाशे-वर्माशे हुआ करते हैं? क्‍ 
पहरेदार आश्चर्यकित होकर उनकी ओर देखता हुआ 
कहता है, “क्या ? तप्ताशे ? स्रो सी क़िलेपर ? क़िलेपर तो 
कसी तमाशे हुए नहीं। हा, क़िलेदारके एक लड़केको कुछ 
शोक अवश्य है, सो भी क़िले-विलेयर कभी नहीं-वहीं कहों 
अपना नीले बस्तीम जाकर भले ही कराया-वराया करता. 


हो 55 | ह 
“ह १ हैं| फिर खुबहके ही पहर यह डफ़ कहां बज रहा है? 

“डफ़ ?” पहरेदार कुछ सोचकर कहता है, “डफ़ ! क़िछेपर 
तो कहीं उफ-वफ़ वजता दिखाई नहीं देता । हां, नीचे बस्तीमें 












"कि. +मई पुरन्द्रका किला है 
च्व्ल्च्च्च्प्क 


अवश्य ही एक जोगिन आई है। वही अपना गा-वजाकर नाव 
रही है। हैँ! हैँ | आपको भोतरक्ो, उस तरफको, दीवालके 
भरोखेसे वह डफ़ ज़रूर? आपको सुनाई दिया होगा [” 

बाबाजी अधिक कुछ नहीं बोले; और सीतर ही भीतर कुछ 
हँसे। उनके चेहरेसे स्पष्ट दिखाई दिया कि, जो कुछ उनको 
चाहिए था, सो मिल गया। किन्तु तुरन्त ही उनके मनमें आया 
कि, यदि हम कुछ नहीं बोलेंगे, तो शायद्‌ इसके मनमें शंका न 
होजाय; इसलिए फिर बोल उठे,“अच्छा ! जो डफ़ सुनाई दिया, 
सो उस जोगिनका था ? मेंने समझा कि, समभो बातें यहां विल- 
क्षण हो होती होंगी। किलेदार ब्राह्मण हैं; परन्तु फिर भो बैरागी- 
को कष्ट दिया जारहा है, इसोसे सम्रा कि, शायद दि्नको 
भी तमाशे होते हों! यह जोगिन क्या कभी किल्लेपर भी आती 
है ? अथवा यहां उसको आनेकी मनाई है ?” 

“मनाई कहांकी महाराज ? ये झोग सभी जगह जाते हैं 
थोड़ी देर नाचते-गाते हैं, जादू-टोना करते हैं; ओर भिक्षा मांग- 
कर पेट भरते हैं। उनको कोई मना-वना नहीं करता। आज 
जो आदमी यह जोगित वनकर बच्तोमें आया है, वह दस-पन्द्रह 
दिनके बीचमें अकलर यहां आजाता है; ओर भिक्षा मांगकर 

लोट जाता है।” 

बावाज्ञी की चेड़ासे मालम हुआ कि, उनके मतछबरही बात 
उनको ओर भी प्राप्त हुई । कह नहीं सकते कि, उस ज्ोगिनके 
किलेपर आनेखे उनका तात्पये क्‍या था ! 





२२ 





' उपाकाल £ 








जब्ज्स्ख्ट्बाः 


जो हो, बाबाजीओी और पहरेदारकों इसी प्रकार कुछ देर- 
तक बातचीत होती रही । इसके बाद बाबाज़ों फ़िए उससे 
कदते हैं, “क्यों जप्रादार, यहांसे छूटनेमं यदि तुमने हमको 
सहायता दी--नहीं, में यह नहीं कहता कि, तुम हमको सहा- 
यता दो ही--पर, बात कहता हूं, मान छो, तुमने दी, तो ये 
छोग तुमको बड़ी सज़ा देंगे? हमपर तो बड़ी भारी नज़र 
रखनेका तुमको हुक्म होगा ? रखो भाई ! हम तुम्हारे हाथपमें 
ही आऊँसे हैं ! तुम जो चाहो, सो कर सकते हो! पर 
हमारे पंजेमें यदि तुम कभी फेस गये--फ सते काहैको हो |-. 
तो हम तुमको सब तरहसे छोड़ देंगे! पर तुम भर्रा ऐसा 
कसे कर सकते हो ? यदि कहें कि, तुम सिफ देखी-अन- 
देखी ही कर जाओ; ओर हम अपना छूट जानेका प्रयत्न कर 
लें, तो भी शायद्‌ तुम न खुनोगे! पर तुम्हारा भी इसमें क्या 
दोष ? हमको यदि तुम सहायता भी दोगे, तो हमारी जगह 
तुम्हींकी सूली देंगे! अजो ये मुसद्प्राव भाई हैं! कुछ पूछो 
मत, न जाने क्या करें ओर क्या न करें! कहो, जो कुछ हम 
कहते हैं, से है न? देखो, सुबहसे यार घार विलछम्की तरूव 
लग चुकी, पर कहीं प्रिली नहीं | जाओ ज़रा, नीचे बस्तीमें यदि 
मिल जाय, तो एक कोरी चिछ॒मम ओर थोडीसी ताज़ा तप्राख 
ही ला दो ! ओर कुछ नहीं, तो न सही--इतमा तो काम कर 
दो! 
.. बाबाजींका बोलना अमी बन्द नहीं हुआ था कि, इतनेमें 








6 अब गा) जाभिनका फेश | 
किसीने दरवाजा खटकाया। बाबाजी एकदम चप होगये | 
जमादार फिर तुरन्त बाहर चला गया; ओर क़िल्देदार स्वय॑ 
भीतर आया | 





अवलापअाए८कटायपानकत2 0९० प्पप्भुरत था फट सकि 


चोबीसवां परिच्छेद 





जोगिनका फेरा | 

क़िलेदार एक बिलकुल वृद्ध पुरुष था | उसकी अवखाने तो 
बुढ़ापेकी छाया उसकी सूरतपर डाली ही थी; किन्तु उसके 
गालोंपर जो नुर्रियां ओर गड्ढे. पड़ गये थे, वे केवछ उसकी 
अवस्थाके ही नहीं थे। वास्तवमें जान पड़ता था कि, चिन्ताने 
भी उसकी सूरतपर अपना काफी पराक्रम दिखलाया है । उसकी 
दृष्टि मन्द्‌ पड़ गई थी; ओर डसके क़दम भी कुछ तेज़ नहीं पड़ते 
थे। उस पुरुषको ओर देखनेसे खाभाविक ही ऐसा जान पड़ता 
था कि, चिन्ताने इसे खूब खताया है। सूरत उसकी विलूकुल 
सोस्‍्य ऑर खरल जान पड़ती थी। उसमें कपट इत्यादिकी 
रेखा अणुप्तात्र भी दिखाई नहीं देती थो। सिरमें सफेद पगड़ी, 
शरीरमें एक वारावन्दी ओर ऊपरसे एक चद्रा डाछे हुए था। 
वह भीतर ज्यों ही आया, त्यों ही पहरेदारने एक मसनद और 
एक गद्दी द्रवाजेके पाख लाकर रख दी, ओर दरवाजा प्रायः 
खुला ही रखा, तथा खर्य पाल ही खड़ा रहा। पीछेसे पानका 
सामान--एक बड़ुवेमें ही--ओर एक छोटासा खलबत्ता हाथमें 











रि ये हुए. अदली दोडता हुआ आया | गद्दी, जो वहा पी हुई 
थी, उसपर पेर रखते ही अर्दली और पहरेदारक्म ओर दृष्टि 
ऊँ ककर वह तृद्ध पुरुष उनसे कहता है “देखो, तुम दोनों 
यहांसे बहुत दूर चले जाओ । यहां रहनेकी ज़रूरत नहीं है। 
. जा; शान्ताराम, तू भी जा | आवश्यकंता पडनेपर सै बुला लगा |” 
दोनों बहांसे बहुत ई जाकर एक वृक्षके नीचे बैठ गये। और 
दुस-पांच मिनट भी नहीं हुए थे कि, शान्तारामकी थेली और 
जमादार साहबकी हुको निकली | फिर क्‍या पूछना है ? किसी 
एंक रुपमें ही तमाखूं छोगोंकों मोहित करनेके लिए काफी है-- 
फिर वहाँ तो दो दो रूपोरमे मनमोहिनी खुरेती आ उपस्थित 
हुई । वे दोनों अपनी गप-शपमें रूग गये । द 

. इधर क़िलेदार अपनी मसनदकों टेककर बेठ गया; और 
फिर बिलकुछ सौम्यताके साथ हमारे बाबाजीसे बोला 
_बाबाजी, आप इनके पंजेमें कहांसे फेस गये ७ 


“में ! में ही क्या--महाराज, हमारा सारा धर्म, हमारा... 
सारा देश, खारे गौ-ब्राह्मण इनके पंजेमें फँसे हुए हैं--फिर 
-सुभ ग़रोबकी क्या कथा ? आज चाहै जिसको,चाहे जिस समय 
पकड़कर वे फॉसोपर लटका रहे हैं- फिर सुभ गरीबकी वहां 
कौनसी बात है ? ऐसा ही कुछ मनें आया, में मन्दिरिमें मिल 
_ गया, पकड़ छाये; और यहां बांध दिया। बाद्शाही अम्ल 

 ठहरा, नवाबी हे ही, चाहे जो कोई हो, कौन पूछता है कि, तुम 
. -कहांके हो, कोन हो !” 














जोगिनका फेरा ः 
६०-57 कक 
के यह कह रहे थे, क्रिडेदारकी सारी नज़र 
उनके चेहरेकी ओर थो। उनके शब्द खुननेको ओर उसका ध्यान 
था, अथवा नहीं, इसमें शंका हो है | बाबाजी जबकि उपयुक्त 
बात कह रहे थे; ओर फिए जबकि उनको बात खतप्त भी हो 
३, किलेदार कुछ देश्तक बिलकुछ चुय बेठा था। हां, उसकी 
नज़र बाबाजीके चेहरेसे बिलकुल नहीं हूटी । बाबाजीका कथन 
सम्राप्त होगया; ओर जब वे बिलकुल चुप होगये, इसके बहुत 
देर बाद किलेदारने एक रूस्बीसी सांस ली; और फिर बोला, 
“बाबाजी, आपको जिस सन्देहसे पकड़ लाये हैं, उसमें क्या 
कुछ भी सत्यता है? आप जिस मन्दिरमें रहते हैं, वहां कुछ 
लोग इकई होते हैं; ओर आप छोग वहां कुछ गुप्त मन्त्रणा 
किया करते हैं--क््या यह खच है?” ये प्रश्न क्रिलेदारने बिछ- 
कुल ही निर्वल्ल आवाज़से और चुपकेसे पूछे । उन प्रश्नोंके उत्तर 
क्या मिलेंगे, सो मानो वह पहलेहीसे ज्ञानता था। वे उत्तर 
सुनने हो चाहिए, अथवा बाबाजीसे वे उत्तर उसको 
मिलने ही चाहिए--ऐसपो कुछ उसको अपेक्षा दिखाई नहीं दी | 
हां, सच्चा हाह कया है, मानो सो जाननेऊझे लिए ही उछ्तकी वह 
द्ृष्टि,ोकि दूरसे वह्तु देखनेमें तो मन्द थो; पर थो बड़ी गहरी-- 
ओर विशेषतः चेहरे क्री ओर देखनेसे अन्तःऋर णमें, भोतर, बहुत 
गहरी थी--देखनेमें बडो तोक्ण थो--छो बराबर बाबाजीके 
चेहरेको ओर लूगो थी। बाबाजी भी मानो उस बातकों समझ 
गये; ओर इसीलिए, ऐसा जान पड़ा कि, वे इस बातका प्रयत्न 























करने लगे कि, जो चेष्टा उनकी थी, वही क़ायम रहे, और जहाँ- 
तक होसके उनका चेहरा क़िलेदारकी दृष्टिमें बराबर पड़ने ह्‌ 
ने पावे । अबतक बाबाजी सबके सामने बिलकुल सीधी निगाह 
रखकर जिस प्रकार उत्तर देते थे, उस प्रकार इस सप्य उनकी 
स्थिति दिखाई नहीं दी | . वे क़िलेदारके सामने, जहांतक हो- 
सकता था, निगाहमें निगाह नहीं मिड़ाते थे । बराबर दो मिनट-- 
दो मिनट क्‍यों, एक मिनट भी उन्होंने किलेदारफे मुं हकी ओर 
नहीं देखा। क़िलेदारकी बात बिलकुल इससे शसिक्न थी | वह 
' जो कुछ कह रहा था, सो तो बिलकुछ यों ही किन्तु देख 
बशबर रहा था। ऐला जान पड़ता था कि, मानों वह 
वाबाजीको ख़ास तोरपर देखनेके लिए ही आया था--बांतचीत 
करनेके लिए नहीं । है 
फिर भी बाबाजीने एक ओर देखते हुए, उसके प्रश्नोंके उत्तर 
बिलकुल शान्तिपूर्वक दिये, “महाराज, वहां और कौन लोग 
होंगे? ओर शुप्त मंत्रणा किस बातकी होगी ? मासूलीसी बातकों 
व्यर्थंके लिए इतना बढ़ा रखा है! आप जानते ही हैं कि, वह 
उराना हनुमानजीका मन्द्रि है। उसमें आज पांच-छे वर्षसे में 
रहता हूं। वहाँ मन्द्रिके खाथ एक बड़ासा प्रांगण भी है । मेरे. 
ही समान कोई पांथस्थ बैरागी वहां आजाता है, डतर पडता 
हे, एक-दो दिन, जो कुछ रहना होता है, रहता है. और फिर 
अपना चला जाता है। हनुमानजीका मन्दिर ही है; ओर फिर 
में वहाँ रहने लगा, इसलिए सखाभाविक ही देवताके साममे 





























(₹ ३७३ छ) / जोगिनका फेरा हु 


2२5 य्स्च्ह्ल््च्ल्स्क् 
दीपक लूगाना पड़ा, मंगलबारके दिन एक-आध ओर अधिक 
दीपक रखने पड़े, एक-आध नारियल, भिक्षा मांगनेसे,जो मिल 
गया, तो उसका प्रसाद्‌ वढ़ाकर, जो छोग आ गये, उनको बाँट 
दिया। बस, यही क्रम जारी रहा । घीरे धीरे आलपासके 
गाँवोंके कुछ लड़के भी जमा होने रंगे। थे मंगलूवारको वहां 
आते रहते हैं। वहां एक छोटासा अखाड़ा भी बनाया है। इधर 
मावलऊे लड़के हैं हो क्या ? फिर भी उनके इकई होनेका इतना 
भय माना गया है ! वे वहां करते ही क्या हैं ? हां, कभी कुश्ती 
लड़ते हैं; पटा-बनेठी, मुठ्र, लेजम इत्यादिकी कसरत करते हैं, 
इससे अधिक ओर क्या है ? मेरे समान बैरागीसे झुठ्त मंत्रणा 
करने कोन आवेगा ? ओर शुघ्र मंत्रणा करेगा किस बातकी १? 
इतना कहकर बाबाजी हँसे; ओर उन्होंने सीथी निगाहसे--तो 
क्या ?--किन्तु धीरेसे ही तिर्छी नज़र करके क़िलेदारकी ओर 
देखा; सो केवल यह जाननेके लिए कि, हमारे कथवका उसपर 
क्या प्रभाव पड़ा, हमारा कथन कहांवक उसके ध्यानमें आया, 
कहांतक सब मालूम हुआ ? परन्तु शायद्‌ उनकी बह दृष्टि 
बिलकुल विफल हुई। क्योंकि क़िलेदारके उस चिन्ता-निमम्न 
चेहरेसे इस बातका बोध अणुम्रात्र भी नहीं होसकंता 
था कि, बावाजीके कथनका उसके हृदयपर क्या प्रभाव पड़ा, 
उनका कथन उसे कुछ सत्य माल्दुप हुआ, अथवा नहीं | 
बावाजीकी कोठरीमें वह जिस समंय आया था; उस समय जेसां 
_ उसका चेहरा था, वैसा ही अब भी मोजूद था--उसमें कुछ भी 






7 उपाकाल है 


७४ जप 3 





अंन्तर दिखाई नहीं पड़ा। इससे तुरन्त ही बाबाजीके ध्यानमें 


आगया कि, हम जिससे बातचोत कर रहे हैं, वह कोई मामूली. 


आदमी नहीं है, किन्तु वह एक ऐसा आदमी है कि, जो अपने 
हृदयका अभिप्राय ऊपरसे प्रकट नहीं होने देसकता । 

.. अभी ऊंपर हमने बतलाया कि, बाबाज़ोके कथनका किल्े- 
दारके मनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा--ओर यदि पड़ा भी हो, तो 
कमसे कम उसझ्ले चेहरेपर तो उस्तको अणुप्रात्र भी छाया दिखाई 
नहीं दी | परन्तु हमारे इस कथन में थोड़नीसी भूल हुई | क्‍योंकि 
कुछ प्रभाव पड़ा सही; किन्तु वह उसकी चेष्टामें नहीं, बह्कि 
व्यवहारमें; क्योंकि ऐसा जान पड़ा कि, अबतक यह उस 
वैरागीकी ओर जितनी आतुरतासे देखता था, उससे कहीं 
अधिक आतुस्ताके साथ वह अब उसकी ओर देखने रूगा। 
बाबाजीके कथनमें तो ऐसी कोई बात ही दिखाई नहीं दी कि, 
“जिससे क़िलेदारपर बसा प्रभाव पड़ता; परन्तु इसमें सन्देह 
नहीं कि; उनका कथन समाप्त होनेके बादसे ही वह ओर भी 
अंधिक उत्कंठाके साथ उनके चेहरेकी ओर देखने रूगा। इस 
रीतिसे क़िडेदार थोड़ी देशतक एकटक उनकी ओर देखता 
रहा। फिए इसके बाद वह उनसे कहता है, “बाबाजी, आप 
वेरागी कबसे हुए ? आपको उम्र क्या है? आप|कहां कहां घूमे ? 
आपकी स्थिति क्या है ? सब बताइये [? 

. इतने प्रश्न कप्के बंद फिए बाबाजोको ओर गौरसे देखने 
 छगा। इन प्रश्नोंकों खुनते ही--ओर विशेषतः इन प्रश्नोंके पूछनेके 












8 जोगिनका फेरा जोगिनका फेरा कै 
कि 


च्च््च्ल्ल्ख्ल्डडत 


बाद वह क़िलेदार जिस रीतिसे वबाबाजीकी ओर देख रहा 
था, डस रीतिको देखते ही--ऐसा जान पड़ा कि, बाबाजीके 
मनमें कोई भारी आशंका उत्पन्न हुई। “मुक्े जो भय होरहा 
था, वह कहीं सच तो नहीं है ? अबतकके प्रश्ष तो ठीक थें; 
परन्तु पीछेसे जो प्रश्न किये, वे निस्सन्देह कुछ भिन्न ही विचारों - 
से किये गये ! क्या इसने मुझे पहचान लिया १ शायद्‌ पहचान 
लिया हो । अन्यथा ऐसे प्रश्नोंकी वास्तवर्में आवश्यकता ही क्या 
थी ? अबतकके प्रश्न तो ठीक ये; पर ये पीछेसे जो बातें पूछीं, 
सो किस कारणसे ?” 
इस प्रकारके विचार बाबाजीके मनमें आये; ओर उनकी 
चेष्टासे ऐसा माल्यूम हुआ कि, जेसे वे कुछ चिन्तातुरसे हों । 
अस्तु । क्षणमर तो उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, चुपके बेठे 
हुए नीचेकी ओर देखते रहे। परच्तु फिर सोचा कि, यदि हम 
इसी प्रकार चुप रहेंगे,तो क़िलेदारके मनमें और भी व्यर्थंके लिए 
शंका आवेगी। और अबतक यदि उसे कोई शंका न आई 
होगी, तो अब हम अपनी तरफसे ही मानो उसका बीज बोयेंगे | 
यह सोचकर उन्होंने घीरेसे ही गदन ऊपर उठाकर कहाः-- 
५प्रहाराज, मेरे समान वेरागीके विषयमें आपके समान 
पुरुषको ऐसे प्रश्ष करनेसे कया तात्पये ! कौन किस कारंण 
घरसे निकलकर वैरागी वन जाता है, इसका क्या ठिकाना 
. थर मैं वैसा वैरागी नहीं हूं । मेरे माता-पिता वास्तवमें छुटपनमें 
ही खर्गवासी हुए । घरमें सोलह आने द्रिद्वता | पालन-पाषण 

















१ उचाकाऊ ।् 





( ३०६ 2) 


७ एम +प८क> मन बहु ए>+बह१३० 


करनेवाऊा कोई बहीं । ऐसी दशामें यों ही एक खाम्तीजी मुके 


मिल गये; भोर तभीसे मैं इस दशामें हूं। मेरी अवस्था आज 


सथपझुव क्या है, सो भी ठीक ठोक कह नहीं सऋता | जिसने 
मेरा पालन-प्रोषण किया, बह बेचारा भी चल बसा। तबसे में 
ऐसा ही सब तीर्थोर्में घूमता हुआ; ओर जहां मन भाया, चहां 
उतने ही दिन रहता हुआ, समय व्यतीत कर रहा हूं। ऐसी 
दशामें में आपके प्रश्नोंका उत्तर क्या दू' ?” 

बाबाजी ये सब बातें कह रहे थे सदी, परन्तु किलेदारकी 
ओर उन्दोंने एक बार भी खीधी निगाहसे नहीं देखा । हां, क़िले- 
दारकी दृष्टि अवश्य ही बराबर उन्हींकी ओर लग रही थी | 
इतमेमें उनकी कोठरीसे छगसग पन्दइ-बीस हाथके अन्दरपर 
ही फिर उस डफ़्की आवाज़ आने छूगी, जिसे बाबाजी थोड़ी 


देर पहले छुन रहे थे। इसलिए बाबाजीने बड़ी फुरतीके खाथ-- 


हमारे खामने क्रिछेदार बैठा हुआ है, इसका भी भान से रखते 
हुए--उठऋर दृश्याजेके बाहर माककर देखा। देखनेके 
साथ ही जो कुछ उनकी भमिगाहमैं आया, उसे देखऋर ते 
. आनन्दितसे दिखाई दिये; ओर यह क़िड्देदास्मे भी जान छिया | 
परन्तु उसने किसो प्रकारकों व्यग्रता प्रदर्शित नहीं की। 
सूक्ष्म हृष्टिले यदि किखीने उस सम्रथ उसकी ओर देखा 
होता, तो उसके उस चेहरेपर, जो सदासे चिन्ताश्रस्त था, 


उसको अत्यन्त सूक्ष्मसी स्मितछाया अवश्य दिखाई दी. 
होती; यही नहीं, बल्कि डखकी दशा डस सप्रय ऐसी _ 

















9) 


4 जोगिनका फेरा . 
न्ख्ट्च्व्व्ल्क्स्ल्स्क्राा 








पक “९-4 
दिखाई दी कि, औैसे किसी मलुष्यको बहुत देरसे किसी बातके 
दिपयमें शंका हो; ओर फिर चंह अवानक, किसी अनपेक्षित 
कारणसे, दूर हो जाय। परन्तु यह खब एक आधे क्षणमें ही 
चेहरेपरसे न जाने कद्ांका कहाँ चला गया; और हमारे बाबाजी 
ज्यों ही मुड़कर देखते हैं, त्यों दी फिर किलेदाश्की चेष्टा, जौसी 
पहडे थी, वैसी ही फिर दिखाई दी! डसपर मुस्कुराइटकी, 
अथवा अन्य किसी प्रकारकों भी छाया अणुमात्र भी उनको 
दिखाई नहीं दी। बाहर बड़ा गोलमाछ मया। शास्तारह 
और जपादार साहब, दोनों ही पेड़के नोचे बैठे हुए तमाखूकी 
विवकारियां मार रहे थे; और हुके के कर्णमघुर श॒ड़ण॒ड़ शब्दोंसे 
मोहित होकर इधर-उधरकी गए-शपमें बिलकुल तब्लीन होरहे 
थे। इसकारण, जान पड़ता है, आसपासकी उन्हें कोई खबर 
ही न रहो। क्योंकि वह जोगिन अपने पैरोंके छुंघरू बजाती 
हुई; और कमरकी करघनीकी झतरुन आवाज़ करती हुई, तथा 
मुखसे हां-हं करतो हुई बिलकुछ उनके पास ही आपहु थी; परन्तु 
फिर भी उनको दिखाई नहीं दी। उसने अपनी एंक विशेष 
प्रणालोके अनुसार अपने डफ़यर थाय दो; ओर अपना गाना 
शुरू किया। तब कहीं बावाजीके साथ ही साथ उन दोनोंकी 
निगाह भी डसको ओर गई । उसको देखते हो अब उन दोनों- 
को इल बावकी आतुरता हुई कि, इसकी ओर दोड़कर शीत्र ही 
.. इसको यहांसे भगावबा चाहिए। तद्बुलार उन्होंने किया भी; 
__ पर जोगिन उनकी काहेको छुनती है--वद उछटे ओर उनको 








)। 


डचाकाल 
जनक सकल ल्‍् 
गालियां देने लगी--किसी प्रकार वहांसे नहीं टली; ओर पूजाके 
छिए. उनसे अनाज तथा पसे मांगने रूगी। वे उसे भगाने लगे 
पर वह एक कदम भी वहांसे नहीं टली । दोनों ओरसे बडी 
देरतक रणड-फगड़ होती रही। परन्तु जोगिनके उस विचित्र 
गाली-गलोजके कारण, जान पड़ता है कि, उन दोनोंको, उसे 
घकी लगाकर निकाल देनेका, साहल नहीं हुआ। शान्ताराम 
जपादारके ऊपर ओर जम्तादार शान्तारामके. पर नाराज़ होने 
लगे। वह इसको निर्बंछ बतछाने रूगा; ओर यह उसको 
परन्तु इस बातका साहल किसीको न हुआ कि, उस जोगिन 
बने हुए मनुष्यको पकड़कर बाहर निकाल दे । दोनों ही उससे 
चिदला चिल्लाकर कहते कि, “अरे चुप, क्रिछेदार साहब भीतर 
बैठे हैं, बे पास ही बैठे हें।” परन्तु वह वहांसे टला नहीं। वह 
आननन्‍्द्पूवंक डफ़ बजाता, उसके तालपर नायता; और अपनी 
ककश वाणीसे अनेक चेष्टाए करता था। बाबाजीने किलेदारसे 
बातचीत करते करते फिर एक बार द्रवाजेके पास आकर 
फांककर देखा । जोगिनकी द्वष्टि भी बाबाजीकी ओर गई! 
उसने अपनी गद्देन एक बार किसी विचित्र आशयसे हिलाई 
और फिर धीरेसे ही उसने एक एक क़दम पीछे हटाना शुरू 
किया। उसका एक एक कदम ज्यों ज्यों पीछे हटने रूगा, 
त्यों व्यों शान्ताराम ओर जमादार भी उसकी ओर दोडने ओर 
_डसे बकने-फकने लगे। जोगिन अपनो ककंश वाणीसे उनको 
कोसती जाती थो। वह कहती थी कि, अगली बार जब 


ह 




















्‌ 2; जोगेनका फेरा 
5५ 3७६ /८ 


ब्रेटललकीमकत पाला “फल €«...०-०---३७ ५्प् किलर 








मैं आऊगी, उस समय यदि तुमने हमको अच्छी भिक्षान दी 
सूपभर अनाज यदि पूजाके लिए न दिया तो तुम्हारा, तुम्हारे 
बाल-बच्चोंका, तुम्हारे घर-द्वारका, सबका, नाश हो जायगा। 
इस प्रकारकी धमकी देती हुई वह वहांसे चलती बनी | 

जोगिन बहुत देरतक क़िलेपरए अपना फेरा लगाती रहो, 
इसके बाद नीचे उतरी । नीचे बस्तीमें जाकर भी वह बहुत दैर- 
तक नाचती-गाती ओर अपनी विचित्र विचित्र करामातें दिखि- 
लाती रही। फिर पांच-छे आदमियोंसे छुछ इधर-डधघरकी 
बातें करके वह वहांसे लोट पड़ी । वस्तीसे जब बहुत दूरपर 
वह जोगिन निकल गई; ओर जब यह विश्वास होगया कि, 
अब दो-चार कोसतक यहांपर कोई मनुष्य दिखाई नहीं देता, तब 
वह आप ही आप बड़े ज़ोरसे हँसी; और बोली, “जो कार्य बत- 
लाया गया था, सो कैसे होगा,इस बातका बड़ा भय माल्ठूम हो- 
रहा था:किन्तु देवीजीकी कृपासे काम तो खब होगया | आख़िर 
उनको लाकर यहां कौद कर दिया ! अच्छा, अब जाता ह ओर 
सलाम करके सारा समाचार बहुत जल्द देता हूं । यह कहकर 
वह जोगिन फिर अपने पैरोंके घ्‌ घरुओं और कमरकी कर- 
धनीकी ध्वनिपर वहांसे आगे बढ़ी। 

इधर किलेदारने बाबाजीकी वह सारी चेष्टा देखकर, जैसा- 
कि हमने पीछे बतलाया, इस प्रकारकी मद मुस्कुराहट प्रद्शित 
की.कि जो किसीके ध्यानमें नहीं आसकती थी; ओर फिर ज्यों 
ही देखा कि, वाबाजीकी द्वष्टि फिर पूवंवत्‌ उसको ओर आगई 











उषाकारलकू 





ल्‍ 


3 ३५०१८) 
"ओ+बफओन (१३०० 


त्यों ही उसने तुरन्त अपनी उस सुस्कुराहटकों अपने उसी 
सदैवके विन्तामग् मुखपरड्ूमें वितोन कर लिया; और फिर 
पूर्ववत्‌ वाबाजीकी ओर देखने छगा। उस समय यह बात 
स्पष्ट दिखाई देशही थी कि, किलेदार कोई न कोई बहुत 
महत्वपूर्ण प्रश्न बाबाजीसे करना चाहता है; पर साथ ही श्स 
विवेखनामें भी पड़ा हुआ है कि, वे प्रश्न करू', अथवा न करू ? 
यह तो सुपष्ट ही था कि, किलेदार इस समय वहां अपनी इच्छा- 
से नहीं आया था। उसके किल्ेपर जो सुखत्मान सरदार उस 
समप्नय उपचधित था, उसीने शायद्‌ उसको, बाबाजीसे मीठी मीटी 
बातें करके सब भेद मालूम कर लेनेके लिए, भेजा होगा। परन्तु 
किलेदारने अपने यातुयसे यह प्रकट न होने देनेका प्यल्ल किया 
कि, वह किस हेतुसे ओर किसका भेजा हुआ आया है। बाबा- 
जीकी ओर चार-पाँच बार जिस द्ृष्टिसे उसने देखा था, उससे 
यह भी प्रकद होता था कि, बाबाजीके विषयमें जो कुछ पूछ- 
तांछ यह कर रहा है, उसमें उसका निजी भी कोई न कोई 
उद्द श्य अवश्य है। अस्तु। उससे हमें यहांपर कोई मतलब 


नहीं । 


पांच मिनट हुए, दूस मिनट हुए, घड़ी हुई, दो घड़ी हुई 
किल्ेदार न वो वहांसे दका; ओर व बाबाजीसे कुछ बोला हो 
सिफ वह उनकी ओर देखभर रहा था। बाबाजी भी बीच 
बीचमें उसकी ओर देखते जाते; ओर ज्यों ही उनको यह मालूम 
होता कि, क़िलेदरकों अन्तःकरणमेदी हृष्टि उतकी ओर अभी 











द जोगिवका फेश 
८०-८८. 0 ०:प्रेचय किए 
लगी हुई है, त्यों ही वे अपनी द्ृष्टिको फिर नीचे कर लेते थे। 
और भी थोड़ासा समय व्यतीत हुआ; पर पूर्वकी दशामें कोई 
परिवर्तन नहीं हुआ। अन्‍्तमें बाबाजी क़िलेदारसे नम्नतापूर्वेक 
कहते हैं, “महाराज, यदि आप मुकसे किसी बातका पता 

ठगानेके लिए बैठे हों, तो 9 
... आपका प्रयत्न व्यर्थ है !! यही तो है न आपका कहना ?”? 
किलेदारने तुरन्त ही पूछा; ओर इसके वाद फिर बह बाबाजीकी' 
ओर अत्यन्त सूक्ष्म और अन्दःकरणसमेदी द्वष्टिसे देखने रूगा | 
डल सप्रय उसके उस देखनेमें सुस्कृशहटकी अत्यन्त सूझ्म 
छाया भी दिखाई देश्ही थी। उस क़िलेदारका गत घण्टे-डेढ़ 
घण्टेका सारा व्यवदार देखकर कोई भी कह सकता था कि, 
यह किलेदार अत्यन्त गददरा ओर असाधारण राजनीतिज्ञ होना 
चाहिए। इसके सिवाय वाबाजीके व्यवहारसे भी यह बात 
छिपी नहीं थी कि, उनको भी क्िलेदारकी गहराई ओर उसकी 
राजनीतिशतामें किसी प्रकारका सन्देह नहीं था | 

किलेदारके उक्त शब्द्‌ सुनते ही बाबाजी कुछ भोंचक से 
दिखाई दिये। किल्तु फिर तुरूत ही उससे कहते हैं, हां, हां, 
मेरा ऋहना यही है; क्‍योंकि आप जो कुछ पूछ रहे हैं, उस बात- 
का ज्ञान मुझे विलकुछ ही नहीं है। मेंने आपसे पहले ही कह 
दिया कि, में एक वैरागी हूं। आज यहां हूं, तो कल ओर कहीं 
हूं! ऐसी दशामें मुझे मालूम ही क्या होसकता है? व्यर्थके 
लिए आपने मुझ ग़रीबको कैद कर रखा है। देखिये, यदि कुछ 











७११५ 


(है उष्ाकाल है 


५४5५5 ८ (७२००७ 


दया आजावे तो ! जितनी शीघ्रतासे छोड़ देंगे, उतना ही 
अच्छा होगा ।” क्‍ 

किलेदार फिर कुछ विचित्रसी द्ृष्टिसे उनकी ओर देखता 
हुआ कहता है, “हां, बाबाजी, आपको जितनी ही जल्‍्दों छोड़ 
दिया जाय, उतना ही अच्छा, सो में भी जानता हूँ। ओर मेरे 





हाथमें यदि्‌ यह होता,तो मैंने कम्ीका आपको छोड़ भी दिया होता, 
पर में ठहरा केवल ताबेदार। कमसे कम जबतक यह सरदार . 


यहां है, तबतक तो में सचमुच ही ताबेदार हूं ।” इतना कहकर 
उसने एक दीध निःश्वास छोड़ा | उस -निःश्वासका अर्थ बाबा- 
जीके ध्यानमें नहीं आया। बाबाजीने सप्मका . कि, शायद यह 
मुसत्मानोंकी नोकरीमें है, इसीलिए इसे बुरा मालूम हुआ हो। 
परन्तु ऐसा नहीं होखकता, सो भी उनको मालूम था। क्योंकि 
बाबाजीकी सच्ची पहचान चाहे क़िलेदारको न हो; किन्तु 
क़िलेदारका पूरा पूरा हाल बाबाजीको मालूम था। वे जानते 
थे कि, कुछ मराठे वद्ध सरदार ऐसे हैं कि जो राजभक्ति ओर 
खामिमक्तिको ही अपने जीवनका मुख्य बत समभते हैं, ओर 
जिनका कि, यह खयाल हे--मुग छोंका राज्य हमारे लिए पर- 
मेश्वरने ही द्या है, हम उनके चाकर हैं; 'ओर उन्हींका नमक 
खाते हैं; इसलिए उनके साथ कभी नमकहरामी न करना 
चाहिए, इसीमें परम पुरुषाथ है। बस, ऐसे ही विचारवाले 
सरदारोंमेंसे पुरन्द्रका क़िलेदार भी एक व्यक्ति था; ओर बाबा- 
. जीको भलीभांति यह बात मालूम थी। इसलिए, क़िलेदारके 








हि हिल नदी थम जि २2७ 8 अकपकर लक >0 कक न सजा आजिर अ8 23०33 2:इक “न 





हा. जोागिनका फेरा “ 


व्च््स्व्च्ल्ब्च्ल्स्च्ऋ 








उस निःश्वासको सुनकर पहलेपहलछ उनको जो सन्देह हुआ, 
उसको उन्होंने, उपयु क्त विचारसे, तुरन्त ही निराधार समझा । 

किलेदार फिर उनसे कहता है, “तो क्या जिस बातका पता 
लेनेके लिए. यह सरदार यहां आया है, उस वातके विष्यमें आप- 
को कुछ भी ज्ञान नहीं ? यों ही पकड़ राये गये १ अच्छा । ओर 
आप अपना भी वत्तान्त कुछ विशेष नहीं बतलाते हैं! किन्तु 
इधर देखि--” यह कहकर क़िलेदार बावाजीके बिलकुछ 
निकट चला गया; ओर अत्यन्त धीमी आवाज़से उनके कान- 
में कुछ खुलफ्‌ साया, जिसे खुनकर बाबाजीको चेष्टा एकदम 
बद्क गई। वे मुँहसे अवश्य--नहीं , नहीं । में वह 
नहीं हूं। आप मभूलते हैं--” इस प्रकार कुछ कहकर गुनगुनाये; 
किम्तु ये शब्द ही उनके मुखसे कुछ इस प्रकार निकरू रहे थे 
कि, जिससे स्पष्ट मालूम होरहा था कि, उनका खयं ही अपने 
उन शब्दोंपर विश्वास नहीं है। बाबाजीके कानमें जो कुछ 
कहना था, सो कहनेके बाद्‌ बहुत जब्द किलेदार वहांसे चल 
दिया। चलते समय जमादारसे पहरा वहुत सख्य रखनेके 
लिए ताक़ोद्‌ कर दी; ओर आप वहांसे चलता बना । 

'शामके वक्ततक वाबाजीके यहां कोई विशेष बात नहीं हुई; 
ओर न कोई मिलने ही आया। शामकों लगभग छः बजेके 
करोच जमादार अवश्य ही उनके पास फिरसे आया; ओर इस 
आशयका उपदेश देगया कि, “आपका कुशल नहीं है। आप- 
पर कोई न कोई बड़ा संकट अवश्य आवेगा। आप होशियार 


श्३ 








रहे', ओर शीघ्र छूटना हो, तो जो कुछ मालूम हो, थोड़ा-बहत 
बतलाकर अपना छुटकारा पा छे [? बाबाजी इस उडउपदेशको 
सुनकर सिफ हँसेमर; ओर कहा कि, “अच्छा, देखेंगे, तू जा 
अपने कामपर !” ज्ञम्ादार बेवारा फिर दरवाज़ा बन्द करके 
बाहर अपने स्थानपर जाबैठा | 
अभी पहरभर रात गई होगी। सूबेदार साहब अपने नशेमें 
मस्त हुका पीते हुए बैठे हैं। इतनेमें एकदम हुक्म होता है कि 
जाओ, उस वैशगीको बुला छाओ; ओर हमारे सामने हाजिर 
करो। हुक्म पानेकी देर थी कि, सिपाही दोड़े; ओर बाबाजीको 
पकड़ लाकर सूबेदारके सामने उपस्थित किया। सूबेदार साहबका 
पारा उस सप्तय बहुत चढ़ा हुआ था, इसलिए बाबाज़ीको 
देखते ही हुक्म दिया कि, “देखो, यह नमकदराम्र ठीक ठीक 
नहीं बतलाता, सो इसको ख़्ब पीटो; ओर रातमें ही इसके हाथों- 
' पैशरोंमें मन मनकी बेड़ी डालकर कालकोठरीमें बन्द कर दो |” 
यह कहनेके बाद्‌ फिर इस प्रकारके अनगंलू भश्न शुरू किये:-- 
“क्यों बे हरामखोर ! तेरे उस मन्दिर्में कोन कोन लोग आते 
रहते हैं ! क्‍या क्‍या करते हैं? लूटका माल वहां लाकर 
आपसमें बांदले हैं या नहीं ! बोल जल्‍दी ! बोलता है या नहीं ?” 
इत्यादि। बाबाजी बिलकुल चुप रहे--चू' भी नहीं किया। वे 
चुपके खुब रहे थे। सूबेदारकी बक-फक अभी जारी हीथी। 
आखसपासका एक मनुष्य भी उस खम्य उसकी गालियोंसे नहीं 
बचा । उसकी उस अनगल वाक्धाराकी कुछ न कुछ छोटे 








था, 








३५५ ८८ , 


42222. अजब 
पिन न ० ५ अल >णच 0) 





अत 


सघम्मीके ऊपर पड़ीं। यही नहीं, वढिक उसने जब देखा कि, में 
इतना अद्वा-तद्धा वक रहा हूँ; ओर कोई भो मुझसे सिडनेको 
तैयार नहीं होता, तब मानो उसको ओर भी जोश चढ़ा; 
ओर पहलेसे भी अधिक वेगके साथ उसकी जवान चलने 
लगी | वह बोला, “चलो, चलो, अभी इसे छे चलो । यह हराम- 
ज़ादा विछकुछ बोरता ही नहीं। छो, इसको अमीका 
अभी अंधा कर डाछो। इसके हाथों-पैसेंमें बेडियां डालकर 
अभी इसे किलेके पीछेकी तरफसे नीचे ढकेल दो, नहीं तो ऐसा 
ही जीता गाड़ दो । बागी, चोरों; ओर डाकुओंके गिरोहके गिरोह 
इसके यहां आकर इकट्ठ होते हैं; ओर यह कहता है कि, हमको 
कुछ माल्म ही नहीं । चलो, उठो, कोई खुनता नहीं १” 

इतना कहकर वह खय॑ं ही उठा; और बड़े ज्ञोशके साथ 
बाबाजीकी ओर दोड़ा | यह देखते ही बाबाजीके शरीरसे खिन- 
गारियां निकलने छूगीं; ओर वे मानो एकदम अपनेको भूछकर 
बड़े ज़ोरसे चिल्लाकर कहते हैं--“खबरदार, खबरदार ! मेरे 
शरीरको हाथ रूगाया, तो मरा ही समझ ! मुसल्मानके हाथसे 
में कमी अपमान नहीं करने देनेका ! तेरे हाथसे मरना तो दूर 
रहा--एक घाव भी--तेरा केवल स्पशे भी अपने शरीरकों नहीं 
होने दूंगा । आजतक इस शरीरको मुसल्मानोंके अन्नका, अथवा 
उनके हाथका भी कभी स्परश नहीं हुआ, सो आज कैसे होने 
दूंगा १” ः 

इस साषणकी उद्दरडता, भाषणके साथ ही साथ हस्तसंचा- 











4 उषाकाल 
ज््य्ख्क््ट 
लनकी उद्दए्डता; ओर उस सम्रयकी उनकी चेष्ठटासे दोखनेवाली 
करता, इत्यादि बातोंको देखकर ही मानों वह मुखत्मान 
सरदार एकदम वहीं, जहांका तहां ठिठक गया; ओर पीछे हट 
गया। क्‍या खूबेदारकों यह मालूम नहीं था कि, यह चैरागी 
इतना साहसी है ? अथवा जबकि बाबाजीको वह पकड़े लिये 
आता था, उस समय मागमें जो घटनाए' हुई थीं, उनकी याद्‌ 
क्या उसको नहीं थी ? जो कुछ भी हो, लेकिन इस समय वह 
हट गया अवश्य, फिर भी मुंहसे--/इसी समय मार डाला होता 
लेकिन तेरे शरीरकों यातनाए' देकर अभी खब बातें तुझसे , 
मालूम करनी हैं, इसलिए छोड़े देता हूं” इस प्रकार कुछ बड़ 
बड़ातें हुए वह अपनी जगहपर जाकर बैठ गया। इसके बाद 
तुरन्त ही फिर उसने आसपासके छोगोंकी ओर देखकर यह 
हुक्म दिया, “अभी मेरे आगे इसके हाथों-पैरोंमें बेड़ियां डाल 
दो ।” अब चुप बैठनेके सिवाय बादाजी और कर ही क्‍या सकते 
थे ? किलेदार. उस सम्रय वहाँ न था। सिपाहियोंने सबेदारका 
हुक्म पाकर बड़ी बड़ी -भारी बेडियां लाकर, उनको बाबाजीफे 
हाथों ओर पैरोंमें जड़ दिया। जिस समय कि, यह सब होरहा 
था, बाबाजीकी दृष्टि पहलेहीकी भांति अत्यन्त क छ दिखाई दे 
रही थी।. किन्तु उस समय उन्होंने एक अक्षर भी मु हसे नहीं 
निकाला । उन्हें पूरे तोरपर मालूम था कि, इस समय हमारी 
एक सी न चलेगी । बेड़ी इत्यादि पहनानिका संस्कार जब यथो 
चित रूपसे होचुका, तब यह हुक्म हुआ कि, इसे :एक तह- 








०-० "६६२०० 























हज जोगिनका फेर. [| 
>कक--कक्री व 44-42 ल्स्च््ल्क्स्ल्प्ल््ा 





खानेमें लेजाकर ऐसी कोठरीमें वन्द्‌ करो, जहां पूरा पूरा अन्ध- 
कार हो | इसके बाद क़िलेपरके मराठे सिपाहियोंकों चार-छः 
चुनी हुई गालियां खुनाकर अपने साथके मुसव्मान सिपाहियोंको 
उस तहखानेपर पहरा देनेके लिए नियुक्त किया। यह सारा 
हुक्म फ़र्माते देर नहीं हुई कि, तुरन्त हो अमलमें भी छाया गया। 
और इस प्रकार बाबाजीकी स्थिति पहलेसे भी अधिक डुःलजनक 
होगई। क्‍ 
दूसरे दिन भी खुबह, पहले ही दिनको तरह,कुछ देर किलेके 
नीचेकी बस्तीमें; ओर कुछ देर किलेके ऊपर भी जोगिनका डफ़ 
खुब वजा। पर बाबाजीके कानतक उसकी आवाज नहीं 
पहुँची; और न जोगिनकी ओर देखनेको ही उन्हें मिला। 
जोगिन भी उनके दर्शन चाहती थी, पर उसे भी वे नहीं मिले । 
उस दिन किलेके ऊपर जोगिनका डफ़ चारों ओर खब जोर 
ज़ोरसे बजा; और उसने अपने घुँघरुओंके ताढपर तांडव भी 
अनेक प्रकारसे किया । इतनी देर जोगिन भी पहले कमी 
किलेपर नहीं रही थी ! कुछ देर बाद उसने शान्ताराम ओर 
जमादारको भी ढूँ ढ़ निकाला; ओर फिर उनके आसपास बहुत 
देरतक अपना तांडव करती रहो । इसके बाद अपनी नारा- 
ज़गीका बहुतला डर दिखाकर बाबाजीके विषयमें अप्रत्यक्ष 
प्रश्न किये; और जितनी कुछ जानकारी मिल सकती थी, सो 
सब प्राघ करके अन्‍्तर्मँ उदास होकर वह वहांसे चल दी। 
मध्तेमें जाते हुए पिछले दिन जिस प्रकार जोगिनी हँसी थी, 











द | उषाकाल कै 
(> (८2) 


०७ 5६६22 ७ 


१८ ५2 


वेसी आज नहीं हंसी; और न कहीं जाकर आज उसने शिक्षा 
इत्यादि मांगनेका पयत्न किया | 








पञ्चीसवां परिच्छेद । 


जूबरदस्तीकी परदारी | 


आज कई दिन हुए, हमने अपने जुभान दादाकों और गोरे. 

श्वरके मन्दिरके पास करोमबरुश इत्यादिको छोड़ा था, सो 

अब पाठकवृन्द उनका जला बत्तान्त जाननेके लिए बहुत ही 

.. उत्सुक होंगे। इसलिए अब बाबाजीको तो उनके कालको- 
उरीमें ओर जोगिनको उसके रास्तेपर ही छोड़कर पाठकोंको 

उसी ओर हे चलें। मम 
पाठकोंको स्मरण ही होगा कि, वहां तस्वूरें एक तरुण 
असत्पान सरदार बैठा था। जिसके सामने एक ओर, रास्तेमें 

कद किया हुआ, सुभान खड़ा था; ओर दूसरी ओर एक नव- 
अवक मराठा विराजमान था | _ उभान मराठे नवयुवकको देख 
देखकर आश्चर्यचकित होता डुआ धबड़ाखा रहा था; और वह 

.. पेजुवक भराठा भी सुभानको देख देखकर, धीरे धीरे, अपनी 
. गम्भीरताकों छोड़ रहा था।. डस मुसहमान सरदारके दोनों 
हो नौकर--अहमद ओर करीमबरुश--बराबर उस मराहे नव- 
.._._ उत्ेककी ओर देख रहे थे। कह नहीं सकते कि; उनके सनमें .. 


















/का है. जबरदस्तीकी ई। 
६६ ३५६ &2 है बरदस्तीकी सरदार हे 


मन भ भा 5आ००५०००५०५५०५५०८-»ह४०१०-०००--> ऋधाएं ऋण 'पहव्याशातवभद:दाशाभाासपा दाता पााकएाए लाता अप फ्मगदा 


407 «बपीमी ० लाि]०-४0९२०० न्य्य्न््स्डबश---5कलण 





क्‍या शंका आरही थी। किन्तु कोई न कोई शंका आ ज़रूर रही 
थी। क्योंकि करोमबस्शने उस मराठे नवयुवकसे स्पष्ट ही 
कह दिया था कि, जबतक खांसाहब न आजावे, आप मन्दिय्से 
मे जाधें--आपने अपने विषयमें जो वृचान्त बतलाया है, वह 
सच नहीं मालूम दोता । सुभानको देखते ही उस मराठे बच- 
सुवकका चित्त चकराया; ओर ऐसा मालूम डुआ कि, खान 
भी इस बातक्ों ताड़ गया। क्योंकि खुभावकों जो कुछ 
पूछनेके लिए उसने बुलाया था, सो पूछना तो एक ओर रदा-- 
खान. एकटक उस नवयुवक पुरुषकी ओर; ओर बीच 
बीचमें सुभावकी ओर भी देखने छगा। परन्ठु जान एक 
खानदानी आदमी था, बहुत जल अपने भानपर आगया; ओर 
डस मवय्युवक मराठेसे, बड़े अद्बक्के साथ--ऐसे अद्बके साथ, 
झो किसी खानदानी पुरुषके ही योग्य था--यह कहकर अपने 
पास मैठनेकी प्रार्थना की कि, “आइये जनाब, बेठिये साहब : 
नवसुवकने भी देखा कि, अब कोई इलाज नहीं है, बेठना ही 
पड़ेगा, तव बहुत दी बेमनसे, वह भी,बढ़े अद्बके साथ, ख़ान 
से कुछ दूरण, वोरासव लरूगाकर, बैठ गया। अब खानकी, 
आँखें सी, अहमद ओर करीमवरुशकी ही भांति, उस नवयुवक- 
की सूरतकी ओर छगीं, जोकि खाभाविक ही एक अत्यन्त 
सुन्दर युवक था; किन्तु उस समय कुछ घचड़ाया हुआसा 
दिखाई देता था। खुमानकी नज़र भी, यद्यपि बिलकुल एक- 
टक तो नहीं, फिर सी बीच बीसमें उसः तरुण मराठेकी ओर 











3 उषाकालू हूँ. १६५ 
मुड़ अवश्य जाया करती थी;ओर जब जब उसकी दृष्टि इस प्रकार. क्‍ 
मुड़ती, तब तब यह स्पष्ट दिखाई देता था कि, जैसे इसके 
हृदयमें कोई नकोई भय उत्पन्न होरहा हो! इस प्रकारका: 
भय उसे क्यों मालूम होरहा था, इस बातका ज्ञान होना 
इस समय हमारे लिए कठिन है। जो हो। खानने अब 
यह सोचा कि, हम कुछ भी न बोलते हुए, एकटक द्‌्स्‌ 
व्यक्तिकी ओर देख रहें हैं--यह कुछ अच्छी बात नहीं हे 
ओर इसीकारण शायद्‌ वह सुभानकी ओरको मुड़ा, ओर एक- 
दम उससे बोला, “क्यों बे, तू कोन है ? कहांका रहनेवाला है ?” 
खुभान पहलेहीसे जानता था कि, इस प्रकारके प्रश्न 
हमारे सामने अवश्य आवेंगे; इसलिए उक्त प्रश्नोंके कानमें पड़ते 
ही वह कहता है, “सरकार, मैं अपना यों हो इधर गाँवको जा 
रहा था, रास्तेमें बिना कारण पकड़कर आपके सामने छा खडा 
किया गया। मैं एक ग़रीब आदमी हूं , और यों ही अपने कामसे 
रास्ते रास्ते जारहा ** *** 
 छुभान क्या कह रहा था, इसकी ओर खानका बिल- 
. कुल ही ध्यान न था। उसका सारा ध्यान सापने बैठे हुए 
..._ नवयुव॒क मंराठेकी सूरतकी ओर था। हां, उस तरुण मरा. 
.. ठेका ध्यान अवश्य ही खुभानकी ओर पूरा :पूरा था कि, वह. 
. क्‍या कर रहा है| इसकारण, मानो उस बेचारेको इस बातका 
. भान सो नथा कि, हमारी ओर अन्य छोगोंका ध्यान है; वे 
हमारी ओर बराबर एकटक देख रहे हैं। खानका ध्यान 

















हि जबरदस्तीकां सरदारी 
ब्य्य्च्स्य्ल््ण्स्स्य्कर 








यद्यपि खुभानकी ओर नहीं था, तथापि अहमद ओर करीम- 
बस्णका भी नहीं था,सो बात नहीं । उसने उपयु क्र उत्तर ज्यों ही 
दिया, त्योंही अहमद ईसा; ओर बोला, “ओ हो ! क्‍या बात 
है| हमको तू छोटे छोटे बच्चे ही समझता हे! तू नोकर 
किसका है? जा कहां रहा था, सो भी बतछावेगा या 
नहीं १” 
अहमदके इस कथनसे खानका ध्यान फिर छुमानकी 
ओर गया; ओर वह उसको ओर देखकर तथा ग्देन हिलाकर 
कहता है, “बेशक ! बेशक ! तू सब बतला, किसके कामपर जा- 
रहा था? किस कामके लिए जारहा था १ कहाँ जारहा था: 
सच बतला देगा, तो कुछ छूटनेकी आशा भी है, अन्यथा बहुत 
जल्‍द नीचे खिर ओर ऊपर पैर करके तुम्दे चार-छः घड़ी उस 
युक्षमँ टकता रहना पड़ेगा |” ख़ानका, कथन अभी समाप्त 
ही हुआ था कि, अहमद उसकी बातमें बात मिलाकर कहता 
है, “और इतनेसे भी यदि न खुनेगा, तो सीधी तरफसे गले 
रस्सी बांधकर रूटकाया जायगा |” यह कहकर वह आप ही 
आप जोरसे हँखा । ख़ानने कुछ तिरस्कार-द्ृश्टिसि उसकी ओर 
देखा, फिर तुरन्त हो अपने चेहरेपर थोड़ोसी मुस्कुराहुट लाकर 
उस मराठे सरदारकी ओर मुड़कर कहता है, “अजी जनाब, 
आपको मैंने बहुत देर्से यहां बैंठा रखा है, इस तक़लछीफ़के लिए 
माफ़ी हो। आपसे यदि पहले हो बातचीत कर छोी होती, तो 
आपको यहां इतनो देर बैठना न होता; और में चाहता हूं कि, 








है. पसडरप- ५ २६२ 
आप कुछ देर मेरे पास रहे', क्योंकि आपसे मुम्दे बहुतशी 
बातचीत करनी है। आप कहां रहते हैं? इधर कहां जारहे 
थे! आपकी तारीफ़ क्या है ! इत्यादि प्रश्ष करनेकी मुझे आज्ञा 
हो ।” री 

. भाग जब यह कह रहा था, ऐसा जान पड़ा कि, जैसे 
उस नवयुवक॒की चिसतृत्ति कुछ अत्यन्त बिलक्षणली होगई 
हो। डसकी सूरत कुछ भौंचकोसी होगई; ओर ऐसा मालूम 
हुआ कि, जैसे उसे यही न सूकता हो कि, अब क्या उत्तर देख। 
जानकी बात समाप्त होते ही उसने डसकी ओर सीधी 
नज़रसे देखबेका बहुत कुछ प्रयल किया;ओऔर अन्तमें डस प्रयलपं 
उसे थोड़ी बहुत सफलता भी प्राप्त हुई, तब॒चह धीरेहीसे 
कहता है, “सरदार साहब, मैं एक मासूली आदमी ह', अपनी 
स््री लिये हुए दूसरे गाँवकों जारहा था, मार्ममें विश्वाप 
लेनेके लिए इस मन्द्श्में आबैठा, इतमेमें आपके ये लोग आकर 
मेरी पूछ-तांछ करने लगे । में, जो कुछ बतदाना था, बतला 
चुका; किन्तु इन लोगोंको सन्‍्तोष नहीं हुआ। इन्होंने मुझसे 
कहा कि, सख्ांसाहब जबतक न आजाद, ठुम यहीं बैठी | वे जब 
आवेंगे, तब तुमसे पूं छ-बता लेंगे, फिर तुछ जाना ।” में अकेला 

 था। ये कई लोग थे। में लाचार होकर बैठ गया। अब. 
आप मुझ यहांसे ज्ञाने देंगे, ऐसी आशा है।” ५5 


. डस भराठे नवयुवकका यह कथन खुनकर खांन कुछ 
सुस्कुराया; ओर फिर बोला, “अहाहा ! आपका बोलनेका ढंग _ 











जबरदस्तीकी सरदारी 
प्स््च्क्च्ल्प्क्र 


ड 


क्रितना खुन्दर है! आपकी बातोंमें कितना मिठास है ओर 
आपकी आवाज़ तो इतनी मीठी है कि, कुछ पूछिये ही नहीं ! 
ब्राह यार ! वाह | ऐसी मीठी ज़बानब तो कभी सुनी ही न थी ६ 
भाई बोलिये |! और कुछ बोलते रहिये ” 
जानका यह भाषण झुनते हुए अहमद ओर करीमबख्श, 
एक दसरेकी ओर, छिपकर, परन्तु आशयपूर्ण नज़रसे, बराबर 
>खने जाते थे. और हँसते भी जाते थे। यही नहीं, बढिक हँसोड़ 
₹ धीरेसे ही करीमबर्शसे कहता है, 'अजी यार, यह तो 
खब मौज हुई!” करीमबरुश कुछ नहीं बोला। वह अपने 
मालिकके सुखकी ओर देख रहा था। ख़ाब उस नवयुवक 
मराठेकी ओर देखकर कहता है,“आपने इन छोगोंको जो वृतान्त 
बत छाया, वही आपको फिर बतकानेका कष्ट देता हूँ, इसक 
लिये माफ किया जाऊं। इन छोगोंने यदि आपके साथ कोई 
ठवीका चर्ताव किया हो, तो में इनको सज़ा दूंगा-- 
इतना कहकर वह करीमबखझ्शकी ओर मुड़ा; और उससे 
कहता है, क्यों करीमबरूश, अबे अहमद ! तुमने इनके साथ 
कोई बेअदवी का बर्ताव किया ? खब बोलो ?” करीमबर्श ओर 
अहमद, दोनों--“नहीं, खा साहब !” कहकर एक दूलरेकी ओर 
कर देखने रंगे | अब वह नवयुवक क्या करे ओर क्या न करे 
सो उपस्तक्कों कुछ सम्रकहीमें ते आया। करीमबरूरारोी उस 
सप्रय जो उत्तर उसने दिये थे, वही फिए दिये; ओर कह्दा कि, 


नें एक माप्तली आदमी, अपनी ख्रीकों छेकर, एक दूसरे गाँव 









ह उषाकाल 


नल््््स्श्र्बः 





जारहा था।” परन्तु यह खुनकर ख़ानकी चेष्टापर भी 
कोई विश्वासकी कलक दिखाई नहीं दी। ऐसा जान पड़ा कि, 
डसको भी ऐसा ही विश्वास हुआ कि, यह नवयुवक॒ कुछ न 
कुछ छिपाता अबश्य है। परन्तु अपने शब्दोंसे उसने इस बातको 
धकट नहीं किया; ओर कुछे मुस्कुराते हुए कहा, “आप इस 
प्रकारसे, बिना किसी लवाजमाके, ओर बिना किसीको साथ 
लिये, अकेले ज़नानेको लिये जारहे हैं, यह ठीक नहीं है । भाज- 
कलके दिन बहुत बुरे हैं। क्‍या आप जानते नहों हैं? आज- 
कल चारों ओर लूटमार मजी हुई है। इसके सिवाय आप कहते 
हैं कि, आप एक मासूली आदमी हैं; पर सचमुच ही यदि आप 
ऐसे ही हैं, तो अब, जबकि मुझसे आपकी मुलाक़ात होचुकी 
है, आपका ऐसा रहना सुझै उचित नहीं दिखाई देता | आप अब 
कहीं नजावें। मेरे ही खाथ रहें। में बादशाहसे आपको 
मुलाक़ात करा दूंगा; ओर आपको एक अच्छीसी सरदारी 
दिला दूंगा। आजसे में आपको अपना दोस्त समझता हूं। 
आप भी बेसा ही मुझे समर |” 
खान जब यह खब कह रहा था, तब उसकी चेशसे 
स्पष्ट मालूम होरहा था कि, यह सब वह हृदयपूर्वक कह रहा. 
है। परन्तु साथ ही यह भी स्पष्ट दिखाई देरदा था कि, उसके 
इस कथनतमें कोई ओर भी उद्देश्य अवश्य है। नवयुवक उसके 
इस कथनको खुनकर बड़े गोलमालमें पड़ा। और अब क्या 
करे, सो मानो कुछ उसे सूभने ही न छूगा | चहं अत्यन्त सूक्ष्म 


5 -57398:7 73%: 5>>&६७७७३४७७७४---७ 








202 वलक सरदारी 5 
>ै 


ब्यीडी॥बवदा पी आणातकपटत+ 5 2 मर 





आवाज़से इस प्रकार कुछ गुनगुनाया, मुफको खरदारी क्यों ? 
आपने कृपा की, मुझे अपना दोस्त बनाया, इतना ही काफ़ी है। 
सरदारी प्राप्त करनेकी मुझमें योग्यता नहीं (” इत्यादि। 
किन्तु उसके इस शुनगुनानेका कोई उपयोग न हुआ; 
और न होता हुआ दिखाई द्या। वह ज्यों ज्यों नहीं-नहीं 
कहता, त्यों त्यों ऐसा माल्ूप होता कि, ख़ानका प्रेम 
उसपर ओर भी बढ़ता जारहा है। अन्‍्तमें उसने यही आग्रह 
किया कि, आप कहीं न जावें; ओर सदैव मेरे ही खाथ रहे। 
उस मराठे नवयुवककों भी यही मालूम हुआ कि, अब पिंड 
नहीं बचता, ऐसा जान पड़ता है कि, इसके आम्रहके अचुसार 
करना ही पड़ेगा। नवयुवक बड्ड चकरमें पड़ा कि, इस 
पेंचसे--इस विचित्र प्रसंगसे--अब मैं छूटू' केसे ! कुछ उसको 
समभहीमें न आया। उस पेंचसे छूटनेके लिए वह आतुर 
वश्य दिखाई दिया 

बहुत देश्तक वह कुछ भी न बोलते हुए, बिलकुल खिन्न- 
बदन होकर, नीची गदन किये बेंठा रहा। खानके ;समान, 
बादशाहका एक हृपापात्र,यह आम्रह कर रहा है कि, “आप मेरे 
साथ चलें, और मुझे अपना दोस्त सैमब्ें ।?--इलपर वास्तवमें 
आनन्द होना चाहिए, सो तो एक ओर रहा, वह वेचारा बड़े 
संकटमें पडा-सो क्यों ? कह नहीं सकते | अहमद ओर करीम 
उसकी वह अवस्था देखकर एक दूसरेकी ओर धौीरेसे ही दृष्टि 
>कते और कुछ हँखते भी, मानो उनको यह सब देखकर 












द ह उषाकाल भ (है झ६६ 2) 
5 ह>अकऊड ७) (६2092 8 ४ ४॑आ< पल 


पड़ा आनन्द आ रहा था। अध्तु। अम्तमें ल्रान उस बब- 
युबकसे कहता है, “अज्जी साहब, आप इतने संकटरें क्यों पड़ 
गये ? जो बात में आपसे कहता हूं, वही यदि किलो द्घरेसे 
कही होती, तो वह अपनेको न ज्ञाने कितना सोभाग्यवान 
सम्तकता ! पर आप तो मेरी बात झुनकर विलकुछ खिन्नते 
दिखाई देते हैं! क्‍यों, मुझे दोस्त कहना क्या आपको तुच्छ 
मालूम होता है? बादशाहकी रूपा क्या आपको नहीं चाहिए ? 
आप छुले दिलसे मुझसे कहिये। बह बिन्ता यदि किसी 
* अनुष्यके हाथसे दूर होनेयोग्य होगी, तो मैं' उसे अवश्य 
दूर करूगा। किन्तु आप मुझे छोड़कर अब और कहीं न 
जावें। आपको यदि ख्रीको कहीं पहुंचाना हो, तो में! अपने 
आदमी साथ देकर अभी पहुंचाये देता हूं। आप यदि साथ 
रखना याहते हों, तो साथ ही छेचछिये। घरके लोगोंको 
सन्देशा भेजना चाहते हों, तो सांडिनीसवार मौजूद है।” 
खान इतनी उत्कंठासे कह रहा था कि, अदमद करोम्र- 
बरूशके कानमें खुखफ्‌ साकर कहता है, “वाह! यार वाह! 
दीवाने तो होगये !” इसके बाद फिर बह तुरन्त ही उस नव- 
युवककी ओर, बड़ी विचित्र भाँतिसे, हाथ मटकाकर कहता हे, 
“वाह ! वाह !” मराठा नवशुवक फिर कुछ नहीं बोला | खानमे- 
डसके न बोलनेकों ही सम्मति समभकता; ओर हुक्‍्प्त दिया 
कि, इनका सब प्रकारसे उत्तम प्रबन्ध रखो । इसके सिवाय 
डसने उसके साथकी ख्रीके लिए अहूग राबटो और कनातका 





















९१ सस्तेमं बतलाता हैं 


फ काया पट दम सा बुक 


३0.5] 





प्रबन्ध कर देनेके लिए भी ताक़ीद कर दी । खुमानको उलीकी 
वैनादीमें रखकर हुक्म दिया कि, अगले सुक़ामपर तुम फिर 
सामने हाजिर हो। हाँ, छावनीके वाहर जानेके लिए उसे पूरी 
पूरी मुमानियत कर दी गई। 

कह नहीं सकते, क्या कारण था; परन्तु खुमानने जब यह 
सुना कि, मुझे यह वबीब नौकरी मिलली, तब डसके चेहरेपर-- 
उस दशामें भी--कुछ सम्तोषकी छाथा अवश्य दिखाई दी ! 


3०७, २६ आकार आना... ऑमिकनऑलि#साफम्कर-००-७५ा बाजार, 


छब्बीसवां परिच्छेद । 

०“ 722 टिकी रिजटीआिीय उलललटीी 

रास्तेमें बतलाता हूँ 
अत्यन्त घना अंगल है, ओर उसमें बारों ओर अन्धकार ही 
अन्धकार दिखाई देर्हा है! जिस जगहकी अब हम चचो 
चलानेवाले हैं, वह एक भयंकर जंगल था । उस जंगरूमें बरगद, 
पीपल, पाकर, अशोक इत्यादिके इतने घने दक्ष थे कि, उनके 
अन्दरसे रास्ता निकालना बिलकुल असस्मव था। वीजापुरके 
बादशाहके यहां अनेक सरदारोंने घ्रार्थना की थी कि, यह जंगल 
यदि कटवा न डाला जायगा, तो बदमार, छुटेरे; ओर ठग 
इत्यादि छोगोंकी ख़्ब चन आवेगी | उस समय ऐसे.लोगोंके लिये 
यह जंगल बहुत अच्छा उपयोग था।' इसी जंगरूमें कई 
बार छोगोंने बादशाही ख़ज़ानेकी छूट लिया; ओर कुछ पता 








' # उपादार रः व 42 


बेटा आा |] हि आर फेक 2 
न खलछा। कई बार ऐसा भी हुआ कि, उस मा्मसे जब 
बादशाहो सेना निकली, तब मरठे बद्माशोंने, जो डसी जंगठें 
छिपे बैंठे रहते थे, उसपर अवानक छापा मारा; ओर सिपा- 
हियोंकों मार-काट टुकड़े टुकड़े कर डाला, तथा एक-दो बड़े 
सरदारोंको तो विछ तिल काटकर चटनी बना दिया ! परन्तु इन 
सब बातोंकी ओर किसीने ध्यान नहीं दिया । बीजापुरकी 
बादशाहत मानो डस समय एक दूसरी अन्घेर्नगरों हो बनो हुई 
थी। किसीकी कोई परवा नहीं करता था। जो बादशाहका 
कृपापात्र बन गया, वही सच्चा बादशाह ! हिन्दुओंको यदि किसो 
बातमें कोई तकडऊीफ़ होतो, तो कोई झुमबाई नहीं होती। हां, 
मुसव्मानोंमेंसे यदि किखीको कुछ शिकायत होती, तो उल्लकी 
खुतवाई महीना-पत्रद दिममें होज्ञाती थी; ओर उसको पूरा 
पूरा न्याय मिलता था। अवश्य हो यह दशा शोचनीय थी, 
परन्तु इसे आगे चलकर बहुत छाम छुआ । अस्तु । 

. ऊपर जिस जांगरका ज़िक्र किया, वह पूनेसे कोई तीस- 
बततील कोसएर बीजापुस्के मागपर था। इस जंगछमें हिंस 
श्वापद्‌--ख़ूनी जानवर--भी बहुतायतसे थे | इनके लियाय कुछ 
मानवी प्राणी भी वहां इस प्रकारके बलते थे कि, जो ऋर बन 
गये थे-फिर चाहे वे शाज्यके अत्यायारसे बसे बन गये हों, 
अथवा खानेको नहीं मिलता था, इसकारणसे तथा उनकी 
मातृभूमि ओर खधमेंकी उस समय विडम्बना की जारही 
थो; और जोकि उतको |लहन नहीं होती थी-इसकारणसे 




















है ६६ ) ः राखेम बतलाता हूं. है 
३8 "६२-६३" ल्च्य्य्च््ल्ल्य्स्स्स्ह् 





वे क्रूर वन गये हों | परन्तु इस प्रकारके कुछ क्र र मदुष्य वहां थे 
अवश्य ! जंगलमें चारों ओर छगसग कोस कोस, डेढ़ डेढ़ कोस 
घनी फाड़ियां छोड़कर, विलकुल बीचों बीच, लगभग पाव 
मील क्षेत्रऋखका स्थान कुछ साफ़-सूफ़ किया हुआ था। वस, 
इसी जगह हमको इस समय जाना है । इस अवसरपर इस 
जगह कोई मामूली चोर अथवा डाक नहीं हैं--वही हमारे पुराने 
परिचित चार आदमी वेठे हैं । वे चार आदमी पाठकोंको पहले- 
पहल श्रीघर सामीके मन्दिरके अँहारेमें मिले थे। उस समय 
उनकी जैंसी चेष्टा दिखाई देरही था, उससे इस सप्रय, उनकी 
चेेष्टा बहुत ही सिन्न दिखाई दी। उनमें जो तेजस नेत्रोंचाला 
ठिगना नवयुवक था, उसकी चेष्टा कुछ क्रोध, कुछ खेद, कुछ 
दृढ़ता; और कुछ तिरसकार इत्यादि विचारोंकी छाया से बिलकुल 
व्याप्त दिखाई देरही थी । वह इस समय अपने मस्तक बहु- 
तसो शिकनें डाले हुए, किसी अत्यन्त गहन विचार, मन ही 
मन, निमझचछा दिखाई देख्दा था। ये छोग इस समय उपयु क्त 
स्थानमें, एक वृक्ष्क्के नीचे, कम्बलपर बैठे थे; और अपने अपने 
घोड़े उन्होंने वहीं, थोड़ी दूरपर, एक वक्षके नीचे बाँध दिये थे ! 
उन लोगोंमेंसे एक मनुष्यकी क्या स्थिति थो, सो अभी बतलाई। 
बाकी तीनों मनुष्य भी पहले ही मलुष्यको भांति, अत्यन्त डुःखी 
होकर, गर्दन नीची किये हुए; छुप बैठे थे। उन तीनॉमें एक 
तो हमारा वही लिपाही जवान था कि, जिसका पश्चिय हमारे 


के क हि का 


पाठकोंकों पहले परिच्छेदयोें ही होडुका है और शेष दो उस 














मी तरुण पुरुषके मित्र - हैं, सो भी पाठकोंको मालूम ही है। 
अघ्तु। जेसाकि हमने ऊपर बतेछाया, उसी अंवस्थामें वे चारों 
बहुत देरतक बैठे रहे; ओर कोई किसोसे कुछ नहीं बोला। 
लेकिन यह स्पष्ट दिखाई देशहा था कि, प्रत्येक कुछ नकुछ 
कहनेके विचारमें हैं। अन्‍्तंमें वंह तेजस्वी नवयुवक एंकंद्म 
ओऔरोंकी और देखकर कहंता है, “क्यों ? श्रीघर खामीके हांथों 
ओर पैरोंमें मेन मनमंरकी हंथंकंडी ओर बेड़ी डॉल दी गई', 
और वे पुंरन्दरके समान निकटके ही क़िलेमें कालकोठरीमें हमारे 
लिये डाल दिये गये; और फिर भी हम यहां चुपचाप बैठे हैं! 
धिंकार है--इसले अधिक ओर छंज्ञाकी बांत क्‍या होंसंकतो 
है। इससे तो हम हाथंमें चड़ियां पहनकर चुंपंचाप धरमें 
बैंठे रहें तो अच्छा !” ' 

ये शब्द इतने तिरंस्कार ओर दुःखके साथ उस पुरुषने उद्चा 

- शुण किये कि, जिससे स्पष्ट मोलूमे होता था कि, उसको अपने 
.. सनम, खय॑ अपने विषयमें ही, अत्यन्त तिरम्कार उत्पन्न हो 

चुकी था। इसके सिंवाय उसने उंपयु क्त वाक्य उच्चारण भी 
..._ कुछ ऐसी विचित्र आवोाज़से किये कि, सुननेवांले उन तीनोंके . 
हंदयमें वे विंलकुंछ मिंदें गये। उसमें भी येसाजीकों तो उससे 
बहुत ही खेंद हुआ। क्योंकि उन्होंने खाभाविक ही सबके 
समने यह प्रतिज्ञा करे लीं थी कि, श्रीधर खामीको दूसरे ही 
दिन छुंड़ा छाऊँगा ! वहें प्रतिज्ञा आज बिल 


बिलकुल व्यर्था गई; भौर 
ऑल गंदेन नीखी फरके मैठनेंकी सौधेत ओई ! इस बांतपर उन 












































* 808 किक बतलाता हू है 


५ ३९१ ८2 


>> बा 





अत्यन्त दःख हुआ । पहले दिन जोगिन जब पुरूद्रके किले- 
पर अपना फैरा डालकर वापस आई; ओर येखाजीसे मिलकर 
वहांका समाचार बतकाया, तब उन्हें अपनी प्रतिज्ञाके पूण 
होनेका वहुत ही विश्वास ओर उत्साह हुआ; ओर उन्होंने 
इस बातका भी विचार किया कि, अम्गुक मार्गसे जाकर अमुक 
युक्ति करेंगे; और दूसरे ही दिन, उसी युक्तिके अछुसार, श्रीधर 
खामीको छडा लेंगे। इसके बाद उन्होंने फिरसे जोगिनको 
किलेपर एक चक्कर ऊगा आने ओर सब हालचाल देख आनेके 
लिए कहा; और जतलाया कि, हम मागमें तुम्हें अपुक देक्षके 
नीचे मिलेंगे, वहीं आकर सब दृत्तान्‍न्त बतलठाना। तदसुसार 
जोगिन दूसरे दिन फिर गई; और वहां जो बात हुई थी, खो 
खब आकर येसाजीको उसी वृक्षके नीचे मार्गमें बतलाई। वह 
बात क्‍या थी, सो सब पाठकोंको मालूम ही है। उसे छुनते ही 
येसाजीको बहुत खेद्‌ हुआ । उन्होंने समका था कि, श्रीघर 
खामीकी जो स्थिति पिछले दिन थी, वही यदि अब भी होगी; 
तो बातकी बातमें उनको छुड़ा लावंगे। पर अब वह हालत 


नहीं रही | हमारे आलस्यके कारण श्रीधर खामी आज इस 
दशाको प्राप्त हुए--उनके इन कष्टोंका कारण में हं--बस, यही 
सोचकर यैसाजीको अत्यन्त पश्चाचाप हुआ। एक तो पहले 
ही उनकी चित्तवृत्ति इस प्रकार पश्चात्तापपू्ण थी--फिर जैला- 
कि हमने ऊपर चतलाया, उस तेजखी नवयुवकके “उपयुक्त 

व्चनोंसे तो उनका हृदय ओर भी अधिक दुःखी हुओं। के 





द 4: उपाकाक है 





चुपचाप नीची गदंव किये हुए डिल्तामें बैठे रहे । क्या कहें, 
सो उन्हें कुछ नहीं सूका। इसके सिवाय वे यह भी ज्ञानते थे 
कि, यदि्‌ इस समय कुछ कहेंगे भी,तो अच्छा नहीं रंगेगा। हां, 
हमारा सिपाही जवान अवश्य ही कुछ कहनेके विदारसमें था| 
उसके होंठ फड़क रहे थे;और बोलनेकी इच्छा वह बहुत प्रयासके 
साथ दाब रहा था; इतनेमें उस तेजस्ी नवयुवककी तीक्षण 
दृष्टि, उसी समय, हमारे उस सिपाही जवानकी ओर. भरकी 

ओर देखा कि, उसके मनमें कोई न कोई महत्वपूर्ण विचार आ- 
रहा है; ओर वह यही सोच रहा है कि, “कह या न कहूं ।” यह 
देखकर खाभाविक ही वह उससे बोला, “भाई, तुम्हारे मनमें 
कोई विचार आया है, ऐसा जान पड़ता है, सो क्या है ? बत- 
लानेयोग्य हो, तो बतलला न डालो ?” यह खुनकर हमारा 
सिपाही जवान कुछ हँसा; और फिर तुरन्त ही कहता है, “महा- 
राज, ओर क्या बतलाऊं--पुझै यदि आज्ञा हो, तो सचमुच ही 


... में तीन दिनके अन्दर श्रीधर खामीके चरणोंके दर्शन आप सबको 





करा दूगा।” ह 

_ “क्या १ तुमको तो इधरके प्रान्तक्री कुछ बहुत जानकारी भी 
नहीं है; भोर तुम यह काम करनेकी प्रतिज्ञा करते हो ? इधरकी 
. कठिनाइयां क्या हैं, इसकी क्या तुमको कुछ कह्पना है ? पुर- 
 न्दरका किला एक बड़ा विचित्र किला है। उसमें प्रधेश करना 
कुछ हँसी-खेल नहीं है। फिर खामीजीके हाथों-पैरोंमें मन मनकी 
हथकड़ी बेड़ी डालकर उनको कालकोठरीमैं, तहखानेके अन्द्र, 



























€& २0) . रास्तेमें बतलाता हूं क 
 शि५ शेड | स्क्र्स््य्क्क्न 
६७ ब्ह््च्ह्ल्ल्ब्य्टड्ः 


बन्द कर रखा है--वहांसे तुम कैसे छुड़ा छाओगे १ मेरी सममक- 
में नहीं आता | यह बात केवल शुपताके बछपर नहीं होखकती। 

दस प्रान्तकी-विशेषत: पुसन्‍दूर ओर उसके आसपासके प्रदेश- 
की--जिसे पूर्ण जानकारी होगो; ओर जो सब ॒प्रकवारके दाव- 
वेंचोंमें पूर्ण दक्ष होगा, उसोसे यह काम हो लकेगा। तुम्हारे 
समान पुरुषसे यह कैसे होगा १ ( येखाजीकी ओर कुछ भांख 
मटकाकर ) हमारे यैसाजीके समान खुदक्ष वोरने जिल बातकों 
प्रतिज्ञा की; ओर वह पूरी नहीं होसकी, वह बात तुम्हारे सप्ान 
नवीन पुरुषसे कैसे बन पड़े गी ? मेरी समभमें नहीं आता !! 

यह अन्तिम कथन खुबकर येलाजीको ओर भी खेद हुआ 

परन्तु वे कुछ बोछे नहीं। वे जैसे अभीतक चुप बे थे, वेसे 
ही बैठे रहे । इतनेमें वह सिपाही जवान उस तेजस्वी पुरुषकी 
ओर मुड़कर फिर कहता है, “आपकी आशज्ञासे में सब कुछ कर 
सकूगा। चाहे जो करू; परन्तु श्रीधर खामीको आपके पास 
छाकर उपस्थित करू गा, आज्ञामर चाहिए । में जबसे आपके 
पास आया, कोई भी काम नहीं कर दिखाया। सो आज कुछ 
कर दिखलकाऊ', यही इच्छा है। यह इच्छा पूर्ण होना आपको 
आज्ञा और आपके आशीर्वादपर अवलम्बित है। जब मैंने एक 
यार कह दिया कि, यह काम करू गा, तब मरनेतक पीछे नहीं 
हट'गा, आप विश्वास रखें। या तो इस प्रयत्ञष्मँ मरू गा, या 
श्रीधर खामीकों आपके पास लेकर आऊ' गा; ओर कुछ आप न 
समरभे | आपका अनुमोदव, आपकी आज्ञासर चाहिए। 








उषाकाल है 


हुआ (22320 0 3330 22: 





ल्‍ 


: शतुस्हारी शरता ओर तुम्हारी हृढ़ताके विषयमें कमी मेरे 
मनमें शंका नहीं हुई॥ बस, बात एक हो हे--जैसीकि तम्हारी 
ड्च्छा है, उसके अनुसार तुमको यह कार्य सॉपनेके लिए मेरा 
मन तैयार नहीं होता; ओर यह सिफ इसीकारण कि, तुम्हें 
इस प्रदेशको अभी पूरी पूरी जानकारों नहीं है। जानकारी यदि 
होती, तो मैंने तुम्हारे सम्मान उत्साही पुरुषको निराश कभी न 
किया होता। अब आज में खयं ही इस कामपर जाऊ'गा। 
खामीजीके समान सत्पुरुषकी हमारे पीछे ऐसी दुर्देशा हो,इससे 
अधिक लज्ञाकी ओर क्या बात होसकती है ? गो-ब्राह्मणोंको 
कष्ट न हो, उनको जो आजकल कष्ट होरहा है, उससे छुटकारा 
हो, इसीलिए तो हमने यह सारा प्रयत्न शुरू किया है। फिर 
जिन्होंने हमपर आजतक अनेक उपकार किये, आजतक हमारे 
लिए कितनो ही कारस्थानियां कीं, कितने ही का्मोमें हमको 
सलाह-मशविरे दिये, वे खयं ही संकटमें--ओर फिर हमारे ही 
लिये-पड़े हैं; ओर हम इधर-उधर करते हुए. चुप बैठ हैं, यह 
कितनी बुरी बात है| भवानी माताने--जिस दिन वे पकड़े गये, 
उसके दूसरे ही दिन--संध्या समय, मुझसे कहा था कि, 
 स्‍्वामीजीका बाल बांका भी न जायगा; और तुकको फिर उनके 


दशन होंगे--हां, प्रयत्व भारी करना पड़े गा। मैंने बहुत बार 
विचार किया, पर सम्ररूमें नहीं आया कि, किसी सहज उपाय- 


से ग्रह कार्य हो सकेगा। कोई न कोई भारी युक्ति किये बिना 
उनके छूंटनेकी आशा नहीं। सो क्या करना है; और क्या नहीं 





33303 कक तपवकज कण ंकिकन लत ५ अपने अरिकत+ उपर परचम यम पय लत क कि 33 सनक पं २० है सनक पध८++ कप दो अल 3५ २०7 ०33८० अउर ० शी नल है 


कक कम पक 














हैँ 9) . रास्तेम बतलाता हूं है 
करना है, यह सारा मेरे मनमें बिलकुल निश्चित होछुका है। 
पुरन्द्रका किला तो आज हम छोग जीत नहीं सकते। निस्ल- 
देह, किला तो हम नहीं जीत सकते, पर श्रीधर स्वामीका 
छुड्डाना आवश्यक है । मैंने अपने मनमें सारी योजना पूरी पूरी 
निश्चित कर रखी है। उस योजनामें एक छोटीसखी बातको 
कमी है। किछेकी जानकारी तो मुझे पूरी पूरी है; ओर इन 
दोनोंको भी है | किन्तु-“*” आगे वह नवयुवक कुछ कहनेवाला 
था कि, इतनेमें दूर, कहीं न कहीं, किसी मन्ुष्यके आनेकासाः 
आभास हुआ। तुरन्त ही उसने अपनी तलवार सस्हाली; ओर 
फुर्तीके साथ खड़ा होकर कहता है, “कोई मनुष्य हमपर नज़र 
तो नहीं रख रहा है ! इस समय यदि हमारे विचासेका ज़रा 
भी किसीको पता कल गया, तो बड़ी कठिनाई उपस्थित हो- 
जायगी । हमारी सच्ची शक्ति इसीमें है. कि, हमारो सब बातें 
गुप्त रहें; और मशविरा ठीक ठीक हो |] क्यों, येसाजी, तानाजी, 
अरे तुम आज मौन क्यों घारण किये हुए हो ? येखाजी, अरे 
तुम्दारी प्रतिज्ञा पूरी नहीं हुई, तो तुम इतने खिन्न क्यों होरहे 
हो ? आजतक हम लोगोंने न जाने कितने विचार किये; और 
कितने ही विफल हुए ! पर क्या कमी भी उनके लिए खेंद 
माना, जो आज मानें ? भवानी माताकी कृपा है। डतका जो 
कुछ कहना है, वही सच होगा। श्रीधर स्वामीका अवश्य हमको 
फिर दर्शन होगा | इसकी तुम बिलकुल चिन्ता न करो... 
इसके बाद फिर उसको किसी मनुष्यके आनेकीसी आहट 








ह उषाकाल मी 


लकी .. डिड आह 
सुनाई दी; ओर वह बोला, “कोई न कोई नज़र रखनेके छिए. 
आया होगा, इसलिए अब हमको यहांसे चल ही देना चाहिए, 


अथवा यह कोन मनुष्य है, इसका पता लूगाना चाहिए | यह 
हम लोगोंका सदैवका स्थान है। यहां यदि और फिसीका 
प्रवेश होगया, तो सारी मन्त्रणा मिट्टीमें मिल जायगी ।” इतना 


उसने कहा ही था कि, इतनेमें उस मनुष्यके आनेकी आहट 


ओर भी पास पास सुनाई देने गो, जिससे वह तेजरूची तरुण 


सिपाही अपनी तलवार सम्हालकर आगे रूपका; ओर यह 
देखकर कि, दूश्पर वृक्षकोी ओटसे, कोई मनुष्य भाग रहा है 
वह उसको मारने दोड़ा। परन्तु उस आगत मनुष्पने--“मैं 


यमाजी आपका--में आपका--? ये शब्द कहे; ओर फिर आगे 
आकर चरणोंके सामने लोटते हुए बोला--“महाराज, आज 


रातको हथकडी-बेंडियों सहित, निस्सन्देह, बाबाजीको फोटके 
ऊपरसे ढकेल देनेका हुक्म होछुका है। आप यदि शीघ्रता 


कर्गे तो पट १9% 
उसकी बात अभी खतम भी नहीं होने'पाई थी कि. वह तेजस्वी 


2 तरुण सिपाही एकद्म लपककर घोड़ेपर आडूढ़ हुआ; ओर 
.. शकदम घोड़े को बेतहाशा छोड़ दिया। हाँ, उस सप्रय इतने 
. शब्द उसके मु हसे अवश्य खुनाई दिये--“चलो, क्या करना है, 


सो मे रास्तेमें तुमको बतलाता हूं | अरे इन दुष्टों 
आगेके शब्द्‌ घोड़े पर खबार होनेमें उसके मुखले ठीक ठोक 


.. निकले ही नहीं। चारों वायु-वेगसे घोड़े दौड़ाते हुए निकल 
. गये। 


20085 3 कक या ४2752, 0%7 0 लि 52222 5 24:24 26:78: अं मिट 50 है. कद कप कक आन २," दब ट 6 तल कि का अर 




















| // 


पिछछे परिच्छेदर्म जिस दिवका ज़िक्र हुआ, उसी दिनके 
संध्याकालमें एक:बुड़ा घलियारा ओर उसकी घसियारिन,दोनों 
सिस्पर बड़े बड़े दो घासके गई लिये हुये पुसरन्‍द्रक़िलेके नोखे 
बस्तीमैं आये। वे प्रत्येक आदमीके सामने अत्यन्त दीनवाणीसे 
पुकारते जाते थे । “ अरे घाल ले लो,द्यावान माई-बाप | घास 
ले छो | घस्में लड़के-बच्चे भूलों मरे जाते हे, हमको कुछ खाने 
पीनेको दे दो | ” डनका वेश क्या था ? सच पूछिये, तो बुड़ी- 
की कमरपर समूचा वस्य भो नहीं था, बदनके ऊपरके हिस्लेकी 
वात ही क्‍या कहना | एक कु्तों पहने थी, पर वह भी बिल- 
कुल चिथड़ा जान पड़ती थी; ओर शरीर इतना काला कि, जैसे 
कोयछेसे पोता गया हो ! चुड़ें के एक दाथमें छाठी; और खिर- 
पर बड़ा भारी बोफा] बुड़ा ज़रा कसा हुआ गठीला दिखाई देता 
था, पर था आखिर बुड़ा हो |! शरोरपर एक लेगोटीकों छोड़- 
कर दूसरा वस्त्र नहीं। हजामत कुछ कुछ बढ़ी हुई । ओर बोमा 
इतना भारी लिये कि, रुकनेसे मानो पीठ ही मुड़ी जाती हो! 
अन्तमें जब देखा कि, उस बस्तीमें घाल कोई नहीं लेता; ओर 
सूर्यास्तका समय आगया, क्षण क्षणपर अन्धक्ार घना होता 
जारहा है, तब वह चुड़ी अपने बुद्ंसे कहती है, “अब चलो 











किलेके ऊपर चलें। वहां घुड़सालमें चारा बहुत लूगता है, 

चलकर वहीं बेचें ।” ः रा 
ये शब्द उनके मुँहसे निकले होथे कि, इतनेमें बुड़ेने 

धड़ामसे अपना गद्ठा नीचे डाल दिया; और क्रोधसे उस बुड्ी- 


की ओर दोड़कर बोला, “जा, जा, रांड कहींकी ! कहांका 


कंगड़ा लगाया | चार गाँव दोड़ाकर मार डाला; और अब 
कहती है, चलो किलेके ऊपर ” फिर क्या पूछना है ! 


दोनोंमें खूब फगड़ा मच गया ! बुड़ा क्रोधमें आ आकर बोल रहा 


था; ओर बुड़ी भी उसका जवाब डसीकी ओर रूपक लपक- 
कर देरही थी। बड़ा शोरगुल उन्होंने मजा दिया। लोग इफह्े 


होगये | बुड्ढी अपना बोका नहीं उतारती, कहती कि, किछे- 


पर जाऊंगी। इधर बुड्ढा अपना बोका उठाताही नहीं था। वह 
कहता कि,यहीं हम पटेलजीके यहां, रोटी लेकर, दे देंगे। अन्त- 
में न उसने खुना; ओर न उसने | तब बुड़ी यह कहकर कि, 
में अकेली ही जाती हूं, वहांसे चल दी। बुड़ा जहांका तहां 
ही बेठा रहा | शामका वक्त था । क़िलेपर उसे जाने कौन देता 
है! पर उसका पक्का निश्चय छि, मैं अपना बोफा बिलकुल ऊपर 
लेजाकर घुड़सालमें ही बेचू'गी। क़िलेके चढ़ावपर जाकर अब 


वह ऊपर चढ़ना शुरू करनेहीवाली थी कि, पहरेदारोंने उसे 
रोका; पर वह काहेको मानती है-- बड़ी उस्ताद बुड़ी ! अपनी. 
उसी अप्ंगल भाषामें ऐसी बुरी बुरी गालियां देने .छूगी कि, - 


कुछ पूछो ही मत | ख्री:5हरी, उसके शरीरको . हाथ कोन 














है ! 





. कोटपर छेंगये 


न्‍च्य््ट्ल्य्ब्स्स्ि्सफि 





उगावे ? अंतर्में एक मनुष्य बोरा, “अरे जाने दो रांडकों, ऊपर- 
से लौटेगी जते खाकर ! ” तब तो पूछो मत । इसी “ रांडकों ” 
शब्दको लेकर गालियोंकी बौछार शुरू की; परन्तु कदम एक भी 
पोछे नहीं डडाया--बराबर ऊपर ही चढ़ती जाती थी । किसी - 
को भी हिम्मत न हुई कि, उसको पकड़कर पीछे खींच ले । वह 
बड़ी तेज्ञीके साथ ऊपर चली जारही थी। बीचमें जहां जहां 
पहरा लगता था, सब जगह पहरेदार लोग उसको रोकते; 
परन्तु वह अपनी जिह्याकी कमान छचाकर गालियोंकी वाण- 
वर्षा करती)ही जाती थी; यही नहीं,बढिकि जब कोई उसके पास 
उसे पकड़ने आता,तब वह ऐली गालियां देती कि, कुछ पूछो ही 
मत | इतना ही क्‍यों ? बल्कि उलटे डसीकी ओर दोड़ती; ओर 
कहती कि, “ अच्छा, छो, मुझे ढकेल दो ! ढकेल दो ! ” परन्तु 
स््रीके मुँह कौन लगता १ सब हैरान होकर यही कहते कि, 
« ज्ञाने भी दो, ऊपर कोई न कोई पकड़ेगा ही । ” करते क्‍या * 
बस, इसी कार बह ऊपर चढ़ती जारही थी । 
इधर वह बुड़ा घसियारा पटेलजीके घरके पास अपना 


बोफा डालकर बैठा था। वहां वह अत्यन्त दीनवाणीसे कह 
रहा था:--# आप मेरा बोका छेकर रातको मुझे सोनेकों जगह 
और थोड़ीसी रोटी दे दीजिए । ” फिर कइने रूगा, “ आपकाः 
कुछ काम हो, वो मैं कर दूड लेकिन रातकों ठहरनेको जगह 
दे दीजिये | ” बस, इसी भांति'बातें बना बनाकर ओर अपनी 
बढ़ियाके हृटीलेपनपर कुछ बक-मककर उसने पदेलजीकी 








हर उषाकाछ कै 
ः 2] 


"जाट ७ 








पशुशालाके पास बो का डाल द्या,ओर घुड़साल तथा पशुशाला- 
के बीचमें जो घाघ रखनेका स्थान बना था, बहीं अपनी साथरी 
ब्रिछा दी। उधरसे कोई कहता है, ८ अरे, यहां मत सो. यहां 
मत खो!” पर वह इतनेमें लुढ़क हो गया। कहने लगा, 
“अजी सरकार, एक रातके लिए तो जगह दीजिए | बह बुढ़िया 
हठ करके क़िलेपर चली गई, मेरे पैरोंमें बछ नहीं रहा, नहीं तो 
में भो चछा जाता। ” बख, इस प्रकार कहते हुए, वह मानो 
घरकी ही तरह लोटने छगा। उसकी वह ढिठाई देखकर फिर 
कोई कुछ नहीं कह सका | उसने तो ढिठाईका यहांतक कमाल 
कर दिया कि, जैसे कोई पशुशालाका या घुड़सालका नौकर हो 
हो ! किसोसे कहता कि, निकालो डफ़छो, में लावनी गाता हूं 
और अपने उस बेखुरे गलेसे उछटी-सोधी भाषामैं डलूटा-सीधा 
गीत गाने भी छगा। यहांतक, कि जब गद्दो जम गई, तब फिर 
क्या पूछना है ! 
बुड्डा बड़ा तालबेली हे, यह सम्रककर छोग उससे हँसी- 

मज़ाक भी करने रंगे। किसीने उसे चिलममें रखनेको तमाख 
दी, कोई कोई उसे यह कहकर कि, “अच्छा एक गीत और 
गाओ ।” उससे बार बार गानेका आग्रह करने लगे । आखिर 
बुड़ें का सब हिसाव जम गया। रातके छिए रोटी भो उसे 
मिल गई | द 
.. इधर बुढ़िया चढ़ती चढ़तो ऊपर जा ही रहो थो। बीच 

उसे बहुत छोगोंने बाधा दी, परन्तु उसके जिहाल्फे सामने 















ः कोटपर लेगये - कै 
0.५0-- २-० 8 ८ पर आता 








कोई टिक नहीं सका | टिकता कैसे ? उसके शरीरको कोई 

हाथ छूगा ही नहीं सकता था। एकबार एक आदमीने अपने 
हाथसे उसकी बाँह पकड़ ली, तो गालियां देकर छगी शंख- 
ध्वनि करने | आखिर उसको छोड़ना ही पड़ा; ओर वह फिर 
आगे चल दी। अन्तमें वह बिलकुल ऊपरके बड़े द्रवाजेके पहरे- 
तक पहुँची। वहां तीचेके सब द्रवाजोंसे भो अधिक उसने 
गोलमाल मचाया; ओर अपना प्रवेश कर ही लिया। उसने 
वहां क्या कया करनेकी धमकी दी; ओर वह सब कर सकती 

हु, अथवा नहीं--इसका नमूना द्खानेके लिए उसने वहां क्या 
क्या कर दिखलाया, इत्यादि बातोंका वर्णन करते रहनेकी यहां 

कोई आवश्यकता दिखाई नहीं देती; ओर यदि कुछ आवश्य- 
कता भी हो, तो उसका वर्णन करना इष्ट भी नहीं है। यहांपर 

सिर्फ इतना ही बतलाना काफी होगा कि, बह बुड़ी, जहांतक 

उससे होलका, खब प्रकारका प्रयत्न करके अन्तिम दरवाजा 
भी पार कर गई; ओर एकद्म घुड़सारूकी ही ओर जाप थी | 

मुख्य द्वारकों उदलंघन करनेके वाद घुड़साकूतक जानेमें उसे कोई 

विन्न उपचित नहीं हुआ | क्योंकि सबने यही ख़याल किया 
कि, घुड़सालमें घासका बोफा मंगाया गया होगा, तभी तो यह 

लाई है, और इसीकारण किलीने उसकी ओर विशेष ध्यान भी 

नहीं दिया। चुढ़िया इस प्रकार--जेसे वहांकी सब जानकारी 
रखती हो--इधर-उधर -घूमती हुई सीची घुड़सालमें पहु थी; 
ओर वहांके अधिकारीसे, घास लेकर रोटी देनेके लिए, आम्रह 















करने लगी । इसके सिवाय, अपने पतिसे भो अधिकू ढिदाई 
दिखाकर रातभर वहीं टिकनेका उसने सुभीता कर लिया | 
अनेक इधंए-डचरकी बातें ऋइकर उसने वहांके छोगोंको तरस 
कर छोड़ा | अन्तमें जब उसने देखा कि, अब यदि अधिक कुछ 
-कहँगी, तो ये छोग यहांसे अवश्य भगा दे'गे, तब डखने फिए 
अपना बोलना कुछ कम कर द्या। बहांसे उसे भागा देनेके 
लिए अनेक छोगोंने अनेक प्रयल्ल किये, पर कोई लाभ न हुआ | 
इस प्रकार धीरे चीरे कुछ रात भी होगई | 
इसी रातको आधी शातके छगमग श्रीधर स्वामीको कोटके 
उपरसे ढफेलकर मार डालनेका निश्चय किया गया था , पर 
यह बात वहांके बहुतेरे छोगोंको मालम नहीं थी | ज्यों ज्यों रात 
जाने छगी, त्यों त्यों श्रीधर खामीके पहरेदार अत्यन्त क्र रता 
पूचक उनको गालियां देते हुए यह कहने रंगे कि, “अब तुम्हारा 
अन्तकाल आगया है, अब भी बूरा पूरा पता देकर छूट जाओ।” 
इस प्रकार भय दिखलाते हुए, बाहरसे ही,नाना प्रकारसे उनको 
तंग कर रहे थे। एक मुसद्मान सिपाहीने तो एक करोखेपे 
उनेके ऊपर धूफ॑ भी दिया। यह देखते ही मराठे सिपाहीने उल 
सुसंब्लेकी डांटां ।दोनोंमें कगड़ा शुरू होगया--यहांतक कि 
मार-पीटकी भी नोबत आ जाती, पर मराठा लिपाहों बेचारा 
अके छा था; और पमुर्लेब्मान द्रो-तीन थे । बाबाजी बेचारे गर्दन 
नोवी किये हुए भीतंर चुपके बेठे थे। करते ही क्या! उस 
५ सेंमेय उनके मनेप्रें कया क्या विचार आरहे होंगे! देखो; हम 

















(४ 9) (8___कॉटेपर छेगरे लेगये 9 
लक ' 23०० सपनपन पट रस 
इस दशामें पड़े हुए हैं; ओर हमको कोई छुड़ानेके लिये प्रयत्न 
नहीं करता ! क्‍या हम इन झुखत्मानोंकी क़ेद्में रहकर इसी 
प्रकार पख पचकर मरेंगे--अथवा जेखीकि ये धप्की देते हैं, 
हमको सचमुच ही अब कोटके उपरसे दकेलऋर प्राण छेलेंगे ? 
बस, इसी प्रकारके विचार मनभ आनेसे उनका जिस खिन्न हो 
रहा था। जब कि, वे इस प्रकार अत्यन्त दुःखद्‌ विचारोंमें निम्न 
थे, एकाएक बाहरके छोगोंके मुखसे कुछ शब्द उनके कानोंमें 
पड़े । जिस प्रकार पिंजरेमें पड़े हुए शेरकी अत्यन्त हीन दशा 
होजाती है, उसी प्रकार बेचारे बाबाजीकी भी होरही 'थी। 
जो शब्द उन्होंने अभी फानोंसे छुने थे, वे इतने त्वेषज्ञनक्त थे 
कि, यदि बाबाजी उल समय अपनी डस हीन अवस्थामें व होते, 
तो एक-दो सुसव्मानोंकों अवश्य ही उन्होंने क़ब्रका रास्ता दिखि- 
छाया होता | परन्तु उस समय वे कै दीकी हालतमें थे--हाथों ओर 
पैरोंमें भयंकर हथकड़ियां बेड़ियां पड़ी हुई थीं--फिर भी उनको 
इतना त्वैष आया कि,उन्होंने अत्यन्त क्रोघसे दांतोंसे होंठ चबाकर 
ज्यों ही घड़से अपने हाथ-पैर पटके,त्यों ही ज़मीनतक हिल उठी । 
उनके पैरॉमें अवश्य कुछ चोट आई, पर इसकी उन्होंने परवा 
नहीं की | इसी प्रकार होंठ भी उन्होंने दातोंसे ऐसे चबाये कि, 
शायद ख़न निकलनेतककी नोबत आगई। उनकी अआँक्षोंसे 
मानो आगकी विनगारियांसी तिकलने रूगीं; ओर सदेवकी भांति 
वे अपनी कुबड़ी दूँ ढ़ने रूगे, पर कुबड़ी वहां थी कहां १ वह तो 
कभीफी उनके हाथसे छिना छीगई थी । शक्तिदीन क्रोध क्या 








है उपाकाऊलू 
कर खकता था १ “इस बेरागीको कोटके नीचे ढकेलनेके पहले, 
आभो, इसके मुंहमें हम गोमांघ डाले, ओर इसको मुखब्मान 
बनावें ।!--ये शब्द बाहरके जिस मुसत्मानने कहे थे, उस्ोके 
ऊपर बाबाजी चड़बड़ा रहे थे। पर करते क्‍या ? लिए उन्होंने 
यह निश्चयमर मनमें कर छिया कि, मोका आनेपर, ऐसी 
द्शामें भी, कमसे कम एक को तो अवश्य ही उल्टा दूंगा 

ओर यह दिखला दूंगा कि, सच्चे हिन्दू-धर्मेका क्या तेज्ञ होता 
है। धीरे धीरे आधी रावका सम्रय ज्यों ज्यों विकर आने लगा, 
त्यों त्यों उन मुसब्मान पहरेदारोंकी छेडुछाड अधिकराधिक 
बढ़ने छगी । कुछ देर बाद क़िल्लेदार तथा और कुछ एक, दो 
आदमी बाबाजोकी कोठरीकी ओर आये। किज्ेेदारका चेहरा 
बिछकुछ उदाख होरहा था। यदांतक कि उसपर बिलकुछ 
मुदेबीसी छाई हुई थी। उसके क़दम इल प्रकार पड़ रहे थे, 
जैसे किसी मत मनकी बेड़ियां डाले हुए मजुष्यके पड़ रहे हों | 
बीच बीचमें वह दीधे निःश्वास छोड़ता जाता था, सरो इस 
प्रकार, जैसे उसके प्राण ही निकल रहे हों! जैसे उसको 
अत्यन्त--अत्यन्त ही शोक हो रहा हो ! किड्ेदार साहब साथ 

के छोगोंसे कुछ बोलते नहीं थे--चुपके चले आरहे थे। अन्तमें 
जब बिछकुछ कोठटीके पाल ही आगये, तब उनको देखकर 
एक पहरेदार तुरूत ही उठा, ओर कोठरीकौ दरवाजा खोलने 
छगा। उस समय किलेदार साहबवने अपने साथके एक मजुष्यसे 
कहा, “कुशाबा, जो .कुछ कहना (हो, अब तू ही कद ढे 


292 




















3८७ है) कोटपर हे 
0 80, न्‍पछ ईु 


हि 5 आज 20 उालासाह सा 28 ५७७ल्‍-७७एएशश॥७७७७७०४::०५:७७०७४७७७४५७७७एए चपलदूं'लबभआकप अय तयवार छह 





पैरा......” इसके आगे मानो थे एक अक्षर भी नहीं बोल सके। 
इतनेमें दरवाजे खुल जानेसे उनके साथकी मशालका उजेका 
भी कोठरीके अन्दर गया; ओर बाबाज़ी, जो दरवाजेके पास 
ही बैठे हुए थे, उनके मुखपर पड़ा। इससे उनका वह अत्यन्त 
त्रस्त, ऋ दू ओर कुछ खिल्तसा चेहरा उन ठोगोंको दिखाई 
दिया। उसे देखते ही क्िड्रेदास्के शरीरपर रोमाश्च होआाया | 
यही नहीं, वढिकि उनकी आँखोंमें जेसे आंसू भी आगये 
हों, ऐसा सास हुआ। क्योंकि मशालके उजेलेसे उनको 
आँखोंमें पानीकों कक दिखाई अवश्य दो। छोगोंके भोतर 
आते ही बाबाजीने अपनी रुतब्ध दृष्टिसे लिफे एक बार उनकी 
ओर देखा । घमुहसे एक शब्द भी उद्चारण नहीं किया। हां, 
कुशाबा अवश्य ही आगे होकर बोला, “बाबाजी, अब प्राण 
जामेका समय आगया, अब तो कुछ कह दो ! नहीं तो व्यथके 
लिये मरोगे, ओर कुछ नहीं।” बाबाजी कुछ नहीं बोले ॥ 
फिर कुशाबा उनसे कहता है. :-- 

“देखो, तुम बैरागी हो। आज हमारे किलेपरसे एक चरागी 
व्यर्थके ठिये ढकेला जाकस्प्राणोंसे हाथ थो बैठेगा । हमको 
एक बेरागीकी हत्या छगेगो, यही सोचकर किडेदार साहबको 
आज दो दिनसे नींद नहीं आरही है | सच्ची सथ्यी बात यदि तुम 
बतला दोगे, वो ये कुछ व कुछ विनय-प्रार्थना करके तुप्तको 
छुड़ा देंगे। छतुमको यदि छुछे भो मालूत न हो, तो सब्बे-झूडे 
ही दो-चार नाम चतंलाकर अपना छुटकारा पा लो। छेफ्िन 


भ््‌ 4 















५५ ३८६ 8) 
नकीद्त-बंटके ०6३०० 


व्यर्थके लिये हमारे किलेपरसे तुम्हारी हत्या न होनी चाहिए | 
कहो, जो कुछ कहना हो। कप्तसे कम्त इतना तो प्रझट करो 
कि, आज नहीं बतरावेंगे, कछ बतलाबे'गे, परचों बतछावेरी -- 
फि्रि *»०० ०००११ | 
परन्तु बाबाजीके स्तब्ध देखते रहनेके अतिरिक्ति और कुछ भी 
उत्तर उसके इस सारे कथवका नहीं मिल्ा। ऐला जाव पड़ा 
कि, ज्यों ज्यों अधिकाथिक सप्रव जाने ऊुगा, सवों ह्यों उन्ें 
ओर भी अधिक शान्ति आने छगी। कुशाबाने बार बार उनसे 
कहा कि, “तुम कुछ नहीं बोछोगे, तो इसका परिणाम अच्छा 
नहीं होगा इसलिये तुम कुछ न कुछ कहो अबश्य | नहीं तो 
सां साहब स्वयं कोटपर खड़े होकर लुभको नीचे ढकेलनेका 
घोर कर्म अपने सामने ही करावेंगे ।” कुछ नहीं, सब व्यर्थ ! 
बाबाजीने मुख ही नहीं खोला | कुशाबाने साम, दाम, दण्ड, सेद 
इत्यादि चारों प्रकारसे समकाया, ओर सिर्फ अपने मिन्न भिन्न 
दृश्क्षिपोंसे ही क्रिलेदारमे भी बाबाजीपर आनेवाडे भावी संकर- 
का महत्व दर्शाया; पर सब व्यर्थ। उनके झुखसे एक यकार 
. शब्द भी नहीं निकछा । अन्तमें वे दोनों बिलकुल हैरान होगये | 
समका कि, अब कोई भ्री उपाय बाक़ी नहीं रहा। और यह 
कहते हुए कि,क्या किया ज्ञाय,तुम्हारा भाग्य” वे वहांसे चलने 
छंगे। किन्तु क़िडेदारका वहांसे पैर नहीं उठता था, और जो 
आंसू अबतक केवल उनकी आँखोंमें ही थे, वे अब दो बड़े बड़े 
_विन्दुओंके रूपसे एकद्म बाहर निकल आये । परब्तु क़िलेदारने 


मल .....२>सालरराउनवर मम मिसलवो--नज-०-सलललनती मनन नम. 2 कु डे है 





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4 कागपर ले गये 
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० आया ध्ब्कुल््् कप ४० 


उन्हें इतनी जरददीसे पोंछ डाला कि, उसका आना शायद 
किंसीको मालूम भी न हुआ होगा। हां, बाशजीकी दृष्टिसे 
वे नहीं छिप सक्े। यही नहीं, बढिक उनको देखऋर, ऐसा मालूम 

आ कि, खर्य उनके नेत्रोंमें भी चेसे हो आंसू आनेद्तो हुए | 
किड्ेदार खाहब अत्यन्त कश्से चहांसे पैर उठाकर चलने लगे | 
कोठरीले बाहर आनेतक उन्होंने कई यार बाबाजीकी ओर देखा 
होगा; पर इससे लाभ क्या ? अन्तमें जब थे बिलकुछ चलने ही 
लगे, तब उनसे नहीं रहा गया। वे कुछ ठिठकसे गये; ओर 
बाबाजीकी ओर मुड़कर बोले, “क्यों ? फ्रिर ! ब्राणोंकी कुछ भी 
परवा नहीं ? खां साहबने हुक्म देदिया है, उसमें अब उनकी 
ओरसे कोई भी दया-प्रया नहीं होगी । इस्ीलिये रहता हूं, ज़रा 


सोच छो,''' “कहो, तो एक-दो दि्विकी मुद्दत दिला दू'। में 
उनसे कहे देता हूं कि, वह कछ सब कुछ बतला देगा ****” 


ये अन्तिप्र शऋ क़िड्ेदारके मुखले अभी पूरे पूरे निकले भी 
नहीं थे क्लि, वाबाजी बहुत जद उनकी ओर मुँह करके ज़ोरसे 
कहते हैं, “नहीं | नहीं |! जो आज वही कल ! ओर जो कर 
वही परसों | तुप एक अक्षर भी न बोलो ! जब कोई चतल।नेकी 
बात भेरे पाल है ही नहों, तव वतलकाऊ' क्या? बस, बार बार 
वही मरनेका डर ही तो ? आजतक भेरे समान न जाने कितने 
मर गये! जाओ, ओर ख़ानसे कह दो कि, खुशीसे चला 
आवबे; ओर उसको जो कुछ करना हो, सो करे। में, झुत्युको 


डरू गा ! खत्युदीको सुकले डस्वा चादिए-खत्युको 








4 उपाकात्क कै 


इतना कहकर उन्होंने फिर अपने होंठ ऐसी मज़बूतीसे बन्द 


कर लिए कि, जेसे बिलकुल सी डाले गये हों। इसके बाद 


फिर वे पहलेदीकी भांति उदास हृष्टिसे बेठकर देखने ल्गे। 
कुशाबाने अपनी चरपेट-पंजरों फिए शुरू की। क़िल्ेदारने भी 
संक्षिप्त शब्दोंसे; और अर्थपूर्ण हुष्टिते अपना मनोगत भाव 
बाबाजीसे प्रकट किया, पर कोई परिणाम न निकछा।. बाबाजी 
किसी पाषाण-सू्तिके सहुश अचल रहे । 


अन्तमें ये दोनों चले गये; ओर कुछ ही देर बाद खान क्‍ 
चार-पांच मनष्योंके साथ, फिर किलेदार साहबको, ओर उनके 


साथवाले पहलेके ही दोनों मनुष्योंको केकर आया। खानके 

आते ही पहरेदारों और मशालचियोंकी बड़ी गड़बड़ी मची, शीघ्र 

ही कोठरीका दरवाजा खोला गया। खानके लिये एक 

उच्चासन काया गया था, जिसपर वह बेठा। उसका हुकप् 

छटनेकी देर थी कि, दो-तीन सिपाही जाकर बाबाजीकों बांहर 

लेआये। बाहर छानेके पहले एक सुलद्पान पहरेदारने बाबा-. 
जीसे यह कहकर कि, “उठ वे उठ, छेरागी बना -फिरता 


उन्‍हें लात मारनेके लिए पैर आगे बढाया। बाबाजीने अपने 


हथकड़ीमरे हुए दाथसे उसको ऐेसा तम्माया मारा कि, उसकी 
कनपटी सुझे पड़ गई। इससे वे लोग ओर भी अधिक चिह् 
गये, परन्तु वाबाजीको . इसकी . विलकुछ परवा नहीं हुई 

घीर ओर शान्‍्त इृश्सि देखते हुए तथा गस्णीरताके साथ बाहर 
आये। खांवने उनके ऊपर बुरी बुरी गाछियोंकी -बोछार 














(८ € ४४ है 


शुरू की, किन्तु उनका ध्यान ही उस ओर न था। उनका 
ध्यान बारस्वार किलेदार साहबके चेहरेकी ओर जाता था। 
क्योंकि उनका चेहरा इस समय इतना गिर गया था कि, कुछ 
कहा नहीं जालकता। उनकी आँखें भी विलकुछ दुःखसे 
भरी हुई दिखाई देरही थीं। ऐसा मालूम होता था कि, उनके 
ऊपर कोई न कोई बड़ा संकटसा आनेवाला है। इधर लानकी 
बड़बड़ जारी ही थी। उसने बाबाजीसे बहुत कुछ डरा- 
घमकाकर पूछना चाहा, पर बाबाजीने उसकी एक बातका भी 
जवाब नहीं दिया। अन्‍्तमें उसने बराबाजीको कोटके ऊपर 
छे चलनेका हुक्म दिया। दो-तीन सिपाहियोंने बाबाजीकों 
पकड़ा; ओर किल्लेकी पिछली ओर जिस कोटपरसे उनको ढके- 
लनेका निश्चय किया गया था; ओर जहांसे अबतक कितने ही 
लोगोंकों ढकेलकर उनके प्राण लिए जाचुके थे, वहीं बाबाजीको 
भी छे चले। बाबाजी बिलकुल घीर-प्रशान्त थे। किखी 
प्रकारकी घबड़ाहट उनके चेहरेपर दिखाई नहीं पड़ती थी। हाई, 
मुखसे “जय रघुवीर” “जय गुरुदेव” का उच्चारण कर रहे थे। 
इतनेमें कोटसे दो हाथके अन्तरपर ले जाकर उन्हें खड़ा किया 


गया | 











अद्ठाइसवां पारच्छिद । 


कक के 
९ शो के 








क्‍ छुटकारा । 
जैसाकि उपर बतलाया, जब कोटसे दो हाथके अच्तरपर 
बाबाजीकी छेजाकर खड़ा किया, तब इसके बाद खान 
फिर एकबार उनके पास आया ; और अपनी उद्दर्ड चाणीसे 
दो-चार कठुचबन झुनाते हुए बाबाजीसे कहा कि, “बतला, 
बंतला, नहीं दो तू आज यहांसे ज्िन्दा छुटकर नहीं जासकता ![? 
बाबाजीने केवल विरस्कारपूर्ण हृशिसे उसका अधिक्षेपप्रात 
किया। मुंहसे एक अक्षर भी नहीं निकाछा। क्रिडेदार खामके 
पास ही खड़ा था | उस बुढ़ु के अन्तःकरणमें, उससमय, ऐसा 
जान पड़ता था कि, कोई न कोई अत्यन्त खिन्न विचार आरशहैे 
हैं ।इसके सिवाय उसकी चेष्टासे यह भी दिखाई दिया कि, जैसे 
वह कुछ कहना याह॒वा हो, पर कहनेकी हिम्प्त न पड़ती हो । 
आख़िर जब उससे न रहा गया,तब दिरको कड़ा करके सर्जेज्रांको 
. सलाम करते हुए, रुप्रालसे हाथ बांधकर, बह बोला, “हज़रत ! 
.. इस वैरामीकों आप बिना कारण दरड देरहे है। मेने, और 
.. आपके साथ जो ये मुराणलाहबके भतीजे आये हैं, इन्होंने; और 
... इस कुशाबेने, इन सबने प्रिलकर बहुत कुछ पूछा-बताया; 
.. चर चैरागी कुछ भी बतला नहीं सका, इसलिए प्रार्थना है कि, 
_बैरामीको हत्या जैसे आजतक कपम्ो नहीं हुई, वेसे ही आज 








॥ ञ् ; १ है) ः 4 छुटकारा ह कर 


99-49 “६4-4६ व्स्स््स््ल्छ्पस्डटअ 
भी न हो। बेरागी सच्चा बेरशणशे दिखाई देता हे--फिर आगे 
आपकी सरज्ी--! 

किछेदारके मुँ हसे आगे ओर कोई शब्द ही न नकले; ओर 
यदि कुछ मिले भी तो वे स्पष्ट सुनाई नहीं दिये। अस्तु | 
इसके दाद यह बरावर वाबाजीकी ओर देखता हुआ खड़ा 
रहा। सर्डेर्त़ाने क्िलेदारकी उपय क्त बात सुनकर कुछ दिर- 
स्कार्ला दिखछाया; ओर तुरन्त ही उससे बोछा, “तुप्त 
सप्नी एक हो। इछिन्‍्तु में कमी तुम्हारी ऐल्ली बातोंमें नहीं 
आऊगा। चाहे तुम हो, चाहे मेरे साथ आये हुए ये मुरार 
साहबके भतीजे हों, खब एक ही है। ओर तुम ऐसे लोगणोंको 
बचाना अवश्य चाहोगे। पर मैं एक भी न छुनू'गा। क्योंकि 
मुख्को विश्वास होथुका है कि, इस वैशगोकों सब वातें पूरी 
पूरी मालूम हैं। यही नहीं, बल्कि इसको उस मन्दिर्में ही 
किसी बिशेष उद्देश्यसे रखा है--अन्यथा इसकी कुबड़ीमें शुप्तीको 
क्या ज़रूरत थी ? आजकल तुम मराठे सरदारों और क़िलेदारोनि 
बादशाह खल्रामतके पास तो अपना विश्वास जप्ता रखा हें; 
ओर परे समान सरदारोंके साथ अपने नोकरोंकासा बतांव 
करते हो. और इस प्रकार तुम छोगोंने ऐसे ऐसे बागियोंको 
लग्-मार मचानेके लिए एक प्रकारसे खतन्‍्त्रताली दे रखी ह। 
इसीका तो यह फल है। ये हज़रत, सरदार शिवदेवशव--फम्तुरार 
साहइबके भतीजे हैं; इसलिण ये समझते हैं. कि, बस, हम जो 
कुछ करें, घही ठीक है। परन्तु हनुमानजीके मन्द्रिमें जब 














 उषपाकाछ हू 
नण््ख्णश्ण्ण »>अीवक की: 


इन्होंने इस वैरागीसे कुछ शुन-गुनाकर शुप्त रुपसे बातें वहीं, 


ओर मुझे बाहर रख दिया, तभी मैं समफ गया! लेकिव कुछ 
बोला नहीं। फिंर यहां जबसे आया, तबसे तुम छोग जो 


व्यवहार कर रहे हो, डससे तो सुझे पूरा पूरा विश्वाल होगया 


है कि, तुम छोग इस बैरागीकों छोड़ देना चाहते हो। नप्तक- 
हरामी तो तुम छोगोंकी नस नसमें भरी है। ठीक है। धीरे 
धीरे ये सारी कारवाइयां प्रकट हो जायंगी;, और प्रत्येक किले 
की जांच की जायगी | मैं यहांसे जाते ही तुम लोगोंका सब 
दाल बंतलाऊंगा । अब में एक भी नहीं खुननेका | तुम सब 
लोग यहांसे चले जाओ | मैं स्वयं अब यहां रहूंगा, ओर अपनी 
आँखोंके सामने इसके मुँहमें गोमांस डलवाकर इसे समुसब्मान 
बनाऊ गा; ओर तब फिर इसे कोटके नीचे ढकेलू गा | इतना 
किये बिना में यहांसे उठ नहीं खकता | तुमको देखना न हो, 
तों जाओ, चले जाओ, नमकहंराप्ो कहींके !” बस, क़िलेदारका 
सारा शरीर जल उठा; उस बुक का क्रोध सम्हाले नहीं सम्हल्ा; 
ओर चह एकदम आगे बढ़कर, अत्यन्त क्रोधके कारण टूट दूट- 
कर निकलनेवाले शब्दोंमें कहता है! “द-देखता हूं 'कीै-फैसे 
तू श्से ढकेलता है, किला मेरा है; और आज इस घड़ीतक 
तो मेरा ही अम्ल है। इस अमलमें, जो चाहूंगा, में करूगा। 
. तू कहांसे आया ! देखता हू, तू केसे इसे ढकेलता है! में 
अवश्य, तेरे समान प्रत्यक्ष कालके जबड़ेसे, उसे निकालू'गा | 





देखता हैं, कौन माईका लाल है, जो मेरे सामने इसको ढकेले पर 








< पन्‍कनन>>क्बपनसालकिलपनन पट पथ 


हक 


722 कक 20700: ८९: 7 नह २०: ाइनदा इनक ५० नि 
०“ >थ०._ ३: आकल्टरए आम ४7 हे एक: ५ 









(है ६३ छुटकारा 5 
& ३६३ 22 )_ डुट्करा ६ 
४. 0७८७७ ७७ ल्श्ट््स्लष्जि ८ िडितलण 





थे शब्द बिलकुछ स्वाभाविक रूपमें यहां दिये है, परन्तु वह 
बुड़ा जब इन शब्दोंका उच्चारण कर रहा था, उल समय उसकी 
दशा देखनेयोग्य थो--मानों प्रत्यक्ष जमदझिने ही उसके शरीरमें 
संचार किया हो ! सब छोग उसका वह क्रोध देखकर बिलकुल 
स्तघ होगये। प्रत्येक्ष आदमी विलकुल स्तव्ब रूपसे एक दूखरे- 
की ओर देखता हुआ खड़ा था ; परन्तु सर्जेख़ां, ऐसा जान 
पड़ा कि, बड़े आख्यमें आगया है। परत्तु उसका वह आख्चये 
यहुत जब्द अब क्रोधके स्व॒रूपमें परिणत होगया। यहांतक 
कि चह अत्यन्त चड़फड़ाकर उस बुड्ढेंकी ओर दोडा; ओर 
कहता है, “तू सप्रमता है कि, में तेरी ऐसी धमकी या डांट्से 
डर जाऊंगा ? इस प्रकार यदि हम डर जाते, तो हम्तारा राज्य 
ही यहाँ कभी न छुआ होता । जा, यहांसे चुपके चछा जा। 
और तुध्र समी यहांसे चले जाओ | अब मुक्े पूर्ण विश्वास हो- 
गया कि, तुम सब लोग बलवाइयोंकी तरफ देखी-अनदेखी 
करते हो--यही नहीं, बिक ऐसा जान पड़ता है कि, तुम सब 
भीतरसे उनमें मिले हो | तुम क्या समझते हो कि, यह में नहीं 
जानता कि, राजा शहाजी भी भीतरसे अपने लड़केको मदद दे- 
रहे हैं ? चलो, जाओ !” 

बस! इस अन्तिम कथनसे तो हद होगई। बुड़े के क्रोध- 
की सीमा नहीं रही । उसने कुशा बके हाथकी तलवार छीन- 
कर तड़ाकसे निकाल छी; ओर एकद्म सर्जेख़ांकी ओर भापटा । 
एक क्षणका भी यदि विरूस्व होगया होता, तो सर्जेखां उस 











हा रे 

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७ 4० हुक +4९६ (५ (७१2०० ७ ै॑॑आा< 0  आं 


जद की तलवारके घाद उतर जाता; पर सरदार शिववेवरावने 


आगे बढ़कर उस बुड्ढेको पीछे खींच लिया। कुशाबा इत्यादि 
अन्य छोग सी दोड़ पड़े;।ओर सबने मिलकर बुड़कों रोक 
लिया। उसने बहुत कुछ कहा--“छोड़ो ! छोड़ो ! कौन नमक- 
हराम है, सो में इसे दिखला दूं !'*'जहां राज्य दबानेको मिले, 
वहां उसे दवा बेठनेवाले नम्रकह॒शाम हैं, या विजञातीय खापी- 
की भी अत्यन्त विश्वासपूवक सेवा करनेवाले नमकहराप् हैं, 
सो में इसे दिखा दू' !” परन्तु किलीने उसे छोड़ा नहीं | अवएव 
अब घह उस खाध्ूकी ओर सुड़कर कहता है, “मैया ! अब 
तू बच नहीं सकता। आज कई वर्षों बाद तू दिखाई दिया। 
यह नहीं, कि मैं ने तुझे पहचाना, न हो। सप्रका था कि, छूट 
जायगा''' “किन्तु नहीं। कोई परवा नहीं। खुशीसे श्र ! खत्य- 
के लिये मरेगा, तो तू ज़िन्दा ही है! हम इन बेईमान  लोगोंकी 
नौकरी, मरतेतक सयाईके साथ करते हुए भी अम्तप्रें 
नमकहराम” को पद्वी पाते हैं! ऐसी दशामें हम झछोग सथ- 
पु ही मरे ही हैं! में अब किस लिये यहां खड़ा रह' ? एक 
मा......”आगे उसके मु हसे क्या शब्द निकछे, सो पूरे पूरे 
सुनाई नहीं दिये। सरदार शिवदेवराय और कुशाया, दोनों 
_ ड्खको चहांसे हटा लेगये | ओर वह भी चहांसे अत्यन्त दुःखके 
साथ, परन्तु अब कुछ अपनी इच्छासे ही, चला गया | 

.. इधर सर्जेखांका क्रोध और भी बढ़ गया था। इसलिए 


.. प्रथम निमश्।ययके अजुखार उसने बाबाजीको देहान्त-दुएड देना ही. 











४५ 


छुटकारा... 


बी -प४४ मरी भपीत ९.7. 9 ५: मोचा किए 








स्थिर रखा | उसने निश्चय किया कि, अब इससे कुछ पूछा न 
जावे; ओर एकद्म ढकेल ही दिया जाय । बस, यही सोचकर 
उसमे एकदम दो सुसतदपान खिपाहियोंकों बुछाया; ओर कहा 
कि, “अब ओर कुछ विचार नहीं करना है। अब तुप्त दोनों 
प्रिलकर उसे भागे लाओ;भोर उसके हाथों और पैरोंकी एक ही 
जगह करके एक बार फिर मज़बूत ज़ज्जीरसे बाँध दो। अब 
उसका कोई डर नहीं, जज़ीर ख़ब मोटी ओर भज़बूत छाओ 

ह हुक्म पाते ही दो आदमी जंज़ीर लेने चले गये। अब 
खानके सहित सिफे तीन आदमी ही चहां रह गये | दो मशालयी 
भी थे | रात बिछकुल अधियारी थी। परन्तु उस भयंकर अव- 
घर्का अम्स देखनेके लिए फिर भी वहां अनेक तमाशबीन दूर 
दूर, कुछ डरते हुए, खड़े थे। खरदार साहबके साथ ऊ येहुए 
उनके मुललटप्रान नौकरोंके अधिरिक और कोई इस काममे बारे 
नहीं था। इ्वमेयें वे लोग, जो ज़ञज्ञीर लेने गये थे, एक अच्छी- 
सी भारी ओर मज़बूत ज़ज़ीर ले आये, जिसे देखते ही उन 
घिप्वाहिियोंकी बाबाजीको जकड़नेका हुक्म मिल्ला। दूसरा एक 
मो मनुष्य आगे नहीं हुआ। एक तो वे साू थे ओर फिर 
उसमें भी ब्राह्मण | फिर अनेक छोगोंके परिचित | ऐसी दशामें 
उनकी हृत्यामे जाव-बूककर सहायता देना किस मराठेसे हो- 
सकता था | जिसने लोग दूर दूर खड़े देख रहे थे, सब आपसर्में 
शोक कर रहे थे। परन्तु बेचारे करते ही दया ? उनमेंसे किदने ही 
हैसे भी थे कि, जो आपसमें दांतोंसे होंठ चबा रहे थे; परन्ठु 




















४ उषाकाल 


9 ५७ (2 ४222 88 | 





शक्तिहीन क्रोध वैसा ही है, जेसे क्विया बिना/ चाचा ग््ता | हां 


एक वात जरूर थी कि, यदि सर्जेखां बावा्ञीकों गोमांस खामेक्े 





---.. साथ ही साथ,:उरलको भी क निश्कर अपनी जानसे 
<च्ाश दूर खड़े हुए उस दशंक-सप्राजमें 
>जसे भी देर ही मन निश्चय कर लिया 


था कि, सर्जेखांने यदि कोई भी ऐड है 
किया, तो हम अवश्य ही- इसको 








बा कोड से वचाजसे क्या मतरूब था १ उसका है 
तो तात्पयें इतना ही था. हद 
जाय, तब तो ठीक ही है, अन्यथा यह कोई ज़बरदरूत आसामी नै 
ज़रूर है | ऐसी दशामें उन बौगियोंके गिरोहसे इसे नछ्ठ कर देवा... 
ही लाभदायक होगा। इस प्रकारका सारा विचार जब वह. 5 
कर खका, तब फिर ओर कोन बात उसे सूक सकती थी ?दो 
चार सिपाही जो आगे थे, उन्हींकी उसने बाबाजीके हाथ पेर 
जकड़ देनेका हुक्म दिया । बाबाजी बिलकुल शान्त थे । ज्ञाम 
पड़ता था कि, उन्होंने उस समय इस बातका निश्चय कर लिया 
था कि, अशान्ति किसो प्रकारसे नहीं दिखलावेंगे। वे अपने ह 

- डपास्यदेव ओर श्रीगुरुजीका स्मरण बराबर कर रहे थे-यह 
बात उनके हिलते हुए होंठोंसे दिखाई पड़ रहो थी। परन्तु... 
होंठोंके बाहर एक शब्द भी खुनाई नहीं पड़ता था । 

















जम ०७ 





ज 







है, तेरे मन्दिफव मे मीब्जड़केनंमब्बछात गा । कप्ती नहीं 


फिर भी बाबारजकि मुंहसे एक शत बह नहीं 'निकछा। हां, 
लिर्फा इतना अवश्य दिखाई दिया कि, उनके नेत्रोंसे कुछ 
आंलसे निऊकछ रहे हैं। पर््तु सर्जेल्ाँको ये भी दिखाई नहीं 
दिये। दिखाई देते लोबापयद उल्ले-कुछ आशा उत्पन्न होती 
ह्डक हु 


_मुलतवी भी कर दिया होता, 













षकछ नहीं हुआ। उलसने 
| हृम्नारो श्रमकी अथवा 





जाने दी सालेको फेंक दो !” कहकर हुक्म दिया। 

खत इतनेगें कोटके वीचेच्ी ओरसे--कुर्ठ खण्मरानेज्ञीसी 
आवाज़ आई, जिसे खुबकर ख़ानके सिपाही कहते ६€-- यह 
क्या ? यह कया 7” परन्तु देखते हैं, तो वहां कुछ नहीं है ' 








सर्जेखाने उतको दो-चार अश्छोछ गालियां खुनाकर फिर उन्हें 


बही हकम दिया। इसनेमें पोछेकी ओरसे एकदम बड़ा सारी 
गुरलुगपाड़ा ओर कोछाहुुला कानोंमें छखुबाई रिया । सब लोग 
पीछे मुडकूर देखते हैं, वो घुड़लालके पाल घालका जो बड़ा- 
भारी गग् था, उसमें एकदम खूब ज़ोरझों आग छंगी हुई है 








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[ध्रीण मत गमा 


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4 उषाकाल ! 
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5३ 3६८ ८) । 


और शुड़सालके आसपास जो छप्पर या, घह सी आगसे उछ 
रहा है। यही नहीं, बढिक किड्केके नीचे परशेलके घरतें तथा 
उसके घासके ज़ज्जोरेगं ओर आधपालकी अन्य दस-पांच कोंप- 
ड़ियोंमें भारी आग ऊग रही है | जब ऐसा मोका उपस्थित हो 
गया, तब तशशबीनोमेंसे तो कोई भो आदमी वहां, वाबाजीकी 

धक्रिया देखनेके लिए, खड़ा नहीं रह गया, सब उस आशगकफकी 
ओर दौड़े । इसमेमें एक और प्रकरण उपस्थित गा--अर्थात्‌ 
सरदार सजजेंसा क़िलेके जिस भागमें ठह॒प था, उसमें भो जाग 


'. छगी। इस प्रकार जब सभी मार्केके स्थानोंमें आग रूग गई, 





ओर हवाके वेगसे यह फौलने भी रूगी, तब फिर कया पूछना 

है? जिसको देखो, वही उसी ओरको दोड़ा चला जारहा है। 
घुड़लाऊके पास पानीके कुछ कुड थे,उनसे आग बुकानेका बहुत... 
कुछ भ्यत्न शुरू हुआ, पर हवाकी मारके आगे पानीकी मार क्या... 
काम कर सकती थी ? आगका खरूप बहुत ही विछ॒क्षण दिखाई. * 
दिया | नीचेकी बस्तीमें भी वही दशा हुई। चारों ओर हाहाकार क्‍ 
मच गया। कोई क्िसीकी नहीं सुनता था। उस सप्य आज्ञ- 
कलकी तरह पइरा-बोकी इत्यादि बहुत कड़ी वहीं थी । यही 

नहीं, बहिक्ि किलोंकी पररेद्ारोमें तो बहुत कुछ अंधाधुंधी चला 

करती थी। इसलिए किसी पहरेपर कहीं कोई लियाहो इत्यादि 

नहीं रहा, सबझोग जश्दोसे जउ्दो, कुछ तो गोले बघ्वोग्रें, और 

कुछ ऊपर क़िलेपर, आगकी मौज देखनेकों चड़े गये। सब 
_ दरवाजे जसेके तेसे खुले पड़े रहे। ऐली दशा जब बड़े दरवाजों- 









8 ३६६ ८2 छुटकारा £ 


न 
0०७ ७ 2 मु सूजन 


वन नकपम५+७,. (2: 


ध्ब्कू जि बट ा+ वि 


की हुई, तब क़िल्ेके पीछेझछी क्या अवस्था हुई होगी, सो 
वाइकर्ाण खर्य हो सोच सझते हैं । भाग छगमैझा जित समय 
दया, उस समय ख्ं ण्रां, उसके दो-चार हसरूत कक; 
ओर वाबाओ--बख, यही द्ो-ार छोग कोटके पाक थे [ इृद् 
आगका गोलमाल मयते अस्मी देर नहीं हुई थी.और सर्डुजां तथा 
उसके आदमियोंका ध्यान अम्ी उसी ओर गया ही था कि,इतनेमें 
कोयके बीचेकी ओरसे, बिलकुल निकट ही, मशालेंसी जरूती 
हुई एकदम दिखाई पड़ीं; ओर रूगम्ग पद्चीस आदमी उसी ओर- 
से एकदम, जर्दी जददीसे, ऊपर चढ़ते हुए. दिखाई दिये। अब 
खांसाहबका ध्यान आगकोी ओरसे हटकर, बेतालगणके दीपकों- 
का भांति जछूती हुई, उन मशादोंकी ओर आकर्षित इआ 
ओर एकदम वे कहते हैं-- “ तोबा ! तोबा ! यह क्‍या ? यह 
क्या ; उनके मुखसे ये शब्द निकलते अमो देर नहीं हुई थी 
कि, वे आदमी एकदम ऊपर आगये; और उनमेंसे चार आदमि- 
योंने--आदमियोंके रुपमें उन्हीं वैतालोंने--खांसाइवको यारें- 
ओरसे घेर लिया। दूसरे दो-तीन मुखत्मान, जो खांसाहबके 
सिपाही थे, बिह्छानेहीवाले थे कि,उनके मु हमें 


इरादा 


कु 
कीशांन्न 
८5 श्नूं 
धो ५; प्‌ 


दिये गये; ओर उनके हाथपैर बांध दिये गये | इसके बाद बहुत 
जरू चार-पांच आदमियोंने मिलकर वाबाजीकी ज़जीर खोलद 
ओर हथकड़ी बेड़ी काटना भारण्य किया | किलेके ऊपर और नीचे 
आग लग ही रही थी; ओर उसीके बुफानेमें सब लोग फँसे थे, 
इसलिए पिछली ओरसे धावा करनेवाले उन लागोंको इस 


५ 








हर महादेव | जय भवानी माताकी !” इत्यादि शब्दोंकों सबने 


(6 उषाकाल कै 


| ०९३८ (०१2/क 





बातका कोई संशय नहीं था कि, बस्ती या क़िलेके अन्य लोग, 
कोई दौड़कर हमारे पास आवेंगे; और हमारे कार्यमें बाचा 
डाऊे गे | किन्तु, इसके विरुद्ध, उनको इस बातका पूरा विश्वाल 
था कि, हम्नको जो कुछ कार्य कणप्ता है, सो बिलकुल ठोक ठोड 
ओर निर्विप्चरुपसे ही कर सकी | बस, इसो पके विश्वाससे 
वे निर्मेयतापूयक अपना काम कर रहे थे। उन्होंने सावक्राश, 
बाबाजीको अणुप्रात्र भो तक़छीफ़ न देते हुए, उनके हाथों 
और पैरोंकी बेड़ियां काटनेका उद्योग प्रारम्त किया; परन्तु घुँह- 
से एक अक्षर सी उच्चारण नहीं क्िया। आये वे इतने खुपकेसे 

जैसे प्चाल-साठ चहे जब्दों जल्दीसे किसो परवेतपर चढ़ 
आवे--बस, ऐखा हो उनका आना मालूम छुआ ! उन्होंने जि 
उद्योगक्का प्रासम्म किया था, उसे पूर्ण कर लिया। बावाजोडफो 


मुक्त किया | चार-पांच जनोंने उन्हें उठाया; ओर फिर उनके 


आगे साड्टग नप्रस्झार किया | यह सब घटना देख ऋर बाबाजों 
इतने अवस्मित होगये कि, उनको एक्क अक्षर निकालनेका भो 
भाग नहीं रहा | वे यह सारी छोछा रूवब्य होकर देखते रहे। 
अएतु | बाबाजीके मुझ होते हो सब छोगने उनके चरणोकी 
बन्द्‌ना की; ओर फिए एक ज़बरइत्त आदपीने उनको अपने 
कन्थेपर चढ़ावा, तथा दो ओर आदमी सखंरक्षणार्थ उनके साथ 
होलिये। इस. प्रकार तीन आदमी, बातकी बयातमैं, जिल 
मार्गेसे आये थे, उली मार्गसे उतरे; ओर इसझे साथ. ही “ हर 






[ / 








4 छुटकारा... है 


मिलकर घोषणा की। जो लोग शेष रह गये, उन्होंने समेखांको 
कोटपरसे ढकेलनेका विचार शुरू किया। सज्ेंखां पहलेहीसे 
जानता था कि, अब मेरा कुशल नहीं हैे। उसने सोचा कि, 
मेरे हाथका शिकार इन पहाड़ी चूहोंने एक विचित्र तरहसे 
उड्डा लिया; अब ये मुझे क्‍या जीता छोड़े गे ! अवश्य दही यह 
आशा अब उसे नहीं रही थो; परन्तु जीवनकी आशा भी एऋ 
बड़ी ज़बरदस्त आशा होती है। जबतक शरीरमें प्राण मोजूद हैं, 
तबतक आशा किसो प्रक्कर भो नहों जाती | “जवतकर रुवासा, 
तबतक आसा '”के न्यायसे सर्जेखांने सी सोचा कि, शायद 
मेरे घुड़की-घमकी दिखलानेसे--अथवा कमसे कम हाथपैर 
जोड़कर चिरियां-बिनती करनेसे ही--ये मु छोड़ दें ! अस्तु । 

. उन छोगोंने ज्यों ही देखा कि, वाबाजी अब नीचे बहुत दूर- 
तक निकल गये, तब उन्होंने सर्जेल्लांको उसकी जगहसे उठाया; 
ओर एकदम यह कहकर कि, “ तू ब्राह्मण साधघुको खता रहा 
था, अब तुरूको नोवे डालते हैं, छोड़ते नहीं ।” उसको 
विछकुछ कोटके किनारेपर लेगये | परन्तु इतनेमें वह बहुत 
लाचारो दिखलाकर विरिया-विनती कप्ने रुगा, तब उन छलोगों- 
मेंते एक तेजस्वी तरुण पुरुष आगे आया; ओर एकदम उन 
लोगोंसे बोला, “ गाफ़िल आदुमीको पकड़कर उसका वध 
करना हिन्दुओंका व्रत नहीं है। जा, तुकको ज्ञीवनदान दिया 
जाता है। लेकिन अगर फिर कहीं, रूड़ाईमें, इनमेंसे किघीको 
तलवारके सामने तू आगवा, तो जीता नहीं बच्चेगा, यह अच्छी 

२६ 











4 जपाकारू, कै द 
तरह समझ छे ! ” उस पुरुषके सुखसे इन शब्दोंके निकलते ही 
वे लोग, जो सर्जेब्ांकों कोटके किनारेपर ले गये थे, उसे पीछे 
हटा छाये | इसफे बाद उसके हाथ-पेर उन्होंने उसी ज़जीरसे 
जकड़ दिये, जिससे बाबाजीके जकड़े हुए थे | इसके ब द फिर 
वे सब एक बार “हर हर महादेव ! भवानी माताकी जय !” का 
घोष करते हुए, जिस मार्गसे आये थे, उसी मार्गसे चले गये | 


इम्यरवाा;2 धक्का कयफा25१७ 


. उन्तासिवां परिच्छेद । 
“+औि०-+--- 
क्‍ इधर क्या और उधर क्या ? द 
 श्रीधर खामीको जबकि वे छोग इस प्रकार छुड़ा रहे थे, 
उधर घुड़सालकी ओर एक और ही कोलाहरू च रहा थ ॥; ओर 
उधर जितना कोलाहल मच रहा था, उतनो ही इधरके हमारे 
आागन्तुक छोगोंको और भी सुविधा होरही थी। थे अपना काये 
बिलकुल निर्विन्न रूपसे पूरा कर छेगये। उस किलेपरसे नीचे 


ढकेलकर किसी खाघधुकों बध किया जाबे, यह क़िलेके एक. 
व्यक्तिको भी अच्छा नहीं लग रहा था; परन्तु सत्ताके आगे 


-विवेकका क्‍या काम ? अथवा यों कहिये कि, कोई भी सदुगुण 
सत्ताके सामने नहीं चछता, और यही बात आखिरमें सच 


निकली । प्रत्येक अपने भनही मन डरता रहा । बादशाहने 


. चास्तवमें शिवदेवरावको ही सुख्यत: इधर भेजा था कि, तुप्त 
























>> लक 23 (६ रपर क्या और उघर क्या क्या ओर उधर क्या ) 


वैदिक 





जाकर यह देखो कि, “राजा शहाजीकी नष्ट सम्तान” ने उचर 
क्या गोलमाल मचा रखा है; ओर सर्जे खांकों उसने सिफे इसी 
एक वाह्य उद्द श्यसे भेजा था कि, मराठे सरदारक्क साथ साथ 
एक मुसत्मान भाई भी रहना चाहिए। शिवदेवरावको वास्तव- 
में सुरार जगदेवरावका बड़ा भारी सहारा था; क्योंकि झुरार 
साहेब ही उस समय अधिकांशमें बीजापुरके प्रति-बादशाह 
अथांत्‌ राज्यके कत्ता-धर्ता थे। परन्तु अपनी ज्ञातिकी बात ही 
भिन्न होती है; ओर सोई हुआ सर्जेखां शिवदेवरावका मातहत 
बनाकर भेजा गया था, पर बन गया मुखिया! वह शिवदेव- 
रावकी बात ही न पूछने छगा; ओर जो मनमें अन्या, वही 
करने लगा। इधर शिवदेवरावको यह साहस न हुआ कि, 
फर्टकारकर उससे कह देते कि,“ज्मे कुछ हमारे मनमें आयगा,सो 
करेंगे, तुम चुपके देखो ।” क्योंकि वे डरते थे कि, कहीं सजें खां 
जाकर हमारी | शकायत न कर दे, जो बादशाह व्यर्थंके लिये 
हमपर नाराज़ हो जाय | यदि कहीं जाकर उसने हमारी शिकायत 
कर दी, तो हम क्या कर लेंगे ? बस, बात यही थी। वास्तवमें 
सर्जे खां जबसे श्रीधर स्वामीको उस मन्दिरिसे क़ैद कर लाया, 
तबसे; ओर जबतक वह उन्हें कोटपरसे ढकेलकर मार डाल- 
नेको तैयार हुआ, तबतक बराकर उसने किसी वातमें भी 
शिवदेवरावकी एक भी नहीं चलने दी; ओर फिर उसमें भी 
दिल्लगी यह कि, क्िलेदार साहब उसके सामने हाथ-पैर जोड़ते 
रहें,उसपर अपना अधिकार भी जताधा:ओर कहा कि,बाबाज्ञीको 








उनमन अन»कनननन- ने 
*» आंख 4७४ हि 
208 ५ देश 
| इचाकाऊल ! 
री ७. हक 
8024] 3) (५३ 
९ लक पट] 
शक “7722 ३३० अब > 


छोड़ दो, सब प्रकारसे उन्होंने सजे खांको समझाया-बुकाया 

फिर भी उसने नहीं सुनी । तब उस बेचारे ( क़िलेदार ) ने यह 
सोचकर अपने मनको सममकाया कि, “अब क्या किया जाय, 
बाबाजीको छुड़ानेके लिये ओर अधिक ज़ोर यदि हम देते है , 

तो द्रबारमें मानो यह संशय सबके मनमें ओर पैदा करनेका 
मोका देते हैं कि, हम इन बागी लोगोंकी प्रत्यक्ष रूपसे सहायता 
कर. रहे हैं। इसके सिवाय, हमने पहलेहीसे कुछ बातोंमें 
इसके मनके अनुसार कार्य नहीं किया है, सो यह ओर नाराज़ 
होगया है। इसलिये अब देखना चाहिये कि, उसका क्‍या 
परिणाम होता है; ओर क्‍या नहीं 7... 

अष्तु। इस प्रकारकी सारी परिस्थिति उस सम्रय उप- 

स्थित थी। इसके सिवाय यह विचार भी उस समय सबके 
मनको दुःख देरहा था कि, हमारे किलेपरसे आज प्रत्यक्षतया 
एक ब्राह्मण साथुकी व्यर्थमें हत्या होरही है, और उसमें भी 

दूसरी ओर भयंकर आग लग रही थी। यही कारण था कि, 
सजे खांके ज़ोर ज़ोरसे विल्लाकर बुलानेपर भी उपर्युक्त तमाश- 

बीनोंमेंसे किसीने उसकी ओर ध्याव नहीं दिया; ओर सब 
आगकी ओर ही दोड़ पड़े । आगकी ओर दोड़नेके बाद पीछे 
.. इधर क्या हुआ, सो पाठकोंको मालूम ही है। सजे खां ज़ंज़ीरसे 
जकड़ दिया गया; ओर उसके साथी सिपाहियोंके मुँहमें ग्‌'जा 
ठूसकर उनके भी हाथ-पैर बांध दिये गये। ऐसी दशामें वे सभी 
छटंपटाते हुए पड़े थे। सजे खांका वह शक्तिहीन क्रोध तो 

















॥ 3०५ 2, इधर क्या आर उधर क्या, 

“कक --दगे ८२-९० च्च्य््य््च्स्स्स्ल्तबा 
उस समय देखनेहीयोग्य था। पहलेपहल, जब बैतालवृन्दकी 
वे मशालें! उसको एऋणक दिखाई दीं; और फिर जब वे 
बिछकुछ उसके पास ही पास आने रूगीं, तब तो पहलेपहलऊ 
बहुत देरतक उले यही नहीं माल्प हुआ कि यह बला क्या 
है ? उसके विषयमें कुछ विचार उसके मनमें आनेहीवाला था 
कि, इतनेमें उधर आग लगनेका गोलमाल मच उठा; और 
उसी ओर उसका ध्यान चला गया । इसके बाद फिर बह 
उधरसे अपने सामनेके . कार्यकी ओर ध्यान देता , किन्तु 
बैतालोंकी मशाले' बिलकुल नज़दीक ही आगई'; ओर उसके 
सिपाहियोंकों वहीं जमीनमें छुड़काकर रूचयं उसको भी चार्रों- 
ओरसे घेर लिया | यह सब घटना इतनो शोश्रतापूर्यक हुई कि, 
उस बेचारेकी यह सोचमेतकका अवसर नहीं मिला कि, यह 
हुआ क्या--ओर केसे ? अस्तु। फिर--हमारे चक्वरमें मत 
आना--इस प्रकारकी धमकी देकर वे लोग वातकी वच्त्तमें 
वहांसे ग़ायब होगये ; ओर तब कहीं उस वेचारेको, अपंग- 
अवस्थामें पड़े हुए, उन बातोंके विषयमें विचार करनेका अब- 
खर मिला कि, जो उस सम्रय हुई थीं। इधर किलेपरके छोगोंने 
भी, ऐसा जान पड़ा कि, शीघ्रतांपूबंक उसकी ओर आनेकी 
विशेष आत्॒रता नहीं दिखछाई। बात यह थो कि, उनका 
खारा ध्यान उस मयंकूर रूपसे भमकनेवाली आगकी ओर लगा 
था। आग लगी कैेघे! ओर वह एकदम नीजेकी बस्ती 

. ओर ऊपर क़िलेपर-दोनों जगह एक ही सम्रयमैं केले भड़क 

















|  जवाझाल 





उठी ? इस बातका किसीको पता नहीं चला । आग भड़की 
भी, सो कुछ एक जगह नहीं भड़की । चुड़सालके आसपास 
>कदम चारों ओरसे भड़की । बास्तवमें यह घटना हुई कैसे ? 
बस, इसी बातपर सिपाही लोग अचस्णा करते रहे | अभी लड़ती- 
अगड़ती हुई जो घसियारिन ऊपर आई थी, डसीका तो यह 
ऊम नहीं है ? यह विचार सिर्फ एक ही व्यक्तिके मनमें आया; 
और बल, तुरन्त ही बह उसका पता लगाने लगा। पर उस 
गड़बड़में उसका कहां पता रूगता है? इसके सिचाय, उस 
भयंकर गोल्माऊमें ऐसे खेद व्यक्तिका अधिक पता भी 

लगाता है? जो हो, सच्चा कारण कोई बतऊा नहीं सका । 
लोगोंने अपनी ओरसे 'हूव परिश्रम किया; और ज्यों-त्यों करके 
आग बुकानेका अयल्न किया, पर उसमें सफलता पाप करनेमें 
उन्हें बहुतला वक्त लगा। कुछ ज्ञानवर जल गये; पर उस 
समयकी उस हवासे जितना चुकसान होना चाहिये था, उतना 
नहीं हुआ। परमात्माने कृपा की ! परन्छु उस आगके बुफाने 
इत्यादिमें लगभग पहर-डेड्रपहर छूग गया। अब लोगोंको याद 
आई कि, उधर बाबाज़ी कोटपरसे गिराये जानेवाले थे। परन्तु 
जाथ हो उन्होंने सोचा रि, सर्जेखां अबतक कभीका अपना 
वह घोर कर्म करके अपने बेंगलेमें आगया होगा | इधर 
' किलेदार जाहब आगकी उस भीषणताके समयमें भी बाहर 
इधर-उधर कहीं दिखाई नहीं दिये। उस बुड्ढने ज्यों ही देखा 
कि, बाबाजोको छुड़ानेका उसका प्रयत्न व्यर्थ गया, त्यों ही. 


अर] “अाशाबारनभा>मन+«५००- ००००० हल 702: 



































0९ ५99 


कु धर क्या ओर उधर क्या टँ 
ल्किलिजी--0- थे 


कहाफ्क+गाएपयत२रध्कशनम+नकाकनन-्रपमधर्यपकबकम१५४फक "रद जरे काना ०- सा 


वह अत्यन्त दुःखी होकर वहांसे चल दिया। वह अपने महल- 
में जाकर अपने पलड़पर पड़ रहा। डसका चित्त बहुत 
ही अशान्त होगया था। इसलिये वह बराबर तड़फड़ाता हुआ; 
ओर छम्बी सांखें भरता हुआ पड़ा रहा। क़िलेके विषयमें 
उत्तरदायित्व उसीपर था; परन्तु फिए भी, ऐसा जान पड़ा कि, 
उस भयंकर आगको उसने कोई भी महत्व नहीं दिया। हाँ, 
उसने अपने आदमी कुशाबासे उसके विषयमें कहकर आग बुफाने- 
का खारा प्रबन्ध उसीके सिपुदे कर दिया था; और आप स्वयं, 
जेसाकि अभी बतलाया, अपने निजञ्जी कमरेमें जाकर अपने 
पलकुपर पड़ रहा था। बह वहां पड़ा था सही; किन्तु उसका 
साश चित्त उसी कोटकी ओर था, जहां वे दुष्ट बाबाजीको 
ढेकेलनेके लिए छेगये थे। कहीं कुछ खथ्का होता, अथवा 
कोई आवाज होती; तो बस, उसे यही खयाल हो आता कि, 
अब बाबाजी नीखे गिराये गये, उन्हींकी यह आवाज है-- 
वही नीचे गिरते हुए चिल्ला रहे हैं, उन्हींकी यह सुत्यु-लमयकी 
चिब्लाहट है, जिसको में झुन रहा हूं। बस, जहां ऐसा 
खयाल किलेदार साहबको होआता, वहीं वे बिलकुल सॉचक से 
होजाते थे। उनकी यही दशा थोड़ी देश्तक रही, परच्तु 
फिर एकवार उनसे रहा ही नहीं गया; ओर वे उठकर एकदम 
उसी ओर चल दिये | जिस समय वे अपने कमरेसे उधरको 
ओर चछे, उस समय आगका उपद्रव कुछ कम नहीं हुआ था। 
उनके मनमें शायद्‌ उस समय यह सी आया कि, अब यदि हम 





















तुरन्त हो 
शायद उन्होंने यह भी सोचा कि, चलो एक दफा प्रयत्न करे 
ओर देखे', शायद्‌ अभी बाबाजीको 'कड़ेलोट' न किया हो | बस, 
यही सोचकर उन्होंने अपनी तरूवार डठाई | तुरन्त ही अपनी 
कमर बांधी । उस अवस्थामें वह वृद्ध अत्यन्त ऋर दिखाई पड़ने 
छगा। ऐसा जान पड़ा कि, मानो उसके बुढु पनने इस सप्तय 
उसको बिलकुल ही छोड़ दिया हो, उसके शरीरमें मानो अब 
युवावद्याका जोश आगया हो। आगे-पीछे वह कुछ भी न देखते 
हुए, जल्दी जल्दी कदम बढ़ाते हुए, उसी कोटकी ओर चला । 
वह बार बार अपनी तलवारकी मूठ मज़बूतीसे पकड़ता; और 
दूसरा हाथ स्थानकों पकड़नेके लिए आगे क्ढाता। इससे यह 
स्पष्ट मालूम होता था कि, उसके मनमें रह रहकर शायद्‌ यह 
विचार भी आरहा था कि, “ मौका आजायगा, तो अब तल- 
चारके उपयोगसे भी अपना काम निकाले गे |” विचार कोई भी 
आरहे हों--उन्हीं विचारोंके जोशमें वह उस सह्मयय उस कड़े छोट 
करनेकी जगहकी थओर जारहां था! बेचारा कदम क़द्मपर 
यह सोचते हुए ठिठक जाता कि, किसीकी चिह्छाहट तो खुनाई 
नहीं देरही है? अब किसोके रोनेकौ आवाज़ तो नहीं आरही 
हे ? बीच बीचमें, हमारे हमेशाके पुकारनेके नाम को लेकर, कोई 
. करुण खरसे पुकार तो नहीं रहा है ? बस, इसी प्रकारकी बातें 
. मनमें ला छाकर वह बोच बीचमें ठिठकता जाता था| उसकी 
उस समयकी हालतंसे यह भी मालूम हुआ कि, उसको इस... 















श् ४०६ १2 (घर क्या आर उधर क्या 2, 
व्यशी० ० ध्यध(२०- भू ०७-०० 8 ८ पा मिलड 

बातकी वड़ी उत्कंठा थी कि, उसको उस हालतमें कोई देखने 
न पाये | ज्यों ज्यों वह बधस्थरहकी ओर बढ़ता गया, त्यों 
त्यों और मी उत्सुकताके साथ. आहद लेने रूमा; पर कुछ 
सुनाई नहीं दिया | तब--“ होगया, जान पड़ता है, वेईमानोंने 
ढकेल दिया | हाथ, हाय “जिस तरह में '* *“'डसी जगहसे 
मेरे मेरे उसके भा “देखते “उसका कडे लोट 
हो, और मैं कुछ न कर सकू' | अरे खसट, तेरे इस सारे बुढ़ापे - 
को आग नहों ठग गई ?”? --इस प्रकारसे कुछ गुनगुनाता 
और फिर आगे चछता | उधर आगकी ओर इतना कोलाहल 
मच रहा था; पर उसका ध्यान उसकी ओर बिलकुल नहीं था। 
सारा तनमन उसका उसी बधस्थलूकी ओर था। अस्तु। 
इस प्रकार कुछ देर बाद वह उस कोटके बिलकुल पास पहुँच 
गया, ठो क्‍या देखता है कि, सर्ज खां पड़ा हुआ छटपटा रहा है, 
उसके हाथ-पैर जंज़ीरसे बिलकुल जकड़े हुए हैं, जिनको क्रोधमें 
आकर वह पटक रहा है, ओर “या अछा ! विस्मिल्ला |” करके 
ज़ोर ज़ोस्से बिलख रहा है! कहां तो वह दूसरी आवाज़ोंके 
सुननेकी अपेक्षा करता छुआ आरहा था; पर यहां उल्टे 
सर्जेखांका विलखनामात्र उसके कानोंमें पड़ा। “यह क्‍या 
गोलमार हआ ?” सोचकर क़िलैदार साहब स्वाभाविक हो 
थोड़ी देश्के लिये वहीं ठिठक गये। सर्जेखाँको आवाज़ तो उन्होंने 
पहचानी: पर यह उनकी समभमें नहीं आया कि सर्जेखांके 








इस प्रकार बिछखनेका कारण क्या है? ओर यह बात क्‍या 














हर, कर ७ ०४ 75 हट . ् 





५ 3१० ४) 


०३५४० २क- 
हुई ? जो हो, वे अपनी तलवार बढ़ाकर ओर भी आगे चल्े | 
रात उज्ेली न होनेके कारण उन्हें अच्छी तरह कुछ दिखाई 
नहीं देता था---फिर उनकी दृष्टि भी बुढ़ापेके कारण कुछ 
भनन्‍्द्‌ थी, इसलिए जो कुछ थोड़ा बहुत दिखता भी था, उससे 
उठ बहुत छात्र नहीं होता था। बहुत देर जब इचर- 
उधर धृम्कर उन्होंने देखा, तब उन्हें इतना स्पष्ट दिखाई 
दिया कि, सर्जेखांके मनके अनुसार होना तो एक ओर रहा, 
उलदे उसीको किखीने ज जीरोंसे जकड़कर डाहू दिया है। 
क़िलेदारकों यह कैसे मालूम हुआ कि, सर्मेखांके मनके अनुसार 
कार्य नहीं हुआ ? खय॑ सर्ज खांके उद्गार ही उपयु क्त बातकों 


प्रकट कर रहे थे; क्योंकि उस समय वह यही बड़बड़ा रहा था. 


कि, “अरे दुश्मन | इस सम्रय तो तुककों छुड़ा छेगये, पर अब 
सर्जेज़ांसे मुक़ाबिला है !? “तुऋको इस समय छुड़ा लेगये |” 
इन शब्दोंके खुनते ही क़िलेदार साहबको जो आनन्द हुआ,उसका 
वर्णन नहीं किया जासकता । उनका चेहरा एकदम प्रफुछित 
होडउठा। अच्छा | तो डसे वे छुड़ा लेगये ? चह छूट गया !” 
पहलेपहल तो उन्हें यह सच भी नहीं जान पड़ा। परन्तु इस बात 
की सत्यताका प्रत्यक्ष प्रमाण उनके सामने ही मोजूद था। जिन 
ज़ञज़ीरोंसे बाबाजी जकड़े हुए . थे, उन्हीं ज़'ज़ीरोंसे बँचा हुआ 
.. सर्ज स़नां तड़फड़ा रहा है; और उसके साथके सिपाही भी हाथों- 
.. पैरोंसे बंधे हुए पड़े हैं; ओर उनके मु हमें घासके यू'जे ठूखे हुए 
..._ है! इससे अधिक और प्रत्यक्ष प्र 









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माण क्या याहिए ? वह 


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५ . /#*॥ इचर वया आर उधर क्या 


साययाारलपापकरपतंकादादतााकाध्यााधाा(ापतापयाप्धपघ १९ यपसतग ५०7 जधताउतापकनटभारबमपपभाका 


सारी दशा जब पूर्ण रूपसे क्िलेदारके ध्यानमें आगई, तब उनके 
पनर्मे यह प्रश्ष उपस्थित हुआ कि, अब आगे क्‍या करवा चाहिए ! 
पहला विचार अवश्य ही उनके मनमें यह आया कि, जबतक 
और कोई आदमी आकर देख न छें, तबतक इस बदमाशको 
छेखा ही पड़ा हुआ, तड़फड़ाते हुए, छुड़कने क्‍यों न दें ओर 
हम यहांसे चले जावें ! किन्तु दृद्धावस्थामें इस प्रारके उप- 
द्रवपूर्ण और निर्देययुक्त विचार बहुत थोड़ी देर मनमें टिकते 
है। वही हाल किलेदारका भी इस समय हुआ । उन्होंने सोचा 
कि, जो भय था, सो तो निकल गया, अब हमें अपने कतेव्यपर 
ही आरूढ होना चाहिए। यह विचार उनके मनमें आया; ओर 
इसीकी विजय भी हुई। ख़ानके पाल जाकर उन्होंने पूछा, 
“ग्रह क्‍या हुआ? यह कौनसी विचित्र घटना हुई १” स्वाभाविक 
ही ख़ानको इन प्रश्नोंसे, झत्युसे भी ज़ुयादा दुःख छुआ। 
उसने दाँतोसे होंठ चबाते हुए अपना दृथा त्वेष भी दिखिलाया। 
उस समय डसके मुखसे जो शब्द्‌ निकले, वे ये थेः-- ठुम सभी 
हरामखोर हो | क्‍या तुम समझते हो कि, में कुछ जानता नहीं 
जद्दी हमारे हाथपैर छुड़वाओ, में सब बतलाता हूँ ; इस हराम- 
खोरीका भी कुछ ठिकाना है! नमकहराम ! नमकहराम : 
हमारा ही नमक खाकर हमारी ही जान छेना चाहते हो? 
इन सब बलवाश्योंसे तुम मिले हो ! लब छोग उनमें शामिल है ! 
क्या मैं जानता नहीं? पहलेसे उनको बुलाकर यहां बैठा 

किसने रखा ? आगका निमिस किसने किया ? ऐन मोकेपर 


4 उचाकाल है 








-सचखयाताण। ++३०-३५७० &४क- 
यहांसे भग. केसे गये १” इस प्रकार बराबर उसकी 


बक-फक जारी रही। वह भलीभांति जानता था कि, 
हम इस दशामें भी चाहे जितनी हृदयबेधक बातें इनको कह 
लेंगे, फिर भी प्रत्यक्षरूपसे हमारे साथ कोई अत्याचार करनेकी 
इनमें शक्ति नहीं है; ओर यदि शक्ति भी हो, तो इनको उसका 
साहस नहीं होसकता | ऊफ़िलेदार साहब विशेषतः अपने इसी 
आनन्‍्दमें थे कि, जो कुछ वे चाहते थे, सो अचानक आप 
ही आप होचुका था। इसलिए उन्होंने सर्जेखांकी उन 
वातोंकी ओर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया; ओर ज़ोर ज़ोस्से दूसरे 
आदमियोंको पुकारकर, किसी न किसी तरह, एक बार उसको 
उस बन्धनसे मुक्त किया। बन्धन-मुक्त होते ही सर्जखांका वह 
क्रोध ओर भी भयंकर रूपसे भड़का, तथा वह और भी तेज़ोके 


साथ बक-फक करने छगा। उस समय उसको उचित था कि, 
वह इस बातकी पहले जांच करता कि, आग कैसे रूगी--सो 
एक ओर रहा, पहले हनुमानजीका मन्दिर ही गिरवा देनेकी 


बात उसने निकाली। शिवदेवराव ओर क़िलेदार, दोनों ही 
उसका विरोध करने लंगे। फिर क्या कहना है? वह और भी 


अधिक बमका ! परन्तु कर क्या सकता था ? हनुमानजीका वह द 


मन्द्रि एक अत्यन्त प्राचीन मन्दिर था--कोई भी समझदार 
हिन्दू, जिसमें कुछ भी. हिन्दुत्वका अभिमान होगा, उस 
मन्दिरको गिरानेका अजुमोदन नहीं कर सकता था। सर्जेंखां 


केवल अपनी इच्छासे उसे गिरवा सकता था; पर उसे यह हे 














(है 'छ) (कदधर क्या ओर उधर क्या 
के हे ० & है के सकयाक- "न>-सक र०+--/पाकीगइ काम अम्यान+नयवोकेाजक-%७७०३५४०१- “अाछाना३आअम्क 'व्कलपसअन 
नॉॉिीका तक कर न्िदीतअपप् आय इस 22 06 


अच्छी तरह माद्धप था कि, इस बातमें हमारी एक भी नहीं 
चल सकती । मन्दिस्‍्की वात आपडुनेपर शिवदेवराव ओर 
किलेदार एक होकर हमको अवश्य हो नीचा दिखावेंगे; और 
यह बात हमारे लिए ठीक नहीं। सर्जेखां एक बड़ा होशि- 
यार और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ था। इसलिए खब वार्तापर 
खयाल दोडाकर अन्‍न्तमें उसने यह विचार किया कि, पहले यह 
जो घटना हुई है, उसीको, और नम्रक-मि्चे मिलाकर, हुज़ूरके 
सामने पेश करना चाहिए | इसके बाद फिर एक सेन्यद्र लेकर 
हम इस प्रान्तमें आवें; ओर इन सबकी खूब ख़बर के.। यह 
सोचकर वह शिवदेवरशवको छेकर किलेसे चल दिया। इस 
पत्द्ह दिनमें ही हम इनको नीचा दिखाबेंगे, ऐसी आशा करके 
सर्जेखाने वहांसे क्ूच किया | अस्तु | हमको सज ख़ां, क्रिलेदार; 
और क़िलेको भी वहीं छोड़कर वावाजीको छुड़ा छानेवाले 
छोगोंकी तरफ आना चाहिए, ओर देखना चाहिए कि, उनका 
क्या हाल हुआ , 


देह जे ने नेह ये 
वाबाजीको जो छोग छुड़ा लाये थे, वे बड़े आनन्दसे उछ- 
ते-कूदते हुए, क़िलेके उस बिकट पश्चात्‌-मार्गसे, एकदम 
जैकल गये । जो दो आदमी वाबाजीको अपने कंचोंपर उठा 
लाये थे, वे बातकी बातमैं क्िलेके नीचे आपहुचे; ओर जबतक 
अन्य लोग भी न आपहंचें, वहीं कुछ विश्वाम लेनेकों ठहर गये। 
जैसाकि पिछले परिच्छेदमं बतलाया, बाक़ी लोग भी, सर्जों- 














३ है | ऐ) हि | 
बक्+-च है) «(३० 


खांकी उस प्रकार दुर्देशा करके, बहुत जद यहाँ पहुंच. गये । 
इस तरह जब सब छोग नीचे एक जगह जप्रा होगये, तब उन 
सबकी, ओर उस तेजस्वी ओर तरुण घीर, बायकने, एक 
बार देखकर, छलफ इतना ही कहा कि, “शाबाश 7? 
इसके बाद उसने तोन छुने हुए छोगोंकी ओर उंगली दिखाकर 
इशारा किया कि, ये छोग तो मेरे साथ आयें; ओर बाकी यहीं- 
से, इसी क्षण, ग़ायब होजावें; ओर फिर परसखोंके दिन रातको, 
हमैशाकी तरह, अपने झुरा-गाँवके जड़लमें जमा हों। उस 
युवक वीरके मुखसे “'शाबाश !” ये अक्षर ज्यों ही बाहर निकछे, 
त्यों ही आसपास जम्ता हुए उन लूँगोटिये जड़ली लोगोंके चेहरे 
अत्यन्त प्रफुब्छित होगये ! हमारे खबाछसे, उस बीरने उनकी 
अशंखसामें चाहे एक लम्बा योड़ा व्याख्यान भी दे दिया होता, 
तो भो उनके चेहरेपर वह प्रफूडछता दिखाई न पड़ती, जो 
केवल एक शब्द्से दिखाई पड़ गई ! उसके एक शब्दसे उनको 
जितना आनन्द हुआ, उतना हज़ार शब्दोंसे भी हुआ होता, 
अथवा नहीं, इसमें शंका है | अस्तु | ज्यों ही उसने उन छोगोंको 
चहांसे चले ज्ञानेका इशारा किया,त्यों ही, एक-दो क्षणके अन्दर 
बाबाजीको छेआनेवाले दो आदमी, खय॑ बाबाजी, वह घेजरूवी 
तरुण पुरुष, ओर जिनको रह जानेके लिए उसने कहा था, वे 
तीन आदमी बस, इनको छोड़कर ओर एक भी वहां नहीं रह 
गया | इन सात आदमियोंके अतिरिक्त ओर जितने भी आदमी 
डे समय वहां मोजूद थे, सबके सब, बातकी बातमें; इधर- 

















>५ 3१५ ८४; 


कमी ०्गटयीक "६००१ ०२६० 





उधर चले गये। वे लोग जब जहाँके तहां चले गये, तब उस 
तेजसची नवयुवकने स्वामीजीकी ओर देखा; ओर उनके चरणों- 
पर मस्तक रखकर पार्थवा की:--रुवामीजीके लिए घोड़ा तैयार 
है। घोड़ेपर बैठनेकी यदि शक्ति न हो, तो मियाना भी लैयार 
है। जोेसी मज़ीं हो, वेसा किया जाय । यहांसे अब जल्दी 
चलना याहिए। हम सभी यदि घोडोंपर ही चलें, तो नियत 
स्थानपर पहुं चनेमें शीघ्रता होगी;ओर अगर! विचार करनेमें सी 
सखुभीता होगा । ” स्वामीजीने भी ठुरन्‍त ही कहा, “कोई हानि 


नहीं । मुझे मियानेकी आवश्यकता नहीं, बातें बहुतसी करनी 


हैं, इसलिए जदबदी ही चलना चाहिए |” यह कहकर उन्होंने 
आगे क़दप बढ़ाया । साथक्ने छोयोंको बड़ा आनन्द हुआ | 
फिर आपसमें कुछ भो न बोलते हुए सब लोग वहांसे चल 


दिये । लगभग पाव मीलके अन्तरपर एक ओर घनी भाड़ीमें पांच 


घोड़े तैयार थे । लोग उनपर सवार हुए; ओर दो आदमी, जो 


स्वामीजीको कंधरेपर उठा लाये थे,उनसे भी कहा यया कि, “तुम 
भी अब जाओ, परसों रावकों उसी जगहपर आकर मिलना |” 
यह कहकर खबसने घोड़ोंकी ए'ड मारी । घोड़े भी क्‍या थे-- 
बायुसे प्रतिस्पर्दा करनेवाले थे। लगभग आधे घंटेके अन्दर 
ही यमाजीकी कोपड़ीके पाल उस गुफापर सब छोग आगये। 


इस शुफाके द्वार :इध्यादिका परियय हमारे पाठकॉंको पहलेही 


होचुका है। घोड़ोंके खड़े होते ही छोग नीचे उतर पड़े ।हां,एक 
आदमी नहीं उतरा; ओर वह घोड़े पर बेठा छुआ हो आसपास 





.... हमारा मार्ग अच्छा, हम अच्छे ! इस प्रकार जब वे छोग छूग- 











इधर-उधर घूमकर देखने रूगा कि, कहीं कोई नोचे-ऊपर छिप- 
कर तो नहीं बैठा है । ओर ज्यों ही उसको यह विश्वास होगया 
कि, कोई नहीं है, त्यों ही उसने छोगोंकों इशारा किया। लोग 
तुरन्त ही एकके पीछे एक उख गशुफाके द्वारसे भीतर पैडे, और 
जो मनुष्य घोड़े पर बैठा हुआ आसपास निरीक्षण कर रहा था, 
वह बेखा हो खड़ा रहा | लोग भीतर पैठकर बराबर उस गुफामें 
लगभग दो-तीन मिनटतक चलते रहे । इसके बाद पृथ्वीके गर्भकी: 
ओर, नीचे, कुछ सरीढ़ियां बनी हुई थीं, उनको उतरकर लोग 
ओर भी नीचे चलने ऊछगे। भोतर बड़ा घवा अन्धकार था। पर. 
उन चारों आदम्रियोंमेंसे चछते समय न किसीने ट्टोछा; और 
न कोई टकराया। वे इस प्रकार चलते गये, जैसे रोज़मर्यके 
आने-जानेवाले मार्गपर जारहे हों! दो आदमी आगे थे, ओर 
यह तरुण पुरुष, लथा बाबाजी पीछे पीछे चल रहे थे । बहुत 
देशक डसी अन्धकारपमय मारगपर वे लोग चलते गये | ऐेखा 
जान पड़ता था कि, उबमेंसे प्रत्येक आदमी, अपने. अपने मनमें, 
कोई न कोई बहुत ही महत्वपूर्ण विचार कर रहा है; क्योंकि 
चार आदमी जारहे थे;; ओर उनमें किलोके सुहसे भी एक 
शब्द न निकछा |. सब मात्रों इसी विद्वाण्तें क़रमपर कदम 
रखते हुए चले जारहे थे कि, हमको किलीसे मतरूब  बहीं-- 


भग आधा घएर्डा, या पोन घए्टा, चल चुके, तब वे एक ऐसे. 
है: मोडपर डुप्र आये कि, जो बहुत घूम॑-फिरकर गया था | परन्तु अच्च 








(इधर क्या आर उधर कथा 4, 





५ ४१७ ८८ हे 


“4 ३०-%७- “६९--हैं<> ख्व्य्च्स्य्क्क्स्श्प्ब्ख 


हे 2 





कार अप्री घैला ही था। चडते चलते अन्वमें एक जगह सबसे 
आगेवाला पुरुष ठिठ क्र गया | ठिठ कदेका कारण यही कि, आगे 
किली तरफ भो जानेझा मार्ग न था। सामने एक दीवारूसी 
खड़ी थी। चहां व्योलकर उसने एक्क ताला, जो वहां छूगा 
था, खोला, जिससे एकदम द्रवाज़ा खुला, जिसमें वह पेठा; 
ओर उसके पीछे पीछे अन्य ठोग भो गये। इसके बाद फिए 
लगसग पांव मिनटतक इघर-उचर मुडुकंर चलनेक्ते बाद वे 
लोग फिर एक वैसे ही दरवाजैके पास आये। उसी आगेषाले 
मनुष्यने उसको भी खोला। उसके खुलते ही वहांसे ऋुछ 
दीपक प्रकाश दिखाई देते छगमा | जिसे देखते ही उन छोगोंने 
तालियाँ वजाई'--जैसे उनको अन्तमें वहांतक आपह चनेमें 
बहुत आनन्द्सा हुआ हो ! हमारे ये छोग अब जिस जगद् भीतर 
आपहुंचे, वह जगद पाठकोंको मालूम है। बह जगह ओर कोई 
नहीं-बावाजीकी हनुमानपतूतिके जीवेका शुहाराहे। इसी 
भर हारेमें भवानी माताका वह मन्द्रि था, जिसका हम्न पीछे 
एक बार वर्णन कर चुके हैं। उसी मन्द्रिके द्वारपर अब ये 
लोग पहुँचे। पाठकोंको मालुम है. कि, इसी स्थानपर बैठकर 
सदैव ये लोग अपने सलाह-मशविरे ओर सारी कारस्थानियां 
किया करते थे। मन्दिरमें प्रवेश करते ही बाबाजीने और उस 
तरुण पुझुषने “भवानी माताकी जब” कहकर एकदम उनऊ्रे 
आगे साष्टांग नमस्कार किया। इसके बाद वावाजीने इस 
आशपके वचन कहै--“मवावी माता | केवछ तुम्हारी कृपासे 








ही आज हम फिर तुस्दारे दशनकों आये। माता, तुम्हारी 
इच्छा प्रबल है! तुम्हीं यहांवक राई हो, तभी यह सब कुछ 
हुआ !? फिर अन्य छोगोंने सी माताको बमहकार छिया, और 
स्वामी महाराजको बीचॉबीव देवीजीके बिलकुछ पास बैठाकर ! 
इस प्रझार विद्यार प्रारम्भ किया:-- । 

पहले वो बायाजीने अयनी सारी हकीकत बताई, जिसे 
सुनते हुए उन सबको इतना जोश घढ़ा कि, उनमैंसे प्रत्येक 
आदमी क्रोधके मारे बिलकुछ सुख सा दिखाई देने छूया | अपना 
सार वृतान्त बतलनेके बाद बाबाजी अन्यग्मं योडे--“सपझे हसर 


खुद दस 
दिन कोई आशा बहीं थी कि, तुम इस प्रकार सुझे यहांसे छुड्ा 
लाओगे | पहले दिम यमाजी ओगिनका सेष चरकर फकिछेएर गया 
वहां भेरी उसकी यार आँखे हुई । कुछ आाशाका अंकुर उदय 
हुआ | परच्तु दूसरे दिय अब उन दुष्टोंमे पहछेकी जगहसे हटाकर, 
हाथों-पेरोंमें हथकड़िया-वेडियां डालकर, वदखानेकी काऊको- 
ठरीमें धाँघ दिया,तव रुपामाविक ही सारी आशापर पानी फिए 
गया। झुरे यह भी शंद्वा थी कि,ठुम छोगोंको हमारी इस परिय 

लिंत दशाका समायोश भी मिला होगा या नहीं । परण्तु हां, उस 

द्शामें भी कमी कंभी यह आशा-मछका दिखा ही जाती थी कवि, 

हमारा शिवया आकाश-प्रायारू एक किये बिना न रहेगा; ओर 
 खोई हुआ! शिवबा ! सबजुब तू कऋ्य है! भवानों मासाकी 


. जो तुरूपर छूपा है, खो यों ही नहीं । सजमुच हो वेशे हाथसे, 
सम्पूर्ण मराठा-मंडल एकत्र होकर, एक सहाराज्यकी स्थापना 














35522 02025 है 


€्‌ धर >) ः इधर क्या ओर उधर क्या: 
नयी ००मीशत "दीदी कै ९ल्ज्ट्किपल्प् कल 

होगी-इसमें अणुमात्र भी शंका नहीं ।” इतना कहकर स्वामीजीने 
उस तेजस्वी तरुण एुदघकी पीठपर हाथ मारकर “शाबाश ६ 
शाबांश !” के शब्द कहे। इसके वाद कुछ देश वे चुप रहे । इतनेमें 
तानाओ रुवामीजीकी ओर देखऋर एकऋदम कहते हैं, “स्वामी 
महाराज, हम छोग अमीसे शिववाको “राजा शिवव/” कहते हैं, 
सो यों ही नहीं। आजके मो पर इन्होंने यदि यह युक्ति निकाली 
न होतो, तो बहा बिक्री: अवसर आ उपस्थित होता, इसमें 
ठविछगात्र भी सम्देह नहीं | इन्होंने जो युक्ति निकाली, उस समय 
हम सबको इतनी असम्भव जाव पड़ी कि, कुछ पूछिये मत । 
आपको जब दे दए छोग पकड़ ठझेगये, तव उस समायारकों 
पाकर येसाजीने ऐसी प्रतिशा की कि, तीन दिवके अन्दर ही 
स्वामी महाराजको छुड़ा छाबेंगे । ओर पहले दिव जब यमाजीने 
आकर पिछले द्वका आपका खाश खसमायार दिया, तब 
उनको यह आशा भी हुई कि, हम अपनों अंतिज्ञाद अठुलार 
अवश्य काम कर के जायगे। पर जब दूसरे दिनका समाचार 
सना, तव उनके हाथ-पैर कुछ ढीले पड़ गये। शिवबाने बादकी 

बाद ताड लिया | परन्तु यह देखनेके लिए कि, थयेसाओी अब 
भी क्या युक्ति भिड़ाते हैं, इन्होंने एक दिन और जाने दिया, 


डा, विल्ष न 


कर तीसरे दिन, जबकि दहसकोग उस जदूलमें ८ठे थे, इन्हे 


बेसाजीसे कह दिया कि, अब तुम्दारी प्रसिज्ञा पूरी होती दिखाई 
नहीं देती | इसके वाद ये ओर कुछ कहनेवाले थे कि, इतचेने 


यमाजी घबडाया हुआ आया और आपके ऊपर जो संकट आने- 















॥ उचाकाल है 
&) 


हा ७ ४०५०: (०२० ७ सनक का 





वाला था, उसका सप्ताचार दिया। उस सप्तय एकदम राजा 
साहबने हम छोगोंसे कहा कि,"अब अवकाश नहीं रहा,गैसा हम 
बतलावें, बेसा तुम करो ।” फिर क्‍या था--हम चासें, घोड़ोंपर 
सवार होकर, दोड़ निकले। रास्तेमें राजा साहबने थेसाजीसे 
द्व्लिगीमें कहा, “येसाजी, तुप्र अपने कहनेके अनुसार अपनी 
प्रतिज्ञा पूरी करके दिखला न सके। इसलिये अब मैं जैसा 
तुमसे कहता हूं, बेला मेष घरकर काम पूरा करो। यघ्राजी 
ओर तुम्तर घसियारा-धलियारिवका खांग को। यप्राजीको तो 
बुड्डा धसियारा बनाओ; ओर तुम्र अच्छे जवान दिखाई देते हो, 
अमी रेख भी नहीं आई है, सो तुम घसियारिन बन जाओ। 
अपने गुरुका, ब्राह्मणोंका, आण करनेके लिए, कुछ भी करना 
पड़े, कोई परवा नहीं | इस प्रकार भेष बनाकर, सिरपर घासके 
बोक रखकर, शामके पहर क़िलेके नीचे जाओ। वहां जाकर 
इस वातका पहले एक झूठा ही कगड़ा उपस्थित करो कि, 
घासके गठ्ठे कि पर बेचे जाँय या नीचे बस्तीमें। फिर यप्ता, 
इस बातपर रूठकर, कि हम ऊपर नहीं जायेंगे, नोचे ही रह 
जाबे। तुप्र ऊपर जानेकी जिद करके ऊपर चलो ज्ञाओ | तप 
नक्काछ भो अच्छे हो। किसी की भी नक़छ उतारना तुमको 


बहुत अच्छा आता है। देखो, जोगिवकी नक़रू तुमने यपराकों 


कैसी अच्छी सिखाई है। सो यदि तुम्दीं ऊपर जाओगे; ओर 
सो भी घसियारिवका भेष छेकर, तो तुमको ख्री समफकर 
कोई विशेष रोकेगा भी नहीं, यमासे कहना कि, तू नीचेकी 





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५ 2२१, न््स्््स्ड््लफ्रप- 
्क्क--कर "(८०-१० जा सके 562 


(इधर क्या ओर उधर क्या' 
बस्वीमें पदेलकी घुड़खालमें जाऋर रह; ओर तुम्र सोथे ऊपर 
चले जाना; ओर जिस तरहसे होलके, क़िलेपरकी घुड़सालमें 
जाकर रहना । ओर जब चार-पांच घड़ी रात जाबे, तव एकद्म 
दोनों जने दोनों जगह आग लगा देवा । इधर क़िल के पीछेको 
ओरसे में, तानाजी ओर हमारे ये नवीन लाथी, कुछ चुने 
हुए छोगोंके साथ, शामसे ही, आधेसे अधिक पहाड़ी चढ़कर 
सुपके बैठ रहेंगे । ओर जहां तुमने आग लूगाई; ओर उसकी 
पहली बम्चकारी हमें दिखाई दी कि, हम ऊपर जाकर सारा 
काम ठोक ठीक करके नीचे आ जावेंगे। बस, जैसाकि हमने 
यह बवलाया, इसप्लै "अनुसार यदि सब बातें ठोक ठीक होंगी, 
तो फिर खामी महाराजक्रा छुटकारा होनेमें विलम्व नहीं 
लगेगा; ओर यदि इसमें कुछ भो कसर पड़ गई, तो सब खेल 
बिगड़ ज्ञायगा !” शिवबाकी ये वातें खुनकर येसाजीने कुछ 
आनाकानी की । ऐसा जान पड़ा कि, घसियारिनका भेष 
धरना उनको प्रशस्त नहीं जान पड़ा। राजा शिवबाने तुरन्त ही 
इस वातक्नो ताड़ लिया; ओर बोले, “यिसाजी, आगा-पीछा 
खोचनेका यह मौक़ा नहीं है। तुमझो यदि इसमें कुछ होनता 
मालूम हो, तो तुम इधर क़िलेपरका काम सम्हालो--मैं यमाज्ञीके 
. साथ घसियारितर बनकर जाऊंगा; ओर वह काम कर आऊंगा। 
तब येसाजीने खोंकार कर लिया; ओर यमाजीको साथ रे कर 
अपने कामको चले गये। उनको अब यहां आजाना चाहिये, 
अप्ीतक आये नहीं, इसीका सुर आश्यये है !” तानाजीने 











है मम नममअ कल ई >व्थ्थाह 
७ ०५८६. (९२- ७ नरक पुन - 0." 











उनके सामने आकर खड़े होगये। उनको देखते ही बायाजीमे 
“आओ आग लगाऊ !” कहकर उनकी हँसी की, और शिवदा- 
को अदुजुत युक्तिपर आश्चरय प्रकट किया। इस प्रकार सम्पूर्ण 
. कार्यवाहीके उत्तम रीतिसे पूर्ण होमेपर आनन्द मनाते और 
हसते-हँंसाते हुए उन सबने थोड़ाघा समय व्यतीत किया 
इसके बाद बायाजी कुछ गम्मीर चषेष्ठा करते हुए बोले, “अच्छा 
जो कुछ हुआ, स्रो तो अच्छा हुआ | पर अब आरेक्षा भी दियार 
करना आवश्यक है। क्योंकि अगले वियारपर ही हमारी सारे 
इमारत अवस्बित है। सर्जेल्ांफको हम लोगोंने सोलह आना 
नोचा दिखाया, इसलिए अब यह छुछ न कुछ किये दिला न 
हेगा। मन्दिससे हमारा कोई न कोई पक्का सम्बन्ध है, इस 
बातका उसे पू्ण विश्वास होगया है। दो-तीन बार उसने मरे 
सामने ही मुक्े यह स्पष्ट धमकी दी थी कि,तुम्हारा मम्दिर गिरा- 
कर उसे घूलमें प्रिला देंगे; और उसके नीचे जो कुछ होगा, उसे 
देखे गे । अब, जबकि हम लोगोंने उसे नीचा दिखाया है, यह 
बात ओर भी प्रकट हो जाती है कि, नहीं, कुछ न कुछ हृप्ाशा 
सम्बन्ध उस मन्दिरसे अवश्य है। इसलिए, आज नहीं तो 
कल, वह अपने कहनेके अजुलार करेगा अवश्य, इसमें तिल- 
मात्र भी शंका नहीं । सो, अब हमको, उसके दैसा करमेके 
पहले ही,कहीं न कहीं कोई भारी काम कर दिखलाना चाहिए | 
मुग़लोंके हाथमें आजद्न कितने ही क़िले हैं। उनमैंसे दो- 


यह विजित्र वृत्तान्तव संक्षेप बतलाया कि, इतमेमैं गेसाजी 








रे ला 
(ह ४२३ ४2 इधर क्या ओर उधर क्यः ! 


अनन्त 4:प--प" व्य््ह्ल्ल्ब्स्य्स्क्ऋ 
चार -- कमसे कम्त एक तो फिलहाल अवश्य ही--जब हमारे 
हाथमें आये,वब हमारा काम चक्के--इसके विना काम चल नहीं 
सकता । इसलिए आजकी इस बवैठकंमें इस वातका निम्धय 
अवश्य होजाना जाहिए कि, कोई न कोई एक किला अवश्य 
हम जीत लें, और फिर इस वातका भी निश्चय होजाय कि, वह 
किछा कोचसा हो। इसमें सन्देह नहीं कि, यह बात कठिन. 
अवश्य है पर साथ ही साथ यह भी है कि,एक बार प्रयल करने- 
पर सफछता अयश्य मिलेगी | ओर यदि किला हम नहीं ले गे, 
तो आगेदे काममें बड़ी कठिनाई होगी” 

जबकि उपयुक्त - सम्पूर्ण भाषण होरहे थे, वह तेजस्वी 
पुरुष--जिलका कि हमने तानाजीके भाषणमें, कुछ समय पहले 
जिववा' के नामसे पाठकोंको परिवय कराया हे--छुपक्के खुन 
रहा था। बीचमें उसने एक अक्षर भी उद्चारण नहीं किया। 
ऐसा जान पड़ता था कि, उसका खारा वित्त किसी न किसी 
अत्यत्त महत्वके विचारमें छगा हुआ था । वाबाजीका कथन 
जब समाप्त होखुका, तब वे विलकुछ ध्यान लगाकर शिववाको 
ओर देखने छंगे। तानाजीके मुखले अभी हालमें ही उन्होंने 
जो दतलान्त सुना था, वह अभी उनके मनमें बचा छुआ था; 
और उसोसे उनके मनमें उत तवयुवककी युक्ति, बुद्धि, ओर 
साहसके जिषयमें अत्यव्त आद्र-माव उत्पन्न होरहा था। 
बस, उसी आदर-भसावसें आकर वावाजी इस समय उसको 
ओर बहुत ही द्तच्चित्त होकर देख रहे थे। क्योंकि उनके 














4 उचधाकाल कै 


न्व्य्य््ड्ऋा ट्रक 
व्च्य्ड्छ ध “कफ -७ ३० «€३--६९३० 








ये हरेपर आद्र-भाव-प्रदर्शक कुछ मम्द मुसकान दिखाई 
पड़ रही थो। उस खम्नय उन्होंने यही सप्रफा कि, अब यह कोई 
न कोई उत्तम युक्ति और खाहसका कार्य निकालकर कोई 
न कोई क़िला छेनेके विचारमें निमझ है। और फिर थे अत्यन्त 
आतुरताके साथ यह प्रतीक्षा करने लगे कि, देखे', अब यह 
किस सम्रय क्या कहता है। इस समय प्रत्येकके मनमें वही 
विचार बार बार आरहे थे। ओर यह कहतनेमें कोई अतिश- 
योक्ति न होगी कि, शिवबाक्े अन्तःचशक्षुओंके सामने तो द्क्षिण- 
महाराष्टुके सम्पूर्ण किले, एकके बाद एक, दिखाई पड़ रहे थे, 
ओर अपने अपने अच्छे शुण ओर राम, तथा. बुरे शुण और 
हानियां उसके सामने रख रहे थे। राजा शहाजीकी जागीरके 
धन्तोंमेंसे, कोन कौन पघान्तसे कौन कौच किला कितमे कितमे 
अन्तरपर है, कौन कौनसा क्लिछा किन किन बातोंमें हमार 
लिए विशेष सुविधाजनक होगा, इत्यादि खब बातोंका पू्णे- 
तया सनन शिवबाके मनमें उस समय होरहा था। प्रत्येक 
क़िलेकी उसको जानकारी भी बहुत अच्छी थी। पुरन्द्रका 
किला लेनेकी उसको बहुत द्नसे इच्छा थी। इसलिए 
उसने सोचा कि, यह किला हमारे लिए सब प्रकारसे सुभीते- 
का ओर अत्यन्त मज़बूत भी है। परन्तु साथ ही साथ उसके 
मनमें यह भी आया कि, पुरन्द्रका किडेदार हमारे पिवाजीका 
बहुत पुराना साथी है, उसके साथ उनका स्नेह भी बहुत ज़बर- 
दत्त है । ऐसी दशामें एक मित्रका लड़का दूसरे मित्रके क़िले- 












(दिधर क्या ओर जधर क्या 
न 0.७... 8 नल न स्स्ऊकःि 





पर धावा करके उसको जीते; ओर फिए उसको कैद इत्यादि 
करे--यह कुछ ठीक नहीं जचता--ऐली बात भी मनसे व छाना 
चाहिए। इसके सिवाय, किला छेनेका प्रयल्ल सी यह पहला 
ही होगा, सो ऐसे भारी और विकद फ़िलेयर पहले ही पहल 
हाथ डाऊहूसा, यह भी उचित दिखाई नहीं देता । वाज़्तवमें 
हमको किझा जो इस समय लेना जाहिण, वह चाहे विशेष 
महत्वका न हो; पर उपयोगिताक्की दृश्सि अच्छा होना चाहिए । 
इसलिए हमको ऐसा कोई किला सोयना बाहिए कि, जिससे 
हमारे काममें सहायता पूरी पूरी मिल्े। यह सोचकऋर उसने 
पुसू्द्रके क़िलेको अपनी दृष्टिके लामनेसे हटा दिया। और एकके 
बाद एक, इस प्रकार अन्य अनेक क़िलोंके विषयमें मंद ही मन 
विचार करने रूगा; पर कोई बात निश्चित नहीं होसकी | इतनेमें 
खामी महाराज उसकी पीठयर हाथ मारकर कहते हैं, “क्यों 
शिवबा, किसी किलेका निश्चय नहीं छुआ ? मेरे मनमें एक 
किछा आता है; ओर उस क़िलेके मालिक भी यहीं बठे ६ । कहे 
नहीं सकते, उनको यह विचार कहाँतक पसन्द आयेगा | यह 


कहकर वावाजीने उस सिपाही जबानकी ओर अत्यन्त लददेतुक 
इष्टिसे, मुस्कुराते हुए देखा | इसपर वह खुबक सिपादी भी 
बावाजी तथा शिववा राजाकी ओर देखकर कहता है, “में भी 
यही कहनेवाला था। उच्त क़िलेको जीतमेका यदि विचार 
किया ज्ञायगा, तो बातकी बातमें काम फ़तद होजायगा | 


इसके सिवाय उस क़िलेपर, सब प्रकारकी खुविधाए--जो 








नहर उषाकाल है कर सी क 
>ण्यएडफ- 2 द बे 5२५ &£ 


अत+८60- ५७. 
ऊँछ हमारे छिए आवश्यक हैं--सहजहीमें होसकती है। 
किला जीतमेमें यदि किसी भेद्नीतिकी आवश्यकता होगी, 
तो वह भी सहजमें खिद्ध होजायगी | कुछ देर नहीं लगेगी! 
सूर्याजी और मैं, दोनों इस कामको वातकी बातमें कर डालेंगे, 
में उनको इधर छामेयाछा पी हु *० ००००० 

उस सिपाही जवायकी वात अभी ख़तम नहीं होने पाई थी 
कि, इतमेमें एक मजुष्य--जो उस गुफाके बाहर घोड़े पर सार 
होकर पहरा देखा था--पीषर आया; ओर तानाजोके काम 
कोई समायार बतछाया । उसे झुनले ही तामाजीने बायाजीओे 
कानमें कुछ कहा; ओर राजा शिववाकी आज्ञा केकर बहांसे बे 
गये। इसके बाद, शीघ्रतापूर्यक थे शुक्राक्के द्वाशपर आकर देखने 
हैं, तो घहां एक बैरागी खड़ा हुआ है। वाबाजी उसके पास 
गये। दोगोंमें कुछ देश्वक अत्यन्स धघीषी आवाज्ञरमें बातचीत 
होती रह्दी | उस बावबीतको खुबकर वानाजीका चेहरा एका- 
एक बहुत ही बिन्ताअस्त छुआ; ओर थे बैसे ही उलडे पैसें फिर 
गुफामें घापस आये। तावाजी जितनी से ज्ीके साथ पहले 
गुफासे बाहर गये थे, उतनी तेज़ीसे उनके कदम अबकी बार 
नहीं उठे। क्योंकि उस वैरागीने आकर उनको जो हाल बतलाया, 
वह बहुत ही खेद्जनक जाग पड़ता था; ओर साथ ही साथ 
क्रोधोत्पादक भी। असी क्ेरागीने जो हार बतछाया, यह &+ 
भीतर जाकर “उसके सामने”? क्योंकर बतलछावें ? बस, यही हू 
_अशन उनके मनमें बारम्बार आरहा था। पर धीरे धीरे थे 





















(के ४२५३ 2; ः नवयुवक सरदार है 


लिन लिनिला मिलन लीज नल नकल 33 2000»०+०००० सं "लक ४४४४७ 


४८/७७/७७७४ एक मिल 


तो जा अवश्य ही रहे थे। फिर भी अन्तमें, कुछ देर वाद, थे 


पहुंचे; और मीतर जाकर वाबाजीको एक झोर बुलाया, तथा 
उनको बह सब सप्राघार उन्होंने कानमें वतलाया। 





तीसवां परिच्छेद । 

व्कलससटओक फसबु+- 

नवयुवक सरदार । 
तानाजीते वाबाजीके कानमें आकर जो चूसान्त दतलाया, 
वह चचान्‍नत अवश्य ही कोई न कोई अत्यन्त विलक्षण इचान्त 
होना याहिए, क्योंकि उसको सुनते ही वाबाजीकी चेष्ठा भी 
कुछ चत्त ओर कुछ खिन्नसी होगई । उन्होंने तानाजीसे एक - 
दो प्रश्ष भी किये; और ज्यों ही उनके उत्तर तानाजीसे उनको 
प्रिल्ले, त्यों ही डनके मस्तकमें ओर भी अधिक वियारकों शिकमें 
पड़ गई'। वे वार बार उस सिपाही जवानको ओर देखते; 
और अन्‍द्र ही अन्दर छुछ शुनशुनाते। इसके बाद फिर छक्क- 
दम थे ताबाजीसे पहलेहीकी भांति धघीमे स्वरसे कहते हैं :-- 
“एक तरहसे जो वात हुई, यह हमारे लिए अदुकूल ही हुई; 
क्योंकि पहलेकी परिस्थितिमें हमारे कार्यमें चहुत कठिनाई उप 
स्थित हुई होती। परन्तु यह दूसरा हा जो बतलाया, सो भी 
सिन्‍्ताजनक अवश्य है।” इतना कहकर फिर उन्होंने, अपनी 
दाढ़ीपर हाथ फैश्ते हुए, एक बार, खिल्तायुक्त चेष्टासे, खब 
छोगोंकी ओर, विशेषतः उस सिपाही जवाबकी ओर, देखा। 











सात हि 5) 
च्क 9 ४ (28 ले 





५ छश्८ट 4) 


729--39-५6%--ह३० 

उस बेचारेको क्‍या मालूयत कि, यह सब कया बात है। यही 
नहीं, वह्कि शायद उसके मनसमें यह शंकातक न आई होगी कि, 
ये धीरे धीरे जो बातें होरही है, उनसे उसका भी कोई सम्बन्ध 
है। येखाजी कुछ अपने ही विचारमें निमझ थे। शिवराज 
भी पहलेहीकी भांति बराबर अपने विद्यारोंमें निमग्न दिखाई 
दिया। तामाजी और बाबाजी अपने इसी विचारमें थे हि, जो 
समाचार अभी हमारे कानोंमें पड़ा है, बह बतछाया जाय या 
नहीं; ओर यदि बतछाया जाय, तो क्योंकर ओर किस क़ृदर। 
अन्तमें दोनों किसी निश्चयपर पहुंचे। और उस सिपाही 
जवानको अपने पास बुाकर, जो समाचार अभी आया था, 
धीरेसे बतलछाया। उसे सुनते ही बह एकदम अत्यन्त 
सब्तप्त होडठा। उसका सर्वाड्ड--विशेषतः उसका मुख, उस- 
की चेष्टा; ओर उसकी आंखें सन्तापसे इतनी आरक्त होगई' 


कि, बाबाजी ओर तानाजी, जोद्ि बिछकुछ उसके पास ही 
खड़े थे, उन्होंने यही समका कि, न जाने अब यह क्‍या कर 
डाले--इसका कुछ ठिकाना नहीं | 
ः मैंने समझा हो था। हज़ार बार मैंने उन्हें ज़तकाया था-- 
हज़ार बार मेंने उनसे कहा था, कि चाहे भिक्षा मांगनेकी ही 
नोबत क्‍यों न आजाबे, तो भी अच्छा; पर इन हरामखोरोंकी 
नोकरी करना उचित न होगा । पर उन्हें वह विचार हो पसन्द 
न आया। उल्दे मुक्नीको--तू नमकहराम है, मेरे नापको बहा 
लगानेके लिद उपजा हैं कहकर गाली देने रूगते थे। अब उनकी 








गगन गण गाल हों 












९ आशिक नवयुवक सरदार हु 
जवानी हुए "शेर कृल्क क्ब्केूलपाल 9 ५ न्म पल 


भी आँखे खुछ गई', सो अच्छा ही छुआ। स्वाप्टी महाशज़्, 
इस बातको सुनकर तो आनन्दित होना चादिण, सो आप चिन्ता- 
तुर क्यों दिखाई देते हैं ? घड़ीमर पहले जिस वातके लिए हम 
विचार कर रहे थे, उसके लिए तो अब राज्ता ही खुल गया। 
पहले तो इस काममें वड़ी कठिनाई थी; क्योंकि जवतक उनके 
शरीरमें प्राण रहते, कभो भी क्िछा उन्होंने अपने हाथसे जाने 
न दिया होता। अवस्थामरें वे अचश्य छुड्डे है; पर उनका ऋोध, 
उनकी बीरता, उनका पराक्रम, जैसेका पैसा वना है। इस 
बातका अनुभव प्रायः बहुतसे छोगोंको है। जो बात एक बार 
उनके सुखसे निकल जाती है, यह फिर त्रिकालमें भी कोई मेट 
नहीं सकऋता। वे यदि हमारे अनुकूल होजावें, तो शिवराजके 
इच्छानुसार स्वराज्य खंस्थापित होनेमें एक पलमरका भी 
विलम्ब न ऊगे। किन्तु-यह 'किन्तु' ही बड़ा तुरा है। किन्तु 
राजमक्ति उनकी नख नसमें इतनी सप्ताई हुई है, कि हुज्ञ र यदि, 
बीजापुर जानेपर, उनसे स्वयं अपने हाथसे ही अपनी गदेन 
उड़ानेकों कहें, तो भी वे उसको उड़ानेमें नहीं चकेंगे | मान छो, 
में कछ इन दुष्टोंके पंजेमें पड़ जाऊ; भौर वे मुझे वीजायुर ले- 
जाकर उनके सामने खड़ा करें, और अपने हाथसे उनको मेरी 
गदन काटवेका हुक्म दिया जाय, तो वे एक हाथसे आंसू पोंछते 
हुए, दूसरे हाथसे मेरी भी गदव उड़ाने कसर न करेंगे । अरे- 
रेरे! ऐसे स्वामिमकतको इन हुछोंने कुछ भोव सम्रक्का; ओर 


उनका इस प्रकार अपमान किया ! हे ईएचर, इस नरकयातनासे 
क्या हम भी कक बाहर होंगे ? +०३ ००७३2 








3:3१ दे 


' इस्‍-नहे/क० 


नश्काल 
“ह्उउलडा 
 इसमेंसे अन्तिम कथन बाबाजीको अथवा अन्य क्िसीको 
सम्बोधन करके, नहीं कहा गया था। किन्तु ये उसके हार्दिक 
गार थे, जो उसके मनमें सच नहीं सके--ओर जब हृदय 
भेदकर बाहर निकलने लगे, तब जिह्ााके द्वारा उसमे उनको 
बाहर प्रकट कर दिया । यह बात उस सप्तय उसकी शलेघ्ा- 
पण्से ही मालूम दोगई। इतमा बोलनेके बाद फिर बहुत दैर- 
वक बह एक अक्षर भी गहीं बोला। उसका सन अपने उम्र 
विच्ार्ोंसे पूर्णतया अत्त था। हम कोन हैं, क्‍या करते है, 
हमारे सामने कौन है; ओर कुछ समय पहले हप क्‍या वियार 
कर रहे थे, इत्यादि बातोंका मावो उस समय उसे कुछ ध्यान 
दी न रहा । बह शून्यदृष्टिसे घाएँं ओर देखने छूगा। इस 
प्रदारथ जब बहुतला सम्रय व्यतीय होगथा, तय फिर बह 
याबाओीकी ओर झुड़कर पूछता है, “आख़िर उनको पकड़कर 
बीआगुर के ही गये ? पर "पर? उसको जो कुछ कहया 
था, उसके विषयों मानो अब वह इस पियारमें पड़ा कि, कह 
या थे कहूँ, ओर फिर वह एक सहेतुक हृष्टिसे बाबाजीकी ओर 
देखदाभर श्हा। बावाजीकी भी चेष्टासे यह दिखाई देश्हा 
था कि, मानो जो कझुंछ यह कहनेवाल्ा था, उसे थे तुस् ही 
वाड गये; परम्तु फिर भी वे मानो इस बादका प्रयद्नसा कर 
हे थे, कि जहांतक होसके, यह इसे मालूम न होने पावे, श्योर 
. इसीलिए वे उसे टालने अथवा छिपामेकी चेष्टा कर रहे थे। 
 तवानाजीकी देष्टा भी कुछ इसी प्रकारकी दिखाई देरही थी। 


9 




















५ ४३१ है, अंपवित सरदार कै 


का  आ .2, * ९.७४... -० 5 0 ५7 आशए 





परन्तु अन्तमें उल लिपाहीने वाबाज्ञीकी ओर फिर एक बार 
क्षे्कर स्पष्ट शब्दोंमें पूछा, “उबको पकड़ लेगबे ? ओर वाक़ी 
लोगोंकी भी क्या पकड़ केगये १ 


कर. 


बावाजी एक अक्षर भो नहीं बोले। अत यह घडुद ही 


१ धि (7३७०४ थ हे हे हक 'म्य्सक। गज 
उत्दांठित और अधीरतखा दिखाई दिया। वाबाओकी सेष्याः 
४ हे ॥अन्‍न्‍मत व हा (2 ८ ०.५ ्ू ओर व झ् हि 'जछारिस्त द्ट्शू ४] ६4. 
उसको यह अशु्धाग हुआ कि, कोई यम कोई अधिध्ट घटना अब- 

बन हुताक 6 रे हे ३ स्‍फ् #कन्‍रज्ण धर आ किमघ-- च््ण्द्छ _+ 5६ ४४! आह स्‍्नृं पु का धो 
उब घरी है, इसलिए यह किए उमसे छुछ अस्त स्वण्में कहता है, 


9 कण जओ अष्य झ्निषे वा के कहा ण इक व्यक्त 
कऋटिये, कट्िये। जो बात है, उस्चद्के रुए्ड मालूम होजानेसे 


ठुःख नहीं होगा, कियना आपके इस न बोलनेसे हो- 


रहा है। वछाइये, साफ़ साफ़ बवलाइवे, जो आपने खुदा 
हो। सुरे संशयमें न डाडे रखिय्रे। थे बीच हृरशामज़्ार दया 


'प्रत अर्थ पृ नह हक ० ६ छू परशुाआआ० “हु ] मय श्र जुट 2८ कह ह। * ही आ/थ 
खाथ साथ कया थेरो पल्चलोफो भी पश्तड़ छेगये! उबके साथ 
श्यू जा रेप म्शोणे इम्न्‍मात्थ जप ३ के टन पटा३ ०० हर] का भु 9 वर छ अध्लकबसकइण 0 अृुकाक १० 
जाय ऊडाने उत्तका भी अपना एकदा ; कद (६ खथाओशा संदा- 

पण हक रा कक यृ हा 
राज, बदछाद बना बहा ; ६रणछु थे अानतज्ञा। कया जरूरत ह€्‌ ६ 
अत हक अन्‍य दो उ्मेसे हे नि (70 रुक कि कब्मादा के ॥. रकम, चहल | रद बज आरा हु] रहो 
आपके इस ने दादमात दा ४४ श शाश्म्राका उच्चर प्रिक्ष गया । 
सा इाएए : झ््ख्‌ जन आआपड्ड। भृद्धस्यफाश श्सा य््ण झ्भी 
धार & | उइाथय भ॑ आपबटा। ५ ७४४२७३(५. '< 3 ३ 

| (८ ॥ झ्ञू न पे बडी आप के (7भू कण दर 
बाप आता हूं | दुरे बड़ झाशा < आपक खसदम्राय सडजऊ - 
लि पक रण कक व्यषफाज.. एक भें न्क्प्य 3] का न पी 
लादि पारस रू बंद्ओं 5 द् च्य्दधादया $ऊ व्द्ां 2, 


इस झीवनसे दोसकेगा। पर मालूम होता है, भाग्यम लिखा 
नहीं। बस, अब में ऐसा हो छोड जाऊंगा; भौर उनको वथा 
पल्चीको छड़ाकर ही रहूँगा, अथवा इस प्रयत्ञमें अपने प्राण दे 








उद्याकारू कै 


द अजब ््ट्क्ड़ब 
का टन किम ६५ 


अ्यचकमल, 


दुंगा। यही मेरा झुख्य कस व्य है। में मराडेका बच्चा हूं 
अयने इुटुम्बका अपमान मेने अपने कातों खुदा है--अब, जब- 
तक भेरी श्ुज्ञाओंमें बल है--नहीं वहीं, जबतक इल शहशीयपें 
प्राण हैं--तबतक छुप नहीं बेठनेका |"? 

उसका यह भाषण वशबर जारी रहा। परन्तु बाबाओी 
अथवा तानाजी, दोमेंसे किलीने भी, बहुत देश्वक, उसके 
समम्माने इत्यादिका प्रयत्न नहीं किया | क्योंकि बावाजी यह 
भलीभांति जानते थे कि, इस खबरको सुनकर इसे बड़ा गहरा 
शोक हुआ है; ओर उसका आवेग जब्रतक्न एक बार इसके 
शब्दोंसे निकल नहीं जायगा; ओर इस प्रकार जबतक उसका 
जोर कप्र नहीं होजायगा, तबतक हमारे सम्रकानेका कोई 
फल न होगा । इलकारण; उन्होंने उसको ख़ब बोलने दिया । 
फिर जब बोलते बोलते वह किसी हृद्तक पहुंच चुका, तब 
बाबाजी उससे कहते हैं, “अरे, क्या तू समझता है कि, ऐसी 
दुष्ट वाता केवछ बतरछाऋश हो हम रह जाते ? पगछे, तेरी स्थी 
काफी यतुर है! वहउनके हाथ आई ही नहीं । पहले ही दिन 
चह कहीं चली गई। कहां गई, यह अभी मालूम नहीं हुआ । 
इसलिए अब तू पागलपनका छुछे भी विचार अपने मममें मत 
छा | यह अपमान केवल तेरा ही नहीं--हम सबका, खारे महा- 
राष्रका, ओर सारे मराठोंका है, यह तू अम्मी अच्छो तरह समझ । 





त्तेरी पल्ली फ्हांपर, क्रिस दशामें है, यह दो दिनके अन्दर ही. 
_ तुम्दे मालूम होजानेका मैंने प्रबन्ध कर दिया है। तू र्तीमर 























हे हा 2, 6 हैः ज्ृं ह 
€ ,.५ १ 4 वयुवक सरदार हु 


विकार न्‍बदाफी ल्व्य्च्च्््ा्ंं््ं्ि््ि5 स्च्च्ल्टल्र न्‍ 
व्सफेरबफ््री बहल्ए-यी कल पा+- ०97०४ ंकिलछ 





भी इसको चिन्ता मत कर। इसके सिवाय, तेरी क्री ऐसे-वैसे 
घरकी नहीं है--वह यादवोंकी छड़की है--अपसानका मौका 
आनेपर प्राणतक त्याग देगी; परन्तु अपना शत रखेगी, इस 
बातका क्या तुझे विश्वास नहीं ?” 

इधर जबकि यह लब बातचीत होरही थी, दूसरी तरफ 
दो आदप्तियोने--शिवदा और बरेसाजीने-अपने विचारोंसे 
फुरसत पाई; ओर उस तरफ सिपाही जवान तथा वाबाजीकी 
जब ज़ोर ज़ोरसे बालें होने छगीं, तब उनका ध्यान भी उचर 
आकर्षित हुआ; और वे चुपकेसे खुगते रहे | जो बातें उधर हो- 
रही थीं, उनका बहुत कुछ अश्युवान उनको हो ही गया होगा; 
परन्तु अब मानों वे इसी विचारमें थे कि, बीचमें एकदम जाकर 
हम उनकी बातोंमें शामिल हों या नहीं | इधर चह सिपाही, जो 
कि शोकसे विलकुछ उद्॒विज्ञ होरहा था, ऐेसा जान पड़ा कि, 
उसका चित्त अब कुछ स्थिर हुआ। बाबाजीके ध्यानमें ज्यों ज्यों 
यह बात आती गई कि, अब उसका शोकावेग घीरे धीरे द्र 
होता जारहा है, त्यों त्यों उन्होंने अपने समाधानकारक वचन 
कहने शुरू किये--“तेरा ओर इच छोगोंका, अब सबका उद्दे श्य 
एक ही है। जो तेरा मानापम्नाव, जो तेरे चित्की चिन्ता, वही 
प्रानापमान ओर वही डिन्ता इन सबकी है, यह तू भच्छी तरह 
पम्मक । तू जिस बातकी इतनी सिन्‍्ता कर रहा है, उतनी चिन्ता 
करनेकी कोई आवश्यकता नहीं। तेरे ख्री सचमुच ही उस 
तम्रय क्िलेपर नहीं थी। वह एक दिन पहले ही, अपनी दासीके 












है ऊधाकाल कै के छश१७ /) 


90207 क्ष 5 2 4०१४४०+ ३७३० 


साथ, वहांसे चली गई थी। बहुत करके वह अपने नेहरको 
ही गई होगी; ओर फिर, मैं इस बातका तुकूकों वचन देता हूं 
कि, तीन दिनके अन्द्र ही में उसका पूण पूरा पता रूगा दूंगा ।” 

सिपाहीकी उस सप्रय जो चेष्टा होरही थी, उससे यह 
पहीं कहा जासकता था कि, बाबाजी यह जो कुछ कह रहे 


थे, उसकी ओर उलका ध्यान भी होगा अथवा नहीं। क्योंकि . 
छेसा जान पड़ता था कि, यह अपने मन ही मन कोई वियार 
करनेमें निमनझ है। स्वामीजी बहुत देरतक, अपनी ओरसे जो 
संम्राधानकारक वजन उससे कहते थे, कह रहे थे। फिर, जेसे 
उनके मनमें यह बात आई कि, देखो, हम क्या विययार कर रहे 
थे; और बीचरमें यह क्या अरिए आ उपस्थित हुआ, अतएव वे 


क्रिखित्‌ खिन्न ओर जअस्तले दिखाई दिये। इसके बाद, फिर सिपा- 
हीको खम्बोधन कर्ते हुए, उन्होंने कहा, “देख, शिवबासे मैं 
तीन दिनके अन्दर ही उसका पता लगा लछानेका वन द्लाठद 
हूँ--तू घबड़ा मत। मराठेके बच्चे को ऐसा घबड़ामा उचित 
नहीं ।” येसाजीने भो उससे यहो कहा | तब कहीं उसका चित्त 
जाकर कुछ शान्त हुआ। ओर फिर सब छोग अपने अगले 
 विचारपर आये। तानाजीको शुफाके द्वार्पर जो वे रशागी आकर 
प्रिछा था, उसने अपनी गत लप्ताहकी सारी कार्यवाहीका घिव- 
रण आकर बतलाया था; ओर इस सप्ताहमें जिन जिन बातोंका 

. वह पता छूगा सका था, उन सबका वुत्तान्व उसने बतलाया 
५ था। क्‍योंकि आज कितने ही दि्नोंसे इस बातका प्रबन्ध हो 


_2( इक “हनन फाससरकइत तन तप धशारन्‍ 2 भरकर कथन त स्‍्टत-+ मत प2++++>-- "हे, वि ७ 











8३५. ॥ नंवयुवक सरदार _ श 


॥ कक एन ७ पका; व यु सापथअकाआ 5“ माफ 








चुका था, कि महाराष्ट्रमे जहां कहीं कोई बात हो, तुरन्त उसका 
पक्का पता मिल जाय; ओर उससे जिस समय जो छाम उठाया 
जालके, उठा छिया जाय | स्वामीजी महाराजका उपदेश था 
कि, महाराष्रके सम्दृर्ण क्रिलोंपर-स्वयं बीजापुरमें, नहीं, नहीं, 
बड़े बड़े मुगल सरदारों ओर मराठे खरदारोंके घरानोंमें भी-- 
सप्तय समयपर जो घट्नाए' हों, उन सभी घटनाओंका जबतक 
हमको ठीक ठीक पता नहीं मिलता रहेगा, तबतक हमारा काम 
नहीं होगा । बस, अपने इसी उपदेशके अनुसार उत्होंने चारों 
ओरका पता रखनेके लिए, रूनन्‍्यासी, वेशागी, इत्यादि छोगोंमेंसे 
छको अपनी मणएडछोीमें मिला लिया था; ओर उन्हींको, अपना 
जपयथ क्त उद्देश्य सिद्ध करनेका, साधन बनाया था। किस 
क्िकेपर क्या क्या घटनाए' हुई' अथवा होनेवाली हैं; किस 
मुगल सरदारने किसका, किस प्रकार, अपमान किया; किसका 
क्या हुआ; द्रवारमें किसके विषयमें कया क्‍या चर्चा हुई, इत्यादि 
वातोंके विषयमें, जिस रीतिसे ठीक ठीक पता रूग सकता था, 
उसी शीतिसे प्रथल कऋषतेमें स्‍्वामीजी महाराज अत्यन्त निपुण 
थे। जिस वैराणगीने आकर आजका सम्राचार बतलाया, वह 
बेरागी भी स्वामीजीके उन्हीं साधनोंमेंसे एक था | उसने आज 
किस फ़िलेके विषयमें सम्रायार छाकर दिया, सो हमारे चतुर 
पाठकोंने ताड़ ही लिया होगा। बीजापुरका सुसद्मान सरदार 
 रणदुब्छाखां, सुलतानगढ़के क्रिकेदारको अधिझारच्युत करके 
कैद कर लेजामेको आया था; ओर खुमान तथा श्यामा, जबकि 
















| उधाकारक 9 पट कं) 
8 4७(६७0/(६)) 0.3, ही २३७७-०० «ह५-न हक, 


किलेदारका पत्र लेकर देशमुखके यहां जारहे थे, तब 
उन्होंने जिस गोटेश्वरके मन्दिरमें रात बिताई, उसी मन्दिरके 
पास, दूसरे दिन खुबह आकर, उसने अपनी छावनी डाली थी। 
इसका स्मरण हमारे पाठकोंको अवश्य ही होगा | वहांसे अपनी 
छावनी उठाकर फिर बह सीधा खुलवानगढ़फे क़िलेपर पहुंचा । 
खानके किलेपर पहुंचते ही, उस समयके नियमानुसार, 
किलेदार रुमालसे हाथ बांधकर उसके स्वागतको आया। 
सरदार रणदुब्लाखां उम्नमेँ बिलकुल छोटा था, पर विचारमें 
बड़ा गस्मीर था; और उसकी कठेव्यदक्षता भी विशेष प्रसिद्ध 
थी, अतएव बादशा इक्रा उसपर बड़ा विश्वास था। यही कारण 
था कि, बीज्ञाएरफें, मुशर - जगदेवराजकी तरह, उसका भी 
अच्छा प्रभाव था | इसके सिवाय, स्वभाववें भी वह एक अच्छा 
मनुष्य था । सदुगुणोंकी क़रर करता था । क़िलेदार साहब 
जब उसके सामने आये, तब उसमे स्वयं आगे बढ़कर उनके 
हाथ पकड़े; ओर बोला, “क़िलेदार साहब, में हुब्मका गुलाम 
हूँ--श्सलिए हुक्म बजाने आया हूं | आप यह दिलकुछ न सोचें 
कि; मेरे हाथसे आपका किसी प्रकार अपन्रान होगा। आप 
_सिफे हुक्‍सके अतुसार मेरे साथ चलें। अपनी इज़त ओर 
प्रतिष्ठाके अनुसार ही मैं आपको छेवल्‌गा । इसके सिवाय में 
इस यबातकी ख़बरदारी रख गा कि, आपके पीछे यहां किसीको 
कोई कष्ट न हो ।? डसका यह अद्बका भाषण झुनकर क़िले- 
 दार साहबको बड़ा आख्र्यसा हुआ। द्मोंकि ऐसा झूथाल 











0५ ४३३ /2 द 8 नवयुवक सरदार कई 


७०७--१८-५--५ ३४७ ८८. पक 





उनको खप्तमें भी न था कि, सुसदमान सरदार, जोकि हमको 
कैद करने आया है, हमारे साथ ऐसा अद्बका बतांव करेगा। 
खानने जब पहले ही इस प्रकारका बतांव क़िलेदारके साथ 
किया, तब उसके सिपाहियोंकोी यह देखकर अत्यन्त आश्रय 
हुआ--मालिकने जब खय॑ ही इस प्रका रका बताव किया, तब 
उसके सिपाही क्या कर सकते थे ? स्लान किलेपर बिलकुछ 
ही मुकाम नहीं करना चाहता था, इस कारण उसने अपना 
साश ख्लेमा नीचे ही रखा। जिस नवयुवक मराठे सरदारको 
उसने पिछले झुक़ामपर अपना कृपापात्र बनाया था, वह भी 
उसके खेमेके साथ था। ख़ानने उससे अपने साथ क़िलेपर 
चलनेके लिए बड़ा आग्रह किया, पर उसने यह बात रुवीकार 
नहीं की। इसलिए यह कहकर कि, अच्छा, जो कुछ करना 
है, में हो बहुत जद्द्‌ करके आता हूं, वह ऊपर चला गया। 
इधर नीचे जो तम्बू लगा हुआ था, उसमें वह नवयुवक मराठा 
सरदार, जिसपर कि ज़्बरदस्तीकी सरदारी छादी शयी थी, 
अत्यन्त विचारमें निम्न इघर-डघर घूम रहा था। उसके मनमें 
जो विचार इस समय आ रहे थे, बहुत ही उद्वेग उत्पन्न करने- 
वाले माल म होते थे। क्योंकि, ऐसा दिखाई दिया कि, बारबार 
वह बीच बीचमें, अपने आंसू, जोकि उसके नेत्रोंसि निकल रहे 
थे, पोंछ रहा था। साथ ही बीच बीचमें वह दीघे निःश्वास 
भी छोड़ता जादा था। “प्रसंग बहुत ही बिकट है; और 
अब बहुत जरूद जो प्रसंग आनेवाला है, वह तो बहुत ही विकट 








(६ ४३८ ४) 


ऐ न्म्म्वाक 
८ आ0 5 आल 3 





होगा, इसमें सन्देह नहीं । भाग जायें, तो यह भी सम्भव नहीं।... 
ऐेखी दशामें करना क्या चाहिए १” इस आशयके उद्गार उसके 
मु हसे, उस थोड़े समयके बीचमें ही, न जाने किदनी बार निकले 
होंगे। “करने कुछ जाओ; ओर होता कुछ है ! ऐसा प्रसंग! 
ऐसा प्रसंग आजतक किसीपर भी न आया होगा। न आया 
होगा क्यों ? सचप्तुच्र ही नहीं आया। किन्तु इस प्रसंगकी 
विचित्रतापर आश्चय करते रहनेसे कया छाम ? छिसी न किसी 
उपायकी योजना करनेसे ही काम चले गा |?” इस प्रकारके भी 
विचार ओर उद्गार उसके मनमें मानों आरहे थे। उसे 
यह भी मालूम था कि, हमारी सब बातोंके ऊपर दूसरेको 
निगहवानी है। यहांतक कि, वह जानता था कि, हम जो कुछ 
अपने आपसे कह रहे हैं, वह भी किसी न किली अनर्थका 
कारण होसकता है। इसलिए उसने सोया कि, जो कुछ 
करना हो, अत्यन्त सोच-विचार करके करना चाहिए। ये सब 
यात मनमें लाकर ही वह चहांपर पूरी पूरी सावधानीका बर्ताव 
कर रहा था। ऐसी दशामें भो, कह नहीं सकते, उसपर ऐसा 
कोनसा प्रसंग शुज़्र रहा था जो हो। 
विचार करते करते कोई युक्ति उसे सूकी; ओर उसके 
सचिन्त चेहरेपर कुछ मुस्कुराहटकी भलक दिखाई दी | ज्ञिस 
.... भधरस॑ंगके आनेसे उसको अत्यन्त कश्की संभावना जान पड़ती 
*.. थी, उस प्रसंगको टालनेके लिए कोई न कोई युक्ति उसे सूक 
पड़ी। इससे उसके मनको जो कुछ थोड़ासा आनन्द हुआ, 















१४9: ७छछए 








है क्‍ |, | खानकी रात कैसें बीती & रात केसे बीती कै 


"कप ७>ज4काक 5हु:दे2०-ी एक सा आया पाककाड 2९.2 


उसीका वाद्य चिन्ह उसके चेहरेपर उस मनन्‍्द्‌ स्मितके स्वरूपमें 
प्रकट हुआ | सुक्ति सूफी सही; पर ज्यों ज्यों अधिकाधिक सप्तय 
जाने रूगा, त्यों त्यों मानो यह शंका भी उसके मनमें आने 
छूगी कि, देखना चाहिए, यह युक्ति हमारे मनके अनुसार कहाँ- 
सक सफल होती है । | 


कााउंकददीफापकक, २५व०००»9»»०+क भर ७०००५) कम नम-थ 


इकतीसवां परिच्छेद । 
-“-+आ९+४-- 


8) 8) 


खानकी रात केपे बीती ? | 
इधर रणहठुल्लाखां और किडेदार साहबकी--जैसाकि 
पिछले परिच्छेद्में बतलाया--जब वह आगत-स्ब्रागतकी भेंट 
होचुकी, तब वे दोनों बहुत देरतक, एकानन्‍्त्में कुछ बातचीत 
करते रहे। बातयोत समाप्त होनेपर जब अन्य लोगोंको डस 
कमरे आवेकी इज़ाज़त हुई, तब छोगोंने देखा कि, दोनोंके 
चेहरे बिलकुल हास्यपूर्ण हैं; ओर इसकारण, रणडुब्लाख़ांके 
देखते ही किछेपरके छोगोंमें जो एक प्रकारका यह आतंक छा- 
गया था कि, “अब किलेपर कोई न कोई भयंकर हलचल होगी, 
बड़ा उपद्व मेगा,” सो आतंक, यद्यपि बिलूकुछ तो नहीं, फिर 
भी बहुत कुछ अंशर्म कम होगया । यह सब हालत देखकर 
अन्य सब छोगोंको बहुत सनन्‍्तोष सा हुआ । सिर्फ एक व्यक्तिको 
अवश्य, मानो यह देखकर ही कि, यह सार हाल हमारी आशाके 









ह उपाकालछ है 
या 





बिलकुल विरुद्ध हुआ, बहुत बुरा मालूम डुआ। वह व्यक्ति कौर 
या £ पाठकोने धराय: ताड़ ही छिया होगा । इसलिए अद विशेष 
स्पष्ट करके बतलामैकी आवश्यकता नहीं जान पड़ती | छोगोंको 
यह स्पष्ट दिखाई दिया कि, क़िलेदार साहब कुछ द्निके लिए 
बीजापुर जारहे हैं; और इसके अतिरिक्त अन्य कोई क्रान्ति 
होनेका रड् दिखाई नहीं देता | एणडुबलाखांने बहुत देरतक 
किलेपर मुकाम किया । अन्तमें यह निश्चित हुआ कि, दूसरे 
दिन किलेदार साहब रणदुब्लाखांके साथ बीजापुरके लिए क़ूय्‌ 
करेंगे | इसके वाद खान अपनी छावनीमें नीछे - पीपस आगया | 
जंह मराठा सरदार, जिसको कि खानने अभी हालहीमें 
अपना कृपापात्र बजाया था, इस पातके लिए बड़ा उत्सुकसा 
दिखाई दिया कि, खांसाहब कब नीचे आयें; ओर कब उनकी 
हमारी मुलाक़ात हो। इच्र सांसाहब जब नीचे आये, तब 
उनको भी मानो अपने वबीन मित्रसे मिलनेकी बड़ी भारी उत्कंठा 
हुई। क्योंकि नीचे आते ही उन्होंने यह सन्देशा सजा कि, 
सरदार साहब क्‍या करते हैं ? विशेष काममें जे हों, तो उनसे 
सुझाकात करनेकी हमारी बड़ी इच्छा है।” सन्देशा पाते ही सर- 
दार साहब उठकर रणदुंबलाखांके पास आये; ओर बड़े अदबसे 
मुजरा करके दूर बैठ गये। यह देखकर खांसाहब उनकी ओर 
देखकर हँसते हुए कहते हैं, “क्यों सरदार साहब, में आपको 
.. अपना पका दोस्त समता हैं; ओर आप यह दूजा भाव रखते 
. हैं- आप ऊपर नहीं चले, इसलिए वहांका खब वृत्तान्त बत- 











50:30 500 52:00 


२22८2 र्क 33% ७027 < 


लुक 











(& $) खानकी रात कैसे बीती 
खडे 307९ &६£% ल्व्ट्च्च्चउ्स्फड आओ 
अकीनकया: “ईपलााईक न स्लय्ल्ट्ःध७ड 9 -ल्क्ा कैश 


लानेके लिए ही मैंने आपको इस समय बुलाया है। आज ऊपर 
जाकर किलेदार साहबकी मेंने पूरी पूरी इज़्त-प्रतिष्ठा रखी; 
और कहा कि, “क्या बतलाऊ' साहब, में हुक्‍्मका गुलाम हूँ । 
किछेको अपने अधिकारमें छेकर आपको कैद कर लेजामेका झुझे 
हुक्म हुआ है। उस हुक्मकी तामील करना आवश्यक है। पर 
आपको अपने पिताके तुल्य समझता हूं । आप बिना किसी 


०... 


संकोचके मेरे साथ चलें। बीजापुर पहुँचनेपर भी आपकी 


 इज्शत और प्रतिष्ठामें किसी प्रकारका धक्का न लगने पावेगा 


और जहांतक होसकेगा, आपके रहनेका प्रबन्ध भी उत्तम रखा 
जायगा, इसका दायित्व में अपने ऊपर लेता हूं।” मैंने ज्यों ही 
उनसे ऐसा कहा, उनको बड़ा आनन्द हुआ। इसके बाद बहुत 
देश्वक हम दोनों अनेक प्रकाए्की बातचीत करते रहे। उनके 
पुत्र नानासाहबके विषयमें भी द 7तवीत निकली थी | उससे 
मालूम हुआ कि, क्िलेदार साहब यह जानते हैं कि, नाना- 
साहवकी उद्दए्डताके कारण ही आज उनपर ऐसी नोबत आई | 
नानासाहब इस फन्देमें न पड़कर यदि बीजापुर चले जाते, तो 
हुजुरकी तरफसे उनको बड़ी मान प्रतिष्ठा होती; पर क्‍या किया 
जाय, उनकी बुद्धि ही विपरीत होगई, इसके . लिए कोई उपाय 
नहीं। मैं खय॑ वहां था, बातकी बातमें उनके गुणोंकी कदर 
होती, ओर डनकी उन्नति होगई होती |” द 
कह नहीं सकते, क्या कारण था, रणदुब्लाखांने जब अन्तर्मे 
नानासाहबके विषयमें बात निकाली, तब वह बारश्बार अपने 











| डषाकालू मं ६९ ६७२ है, 


च० ७५८ (८५४० क्ष ७ 52 ७ 2, 


साथीके चेहरेकी ओर देखता जाता था; ओर जब रणदउलायां 
उसके चेहरेकी ओर देखता; ओर यह बात उस सरदारके ध्यानमें 
आती, तब वह उसकी नज़र बचानेकासा प्रयत्ष करता था। 
किलेपरका सब वृसान्त बतला छुकनेके बाद रणदब्लाणांगे 
उससे स्वाभाविक ही पूछा, “आप क़िलेपर सुबह क्यों नहीं 
चले १? सरदारने पहले तो “यों ही, कोई बात नहीं? कहकर 
मोका टाल दिया; पर फिर, जब खानने यह कहा कि, “कोई हानि 
नहीं, कछ खुबह उनसे आपकी मुलाकात कराऊगा,; क्‍योंकि 
अब बीजापुरतक वे हम छोगोंके साथ ही रहेंगे ,” तब सरदार 
साहब कहते हैं, “नहीं, नहीं। मेरी ओर उनकी मुलाकात 
आप, जहांतक होसके, न करावें; बढठिक न कराना ही अच्छा 
होगा । क्योंकि मुकको वे जानते नहीं; ओर व मुकपर उनका 
कोई प्रेम है। बल्कि मुककों देखते ही शायद्‌ उनको क्रोध भी 


... आजाबे; क्योंकि उनका खयाल है कि, जिनके कारण उनके 


ऊपर आज यह नोबत आई, वे मेरे ही बहकानेसे बिगड़ गये है 
इसलिए कृपा कीजिए; ओर ऐसा मोक़ा न छाश्ये कि, जिससे 
.. मैरी उनकी आमने-सामने मुलाकात होजाय । यही आपसे 
, . प्रार्थना है। मेंने आपसे बहुत बार निवेदन किया कि, अब मुझे 
.. आप अपने घर जाने दीजिए, पर आपने हवीकार नहीं किया, में 
.._ छाचार होगया। पए इतनी प्रार्थना तो आप अवश्य खीकार 


कम ४ कर |? 


इतना कहकर वह रणदुब्लाखांके चेहरेकी ओर आतुर्तासे 











. फीफा ० » भय अमरएुमााएाश 75 











रु ले री डे है ख़ानकी रात कैसे बसी है इक कैसे बै.ती ह 
०१३ “4:0-* हैं; ब्स्््ज्ट्ट््च्यश-लपशिण 
देखने लगा। उसका कथन--विशेषतः उसका अन्तिम वाक्य 
अप्ती सम्तात्त न होने पाया था कि, रणदुदछाख़ां एकदम उससे 
कहता है, “आपकी मर्ज़ीके विरुद्ध में आपको सरदारी देरहा 
हूं, इसपर आपको इतना बुश लगमेका कोई कारण नहीं । 
क्योंकि आपके अन्दर सरदारोंके योग्य सभी सदुस॒ण मौजूद हैं; 
और मैं नहीं ाहता कि, उन सदुसुणोंका कोई उपयोग न हो । 
इसीलिए में आपसे यह आश्रह कर रहा हूँ । आपने डोसाकि 
पइले खीकार किया है, मेरे साथ बीजाएुरतक तो अवश्य ही 
चढें। चहां आपकी कैसी क्या मान-प्रतिष्ठा होती है, सो देखिये। 
फिर यदि आपको वहां रहना पसन्द ने आवबे, तो आप खुशीसे 
लैट आइये । पर इस समय तो जानेकी बात न निकालिये । 
क्योंकि जानेकी बात जब आप निकालते हैं, तभी मेरे मनमें 
आता है कि, में तो आपके साथ इतना प्रेभका बताव करता हूं; 
और आपका विश्वास झुफपर बिलकुल नहीं जमता । 
इस प्रकार जब रणदुढ्काखांने कुछ तेज्ञीके साथ कहा, तब 
हमारे सरदार साहब कुछ उकितसे दिखाई दिये । इसके बाद 
कुछ देरतक इधर-उधण्की और गप-शप हुई, फिर ज़ांसाइबके 
« बैठिये, बैठिये ” कहकर आम्रद करनेपर भी हमारे सरदार 
साहब उठकर अपने तस्वूमें के आये | अब रात बहुत हो- 
चुकी थी | अहमद भीतर आकर खालाह बसे “खाना तैयार है” 
कहकर चला गया। परच्तु खांसाहबका मन उस समय कुछ 
अंशरम अखस्य सा दिखाई दिया--कह नहीं खकते कि, उस 


















, उधाकारू . छु हक) 
हे न्च्य््क्क्द्ा ८ 3 अप 


मराठे सरदारसे अमी इतनी देरतक जो बातचीत हुई, उस 
कारणसे, अथवा अन्य किसी कारणसे--चाहे जो कारण हो, 
किन्तु ख़ांसाहबका बित्त उस सम्रय कुछ अशामन्त अवश्य था | 
इसलिये उन्होंने नोकरसे कहला भेजा कि, हमें भूख बिलकुछ 
नहीं है, ओर फिर कपड़े इत्यादि निकालकर पर्लंगपर ज्ञालेर- 
नेकी तैयारी करने लगे। बिद्राकी जितनी कुछ वाह्य तैयारी 
करनी चाहिए, उतनी सब उन्होंने की। ऊ'चे और विस्तीज 
परेंगपर घुटनोंतक ऊंचा परोंका गद्दा पड़ा हुआ था, उसपर 


लेटकर तकियैपर लिर रखे हुए घंटों वे निद्वादेवीकी आराधना 


करते रहे। परन्तु कुछ लाभ न हुआ--सारा सप्य उन्हें करवएें 


बदलते ही बिताना पड़ा | उ्च समयकी उनकी सारी चेष्ठाओं-. 
से यही प्रतीत होरहा था छि, नींए उनको किसी प्रकार भी 
नहीं आरही है। ऐसी अखस्थ अवस्थामें भी कितनी देर पड़े. 


रहते ? अन्तमें बेचारा उठा; और कुछ दैरतक परढेँगपर ही बैठा 
एहा। पर उस अवस्थामें भी चैन नहीं ! अन्तमें पढँगपरसे भी 
उठा; ओर तस्बूके द्वारपर आकर आकाशमें टिमटिसाते हुए 
ताशगणोंकी ओर देखता हुआ चुपके खड़ा रहा | कितनी ह्दी 


बार उसने दीघे निःश्वास छोड़े, और डसी द्रवाजेपर खड़े 


हुए, कमसे कम, बीस-पद्चीस बार उसने उस मराठे सरदारके 
तस्बूकी ओर देखा होगा; पांच-सात बार अपनी उस खड़े रह- 
नेकी जगहसे उस तस्बूकी ओर जानेको भ्रवृत्त हुआ होगा। 
. क्योंकि उस तस्वूकी ओर नज़र रखकर कई बार उसके क़दम 















न ननननननलनननन बन थम न-+ पक. लक दबा व्सालमवामत रद पाउाउरकबका्कअाम है हु 5 


४५७४६ ४४४0%25 लए 











है ५ 2) खानकी रात केसे बाँदी £ 
, 35 +5 द 


धो  फ नहीदत नरक न्‍“ख्य्स्लापस्वस्ल 
अपने तम्यूसे बाहर निकले; परन्तु बहुत जठद फिए उसने उनको 
पीछे हृटासा लिया। इसी धकार उसने पढूँगसे छेकर तम्बूके 
द्वास्वक और तस्बूके दास्से लेकर ५ ढँगतक, अनेक चक्र 
लगाये। इसके बाद फिर ख्ांसाहब मानो अपने विचाश्में ही 
लिमझ होकर चुपके खड़ेसे होगये। उस समय चाहे आस-पास 
कोई आाया-गया भी होता, तो भी उनके खयालमे न आय्श 
होता। न जाने ऐसा बीनसा विचार उनके मनमें आरहा था * 
जो विजार उस समय उनके मनमें आरहा था, देह खेद्प्रद्‌ 
अवश्य था, इसमें सन्हेह नहीं; क्योंकि उनके चेहरेपर उस समय 
खिद्नताके अतिरिक्त ओर किली विचारकी भी छाया इृष्टिगोचर 
नहीं होरही थी । द | 
इस प्रकार जबकि खांसाहब स्तव्घ खड़े हुए थे, उनके. 
'सम्बूमें कोई व्यक्ति आया; और बिलकुल उनके पास ही आकर 
मे शब्द उद्यारण किये, “ अजो हज़रत, ऋाज आपकी यह क्या 
हालत होस्दी है? रोज़ आप इस वक्त, गदरी नींदमे हुआ करते 
औओ, पर आज क्या होगया ?” इन शब्दोंके कानमें पड़ते ही खाँ- 
साहब एकद्म चौंक पड़े; ओर उक्त व्यक्तिको ओर विलिन् 
दृष्टिसे देखने लगे । यह कौन व्यक्ति है, क्या कह रहा है; खो 
मानो कुछ उनकी सममझहोंमे न आया। बहुत देर जब थे उस 
व्यक्तिक्री ओर उसी इृष्टिसे देख खुके, सब एऋदस, जैसे होशर्म 
आकर, उन्होंने उस व्यक्तिको पहचाना; ओर फिर बोले, “अह- 
मद्‌, तू क्या मुझपर नज़र रख रहा' है में किस समय क्‍या 














 उचधाकाह (६ ज) 
हि 
 अिवधधदनाि 3 छठ ] 82% 


सह 
ऊाम करता हू, उसपर क्‍या तेरी नज़र रहती है ? तू अपनी 
रावटी छोड़कर इधर क्‍यों आया ? तुझे आये कितनी देर हुई ? 
आनेका कारण ?” 
इस प्रकार, अत्यन्त अस्त स्वससे, उन्होंने एके: बाद्‌ एक, 
अनेक भश्च अहमद्से किये। अहमद वेचारा धबड़ा गया, और 
जब उन थश्षोंका प्रवाह बन्द हुआ; और उससे उसे कुछ फुर- 
सत मिली, तब वह हाथ जोड़कर बोला--« सरकार मैंयों 
ही अपनी रावटीसे बाहर निकछा, ओर आपकी आह पैर 
का्ोंमें गई। सोचा कि, शायद्‌ आपको किसी लीजकी जरुश्तः 
हो, इसलिए आपके तम्बूकी तरफ़ चला; छेकिन देखा कि, आप 
न जाने कितनी देस्से तम्बूके द्वारपर ही खड़े है। इसपर यों 
ही मुझे यह लाछूखा हुई कि, देखें, इतनी शाहकों आप यहां 
खर्डू हुए क्‍या कर रहे हैं? यह भी समझता कि, शायद्‌ आप 
सुने ही पुकारमेके लिए द्वारपर जाये हों, इसलिए जब आपकी 
ओर देखने छगा, तब आपके चेहरेकी स्गत कुछ ओर ही दिख- 
लाई दी। मैं डखी वक्त, आकर आपसे अज़ करनेवाला था; 
पर यह सममकर कि आप कहीं नाराज़ ने होने लगें, मैं इतनी 
देर ठहर गया । अन्तमें जब इस फ़र्मांबरदार नौकरसे बिलकुल 
हो रहा नहीं गया, तब आगे वड़कर आपसे अर्ज़ किया। यदि 
इसको बतछानेलायक कोई क्राप्त हो, तो ज़रूर फ़रमायें। 
. ऐखा नहीं कि, मैंने आपका दिल ताड़ न लिया हो। पर अब- 
... तक आय इजाज़त न दें, मैं कुछ कह नहीं सक 


है 


























ता, यह बिरुकुछ 
















० पी पश प री 
/क्ष ते । 
(५. ४४७७ है 4 खानकी रात ऋछले बात 
न्यॉग्रो००गम फल नहीरह-णरी के 0७0०० २-० ४३ ८ सा किए 


अहमद जबकि इस प्रकार अपना लब्बा-चोड़ा तुंबार बांध- 
रहा था, खांसाहबका ध्यान अधिकाँशमें उस ओर नहीं था | 
परन्तु ज्यों ही उन्होंने अहमदके मुखसे अन्तिम वाक्य सुना, 
त्यों ही एकदम उनका ध्यान उस ओर आकर्षित हुआ; ओर 
थे तुमन्त ही उसकी ओर देखकर बोले, “ क्यों? मेरे मनमें 
क्या है, जो तूने ताड़ा है ? अहमद, यह यदि सच है, तो कहना 
चाहिए कि, झुफसे भी अधिक तुमको मेरे मनकी जानकारी 
है। क्योंकि मेरे मनमें क्या है, सो मुझे ही ठीक ठीक इस 
सम्रय माह्ूम नहीं होरहा है!” 

इतना कहकर उन्होंने एकद्म एक रूम्बीसी सांस छोड़ी; 
और फिर बहुत बेश्तक अहमदकी ओर शूम्यद्वष्टिसे देखते हुए 
खड़े रहे । अहमदने, मानो यह समककर ही कि, मेरे बोलनेका 
यही अच्छा मौका है, लांसाहबकी ओर देखकर कहा, “गरीब - 
परवर, उस ठब्बूक्ी ओर जाकर अपने नवीन दोस्तसे बातजीत 
करनेकी क्या आपको इच्छा नहीं हुई ? आपने इसी उहं श्यसे 
न जाने कितनी वार तस्बूसे बाहर क़दम निकाछा ओर फिर 
पीछे हटाया !” ये चाक्य बोलते समय अहमद ऐसी कुछ 
विचित्र रीतिसे €सा कि, उसका वह दंसना उस समय थदि 
आर किसीने देखा अथवा सुना होता, तो उसे थोड़ा बहुत 
क्रोध उसपर अवश्य आया होता । क्‍योंकि उसके उस इँसमेमें 
कोई न कोई बहुत हो गूढ अभिप्राय अवश्य था, जो स्पष्ट 


दिखाई दिया । 









रह जधाकाल 


3 ४४८ १0, 


ब्प्दः :क५०००४:३) 6१३० 





कह नहीं सकते कि, उसका वह हँलना ओर बोलना खाँ- 


साहबके कानोंमें पड़ा, अथवा नहीं | क्योंकि उनका ध्यान उस 


ओश नहीं था। बे किसी अपने ही वियारमे निमन्न थे। ऐेसखा 
यदि न होता, तो अहमदके उछ कथनसे उनको भी क्रोध आये 
बिना नहीं रह सकता था। फिश भी अहमदके कथनमेंसे कोई 
कोई शब्द्‌ उनके कामों अवश्य पड़े होंगे । क्योंकि अहमदका 
कथन सम्राप्त होनेके बाद कुछ देश्वक वे चुपके खड़े रहे, और 
फिर अन्तमैं उन्होंने कहा, “अहमद, तू यह. कहता है कि, मेरे 
मनके सारे उद्दे श्य तूने ताड़ लिये हैं? तू क्या यह कह सकता 
है कि, भेरे अखस्थ होनेका कारण तेरे ध्यानमें आगया है? 
अच्छा, तो तू बतला तो सही फि, में इतना अखस्थ क्‍यों हू ? 
अरे सूख, में अस्वस्थ नहीं ह'। अखस्थ होनेका कोई कारण 
भी नहीं । यों ही गत सप्ताहमें जो मुझे हैरानी उठानी पड़ी है; 
ओर जो परिश्रम मुझसे हुआ है, उसीके कारण झुस्हे नौंद नहीं 
आई, ओर में इधर-उधर टहल रहा था। तेरे मनमें यदि कोई 
शंका आई हो, तो बिलकुछ छोड़ दे । विलकुछ चुपकेसे अपनी 
_ रावटीमें जाकर सो !” यह सुनकर अहमद फिर दँलखा; ओर 
डनसे बोला, “ुज़्‌ र, यह बन्दा आपकी ऐेली बातोंमें वहीं आ- 


.. सकता। आपके मनको कोई न कोई बात बहुत दुःख देरही 
..._ है, इस विषयमें मुझे कुछ भी सन्देड नहीं। गरीबपरणर, आप- 
.... का प्रम इस नवीन मराठे दोस्तसे बहुत होगया है; ओर इसी- 


_ कारण तो आप इतने बेचैन नहीं होरहे हैं ” 












(( ः 2) खानकी रात केसे बीती£ 
७५ 38६ ४८ लि 
+बहेक--मिकन.../गा- "युक्त फल रिक्‍33 ३ 77० पा आलछ 





इतना कहकर अहमदने अपनी जीभ दांतोंत्े दबाई। 
मानो उसने यह समझा कि, हम आवश्यकतासे अधिक बोल 
गये। परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि, जो कुछ उसने कहा, सो 
जान-बूककर ही कहा। कुछ समय पहले भी उसने इसी 
आशयके वाबय कहे थे; ओर उनको कहते समय वह एक 
विचित्र तरहसे हंसा था, इत्यादि बातें पाठकोंको असी भूली 
सहीं होंगी। उस समय उसके थे शब्द खानके कानोंमे नहीं 
पड़े थे। पर अबकी बारके शब्द वेसे नहीं थे। इस बारके 
शब्द्‌ खानके कानमें पूर्ण रूपसे पड़े, और एकद्म उसका चेहरा 
भी बदल उठा। वह इतना ऋद्ध दिखाई दिया कि, उसके मु हसे 
शब्द भी न निकलने लगा; और शब्द निकलनेयोग्य स्थितिमैं 
वह आनेहीवाला था. कि, इतनेम॑ विधवेकने स्लरी उसके मनमें 
प्रवेश किया; और उसमें कुछ खुदुताली छा दी। बस, तुरन्त 
ही उसने सोया कि, हमारे सच्चे सच्य॑ विधार जब इसको 
माल्म होगये हैं, तब फिर इसपर क्रोध करनेसे क्‍या लाम ? 
परन्तु ठीक ठीक कह नहीं सकते कि, उसने यही सोचा, अथवा 
ओर कुछ सोचा--हां, इतना अवश्य हुआ कि, उसके जेहरेपर 
पहले जो क्रोध दिखाई दिया था, घह उसके कथन दिखाई नहीं 
दिया। क्योंकि घीरेसे उसने अहमदसे इतना ही कहा, “अह- 
मद, तू क्या कह रहा है--कुछ होशमें भी है! ओर कोई मालिक 
होता, तो तुककों इस समय उसने बड़ी भारी ताड़ना दी होती | 

जा, अब तू यहांसे चला जा | फिर यदि तूने इस विषयमें 








(हि उफाकाओ 


फहफ्राक: +म पअकद। १४७७० भाों५७५ ४४ >'ात (4, कै 


22४४ छोे,. 


+ हु 
५००-६+>नेकेट.. पिपकंग......-... ब००० न 





मुकसे, अथवा ओर किसीसे एक अक्षर भी कहा. तो तुकको 
जानसे मार डालूंगा | अच्छी तरह समझ छे जा, अब 
यहांसे दल जा । 

परन्ठु ढोठ अहप्द बदांसे एक फर्म थी नहीं डिलला, थ 
खड़ा रहा; थोर फिर ख़ानसे योरा, “परच्छु सख्खार, जो बात 
बिलकुछ अपने हाथकी है, उसके छिए इतनी वैसैरी और इसमे 
विदयारको आवश्यकता ही क्या है? आपकी आज्ञा हो, तो 
में"? आगे उसने क्या कद्दा, सो, ऐला जान पड़ा छि, ख़ां- 
साहबको, जोकि क्रोधचसे बिछकुछ बश्चिर होगये थे, खुबाई ही 
नहीं दिया | 


६22 


न्न्ल्ल नल 


बत्तीसवां परिच्छेद । 
-उयरीओेंद+३ ६०4 । | 
बीजापर जानेपर १ द | 
ख़ान क्रोधसे इतना पागछ होगया कि, न सिर्फ उसे 
कानोंसे सुनाई ही दिया; बह्छि आंखोंसे दिखाई सी नहीं दिया | 
वह अदपदद्दी सूरतकी ओर फिल नज़रसे देखने छगा, सो अह 
मदको ही मालूप ! आजतक को उसके माठिकने ऐसी 
दुश्टिसे कभी भी नहीं देखा था। ख़ामका क्रोध इतना बढ़ा क्‍ 
छुआ दिखाई दिया कि, उसके मु हसे एक शब्द भी वहीँ निकल 
सका | वह कुछ कहना अचश्य याहता था; यही नहीं, बहिक 
. बोलनेके लिए उसके होंठ आएतुरसे होरहे थे, पर एक शब्द्‌ भी 











परन्तु वे इस प्रकारकी आवाज़ उच्चारण किये गये थे कि, 





हा 7 छ 
बट 2) ' दाज जुर आन५ 
॥ ०. हि *| शै्‌ ५ १ बा अल हु अब श 
न्यक्रिकन "कापए/- ब्यूस्क-चदक- ०४-77: कक 


मु हसे नहीं निकलता था। लगभग एक मिनट वबद उसी दुष्टिसे 
अहमदकी ओर देखता रहा । इसके बाद फिर ल्ानके शब्द, 
जो यहुत देरसे संबिदसे होरहे थे, एफ़द्म उलके मुखसे बाहर 
निकले :--“अहप्द, में खब जानता हूं कि, आज अनेक वर्षसे 
तेरे बापके लाथ ही साथ तेरे घरके सथ लोग मेरे घरमें बड़ी 
ईप्रानदारीसे नोकरी करतदे व्यवे हैं. ओर इसीकारण आज में 
तुझे माफ़ करता हू, नहीं तो मार ही डाला होता। तू अपने 
मालिकको अच्छी तरह जानता नहीं है; ओर इसीलिए अन्य 
मालिकोंकी भांति उसे सममककर तू इस समय इतता श्रममें 
पड़ गया। बच्च, इसी ख़यालसे आज में तुझे छोड़े देता ह। 
परन्तु आगेसे फिर कभी तूने यदि ऐसी ढिठाई दिखलाई, तो 
जानसे मार डालू गा। पहलेसे ही तू इस सम्बन्धमें कया क्‍या 
खयाक करता आया है, सो, ऐसा नहीं कि, भेरे ध्यानमें न हो । 
इसलिए अब तू बस, मेरी आंखोंके सामनेसे टल जा। ओर 
आगे तू इस विजयमें यदि झुकसे एक अक्षर भी कहेगा, अथवा 
ओर किसीसे कहा -ऐेसा मैं खुतूंगा, तो तुझे जीता ही गड़वा 
दु'गा, यह तू अच्छी तरह समझ ले |” 

यह खब कहते हुए खानने इतनी शान्ति धारण की थी कि, 
उस सशयके उसके क्ोघषको देखते हुए यही आध्यरयें करना 
पड़ता था कि, इतनी शान्ति बह धारण कंसे कर खसका। 
उसने जो शब्द्‌ उच्चार्ण किये, वे शान्तिपूर्ण तो अवश्य थे, 









० डक , 





| 3५२ ££ 


>> कक कक । 
जिससे अहमदके मनपर यह पक्का विश्वास होसकता था कि, | 
मोका आनैपर हमारा मालिक इनमेंसे एक एक शब्दको सच 
कर दिखिलानेमें चूक नहीं सकता ! इसलिए अब जञागे अहमद्‌- 
को ढिठाई दिखलानेका साहस नहीं हुआ; बढिक इस बातपर 
अब उसे आख़ार्यसा हुआ कि, इतना होमेपर भी में बचकर 
कैसे जाश्डा ह'। खामीका कथन समाप्त होते ही अहमद 
कुछ घबड़।सा गया; ओर ऊिए वहांसे चछता बना। उसके 
जानेके बाद खान मानो ओर भी अधिक अखस्थला हुआ; ल्‍ 
ओर बराबर, पहलेहीकी भांति, वह अपने तस्वूमें इधरसे उधर 
चकर छगानेलगा। उस समय ऐसा जान पड़ा कि, मानो 
कुछ अत्यन्त खेदुजनक विचारोंने आकर उसके मनबको उद्दविश्व 
कर डाला हो | 

मलुष्य जब अपने विचारोंसे बहुत ही डद॒विश्न होजाता है, 
तब कभी कभी उसके विच्यार--उसको न मशालूमत होते हुएचेौ 
उसके मु हसे अचानक बाहर मिकलने रऊगते है। वास्तवमें, 
ऐसे समयमें, उसके वियाण इतने कुछ छुब्च होजाया करते हैं, 
कि वे शब्दोंके रुपसे आप ही आप बाहर निकलने छरूगते हैं 
बस, खांसाहबकी भी उस समय यही हालत थी। अव्वल तो | 
उनको नींद नहीं आई थी; ओर फिर उसमें भी विचारोंने ज़ोर | 
. मारा ! फिर क्या पूछना है। मानो, जद्दी जल्दी इधरसे उधर ; 
पु बार बार चक्कर रूगानेके कारण ही थककर थे अपने पलगपर 
ज्ञापडे। और फिर आप ही आप कहते हैं, “आजतक में 














५ ह) जापुर जानेप 
रथ ४५३ 22) प बीजापुर जानेपर हे 
बस +-०२०३० “६०२०-पू4३3० च्च्य्च्य््ब्स्स्िकि 


ऐेसी बातोंकी बिलकुल काट्पमिक ही समझता था। परन्तु, 
देखो तो, झेवछ चार आंखे' होनेसे दी यह हालद | अबतक में 
इसको बिलकुछ असम्मव सम्रफता था; पर अब तो यह प्रत्यक्ष 
अनुभव है [** “परन्तु नहीं। यह रणदुब्छाख़ां ऐसी नीचता 
कभी नहीं करेगा । “संगतिसे वंचित न हों,लहवाल न छूटे”--- 
बस, इतनेहीके लिए अबतक जैसा बहाना दि्खिलाता आया, 
चैसा ही दिखलाता रहू'गा, इससे अधिक ओर कुछ में जानता 
ह--सो प्रकट ही न करूगा। परच्तु.........परमन्तु इससे 
अधिक यदि मेरे हृदयमें कोई विचार आने लगेगा, तो यह शख््र, 
जो मैंने दूसरेपर चलानेके लिए हाथमें ध्रारण किया है, अपने क्‍ 
ही ऊपर चला लूगा। इसमें ज़रा भी अन्तर नहीं पड़े गा 

इतना कहकर उसने एक अत्यन्त रम्बीसी सांस छोड़ी । 
ओर नींद आनेके लिए फिर वह सब प्रकारके प्रयल्ल करनेमें 
निमझ हुआ । उसके अन्तिम निश्चयने भानों उसके ऊपरका 
बड़ा भारी बोका हलका कर दिया। क्योंकि नींदके लिए वह 
जो प्रयत्न कर रहा था, उसमें सुबहकी ठंढी हचाने भी सहायता 
दी; ओर बहुत जरूद उसे गहरी त्रिद्रा आगई। उस निद्वाके 
सप्रय यदि कोई चहां होता; ओर वह बराबर उस निद्वा- 
निम्न खानके चेहरेकी ओर देखता रहता, तो अवश्य ही उसे 
यह द्ृष्टिगोचर होता कि, खानका मन, उस निद्वामें भी, 
विचास्मम्न है; परन्तु हां, उस द्शामें, उसके विचार कुछ उद- 
वेगकारक ओर कुछ खुखकलारकसे हैं | अस्तु । 





















4 उदाकाल कै ») 


४७७ ४७ 0. 
खानने पिछले दिन, जोसाकि मशउठे सरदारसे कहा था, 
तदनुसार ही सब बातें हु'। खान किलेदार साहवकों लेकर 
खला। मराठे खरदारने जेसाकि पिछले दिन खांसाहबसे 
वचन लेलिया था, उसके अनुसार ही, किछेदा! साहदसे 
उन्होंने उसकी झुछाकात न होने देनेके छिए पूरी पूरी सावधानी 
रस्खसी। सच तो यह था कि, उस मराठे सरदा रपर खांसाहबकी 
इतनी भक्ति होगई थी कि, वह जो कुछ कहता, वही खाँ 
साहब करते जाते, उसके विरुद्ध कुछ भी नहीं करते थे। अमी 
हमने बतलछाया कि, उन्होंने उस मरे सरदार्को किलेदारकी 
मुलाकातसे बचानेकी सावधानी रखी-यह नहीं, बिक उस 
सुलाक़ातका मौका न आने पावे, इसके लिए उन्होंने एक पक 
सुकाम आगे-पीछे रखनेका भी प्रबन्ध किया | मशछे सरदारको 
उन्होंने, अपने साथके बहुतसे छश्करके सहित, एक मुकाम आगे 


रवाना कर दिया! हां, उससे यह वचन पूरे तोरपर लेलिया 


कि, वह उनको छोड़कर ओर कहीं खला व जावे । खांखाहब 
अच्छी तरह सम्कते थे कि, अब इसपर विश्वास रखनेमें कोई 
हानि नहीं। उन्होंने जिस समय उसको एक मुक्काम आगे भेजनेका 
विचार निश्चित किया, उस सम्रय उनको बहुत बुरा मालूम 
छुआ | 

... उनके चित्तकों इस बातका बड़ा खेदू हुआ कि, अब बीजा- 
पुरतक मार्ममें हमारे मित्रकी संगति छूटती है। परन्तु उन्होंने 
सोचा कि, हमारा प्रित्र किलेदारसे मिलना नहीं चाहता; ओर 


_ -वलननस्‍नसनकललरकनन न नन न्‍मन नम हक सकल धरना भाग ए + 


अब 
स किसनामंबुरकपरलननकन-+-+++०+> >>59० 5... 
ग् 


_ ललित शणा+।। 7%। : 





( छणज |) 4 बीजापुर जानेपर _ 


20७७० ४ ब्द्च्च्ह्ट्य्ब्स्डऋ० 











मार्गम किडेदार, तथा हम सब जब एकत्र रहेंगे, तब यह सस्मव 
नहीं कि, एक बार भी किछेदारसे डसकी सेंट न होने पावे। 
ऐसी दशामें, इतना मित्र-वियोग सहन कर लेनेमें कोई हानि 
हीं, उसको राजी रखना यादहि बस, यही सब सोचकर 
उसने उपय कत रीतिले, मेराठे सगदारसे वचन लेकर, अपने 
ओर उसके सुकाममें एक मुक़ामका अन्तर रख दिया । 
र्गमें कोई विशेष घटना नहीं हुई; ओर रणदुह्लाख्ां 
अपने सब लोगोंके साथ बीजापुर पहुँच गया। वहां पहु चने- 
पर खांसाहवम अपने नवीन मित्रका, उसके ज़माने सहित, 
एक अछग स्थानमैं रहनेका उत्तम प्रःन्ध कर दिया। हाँ, सर- 
दार साहवसे गप-शप करनेके लिए बहुधा--जब जब अवकाश 
मिलता, तभी--अथवा यों कहिये कि, जब जब अवकाश 
निकारझ सकते, तब तब--खांसाहबकी सवारी उनके पास 
जाया करती थी | 
इधर खासाहवने किलेदार साहबके रहनेका भो बहुत उत्तम 
प्रबन्ध कर दिया । और यथायोग्य समयपर हुज़ुरके कानोमें 
यह समायार भी पहुँचा दिया कि, हम उनको लेआये--अथवा 
यों कहिये कि, कैद कर छेआये | वादशाहके ध्यानमें यह बात 
जमी थी कि, देखो, हमारे हज़ार बार कहनेपर भी किलेदारने 
अपने छड़केको हमारे पास द्रबारमें नहीं भेजा; ओर ज्यों ही 
यह खबर रूगी कि, हम उसे बुलानेके लिए. आदमी भेजते हैं; 
त्यों ही न जाने उसे कहाँ भगा दिया। बस, इस्रीकारण वह 








॥ उषाकाल है 


+ 0... (रत 22544 (0), 5) |॥ के पअ० (३) राणा हू 





क़िलेदारपर बहुत नाराज़ था, ओर उस बाराज़ीका ही यह परि- 
णाम था कि, आज उनके हाथसे किलेका सारा अधिकार 
छीन लिया गया; ओर उनको कैद होकर बीजापुर आना पड़ा | 
डनके हाथसे किलेका अधिक्रार छीनकर उनको कैद कर छे- 
आनेका कार्य पहले सैयदुल्लाखांकों देनेका निश्चय किया गया 
था; और सैयडुल्लाख़ां भी इस कार्यके लिए बहुत उत्सुक था, 
व्योंकि किलेदार रंगराव अप्पाके विषयमें, हसी खास उद्द श्यसे, 
उसीने बादशाहका मन कल्ुषित कर रखा था| परन्तु जब उस 
काम्रपर उसे सेजनेका मोौक़ा आया, तब बादशाहने सोचा कि, 
रणदुल्लाख़ांकोी खयं ही जाना चाहिए, ओर उसीको उसमे 
खुलतानगढ़ भेज दिया, तथा सैयदुल्लाखांकों दूरी तरफ अन्य 
किसी कामपर सेज दिषा। हम पहले ही कह चुके हैं कि, 
रणडुढ्लाख़ां एक बहुत अच्छे खभावका मनुष्य था; बल्कि यों 
कहना चाहिए कि, उस समयके मुसदान सरदारोंमें वह एक 
अपवादखरूप था । उसे द्रबारके अनेक खरदाशेंकी कार्य- 
वाही बिलकुल ही पसनन्‍्द्‌ न आती थो | किन्तु चह अच्छी तरह 
जानता था कि, हुज़ रके सामने यदि दूसरोंके विषयमें बार बार 
कुछ कहेंगे, तो उसका अच्छा परिणाप्त होना तो एक ओर--. 
बढिक्र कुछ बुरा ही परिणाम होगा; और इसीलिए यह दूसरोंके 
भंगड़ेमें कभी नहीं पड़ता था। वह जानता था कि, जहां हम 


.. दूखरोंके भगड़े में पड़े, और बादशाहको यह पसन्द न आया, तो 


है वह हमींपर नाराज़ हो जायगा; और यह एक प्रकारसे, व 


>न्‍मगतनओशन>ञनकतन+ा। “पक 


'>रनयअरल्‍मक्‍भ+>्काम समन धनन ८9० 772: क्फे० 
हज 2 मत े 3 नमन अशनलसमाक समन का 












58 2) ः बीजापुर जानेपर 


.. कक व ससचस्रशनधधा 3 + 


.. शक बीक ५६:२+-+पुस- ९०३39 9: रश० 


कारण, अपने पैरमें आप कुष्हाड़ी मारनेके समान होगा | इसके 
सिवाय, आज हमार द्यवारमें जो कुछ प्रभाव हे; ओर जिसके 
कारण हम, कमसे कम, दूसरोंका कुछ भमठा तो कर सकते हैं, 
सो भी जायगा। बस, यही सब बातें मनमें छाकर वह कमी 
दूसरोंके विवादमें नहीं पड़ता था । स्वय॑ बादशाह भी यह बात 
भलीमांति ज्ञानवा था कि, चाहे हम कहें भी, फिर भी रण- 
हुल्लाखां किसी निन्‍्द्नीय कार्यमें हाथ नहीं डालेगा; ओर इसी - 
कारण बादशाह ऐसे ही कार्मोमें उसकी योजना करता था क्कि, 
जो बिछकुछ सरलताके साथ करतनेयोग्य होते थे। बादशाहके 
मनमें था कि, क़िलेदार ज्यों ही लाया जाय, उसको जेलमें 
डालकर नाना भांतिके कष्ट दिये जाये, अथवा यों कहिये कि, 
सैयदुल्लाख़ाँने उसके मनको ऐसा खुझा दिया था। जो हो । 
मुरार जगदेव और रणदुब्लाख़ांका प्रभाव उस समय बादशाह- 
पर विशेष था; परन्तु सैयडुल्लाखांने भो अब धीरे धीरे अपना 
प्रभाव उसपर जमाना प्रारम्भ किया था। सेयदुब्लाख़ांका 
नाम इतिहासमें प्रसिद्ध नहीं है; पर यह ध्यानमें रखता चाहिए 
कि, उसका अनिष्ट प्रभाव बादशाहपर दिन दिन बढ़ता जाता 
था; ओर अनेक बातोंमें उस प्रभावका बुरा परिणाम भी हुआ। 
सैयदुल्ला पहले एक सरदार-खान्दानमें अदृ्‌दीका काम करता 
था; परन्तु कुछ समय बाद वह बादशाहकी अदलीमेँं आगया । 
फिर अर्वलीसे शीघ्र ही सरदार बनकर “सरदार सेयडुल्लाखां” 
होगया | वह बादशाहको सदैव यही खुकानेका यत्न करता 














9४५८ 


कि, झुरार जगदेव, राजा शहाजी भोसले, और रणदुष्लाखां 
इल्पादि छोग बीजापुर राज्यका अनिश्ट चिन्तन करते रहते हैं। 





ये नहीं चाहते कि, मरादे बाग़ो, जो नवीन हमे उभड़ रहे है, 
उनका दफ़्न हो। और यही कारण हे कि, राजा शहाजीका 
अत उन्मत्तताका बर्ताव कर रहा हैं; ओर खुछत नगढ़के 
किल्लेदारका लड़का भी जो अनगल व्यवहार करता है, इसका 
भी कारण यही है। सेयदुइलाखांने इस वातका भी प्रबन्ध कर 
“खा था कि, छुलतानगढ़पर यदि छोटीसे छोटी भी कोई घर- 
नाए हों, तो उनका सप्रायार उसे बराबर प्रिल्ता रहे, ओर 
ले कामके लिए उसने उच्त किलेपर सर्कोजी ( जिसका कि 
उमरण पराठकोंकों होगा ) ब्की नियुक्ति कर रखी थी। सर्फोजी 
सेयदुष्छाखांका ही आबुर्दा था, और यही वहांका सब हाल- 
चाल समय सप्रयपर सेयदुरलाखांको दिया करता था | सय- 
उल्लाखांकी बड़ी इच्छा थी कि, जुलतानगढ़पर ज्ञाकर रगराब- 
अप्पाको, तथा और भी एक व्यक्तिको, पकड़ लामेका ड्से 
मोक़ा प्िल्ले , परन्तु यह मोक़ा उसे नहीं मिला, सो पाठकोंको 
द मालूत ही है | सानासाइव और नके पिता रंगराव अप्पसा- है 
देंच, इन दोनों पिता-पुत्रके षोचमें जो बात होती, बह अंसीक्षी 
वेसी सफोरजीके द्वारा सेयदुश्लाखांफो मालूम होजाया करती 
थी।.. सफोजीकी भारी पहत्वाकांक्षा यह थी कि, शंगराव- । 
 अप्पाके हाथसे क्िलेदारी जाकर, लैयदुल्लाखांकी मिहरबानीसे, ९ 
- डसके पास आवे। सेयदुल्लाखांका एक ओर आउजुर्द था, क्‍ 















ताक कप पर ननननन+++3333-,0. ० 434 ७3०--/१०-+०---५० >> जम दब न्प्य 








पर ४५६ 2) 4 बीजापुर जानेपर 0 शाजापुर जामिया कु 


है कदम पर लक 
सटरश्केत- कि 2७.२० 59 ५० 





गेर बह वही, जो धारगाँवके देशमुख साइवबके महत्ोंमें मारा 
गया। चही सप्य सप्वपर खुलतानगढ़ आता; ओर सर्फो- 
जीकी एकरान्तमें हेजाकर सब खबरें पूछता था। यही नहीं, 
दि उसको सुलछतानगढ़पर अपनी इच्छाके अमुसार और 

भी कोई घटनाएं घटित करानी होतों, तो उसके लिए भी बह 
प्तोज्ीको तैयार करता रहता था। यहां यह भी बतला देना 
वश्यक्क है कि, सैयदुब्लाखांकी दृष्टि मानासाहबकी स्थीपर 
ही बहल दिनसे थी । उसने एक बार उसे उसके नेहरमें देखा 
था; और एक बार वह ख़ास तोर्पर केवछ इसी कामके लिए 
छिप्कर सुझतानगढ़पर सी गया था, लब॒ भी उसने उसे देखा 
था। खुलूतानगढ़के किलेदारके विषयमें, ओर विशेषतः नावा- 
साहबके विषयमें, तमोले उसके मनसें वेर्भाव विशेष उपःसथत 
हुआ। उस चैस्मावका कारण क्या था, छो यहांपर विस्तार- 
दे साथ बसलानेका कोई प्रयोजन नहीं है! यहां सिफे इतना- 
ही बतला देना पर्याप होगा, कि वह काश्ण उसके हृदयपर ही 
नहीं, किन्तु उसके शरीरपर भी अपना काम कर जुका था। 
ऊपर हमने बचलाया है कि, सैयदुब्लाखांकी यह बड़ी इच्छा 
थी कि, वह खर्य खुलताबगढ़पर जाये; ओर वहांके क़िल्ेदारको 
कैदकर लेआजे। इसके साथ ही अपने दूसरे इश कायके सिद्ध 
होऊानेका भी उसे पूरा पूरा भरोसा था। बादशाहको 
ऐेर्से किछेदारके पास जो अग्रिम खरीता गया था, उसमें भी 


यही सूचित क्रिया गया था कि, संयदुल्छास्रा आपके पास 








ह उुषाकाल क्र 
है 2२८५7 का रह कुक ए्ध्बा 


आवैगा; ओर आपके कई कार्योके विघयमें आपसे जवाबतझब 


करेगा, सो आप यथोवचित रुपसे उसे उत्तर दे और जो 


आज्ञा वह देवे, उसको हुज़ रकी ही आज्ञा समककर ठीक ठीक 
उसका पालन करें। यही आशय उस खरीतेमें प्रकट किया 
गया था। खो, रंगराव अप्या भल्लीभांति जानते थे कि, 
इसका परिणाम क्या होगा; इसलिए उन्होंने भी, इधर-उचर 


चिट्ठियां इत्यादि भेजकर, जो कुछ प्रबन्ध उनको अपनी ओरसे.. 


करना था, किया था। संयदुब्लाज़ां भी, यह सम्रककर कि, 
अब हमारे मनोरथ पूर्ण होनेमें देर नहीं, बड़ा आनन्दित हुआ 
था। उसने खुलतानगढ़के क़िडेदारके साथ ही साथ स्‌र्या- 
जीके पिता, धारगाँवके देशमुखको भी कौदकर लेआमैका 
घड्यन्त्र रचा था | इसमें उसने प्रकट तो यह किया था कि, 
नानासाहबकी भांति घूर्याजी भी उन्मस होगया है, और ये 
दोनों मिलकर बडुत जद्द्‌ राज्यके विरुद्ध बगावत करनेवाले हे 
किन्तु चास्तयमें सच्चा उह्ं श्य, देशमुखको कैद करानेमें, उसका 
यही था कि, उसके आबुर्दे की इच्छा पूर्ण हो। इधर जब खुल- 
तानगढ़पर जानेका मोक़ा आया, तब बादशाहका कोई 
अत्यन्त निजी काम्र निकल आया, जिसको सैयदुल्लाखांके 
अतिरिक्त ओर कोई कर ही नहीं सकता था, इसलिए सैयदु 
बलाख़ांको बादशाहने रख लिया; और उसकी जगह रणढुढ्ला- 


ख़ांकों खुलतानगढ़ भेज दिया। इससे बेचारे सैयदुल्लाखांका 


: बहुत ही मनोभंग हुआ। हां, उसके आवुर्देका वेसा नहीं 











हू 2 बीजापुर जानेपर ह 
; ४६ श्‌ बडे ( 333 2020 या 3 


४७७४७ ४८:5७ ५: फैलण 
हुआ; क्योंकि देशमुखके महऊोंमें अपना इछ कार्य ,लिद्ध करनेको 
जानेके लिए. उसे अवसर मिल गया; परन्तु वहां उसकी क्या 
दशा हुई,सो पाठक जानते ही हैं । 

बीजापुरका खशीता जब रंगराव अप्पाके हाथमें पहुंचा, 
तब उन्होंने इस बातकी थोड़ी-बहुत साथवानी अवश्य रखी 
कि, इसका वृसानत किसीको माझूम न होने पाये; परन्तु फिर 
भी उनकी पतोहको उसका हाल मालूप ही होगया, ओर वह 
बहुत जब्दू, मोक़ा पाकर रात ही रात, एकाएक गायब होगई: 
ओर यह बात पाठकोंफे ध्यानमें अवश्य होगी। उस ख्ीको 

छ पिछले प्रसंगोंसे ( जिनका कि वुत्ताग्व आगे आदेगा ) 
यह अच्छी तरह मालूम होगया था कि, सेयदुब्लालां क्रिस 
तरहका मनुष्य है; ओर वह सुख्यतः किस उहँ श्यसे खुरूतान- 
_गढ़पर इस समय आरहा है। ओर इसीलिए उसने आत्मरक्षाके 
हेतुसे, जो युक्ति उसझ्ली दृष्टिसे उसे उसतप्र दिखाई दो, उसका 
अवलम्बन किया। वह शुक्ति कोमसी ? यही कि, खैय- 
ठुब्लाखांके आनेके एक दिन पहले ही वह अपनी दासीको 
साथ ठोकर शुघ्त रुपसे अपने नेहर चली जाय । 

 अस्तु। सैयदुल्छाख़ांने जब यह देखा कि, उसका उद्द श्य 
सिद्ध नहीं हुआ; बढिक रणढुब्छाजांके समान मडुष्य कि, 
जिसपर उसका कुछ भी बस नहीं चछ सकता था, उसके इष्ट 
कार्यपर भेज दिया गया, वब उसका हृदय बहुत ही सम्तप्त 
हुआ । फिर उसमें भी जब उसने देखा कि, एक ऐसा व्यक्ति, 











.४६२ ४2 ! 


क्‍ ५०-53 -२७--ई&० 
जोकि उसकी नाकका बाल था, देशमुखऊे महछोंमें सार डाऊा 
गया, ठब तो उसके सन्तावकी सोमा ही न रही | 

हमारे इस कथानक्की अधिकांश घटनवाए' अब बोजापुश्के क्‍ 

न मुक़ामपर ही घटित हांगी। पिछऊह परिच्छेदोंमें हमने सैय- 

द डुब्लारख़ा और उसकी कारस्तानियां, तथा रणदुस्खाजा और 
उसका द्वतान्त पाठकोंके सामने उपस्थित किया है। अस्‍्तु ; 
पिछले परिच्छेद्मों हम यह बतला चुके हैं कि, रणदुद्छाखानि 
सुलूतानगढ़से वापस आकर बाद्शाहको वहांका सब दृसान्त 
बतलाया। उन्हीं द्वोंके ठगमग सर्जेखां भी शिवदेवरावके साथ 
बीजापुर आपहु था। सर्जेखांसे हमारे पाठक मलीभांति परिचित 
हैं। इस सरदारको बादशाहने शिवदेवरावके साथ, उसपर शुप्र 
नज्ञर रखनेके लिए,मेजा था। बात यह थी कि,सैयदुल्लाखामे ही 
बादशाहको यह खुफाया था कि, खासबड़ और पुरनदरकी ओर 
शजा शहाजीके लड़केने तथा अन्य कुछ बागियोंने बड़ा उप 
मचा रखा है, सो उसीकी जांचके लिए--कि यह बात क्या है,- 
सुरार जगदेवक्ेे द्वारा शिवदेवशब भेजा गया था। शिवदेवशध 
ओर सर्जेजांकी कैली क्‍या पटी, उन दोनोंकझे उक्त धापेमे कया 

कया घटनाए' हुई', सो सब हमारे पाठ होंकों विस्तास्पूेक 

- मातम हैं। सच तो यह था कि, झुरार जगदेव रावक्ला बीआपुरके 

दण्बारमें जो प्रभाव था, सेयदुड्छाज़ उससे बहुत जला करता 
था; और इसकारण सदा उसका यही प्रयत्न रहता कि, शुशर- 

. ज॑ंगदेवका बादशाहयर जो प्रत्नाव है, वह जहांतक कमर किया 





*अंध्युओ कर 
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५ 8६३ ८ | जाछुर जानेपर & 
क>-२० “84--<<- ज्ल्््स्स्ल्प्स्सलसकल 


जा लके, चहांतक कप किया जाय । परन्तु छुरार जगदेव सू कि 
बोजापुर राज्यका बहुत पुराना ओर ईपरानदार नोकर था, 
इसलिए उपकी सलाहके विरुद्ध कोई भी काम करप्ना 
खरय॑ बादशाहके छिए भी कठिव था। उत्क्रष्ट कार्योर्में काम देने- 
वाले दो थे जादैव ओर दूसरा रणदुदलाखां; और 
अर्वाच्य कामों, जिसका सदैव उपयोग होता था, तथा इसी 
एक बातके कारण जिलका प्रभाव वाद्शाहपर पंड्ता था,वह था 
सैयदब्लाखां | बस, इसी जिकूटके बोजमें फ्सकर बादशाह- 
की एक बड़ी विचित्रसी दशा होरही थी। रणडुढ्लाज़ां ओर 
मुरार जगदेव, इन दोनोंकों एक ही कहा जाय तो भी कोई हानि 
नहीं, क्योंकि सुरार जगदैव ओर रणदुढलाखांके पिताका अत्यन्त 
स्नेह था; ओर इसकारण घुरास्पन्त जो कुछ करते, रणदुढ्ला- 
खां उसे कभी न दाछता; ओर रणदुर्छाखां जो बात कहता, 
मुरार्पन्त सी उसे पूर्ण करमेकोी तत्पर रहते। मठरूब यह 
कि, दोनोंकी गद्दों खूब जम गई थी। बादशाहका भी ऋुकाव 
इन्हीं दोनोंकी ओर था; परन्तु ऋममाग्म चू कि सैयदुब्लाज़का 
प्रभाव विशेष था, इसकारण उसकी भी बात बादशाहकों 
मानती ही पड़ती थी । सारांश यह कि, झुशरपत्त और रणदु- 

छाखां एक ओर थे,ओऔर सैयदुदलाज़ां दूसरी ओर | झुशणपन्‍्त और 
रणदुण्छाखांका सदैव यह प्रय्ल रहता कि,राज्यका पवन्‍्ध उत्तम 
रीतिसे चलता रहे; आओर जो मराडे सरदार शाज्यकी सेवामें 
हैं, उनका मन जहांतक सन्तुष्ठ रहे, वांतक अच्छा | दोचोंका 



















हैः उबाकाछ है द । ४६७ ५2 


उद्देश्य यही था कि, मराठे सरदारोंका मन बिना कारण 
बिगड़ने न पावे, ओर उनकी राज्यभक्ति जहांतक कायम रखी: 
जालसके, क़ायम रखनेका प्रयत्न किया जावे। परन्तु सैयदु- 
ब्छार्खाका यह उद्देश्य नजहों था। उछ्चक्का उहँ श्य यह था कि, 
जहांतक होसके, अपना प्रभाव बढ़ाया जाय; ओर प्रधान- 
मंत्रीका अधिकार जितनी शीघ्रतासे होसके, अपने हाथमैं 
आजाय, तथा मराठोंका प्रभाव बिलकुल नष्ट करके सब जगह 
अपना ही प्रभाव रहे,ओर अपने ही आबुर्दे जहां-तहां रखे जावें | 
मुराययन्त ओर रणदुब्लाकी इच्छा यह थी कि, जहांवक मिल 
सकऊू, अच्छे अच्छे आदमी राज्यके अधिकारपर रखे जायें। 
क्योंकि झुरार्पन्त यह अच्छी तरह जानते थे कि, आजकल 
मुलउ्पानोंके अत्याचारोंके काश्ण मराठी पजामें अखन्‍्तोष 


अत्यधिक फौल रहा है, शिवाजीके समान नवशुवक मराठे 


हैलो 


बगाबत कर्मेक्रो खड़े हुए हैं, सो केवल यों ही नहीं--ओर 


इसोलिए उन्होंने सोचा कि, शिवाजीके सम्रान प्रबंछ व्यक्तिके 
दधन करनेका सबसे पहला उयाय यहो है कि, मशठे खरदारों- 
को--विशेषक्व: उन सरदाशोंके युवक छड़कोंकों सन्तुश रखा 
जाय। इलकारण सदेव वे ऐसी बावोंके -प्रयल्ममें रहते कि, 
ण्से खास्दानी नवयुवकोंको द्र्वारमें बुझ्वाकण उनकी इज्धत- 
प्रतिष्ठाकी जाय; ओर उनको अच्छे अच्छे ओहदे देकर उनको 
.. बहादुरी ओर ज़िश्मेत्ारीके काम्र बतलाये जाँय | मुराश्यन्त 

. खदव बादशाहसे कहते रहते कि, “इन सरदारों अथवा क़िड्े- 

















( ... बीजापुर जानेपर _ 
केडे 05५ , प्प- 


जपयक्रााा25फाराकामदाााागकरप्अदयाप टाजफ/पपा0व शा ताअयापापकरकायाधापयापा व 
+ शत) (नमक कि 8 ००००० की०> पा जल] 





दारोंके हाथसे यदि कभी कोई प्रमाद होजाय, तो उनको क्षमा 
कश्मा चाहिए। यह मोका उनके मनको दुखानेका नहीं है । 
नित्य हम सुनते रहते हैं कि, शिवाजीने विद्रोह मचा रखा है, 
हमारे प्रान्तमैं वह बड़ा उपद्रव कर रहा है; पर इसमें बहुत 
कुछ अतिशयोक्ति है। राजा शहाजीके हाथसे उसको एक 
धमकीका पत्र लिखा दिया जाय, बस, काम होजायणा । 
उसके लिए फौोज-फांदा भेजकर अनावश्यक महत्व देनेसे कोई 
तात्पर्य नहीं।” मुरास्पन्तकी यह सलाह अत्यन्त चातुयपूर्ण 
थी, सो सभी जान सकते हैं। परन्तु सेयदुब्लाखांको, जो- 
कि अपने सामने किसीको समझता ही नहीं था, उसकी 
डत्कूष्टता कैसे मालूम होसकती ? वह मालूम हुई हो, चाहे 
न मालूम हुई हो-परन्तु उसने उसका निराला ही अर्थ 
निकालकर बादशाहकों यह झुराया कि, मुरार्पन्तका इसमें 
यह हेतु है कि, मुसब्मानोंकी बादशाहत डूबकर वह मराठोंके 
हाथ चली जाय। इसलिए राजा शहाजीको, उसके लड़केके 
उपद्रवोंपर, यदि इस समय खज़ा न दीजायगी; ओर उस 
लड़केको पकड़कर यदि नष्ट न कर दिया जायगा, तो आगे बहुत 
बड़ा अनर्थ उपस्थित होगा। इसके सिवाय, खुलतानगढ़के 
किलेदार ओर उसके लड़के, तथा धारणाँवके देशमुख तथा 
डसके लड़केको भी क़ौद करके जैलमें डाल देना चाहिए। अब 
बादशाह, किसकी सुने; ओर किसकी न सुने, सो कुछ उसक्ही 
समभमें न आता; क्योंकि बादशाहके पास अपनी निजकी अक् 











ग 





डी 


अपनी ज़रूस्तभरके लिए ही थी! सेयदुबलाखां जब पास होता; 
तब वह अपना कथन उसके दिमाग़में सर देवा, ओर जब 
उसको सोचकर बादशाह बैसा करनेके लिए झुराण्पन्तके सामने 
बात निकालता, तब मुराश्पन्त बड़ी चतुराई ओर अदबके साथ 
उसका खण्डन कर देते | यही हाल बहुत दिनतक होता रहा | 
सेयदुब्लाखां बड़ा आज्रही ओर दृढप्रथल्ली मनुष्य था। उसमे 
सोचा कि, ऐेसे काप्त नहीं चलेगा, बादशाहके यहां हमारी द 
चल सके--इसके लिए. अब कोई अच्छीसी युक्ति करनी 


चाहिए | बस, यही सोचकर उसने, बादशाहसे न बतलाये 
हुए ही, खुलवानगढ़की, धारणाँवके देशमुखके यहांकी, ओर 
खासवड़की ओरकी, सब छोटी-मोटीतक ख़बरें मँगानेका 
प्रबन्ध किया। खुलतानगढ़के क़िलेपर सर्फोजीको फोड़कर 
उसके द्वारा वह वहांकी सब खबरें जान छेता; ओर फिर 


'डबको, ओर भी नमकमियें मिलाकर, प्रति दिन बादशाहको 
बतलाता रहतवा। इसी पधकार धारणावके देशमुखके यहांके भी 
सब. सम्राचार वह बाद्शाहको देवा रहता। सासबड़की 


ओरका ठीक डीक समायार उसे कभी प्राप्त नहीं हुआ। हां, 
जो कुछ प्राप्त भी होता था, वह संशयात्मक होता था; 
इसलिए उसमें ओर भी नमक-मिर्चे मिलाकर उसे बह 
.._निश्चयात्मक खरूप देता; और तब फिर उसको बाद्शाहके 
. सामने कहता था। इस प्रकार वह बहुत द्वितक करता 
रहा;ओर इधर मुराश्पत्त तथा रणदुल्लाखांको उसकी इस 








| 
|॒ 
५ 


| 
| 

















क्‍ (्‌ ; कु ४) ््ः बीजापुर जानेपर है 


नदी कक औफ कान व्याउस्व्क्कात 
भीतरी कारवाईका ठीक ठीक पता यहीं था, इसकारण उनकी 
ओरसे उसका कोई प्रतिकार भो नहीं होसका | परिणाम यह 
हुआ कि, बादशाहके मनमें यह बात बिलकुल बैठ गई कि, उक्त 
तीनों स्थानोंकी ओर कोई न कोई आदमी भेजकर इसका कुछ 
बन्‍्दोवस्त करना चाहिए। सैयदुल्ाख़ांकी सलाहके अनुसार 
उसने इस कामके लिए तीन आदमियोंकी तजवीज भी कर 
ली / वे तीच आदमी क्रमशः ये थे :--सेयदुल्ाज़ां ख़द, सर्जेख़ां 
ओर प्यारेखां। सर्जेखांकों शिवाजीके प्रान्तमें भेजना निश्चित 
हुआ। खुलतानगढ़पर सैयदुल्लाख़ां खुद जानेबाला था; ओर 
प्यरिेखाको देशमुखके महलोंमें भेजना निश्चित हुआ। राजा 
शहाजीपर बादशाहकी अच्छी कृपा थी। इधर मुरास्पन्त और 
शहाजीका तो पूरा पूरः स्नेह था ही । इसलिए घुराश्पन्तको 
जब डपयु क्त बातोंका पता चला, तब उन्होंने बादशाहसे कहा 
कि, आप यदि ऐसा करेंगे, तो व्यर्थंके लिए राजा शहाजीका 
चित बहुत दुःखित होगा; इसलिए आप ऐसा न करें, तो 
अच्छा । राजासाहब आपके बहुत पुराने ओर ईमानदार कार्य- 
कर्सा हैं। उनको व्यथंके लिए कष्ट देना राजनीतिशवाकही दश्टिसे 
उचित न होगा | उस तरफका समायाए छाबेके लिए यदि किसी 
मनुष्यकोी भेजनेकी आवश्यक्रवा ही हो, तो में अपना एक 
विश्वासपात्र आदमी भेजता हूं। छेकिन सर्जेखांके समान आदमी- 
को उचर भेजना ठीक व होगा। इस प्रकार मुरारपत्तने जब 
बादशाहको बहुत कुछ समकाया, तब बाद्शाहको उनके कथनकी 















५ ५३ . कयशार 
हु है.) है 
जे £/ हक! 
७. न (हक 


दरी-बशयर ६०-०२ 





सत्यता तो प्रतीत होगई; पर सैयठुल्लाख़ांका मनोभड़ भी 
उससे नहीं हो सकता था। इसलिए अन्‍्तमें यही निश्चित हुआ 
कि, मुरारपन्‍्तका आदमी सुखिया बनकर जावे; ओर सजे खां 
- फिर डसके साथ साथ रहे।. सैयदुल्लाख़ांकों अवश्य ही यह 
बात पसन्द न आई, परन्तु फिर भी डसने यह सोचकर इज 
ब्रष्तावका अजुधोद्न कर दिया कि,अच्छा;विलकुल ही व होनेसे 
यही अच्छा कि, हमारा आदमी साथ तो रहेगा, तंव अवश्य ही 
वह मुराश्पन्तके आद्मीकी एक भी तन चलने देगा । खुरूतान- 
'गढ़पर चह ख्यं जानेवाला था; परन्तु यह भी न होखका; और 
बहां भी मुरारपन्‍्तका ही साथी रणदुलाखां भेजा गया | परन्तु 
इस विषयमें पहले उसे कोई विशेष रूपसे बुरा नहीं लगा; 
क्योंकि उसने. सोचा कि, हम स्वयं यदि वहां गये होते, तो 
मुरन्‍त ही हमारा मनोस्थ पूर्ण हुआ होता; परन्तु अब, बहुत 
होगा, तो थोड़ी देर छग जायगी; किन्तु बादशाहके जिस निजी 
आवश्यक कार्यके कारण हमारा जाना वहां इस समय नहीं 
. होता, उसको यदि हम कर छावबेंगे, तो बादशाहकी मर्जी हमपर 
ओर सी अधिक होजायगी; ओर तब फिर अपना कार्य सिद्ध 
... करनेमें और भी सु्ीता होजायगा। बस, यही सब सोचकर 
.. उसने उस समय धैयें घारण किया । जो मुख्य कार्य उसे सिद्ध 

"करना था, उसके विषय ं उसका यह विदार था--विचार ही 
नहीं, बल्कि उसे विश्वास भी था कि, रणढुल्लांखा जब किले : 
. दाए ओर उसके कुटुम्बके सब- लोगोंकों क़ौद्‌ करके बीजापुर 

















बीजापुर जानेपर | 
श्व्या्स्य्व्क्स्य्स्क्र्न के 











ले आयेगा, तब भी हमारा वह कार्य अवश्य सिद्ध होसकेगा | 
परन्तु जब उसने देखा कि, ९णदुरलाख़ां सिफ किलेदारको हीं 
कैद करके बीज/तुर लेआया है; ओर उसकी पतोहको उसके 
साथ नहीं छाया; तब, जोसाकि हमने पिछले परिच्छेदमें 
बताया, उसझो बहुत ही सन्ताप हुआ । उस समय उसको 
इतना ठुःख हुआ कि, रणदु्लास्मां उसकी आंखोंमें कॉटेकी 
तरह चखुभने रूगा। उसने सोचा कि, रणढुढ्लाख़ांको मार 
डालहू' या क्‍या करू ? फिर उसने इस बातका पता छूगाया 
कि, वह तरुणी इस समय है कहां ? क़िलेपर ही है या रण- 
दुल्लाओां खयं अपने लिए उसे डडा छाया ? अन्त उसको 
पता लगा कि, रणदुल्लाखां जिसलः समय क़िलेपर गया, 
उस समय वह किडेपर थी ही नहीं--एक दिन पहले हो वह 
अपने पिताके घर चली गई थी। अस्तु। इसके बाद, जब 
उसको यह माल्ठूम हुआ कि, रणदुब्लाखांने किलेदारके साथ 
बहुत ही प्रेम ओर अदबका बर्ताव किया, तब उसने रण- 
दुल्लाखांसे ही बदला लेनेका निश्चय किया। साथ ही यह भी 
उसने प्रतिज्ञा की कि, क़िलेदार्कों अपने अधिकारमें लेकर 
उसको क़ौदखानेमें डाल दूंगा; ओर उसको नाना प्रकारकी 
यातनाए' देकर जानसे मार डाछू गा--यही नहों, बल्कि उसके 
समधीका, अर्थात्‌ नानासाहबके ध्वखुरका भी, घर-दवार छूट- क्‍ 
कर कुटुम्बलदित उसको पकड़ छाऊंगा; और इस प्रकार 
अपनी इच्छाको तृत्त करूगा। क्‍ क्‍ 








( उचाकाल कै 


“यउआएा 
७5.20 “कट३०२२३० 6६२-:कन 


उधर सर्जखांने भी बीजापुर आते ही सैयदुरलाखाको अपना 
सब व्त्तान्‍न्त बतरढाया। शिवदेवशवकी ओर हमारी किस 
अकार नहीं पटी, शिवदेवराय हमको बाहए हो रखकर अकेला 
किस प्रकार हसुमानजीके उस संशयात्मक मन्द्रमिें गया, वह 
हमको किस प्रकार धोखा देना चाहता था; परन्तु हम उसके 
धोखेमें नहीं आये; ओर बाबाजीको फिस प्रकार कैद कर लिया, 


'. कोद करनेके बाद जब उसको पुरूदरके क़िकेपए केआये, तब 


शिवदेवराव ओर क़िलेदार दोनों किस प्रकार यागियोंसे मिल 


गये; हमसे न पूछते हुण उल बैरागीसे मिके; ओर उसको 


'छुड़ानेके लिए हमसे किस किल प्रकारखे प्रार्थना की, अन्त्में 
'फिए किस प्रकार उद्दाएदताका व्यवहार किया, बागियोंको 


किस प्रकार पहले ही सम्तावयार देकर पेन ओकेपर किस 


प्रकार उस बागी वेशगीकों छड़ा लेनेका प्रयत्न किया; छघुड़: 
 सालमें ख़ास तोरपर आग किस प्रकार रूगा दी गई; बैरागी- 


को कड़े छोट करनेतककी सब तैयारी जबकि हमने कर 


. छी, तब किस प्रकार, आगैेका सब हाल जामकर, उन दोनोंने 
हमको अकेला ही उस कोटकी तरफ. छोड़ दिया; ओर फिर 
. शत्रु लोग एकाएक छापा मारकर किस प्रकार उस वेरागी- 
को छुड़ा छेगये, तथा हमारे साथ जो सिपाही थे, उनको 
- ज्ञानसे मार डाला--हां, हम केवल अपनी बहादुरीसे बच गये, 
. इत्यादि बातें उसमे उच्ची तरहसे नहीं बतलाई', जैसी 


कि हुई थीं; बल्कि जेसी उसके मनमें आई, वेंसी ओर कुछ 























(है ५५१ 2) कि बीजापुर जानेपर / 


8330 ५ व्य्ाड्ट्ट ८७० 





नपम्रकमियं मिलाकर, तथा अपनी कुछ बड़ाई मारते हुए, 
बतलाई' । सैयदुल्लासांको ओर क्या चाहिए? उसका 
मुख्य उद्दे श्य तो यही था कि, झुशरपन्‍्तका प्रभाव बादशाहके 
ऊपरसे जितना कप्त किया जासके, उतना कम करना 
चाहिए,और अपने इस उद्देश्यको सिद्ध कर्नेके लिए उसने 
यह मोका बहुत अच्छा देखा । उसने इल बातका तो निश्चय 
कर ही छिया कि, इस मोकेसे जितना छाम उठाया जासके, 
उठाना खाहिए--इसके खिवाय, उसने एक अच्छा अवसर 
पाकर बादशाहके कानोंमें थी ये बातें डाल दीं कि, देखिये, 
मुशारपन्‍्तके भेजे हुए आदमी, शिवदेवरवतने, बारियोंसे मिल- 
कर किस प्रकार नीचताका व्यवद्यार किया; और सर्जेख़ाँके साथ 
भर्यकर विश्वासघातका बर्ताव किया, इत्यादि । उन्हीं दिनोंके 
रूगसग एक और भी ऐसा कारण उपस्थित होगया था. 
' कि, जिससे बादशाहपर सेयदु्लास़ाँका प्रभाव पहले से कुछ 
अधिक बढ़ गया था। इन्हीं सब कारणोंसे उस समय बादशाहके 
मनपर उसकी बातोंका अधिक प्रभाव पड़ा; और विषका पहला 
बीज बोया गया | 











 तेतीसवां परिच्छद । 
“हार 2५- 
कुछ अन्य लोग | 


५ १०४) 


बीजापुरकी बहुत- बड़ी इमारत--गोलगुस्बज़--अमी पूरी: 
पूरी तैयार नहीं हुई थी, उसका काप्र जारी था; ओर उससे 
हज़ारों छोगोंका पेट भरता था। इसी प्रकार ओर भी कितने 


ही नवीन नवीन बाज़ार बसानेके लिए तेजीके साथ प्रयत्न हो- 


रहा था। नगर उस सप्रय वेसवके अत्यन्त उच्च शिखरपर 


पहुँच चुकां था। बादशाह ओर उसके अमीर-उप्रा अपने अपने 


. अन्‍्तःपुरोंमें केवल ऐश-आराम करनेमें निमझ थे। बादशाहको 
.. यह खप्तमें भी शञाव नहीं था कि, हमारे अमीर-उमराबोंसे हमारी 
..हिन्दू-प्रजाको कितना कष्ट होरहा है; ओर यदि उससे जाकर 
.. इस विषयमें कोई कुछ कहता भी, तो उसकी वह कोई परवा 
नहीं करता था। मतल्लब यह कि, क्‍या बादशाह; ओर व्या- 
उसके अमीर-उमरा-सभी इस प्रयलमें रहते कि, जो ख्री नज़र 
तले पड़ जाबे, उसीको प्राप्त किया जाय । इधर सेयदुल्लाखां 


नाना पध्रकारकी कपट्युक्तियां करके रम्मावतीके समान अनेक 
सुन्द्री युवतियोंको अपने जालमें फँसा छाता; ओर उन्हें बाद- 


.._ शाहको समर्पित करता । बादशाह भी अपने इसी भोग-विलास- 
.. में लिप्त रहता । बस, इसी सस्बन्धकी कारस्तानियां उस समय 











'ह+अतपत्वसम> रस कनकपसाप पालक संडयपत कं ४4% 33324 दि जन 5 4607 क कक 8250 2०2: स्कस्ल्ड द्व्ड्डडि 


हे पा शउियिन लक कलर 





फिछ मन न निफ का 
की 25 दा स्कारचाा- सका तू पा ०5 





बीजापुरमें जारी रहती थीं। इनको छोड़कर राज्य-प्रबन्ध- 
विषयक कार्यवाहियां मानो उस समय वहां बिलकुल थी हीं 
नहीं। सो, इस प्रकारके बीआपुर नगरमें प्रविष्ठ होकर डसका 
सारा संगढंग देखनेसें अभी हम नहीं फंसना चाहते। किन्तु, 
इसके पहले, कुछ और भी ऐसे पात्र हैं कि, जिनका हाल-हवाल 
देखनेके लिए हम अपने पाठकोंकी छेचलना चाहते है। बीजा- 
प्रकी बडी बड़ी दरगाह, बड़ी बड़ी मलज़िदे, अमीर उमप्तरादोके 
बर्ड बडे महल, इत्यादि इमारतें देखनेके लिए पहले हम अपने 
पाठकोंको नहीं छेचलेंगे; और न मुहम्मद्शाहवाज़ार ओर 
इलाकाबाज़ारके समान बड़े बड़े चोकोंकी ही सर करावेंगे | 
इसके सिवाय रणदुब्लाख़ां ओर उसके नवीन मित्र (उस मशठे 
सरदार), रंगराव अप्पा, सैयदुब्लाख़ां, सर्जेखां ओर रुवय॑ बाद्‌- 
शाह इत्यादिकी सी कारस्तानियोंमें अभी हम अपने पाठकोंको' 
नहीं डारलेंगे--किन्तु अभो तो हम उनको उल बटवृक्षके नीचे- 
वाली फोपड़ीके छोगोंके पास लेचलेंगे, जो धारगाँवसे- कुछ 
मीलकी दूरीपर थी। पाठकोंकोी स्मरण होगा कि, बरगदके - 
नीचेकी उस फोपड़ीमैं जो एक बृद्ध. मनुष्य रहता था, उसके 
पास जानेके लिए सूर्याजीने श्यामासे कहा था । उन्होंने श्यामा- 
को जो अल्तिम सन्देशा द्या था, उसका पूर्वाद्ध यही था कि, 
तू किसी न किसी प्रकार मेरी खली और बच्चेको घोड़े पर बैठा- 
कर उस भोपडीमें छे जा; और वहां जो बुड्ा रहता है, उसको 
पहचानके तौरपर यह कटार ओर ताबीज देना, तथा डसे 














१, जवाकाल 
ज््च््क्छछ 


5] 
४ ४७ हैं अल सम 


यह सन्देशा बतछाना कि, “सूर्याजीने अपनी ख्री और रूडकीको 


त॒म्हारे सियुद किया है ।” परन्तु सूर्याजीकी इच्छाके अनुसार 
श्यामा उनकी खी ओर छड़कीको वहां छे नहीं जासका। इसफे 
बाद वे दोनों आगके बीचमें पड़ गये। परन्तु श्यात्राने उस 
कोपड़ीमें आकर उनका समायार पहले ही देदिया था ड्स्तू- 
कारण उस बुडु ने एक काछाकलूदा आदमी वहां पेजा, और 
उसने जाकर उस आगसे उन दोनोंके प्राण बचाये | अर्तु । थे 
खब बातें पाठकोंकों मालूम ही हैं, अतएव अब उनकी विशेष 
रुपसे याद दिलानेकी आवश्यकता नहीं | यहांपर सिफे इतना ही 
बतलाना आवश्यक है कि, उपयुक घट्नाओंके होजानेके कोई 
पांच-छे दिन बाद आज हम फिर डस फोपड़ीपर जारहे हैं। 


जिस समय अब हम वहां पहुंचकर देख रहे हैं, उस समय वह 
बुड्डा अकेला ही वहांपर है; और मन ही मन कोई अत्यन्त उद- 


वेगकारक विचार कर रहा है। यह बुड़ा चास्तवमें हमको 
जितना बुड़ा दिखाई देश्हा है, उतना बुड़ा वह नहीं है; ओर 
यह बात उसके चेहरेकी कुछ रेखाओंसे सहज ही दिखाई प्ड 
रही है। ऐसा जान पड़ता है. कि, अवस्थाका प्रभाव उसपर 
उतना नहीं पड़ा है, जितना चिन्ता ओर डुःखकां;, और 
 इसीकारण डसकी शक्तिका इतना हुास होगया है। अस्तु। 
इस समय भी उसका खित्त किसी न किसी भारी चिस्तामें हो 
...निमन्न होरहा था। ऐसाजान पड़ता था कि, वह किसी ने 
.. किसीकी प्रतीक्षा कर रहा है ।. ज़रा कहीं कोई चीज खटकती 


छ 2 के 




















(₹ के) कुछ अन्य लोग 
नययए-म 3३९०० च्य््च्स्ल्ल्य्स्ल्ज्कऋन 


कि, वह चाइर खिए निकालऋर देखने छगवा; और जब क्रिसी- 
को न देखता, तब निराश होकर पीछे हट जाता । इसके बाद 
फिर वह अपनी दीन कोपड़ीमें इधरसले उधर चक्कर मारने 
लगता | ऐसा करते करते वह आप ही आप कुछ गशुनझुनाने 
लगा | है 
“इंशवरकी गति कैसो विचित्र है। चार वर्ष पहले मेरी क्या 
हालत थी; और आज क्या होगई ? “जिन दुष्टोंने मुरूपर ऐसा 
भव॑कर प्रसंग उपस्थित किया है, उनके कछेजेका खन चूस 
हैंगे, तमी हम दोनों संखारमें रहेंगे!--इस प्रकारकी प्रतिज्ञा को 
थी, सो क्या अब व्यर्थ जायगी ? आजतक तो कोई बात हम- 
से नहीं होसकी, जिससे उस प्रतिज्ञाके पूर्ण होनेके कोई लक्षण 
दिखाई देते, बल्कि खोरोंकी तरह आज कितने ही वर्षोसे इसी 
झोपड़ीमें मुँह काछा किये हुण बिता रहे हैं। इससे तो यही 
अच्छा होता कि, हम दोनों ही कु में जाकर डूब मरते ! आह + 
( दांतोंसे होंठ चबाकर ) कभी वह कलेजा चूसनेकोी मिलेगा £ 
दुष्ठोंने घर-दवार, जागीर-माफी इत्यादि, सबका नाश कर दिया; 
ओर हमको इस देशमें छाछोड़ा! यह लड़की ही कुछ खुखनमें 
शही। इसीमें आनन्द मानकर अब हम केवल बदला लेनेकी ही 
चिन्तामें थे। इतनेमें छड़कीके सुखका भी नाश किया | अब 
यह काहैको ज़िन्दा रहेगी ? सुन्‍्दे लो कुछ भी आशा नहों। पर, 
अबतक राणू क्‍यों नहीं आया ? ओर वह छोकरा ए्यामा भी 
न जाने किधर चला गया, उसका भी पता नहीं | यह एक बड़ी 











6 उपषाकाऊरू मर 


गिल 
बला आई ! कुटुस्ब बढ़ता जारहा है; और इससे तो हमारे 
स्थानका पता चल जानेका भय है******”? 

इस प्रकार उस बुड़ के मनमें बराबर विचार आरहे थे 
ओर उन विचारोंके कारण उसका मध्तक इतना संतप्त होउठा 
था कि, मस्तकके दोनों ओरकी नें बिलकुल फूल गई थीं। इस 
भकार बहुत देरतक विचार करते रहनेके बाद सचमुच ही किसी 7” 
मनुष्यके आनेकी आहट उसे खुनाई दो। तुरत ही उसने 
द्रवाजेको ज़रा खोलकर देखा, तो वही काला-कलूटा मनुष्य 
जोकि देशमुखके महलोंसे सूर्याजीकी ख्रो और बच्चे को आगे 
मुखसे निकाल लाया था, सामने ही बिलकूछ द्रवाजैडे पास 
आगया। बुड़ेंने उसको देखते ही तुरन्त दरवाजा खोल दिया 
और उसको भीतर लेकर “कहो, कुछे आशा है ?” कहकर पूछा । 
उसका उत्तर जितनी जल्दी मिलना चाहिए था, उतनी जब्दी 
नहीं मिलला--यही नहीं, बल्कि उस बुड्ुं को, जो कुछ न कुछ: 
उत्तर पानेके लिए बड़ा आतुर होरहा था, फिर प्रश्न करना 
पड़ा “क्यों ? बोलता क्‍यों नहीं ? क्या कुछ आशा नहीं ?” यह 
प्रश्न होते ही, मानो यह सोचकर कि, अब कुछ न कुछे उत्तर 
देना ही चाहिए, चह आदमी कहता है, “नहीं, बिलकुल भिराश 
होनेकी आवश्यकता नहीं, परन्तु” हर 

इस “परन्तु” में जितना अर्थे था-कमसे कम जितना उस 
. बुड़ें ने समफ्रा--उतना अर्थ उछ्तके पिछले वाक्यमें नहीं. था, सो के 
. रुपष्ट ही था। उसका उक्त वाक्य खुनते ही बुड़ा एकदम 

















2 888 2) 6 कुछ अन्य कोग . ५ 


कि की प्ब्यीट टिक १४ ध् किलक 


कहता है, “मेंने वो पहले ही समा था। जिस दिन वह भयंकर 
प्रसंग आया, जिस दिन हमारे महलोंमें छुसकर हमारे देखते 
देखते ( दांतोंसे होंठ चबाकर ) आंह | हमारे: 

शोक ओर सम्तापके विकारोंने मानो उस बुड़ें की जिह्नामें 
बिलकुल शक्ति ही नहीं रखी; ओर उसके मु हसे कोई शब्द नहीं 
निकल सका। आंखें लाल खुले होगई'५ ओर उनसे पानी 
भी बहने लगा। यह देखकर वह काला-कलूटा आदमी कुछ 
पछताया कि, यदि हमसे कुछ भी न कहा होता, तो ही 
अच्छा था । परन्तु फिर इसके बाद वह उस बुड़ं से कहता है, 
“सबसझ्ुय ही में कहता हु, इतना निराश होनेका कोई कारण 
नहीं। ओर यदि कोई निराश होनेका कारण भी हो, तो 
दादा, आप हो जब ऐसा करने रंगे गे, तब में अकेला क्या कर 
छूगा ? आप जानते ही हैं. कि, हम छोगोंकी दशा कितनी 
विचित्र होरही है। हमको अपनी प्रतिज्ञा किखी न किसी 
प्रकार पूरी करनी है। इसलिए आप यह चिन्ता, यह खेद, 
बिलकुल छोड़ दें; ओर जैसाकि आप मुझसे कहा करते हैं, 
परमात्मापर विश्वास रखकर आगेके कार्यको देखे'। मेरा तो 
ऐसा खयाल है कि, इस समय चाहे कोई विशेष आशा दिखाई 
न देती हो, फिर भी वे दोनों अन्तमें बच ज़रूर जायेंगे; क्‍योंकि 
यदि्‌ उनको बचना न होता, तो मेरे हाथों उस भयंकर आगसे 
ही उनका छुटकारा केसे होता ? आप सोचिये । हम छोग किस 
दशामें है, उसपर ज़रा गोर कीजिएण|। हमको जो कुछ करनः 





हू उषाकाल द ह (6 अद 9) 


हे,सब शुत्त रुपसे ही करना है। ओर उसमें भी यदि आए 
भैये छोड़ देंगे, तो कैसे काम चलेगा ? चलिए, में आपको वहीं 
झेचलनेके लिए. इस समय आया ह'। आइये, वहाँ चलें, ओर 
रात-दिन प्रयत्न करके, जिस तरहसे होसके, उनके प्राण 
बचाव । अब आप शोक न कर । 

बुड़े का ध्यान उस मसुष्यके कथनकी ओर था, अथवा 
नहीं, कुछ कहा नहीं जाखकतवा। वह बिलकुछ शून्य ओ 
भयंकर दृषश्टसिसे एक ओर देख रहा था। उसकी चेष्ठासे सरुपष्ठ 
 मादूप होरहा था कि, उसके मनमें कोई अत्यन्त ही ऋर 
विचार आरहे हैं। उसका सारा जिस उन वियारोंकी ही 
ओर छग रहा था। इसलिण, पास ही खड़े हुए उस ममुष्यमे 
उययु के जितने शब्द कहे, उनमेंसे एक भी शब्द प्ानों उसके 
हृदयमें नहीं पैछा । क्योंकि वह अपने उन्हीं विवारोंके आवेगमें 
एकदम उस मनुष्यसे कहता है, “हम दोनों ओर वे दोनों, तथा 
 चह छोटा बच्चा -ये सब एक ही क्ोपडीमें बन्द होकर यदि 
उसमें आग रूगा लेचें, तो क्या बुरा ? बतला, अब हम अपनी 
प्रतिज्ञा किस प्रकार पूर्ण कर सकते हैं? यह छुछ नहीं हो- 
सकता। मेरी इन नछ आंखोंके देखते देखते अभी न जाने कोन 
कोन विपदाए' आवबे | जा, अब तू ही वहां जा। में अब चाहे. 
जहां ज्ञाकर, चाहे जो कर लूगा।” इतनां कहकर सचमुच ही 
:.. चह पागलकी भांति कोपड़ीके बाहर बिकलछ पड़ा। उसकी 








बह विचित्र हालत देखकर वह दूसरा आदमी भो उसके पीछे 











छू ४७६ है 48 कुछ अन्य लोग कै 


कक न. व्च्ज्च्स्ब्क्स्स्झ्श्८ 

ही पीछे कोपड़ीसे बाहर निकला; ओर बड़ी कठिनाईसे डसने 
उस बुड़ु को रोककर, “दादा”, “दादा”, कहकर स्थिर किया | 
बुड़ु के उस भयंकर उद्वेग और कोपका आवेण ज्यों ही एक 
बार दूर छुआ, वह बिलकुल किसी गोव्शी वरह दीन दिखाई 
देगे छगा; ओर फिर यह अपने उस खाथीके साथ, जिधर वह 
सहला, उधर ही जाने रूगा--मानों अब उसका निञ्ञका अपनाए 
कोई विदार उसके पास रहा ही नहीं । बह युवक उसका हाथ 
पकड़कर अपने अम्ीष्ट स्थानको ओर छिये जारहा था। उस 
सप्रय वे दोनों अपनी कोपड़ीसे ओर भी अधिक घने जड़लके 
अन्दर प्रवेश कर रहे थे। न जाने थे अपना रास्ता वहांसे किस 
 अकार निकाल रहे थे ? दूलरा यदि ओर कोई होता, तो उसको 
उन घनी काड़ियोंमें कुछ दिखाई भी न दिया होता। परन्तु आगे 
आगे वह थुवक ओर पीछे पीछे बुद्धा, दोनों उस बिकट माणेसे 
' ऐसे चले जारहे थे, जेसे अपने घरमें ही चूम रहे हों। इस. 
प्रकार चछते चलते, अनेक मोड़ोंमेंसे, फिर वे एक दूखरी 
झोपड़ीके पाख आये । कोपड़ीके अन्दर एक बहुत ही घीमा 
दीपक, टिप्र टिम करता हआ--भामों अपनी उस अत्यन्त घीमी 
येशनीसे--फोपडीके अन्द्रके अन्धकारकी सघनवाको ओर भी 
अधिक विशेष रुपसे प्रत्यक्ष करनेका प्रथत् कर रहा था। 
अस्तु। उन दोनोंके आनेकी आहट पाले ही बड़ी फुर्तीके साथ 
एक छोकरा बाहर निकला, जिसे देखते ही उस शुबवकने कहा, 
#ायाम्ता, कोई विश्ष बात तो बही १” इयापा तुस्ज्व उत्तर देता 




















उषाकाक ही ५ बकरे 
, ४८०७ | 


“फल ७) (| “ भशकितनतलीरक4 बु१२३०- ०३८३० 





है, “कोई बात नहीं। बहू-कक तो अब बिलकुल बन्द हे 
हां, बच्चे की हालत बहुत बुरी दिखाई देती उसको जो 
हिचकियां आरही है, सो तो" ***” आगे वह कुछ कहनेहीवाला 
था कि, इतनेमें वह युवक ओर बुड़ा, दोनों फोपड़ीके अन्दर 
चीरेसे पहुँच मी गये । देखते हैं, तो उस बच्चे को उलटी खांसें 
चल रही हैं; और प्रत्येक उलांसके साथ उसका पेट ओर छाती 
ऊपर उठ रहे है! बुड़ेने पहली ही नज़रसे उस बच्चका 
भविष्य ताड लछिया। फिर शीघ्र ही आगे बढ़कर उसने बच्चे - 
को उठा लिया; और गोदमेँ लेकर इधर-उधर हिलाने छगा। 
'कुछ समय बाद उसके पेटके बार बार ऊपर उठनेका वेग धीरे 
धीरे कम होने छगा। डसके दाथ-पैर पहलेसे भी अधिक टेढे 
'होगये; ओर डसकी घबड़ाहट बढ़ गई। वह इतने ज़ोर्से 
चीख मारता और ऐसा माल्यम होता कि, उसके भाण निकले 
जारहे हैं। उस समय स्पष्ट ही ऐसा जान पड़ा कि, अभी 
तक उस बच्चे ओर उसकी मातापर जो भर्यकर संकट आये 
थे, उनसे तो वह बच गया था; पर अब बच नहीं सकता। 
उसकी जननी भी बिलकुल बेहोश पड़ी थी और ऐसा जान. 
पडता था कि, उसकी भी हालत बहुत ख़राब होरही है। 
'मोपड़ीके एक दूसरे कोनेमें एक ओर भी मनुष्य वैली ही बुरा 
: ह्ालतमें पड़ा हुआ था। सच तो यह था कि, वह झोपड़ी 
"उस सप्रय एक अश्पताछ ही बत रही थी, सब बीमार हो 
बोमार दिखाई देते थे। चह छोकरा बार बार उस कोनेवाले 

















(हट कुछ अन्य छोग है 
0८ 2 ज्ल्व्स्च्््््ट्ल्प्क्ता 








भजुप्यके पास जाता, वहां कुछ समयवक आहठली छेता; ओर 
फिर उस खोके विछोनेके पाल आता, वहां भी कुछ कान लूगा- 
कर सुनता; और फिर उस चुड्ढें के पाल आता, जो उस बच्चे को 
कंथ्रेमें लगाये इधश्से उधर झूम रहा था। इस प्रकार कुछ 
समय वाद उस बच्चे ने एक बड़ी भयंकर लीख दारी कि, जिसे 
खुनवे ही यह खो, जो अवतक बिलकुल निश्वेष्ट, बिलकुछ 
खुतवत्‌, पड़ी थी, एकदम चिहुँक उठी; ओर ये शब्द उसके 
सुखसे निकलते हुए खुनाई दिये :--“#: आँ:! कहां है मेरा 
बच्चा ! दुष्प्रने मार हो डाऊा, जान पड़ता है! णरे दुष्ट ! में 
खीकी जात हूं, इसलिए मुझे"? अगले शब्द्‌ मानो उसके 
होंठोंमें ही रह गये, कमसे कप्त बाहर तो झुनाई नहीं दिये । 
तेला जान पड़ा कि, कुछ देश्तक वद अपने अन्दर ही अन्दर 
कुछ गुनशुनातीसो रही। बीच बीचमें वह अधूरीसी कुछ 
उठती ओर “कहां है मेरा बच्चा ? कहां हैं वे ?” ये शब्द कहती; 
ओर शून्य तथा कर-हृष्टिसे इधर-उधर देखने लगती । बीचमें 
कभी हँस देती, और कुछ गानाप्ता गाने छगदी। सब तो 
यह था कि, उस सप्य उसकी ऐसी दशा नहीं थी कि, वह 
अपने बच्चे की वाध्तविक दशाको ध्यानमें छासकतो । 

बुड़ा, जो अभोतक उस बच्चे को लिये घूम रहा था, एक- 
दम बैठ गया | बच्चे को अन्तिम हिचकी आई; ओर उसके 
प्राण निकछ गये। छुड़े को मात्यूप ही था कि, बच्चा बच नहीं 
सकता--वह बुड़ा और वह युवक मलुष्प, दोनों ही जानते थे 


दे अपने हाथमें ठेरखी थो 








ः उष्यकाल _ 


कि, आज नहीं, तो कर इस बच्चे का अन्त होनैहीवाला है 
इतना ही क्यों ? बत्कि उस मकोपड़ीमें क़दम रखते ही जिस 
समय उनकी दृष्टि उस बच्चे के मुखकोी ओर गई थी, उसी सप्रय 
उन्होंने जान लिया था कि, यह अब घड़ी-दो घड़ीका ही मेह- 
मान है। इस प्रकार यद्यपि उनके मनकी खारी तैयारी हो- 
चुकी थी, फिर सो शोककी विहलता, जो उस मोक पर आनेको 
थी, आये बिना झ्क थोड़े ही सकती थी ? बुड़े ने ज्यों ही देखा 
क्ि,बच्चे के प्राण निकल गये, त्यों ही उसे अत्यन्त शोक हुआ; 
ओर एकद्म नीचे बैठकर उसने अपनी गर्दन घुटनोंके अन्दर 
कर ली। बच्चे को आगे डारू लिया | यह देखकर उस युवकको- 
ओर श्यामाको भी बड़ा भारी दुःख हुआ। आगसे वह मभावा; 
ओर उसका वह बालक, जबसे छूटकर आये थे, विशेषकर 
बालककी सेवा-शुभ्र॒षा श्याप्रा ही किया करता था। बुड़ा 
दो-तोन बार उसके मु हमें दूध डाकू जाया कश्ता था; और 
सारा दिन श्यापा उसकी देखभाल रखता था। यही नहीं, 
बहिक श्यामा बार बार बुड़े से कहा करता कि, आप यदि मुझे 
जाने दें, तो मे' अपनी ,मांको के आऊ' । वह यदि आगई, तो 
इस बच्चे की ओर इसकी माताकी भी देखभाल उत्तम रीतिसे 
होसकेगी। पर बुड़ेने किसी प्रकार उसकी बात खीकार 
नहीं की । श्यामा भी उस बच्चे को, उस दीन-दशामें, छोडकर 
जा नहीं सका, तीनोंने मानो उन तीनों बीमारोंकी देखभाल 
श्यामा बच्चे को सम्हालता, बुड़ा 























 कछ अन्य छोग हैं 
डसकी माताकी देखभाल करता; और वह युवक मलुष्य उस 
तीखरे आदमीकी शुश्ष षा्में लगा रहता था। अब, बच्चा जब 
नहीं रहा, श्यामाकों इतना दुःख हुआ कि, जिसका वर्णन नहीं 
किया जासकता | बुड़ें की हालत तो बहुत ही ख़राब दिखाई 
पड़ी | इतनेमें, कुछ देर बाद, वह युवक मनुष्य उस बुड़ेसे 
कहता है, “दादाजी,अब चुप बैठनेसे क्‍या होगा ? आगेका प्रबन्ध 
करना चाहिए ।” बुड़ा कुछ नहीं बोका । सिर्फ उसने एक दीधघ 
निःश्वास छोड़; ओर उस बच्चे की ओर अपनी उस इश्सि कि, 
जो ठुःखके मारे मन्द होरही थी, एकटक देखने रूगा | युवकने 
कुछ देर प्रतीक्षा की, ओर फिर कुछ बोलनेको हुआ--इसनेमें 
बुड़ा अवानक कहता है, “राणू, तो अब अपने वंशका, अपने 
नाते-गोतेका, सबका हो, सत्यानाश होनेवाला है? सोचा था 
कि, इतना अंकुर ही बच जायगा, सो भो परमात्माकों मंजूर 
नहीं हुआ ! अस्तु। कोई हानि नहीं। अब देखना चाहिए, इन 
दोनोंका क्‍या होता है। जो कुछ होनेवाला है, सो तो प्रत्यक्ष 
है ही, पर सिफ आशाभर है। अब, जाओ, इसको ले- 
जाओ; और तुम तथा श्यामा, दोनों ही, जो कुछ करना हो, 
करो | मुझसे तो अब अपनी जगहसे उठा भी नहीं जाता। 
सचमुच ही यदि इस बच्चे को सम्हालनेके लिए. कोई ख्ी 
होती, तो शायद्‌ यह बच जाता; पर अब क्या ? है ईश्वर | अब, 
जब यह अच्छी होगी, जब यह होशमें आवेगी, तब यह पूछेगी 
कि, हाय ! मेरा बच्चा कहां | उस सप्रय हम '''हाय ! हाय | उस 











समय हम इसको क्‍या जयाब देंगे! होशमें आते ही, पहले, .. 


यदि उसको यह खबर सुनाई जायगी, तो इसको क्या दशा 
होगी ? अवश्य ही यह फिर पागर होजायगी। हे ईश्वर ! तूमे 
बया सुकको यही सब देखनेके लिए जीवित रखा है! यह तो 
सब सूने किया,शअब मैरी प्रतिज्ञा हो पूण होजाय, वो भी में अपने 
जीवनको सफल सम्झू'' किन्तु आशा कहाँ है ?” बुड़ेने उप- 
युक्त शब्द्‌ एक प्रकारसे, अपने आपसे ही ओर अध्रेंसे उच्चारण 
किये। क्योंकि उपयु के वाक्योंमेंसे अधिकांश भाग उसमे 
अपने होंठोंके अन्द्र ही धीरेसे उच्चाश्ण किया। - युवकने उप- 
युक्त कथनकी ओर पूरा पूरा ध्यान दिया हो, अथवा न दिया 
हो;किन्तु उस तुद्धका कथन समाप्त होनेके बाद ही वह कहता है, 
“दादा, इसकी आप बिलकुल विन्‍ता म दर | उस दुश्के सक्तसे 
में अपने हाथ रकु बिना न रह'गा जब ऐला में कर, तमी 


मराठका सच्चा पुज कहकाऊ' ! यह मैंने प्रसिशा की है; और 
इसको जबतक पूर्ण नहीं कर रूगा, तबतक, याहे झत्यु भी 


मुझे क्‍यों न छेनेको आवे, में उससे भी मिड 'गा । अपनी प्रतिज्ञा 


पूर्ण होती हुई देखनेके लिए आप यदि जीवित रहे, तब तो ठीक 


0] 
छ 


ही है; परन्तु यदि ईश्वरने बेला नहों भी होने दिया, तो उस 


हरामखोरका बच करके, नहीं नहीं, पिछ-तिछके सपम्ताव उसके 
टुकर्ड करके, उसके रक्तसे नहाया हुआ, में खर्गमें आऊ'गा, और 


..._ इसकी खबर आपको दूगा।”? इममेंसे अन्तिम वाक्य जब 


उसके मुँ इसे निझुछने ऊूगे, तब उलमें इतना जोश आगया कि, 








लसककपबलन+>ा+ तप टनण » ८ फल 




















कक कद टू, पर] $-+क हे कै 
५, ४८५ ८2 न कम आह 
५2207 020 0% ब्न्च्ट्ड््क- ऋण 


 डसे प्रत्यक्ष देखनेवाले श्यामाके अतिरिक्त ओर कोई उसकी 
कव्पना सी नहीं कर सकता। उसने अपने दाँतोंसे अपना. 
नीचेका होंठ इतने ज्ञोर्से दबाया कि, मानो अपने शत्रुका 
कठेजा हो उस सम्रय उसके दांतों-तछे पड़ गया हो! हमक 
इस सप्तव करना क्या है, सो मानो उस समय वह बिलकुल 
ही भूल गया। इतनेमें उसके खन्तापका ज़ोर कुछ कम 
हुआ--सो उसको मानों ओर भी अधिक बढ़ानेहीके छिए, 
बुड़ा, एक रूम्बीसी सांस छोड़कर, कहता है, “ऐसा तुम कहते 
अवश्य हो; पर ज़ब होजाय, तभी ठीक ।” द 
उसके ये शब्द उस युवककी भड़कती हुई क्रोधाडहिपर_ 
घुताहुतिका काम कर गये, क्योंकि इन शब्दोंसे उस युवकका 
क्रोध इतना भड़का कि, वह सब कुछ भूलकर एक निराला ही 
 ब्राणी बन गया। यों तो डउलकी आंखें पहले ही काफी विस्तीर्ण 
थीं; पर अब क्रोधके मारे ऐसो बढ़ गई' कि, मानों उनकी पुत- 
लियां आँखोंसे बाहर निकली पड़ती थीं ! खुख वे इतनी होगयी 
थीं कि, जैसे जलते हुए अड्डारे। उसके बाल, जो खाभाविक ही 
कुछ झुखे थे, सिरपर बिलकुल सीधे खड़े होगये। वास्तव 
वह इतना क्र र ओर क्रुद्ध दिखाई पड़ने रऊगा कि, ऐसा जान 
पड़ा कि, मांनों इस कोधके आवेशमें वह न जाने क्या कर. 
डाछेगा ! यही सब देखकर वह बुड़ा कुछ चोकन्नासा हुआ; 
और फिर उसको शान्त करनेके लिए कुछ कहनेहीवाला 
था, कि, इतनेमें वह युवक, क्रोधके:कारण ककेश हो- 





-७2--बकी! अ५-"रीद० 


जानेवाली अपनी वाणीमें, कहता है, “दादा, यदि आप इतने- 


निराश होचुके हैं; ओर अपने बच्चे की बहादुरीके विषयप्ें 
यदि इतना संशय आपके मनमें उत्पन्न होचुका है, तो मैं 
कहता हूं--खुनिये--अच्छी तरह सुनिये--यदि आपके वीर्यसे हैं 
उत्पन्न हू---अखली मराठ के वीयंका यदि में ह--तो आजसे 
तीन महीनेके अन्द्र ही दादा, आजसे तीन--तीन ही महीनेके 
अन्द्र, उस दुश्के, तिल-तिलछके समान, दुकड़े कर डालू'गा, 


उसके उस चांडाल-रक्तसे नहाऊ गा; ओर अपने हाथ छाल सर्ख 


करके छातकी ठोकरसे ही उसका सिर उड़ाता हुआ आपके 
सामने छाऊ गा;ओर तब आपको प्रणाम करू'गा | यदि आजसे 
तीसरे महीनेके द्विसान्ततक में आपके पास न आऊ', तो 
समझ लीजिएगा कि, मैं मर गया; ओर प्रतिज्ञा-भड़के पातकसे 
न सिफ अपने ही खझुखमें, किन्तु अपने बयासी पीढ़ियोंके, 
पुरखोंतकके मुखमें कालिख लगाई; ओर उस दशामें फिर आप 
समझ लीजिएगा कि, में कहीं जड़लमें पड़ा हुआ सड़ रहा हूं 
ओर स्थार तथा गिद्ध मेरे शरीरके टुकड़े टुकड़े करके खारहे 
हैं--बस,इससे अधिक ओर मेरे जीवनका उस समय क्या होगा ? 
हाँ, तोन महीनेतक आप इस बातका कुछ भी पता न रूगा- 


इयेगा कि, में कहांपर हूं; और क्‍या करता हूं। इन्हीं दोनोंकी 


_सेवामें रहिये, आप ख़ द्‌ यद्‌ बोमार पड़ जायें, यदि मसनेयर 


.. भो आरें, तो भो, शरपश्नस्में पड़े हुए भीष्मकी भांति, तोसरे 


, महीनेके अन्तिम दि्निके सूर्यास्ततक मेरी प्रतीक्षा करें| अब में 





















॥ ७८9 ८ ( “बुर स्कम ही ) 
५५७७७७७४ हु ब्ब््स्स्स्ब्प्स्स्प्ज्न 








इस बालकका शव जडडूलमें लिये जाता हूं; ओर इसकी अन्‍्त्य- 
क्रिया करता हूं .....हां, हां, इसको लेकर जहां में बाहर गया, 
फिर प्रतीक्षा पूरी किये बिना आपको यह मुख नहीं दिखाऊगा । 
नहीं, नहीं। कुछ मत बोलिये। जो प्रतिज्ञा मशठेके मुखसे 
निकल चुकी, अब त्रिकालमें भी उसमें अन्दर पड़ नहीं सकता |” 
बल, इतना कहकर वह चुद होगया। फिर हर प्रकारसे 
उसमे आपने क्रोषको सम्हाला; ओर बोले रुककर उस बारूक- 
के शवको उठा लिया। श्यामासे उसने अपने पीछे पीछे कुदाल 
और लालटेन लेकर आनेको कहा; ओर सखय॑ द्रवाजेके बाहर 
निकला । के क्‍ 
अबतक जो कुछ हुआ, उसे देखकर वह जुद्ध पुरुष बिलकुल 
भौंवक्कासा रह गया; ओर स्तब्ध बैठा रहा। यह क्या हुआ ? 
इसका परिणाप्त क्या होगा ? यह हमारे सामनेसे प्रतिज्ञा करके 
जारहा है--अब यह क्‍या करेगा ? ओर इन खब बातोंका अन्त 
क्या होगा ? यह कुछ भी उसकी समम्द्मे न आया। वह जैसा 
नीखी गर्दन किये हुए पहले बैठा था, वैसा ही चुप बेठा रहा | 
उस दशामें वह कितनी देर, किस प्रकार, बैठा रहा, सो कुछ 
उसके ध्यानमें न आया | वह ख्री, जो एक पलहड्ठपर पड़ी हुई 
थी, फिर एक बार उठी, ओर शून्य सथा भयंकर दूृष्टिसे इधर- 
उधर देखकर ज़ोरसे बोली, “क्यों? मेरे बच्चे की गदेनपर पैर 
रखकर दुष्टने उसे कुचछ ही डाला ?” यह कहकर वह फूट 
फूटकर रोने लगी; और फिर सल्तापवायुके मोकेमें ही उठकर 











ह। उधाकाल क् द ह पे हे 


“अचछ हफ तीन 0 3, 2७ आआ ८ शीट रेल 


वह पलडुके नीचे आई, तथा एकद्म चीख मारती हुई पर्ंगपर 
ओर उसके नीचे टटोलनेसी रूणी | वह बीच बीचें रोती,चिलाती 
अथवा चीख़ती | यह देखते ही घुड़ा उठा; ओर उसको पकडकर 
सम्हाल्लन छगा; पर उसका यह कथन बराबर जारी रहा--“मेरस 
बच्चा कहां है ? अरे कहां है मेरा छाल ! दे दो मुझको । लेगया 
डुडड, जान पड़ता है | डाल दिया कहीं खन्दकमें ? अरे दुष्ट, मर 
जा | आग नहीं रूम गई तेरे हाथोंमें ?......” थे, और इसी 
भकारके अन्य भी अनेक शब्द, बरावर उसके मुखसे निकल रहे 
थे। हाथ-पैर भी बराबर वह पटक रही थी; और उठकर कहीं 
भागना चाहती थी | रृगसग पन्द्रह-बीस मिनट पहले चह इतनी 
विलक्षण अवश्थामें थी कि, उसके छिए यह कहमातक कठिन 
था कि, यह जिन्दा है, अथवा मुर्दा-खो अब उसके शरशीरतें 
इस समय इतनी शक्ति न जाने कहांसे आगई ! बुड़ा उसको 
सम्हाल ही न सका। उधर एक ओर जो एक तीसरा मनुष्य 
... बीमार पड़ा था, उसको इस खारे शोरशुरूसे बड़ो तकलीफ 
.. होने छगी। इसलिए अब बुड़ा बेबारा इस बखिन्तामें पड़ा कि 

... ऐसी भयंकर दशामें वह अकरेछा क्‍या करें, और कक्‍यान 
करे--उस सप्तय उसके मनकी जो दशा हुई होगी,उसकी पाठक- 
गण खर्य ही कहपतन्ा कर | दो बीमार उस भयंकर दशामें परे 
हैं; ओर सम्हालनेवाला एक ! 

इस प्रकारकी दशा वहां बीत - रही थी, इतनेमें श्यामा 
ः थे अकेला ही कुदाल इत्यादि लेकर वापल आया । उसे देखते हा 


ज्जऊछच्अ््ि्टअस्‍्ॉल्‍चश्िधभचआटिडसससट रस 














(८ 2) 4 कुछ अन्य छोग 
3४८  ब्पटपतपा 


जुड़े ने “तेरे साथ गया हुआ हमारा लड़का कहां है !” यह 
जत छानैबालों प्रश्षयोधक दृष्ठटिसे उल़की ओर देखा। श्यामा 

भो मानों उसका आशय सप्रझ गया; और कुदाल इत्यादि बोले 
. रखते ही बोला, “वे यछ्छे गये। ओऔसा उन्होंने यहां कहा था, 
पैला ही किया | शवकों गाड़नेके लिए उन्होंने बड़ा गहरा गड्ढा 
खोदा, उसमें शब॒को पूर दिया; और फिर मुझसे छोट जानेको 
हकर स्वय॑ वैसे ऑधेरेमें ही जाने कहाके कहां गायब होगये। 
मे बहुत पुकारा, पर कोई फल न हुआ !” 

श्यामाके मुखसे ये शब्द सुनते ही पहले तो बुड़े ने सोचा 
कि, हम भो उसके पीछे ही पीछे जाऋर उसको पकड़ें; और 
आग्रह करके छोटा छाबें; पर फिर उसने सोचा कि, अब उसका 
लोटना विलकुछ असस्मव है, इसलिए उसने उल विचारको 
छोड दिया। हां, श्यामाक्ती लदस्यतासे उसने फिर उस 
खीको बडे कणछसे सम्हालऋर पर्लंगपर सुला दिया। इधर 
उसकी सनक भी अब कुछ कप होरही थी, अतएव उसने 
सी विशेष हाथ-पैर नहीं खलाये। हां, मुंहसे अवश्य कुछ, 

हडेहीकी भांति, वड़यड़ा रही थी | कुछ देर बाद वह बड़- 
बड़ाना भी बन्द हुआ; ओर बिलकुछ निश्चेण्ठ होकर पड़ रही । 
इतमेमें उस दूछरे पलुगपएर पड़े हुए मजुष्यने ऊपर सुंह उठाकर 
“जम” का शब्द कहा द । इसछिए उसकी ओर जाकर उस : 
बुड़ ने उसके मु हमें चार चश्मच पतला साबूदाना डाल दिया। 
इसके बाद वह फिए उस ख्रीके पास आकर बेंठ गया। क्षण- ) 


7 











४६० ४) 


लाकर 
सात्र चुप बैठनेके बाद फिर एकदम चह श्यामासे कहता है, 
“बेटा, चलते समय उसने ओर भी कोई सन्देशा सुझे बतलानेके 
लिए कहा था ?” “कोई विशेष नहीं?” कह कर श्याप्राने उत्तर 
दिया कि, “हां, इतना अवश्य कहा था कि, 'दादासे कह देना 
कि, आजसे तीन महीनेके अन्तिम दिमतक हमारा रास्ता देखें । 
इस बीचमें यदि न आधे, तो समम्दध ले कि मर गया ।' इसके बाद 
फिर उन्होंने मुझसे कहा कि, श्यामा, दादा अकेले हैं; ओर ये 
दोनों रोगशब्यापर पड़े हैं, इसलिए तू अब अपनी माको ज़रूर 
ले आना! सो आप क्या कहते हैं ? क्‍या में जाऊं ? में दो दिनके 
अन्दर ही. उसको लिये आता हूं। सब हाल बतलानेपर वह 
तुरन्त ही चली आवेगी'' पर, हां, एक बात बतलाना तो में 
भूछ ही गया। चलते चलते उन्होंने एक बार अपने ही आप 
यह भी कहा था कि, “अब में वीजापुरको जाऊँगा; और उस 
दुष्ट चांडालका पता लगाऊँगा; और एक बार जहां उसका 
पता चल गया, फिर उसके पीछे ही पीछे छायाकी तरह 
घूसू गा, तथा फिर कोई भोका पाकर अपना काम पूरा 
करू'गा! |” क्‍ 
श्यामाके इस कथनकी ओरे बुड़े का पूरा पूरा ध्यान था 

और यह बात स्पष्ट दिखाई देरही थी, परन्तु साथ ही साथ 
यह भी जान पड़ता था कि, उसके मनमें ओर भो कोई न कोई 





.. विचार अवश्य ही आरहे हैं। क्योंकि श्यामाकी बात ख़तम 








ही बह उसपर कुछ भी नहीं बोला; ओर बिलकुल सप बैठा 

















४६१ री ः कुछ अन्य लोग | 


नकुपत-+९८० ८.०७ ८-५८--७०५ ८-०: ४: छ 





रहा। बेचारा श्यामा भी यह सोचता हुआ कि, अब क्या करें, 
चहांसे उठकर उस दूसरे मजुष्यकी चारपाईके पास जाबेंठा। 
छोकरेका मन बहुत ही दःखी होरहा था। उसकी अवस्था 
ही अभी क्या थी--फकिर उसमें भी गत मदीने-सवा महीनेके 
अदर उसकी परिस्थितिमें अनेझ परिवतेन हुए थे; परन्तु उस 
लड़केके वस्चिमें ही यह ख़बी थी कि, उन परिवतेनोंसे डसका 
उत्साह और भी वढ़ रहा था। यह बुड़ा कोन है ? वह दूसरा 
_ झुवक कौन है? घारगाँवके देशमुखसे इनका फ्या सम्बन्ध है! 
सूर्याजीका सन्देशा हमने ज्यों ही इस बुड़े को आकर बतलाया; 
ओर उनकी दी हुई निशानी द्खिलाई, त्यों ही अत्यन्त सहालु- 
भूतिमें आकर इस बुड्ं ने उस युवकको क्यों बुलाया ! इत्यादि 
प्रश्नोंका खुलासा श्यामाके मनमें होचुका था । इसके सिवाय, 
सूर्याजीकी पत्नोके विषयमें इतनी ख़बरदारी रखने ; ओर जरूती 
हुई आगमें पैठकर उसके प्राण बचाने, इत्यादिके विषयमें भी जो 
अनुमान उसने अपने मनमें बांधा था, उसके विषयमें भी अब 
उसे कोई सनन्‍्देद नहीं रह गया था। परन्तु अब बहुत देरसे 
वह इन बातोंके सोचनेमें लगा था कि, इस बुड़े ओर उस 
युवकमें जिस प्रतिशाके विषयमें बातचीत हुई, वह प्रतिज्ञा किस 
बातकी ? जिसके रक्तले स्नान करनेका इन्होंने बीड़ा उठाया 
है, वह कोन है ? इन बातोंके सोचने-वियारनेमें उसने बहुत कुछ 
कोशिश की,बहुत कुछ अपने मत्तिष्कको परिश्रम दिया; पर कोई 
लाम न हुआ। हां, इतना उसको अवश्य विश्वास था कि, ये 








. ५ ४६२ 2) 





हनन लक >+ननननन- मनन 
नकल नन++न रत»... 





' मनुष्य जैसे दिखाई देते हैं, वैसे नहीं हैं। वास्तव ये कोई 
बड़े पुष्प हैं; ओर किसी कारणवश ऐसी दशाको प्राप्त हुए 
हैं। सूर्याजी ओर उनकी पत्नोके विषयमें भी उन दोनोंमें पर- 
स्पर जो बातयीत हुई थी, उससे मी श्यामाने यही समझा था 
कि, ये दोनों कोई कुलीज ओर बड़े घरानेके मजुय्य हैं। परन्तु द 
ये अज्ञातवासमें क्‍यों हैं? इनकी शत्र ता किससे है! इनकी 
यह प्रतिज्ञा क्‍यों है? ये थे कहां ? इत्यादि बातोंके जाननेकी 
उसे इच्छा थो, सो वह जान नहीं सका, इसकारण उसका: 
वित्त कुछ विदारपूर्ण होरहा था। इतनेमें उस बुड़ें के मनमें 
न जाने क्या विचार आया; और वह एकदम उससे बोला, 
धयामा, तू किसका लड़का है? फकहांसे भूठकर यहां आगया,; 
ओर हमारे चकरमें आफँसा ! देख, तेरी मा क्या कहती होगी ? 
उसकी क्या दशा हुई होगी? सुभागको तो वे दुष्ट पकड़ ही ले- 
गये होंगे ? सो वह तेरा कुछ हाल तेरी साको बतछा ही न सका 
होगा ? ओर यदि कुछ वन्‍्लछाया भी होगा, तो क्या बतलाया 
होगा ? उसे मालूम ही क्या है?! ठीक ठीक वह क्या बतलछा 
सकेगा ? तेरी माको मैं नहीं जानता, अथवा तेरी मा मुझको 
.. नहीं ज्ञानती, ऐसा नहीं--अरे बेटा--'* 

.. इतना ही ऋहकर तुरन्त उसने अपनी जीम दांतों-तले 
.._ दुबाई--जैसे कोई बात वह न बतछाना चाहता हो; परन्तु एक- 
दम चह उसके मुँहसे निकल गई हो; ओर इसपर फिर उसको 
औ खेद हुआ हो ! श्यामा बुड्ढे का उपयु क्त कथन खुनकर ओर भी 














५ ४६३ ८2 8 कुछ अन्य छोग हैं 


औ--८+-53 ््ज्फल्ज्णह 7 


अल कि लक व्स्च्ह्च््प्प््ल्स्फ्८ 
अधिक गोछमालमें पड़ा। परन्तु इस आशासे कि, बुड़ा आगे 
आर कुछ बतलायेगा, वह छुप बैठा रहा । साथ ही साथ चह 
अपने मन यह भी सोचने छमा कि, “क्या मेरी माने इसके 
पहले मुझसे फमी किखी ऐसे बुढ्े ओर युवक पुरुषका खिक्त 
किया था १” पर कोई परश्णिम व मिकला। ऐसी कोई बात 
उसे याद नहीं. आई। हां, इसवा उसे अवश्य स्मरण आया 
कि, उसकी मा अपने पुराने मालिकके विषयर्ें कभी कभी 
कुछ बात निकाका करती थो; ओर साथ ही बड़े दुःखके 
साथ रोया करती थी। परन्तु वे मालिक कोन हैं; ओर 
इस समय वे कहां हैं--इस सम्बन्धमें कोई जर्बा उसको माने 
कभी उसके साममे नहीं की थी; ओर यदि की भी हो, तो उसे 
याद्‌ नहीं धो । अल्तु। बुड़ा बहुत देश्वकू फिए उससे छुछ 
भी नहीं बोला। इतमेमें दोनों रोगियोंके दबा-पानीका समय 
आगया, चुड़ ने तुरन्त उठकर दवा दो । कुछ समय बाद सावू- 
दाभेके दो दो, चार चार चश्मय उसने दोनोंके मु दमें डाले । 
परन्तु होने वो दवा ओर साबूदाना, दोनोंहोको धूकछ दिया । 
अघ्तु। शत बड़ी झुशक्िछसे वोदी । चुडु को तो विरूडुछ ही 
नींद नहीं आई । परन्तु बेचारा श्यामा पहले बहुत देरवक तो 
बेठा रहा, फिए बड़ी महरी लींद आमेके कारण उसी जगह लुड्क 
गदा;ओर खुबह बहुत देरके बाद उठा | फिर इधरए-उधरके आव- 
श्यक कार्य करनेके बाद बुडु से बोला, “दादालाहव, मैं अयनी 
माको लिये आता हूं। जहां मेने इधरकझा लब चुतान्त बत्‌- 












लाया कि, वह तुरन्त ही चल देगी। उसके आजानेपर आपको 
बड़ी सहायता मिलेगी। मैं जवबतक छोयकर न आजाऊँ॑ँ, आप 
खटवाजीको अपनी सहायतामें झेल | में अभो उसे बुलाये 
राता ह। जिसने इनको आगसे वचानेके लिए अपने प्राणोंको 
संकटमें डाला, वह आपकी सहायता अवश्य कशेगा। सिफ 
दो दिनकी बात है। में परसोंके दिन अवश्य हो वापल 
आज्ञाऊँंगा। आप ही सोचिये--आप अकेले कया क्‍या करेंगे ? 
मेरी मा कुछ नहीं कहैगी--आप उसके आनेपर स्वयं देख लेंगे!” 
इस प्रकार किसी प्रोढ़ मजुष्पकी भांति बुड्ढे को अपनी बात 
समभाकर श्यामा चुपकेसे उसके सुंहकी ओर देखने छूगा। 
इतनेमें सटवाजी खयं ही आकर वहां उपस्थित होगया। फिर 
क्या कहना है? श्यामा अपने कार्यके लिए ओर भी अधिक 
उत्साहित दिखाई दिया । यही नहीं, बढिक उप्ने सथ्वाजीसे 
कहा कि, “जबतक में वापस न आजाएंँ , तुम इनको सम्हालो।? 
ओर इतना कहनेके वाद वह उस बुड्े पुरुष तथा सथ- 
वाजीसे बिदा होकर यछ दिया। उस छोटेसे बालकृूफा वह 
प्रोढ़ व्यवहार देखकर उन दोनोंहीको, उस दुःखद्‌ अवस्थामें 
भी, थोड़ीसी हंसी आई। बुड़ा तो बहुत देश्वक उस छोकरेकी 
ओर, जो क्षण क्षणपर दूर जारहा था, बड़े कोतुकके साथ 
देखता रहा। क्‍ 
.. उठी रातक्ो, जबकि बुड्ा उत्त कोयड़ोसे अपनी पहलोी 
, कोपड़ीकी ओर किसी कारणवश आरहा था, उस कोपड़ोमें 

















9 ४६५ 22) ला 


3 पफजली 2 प्म पफद की 


उसे किशी मनुष्यकीसी आहट मिली॥। उस आहटके पाते ही 
वह एकदम पीछे छोट पड़ा; ओर झोपड़ीकी पिछली ओरसे 
काम लगाकर सुनने लगा। इससे कुछ भय उत्पन्न करनेवाले 
शब्द्‌ उसके कानोंमें पड़े, अतण्वय वह तुरन्तः:ही अपनी दूसरी 
भोपड़ीकी ओर आया | 

इूधर एयामा अपनी माताकों लेकर तोखरे दिन वहां आता. 
है, तो एक चिड़िया भी उन दोनों कोपड़ियोंमें नहीं मिली! 





चोंतीसवां परिच्छेद । 
. +**हईँड्स- 
कुछ अन्य लोग | 
द (२) क्‍ 
अब श्यामाकों तो हम ऐसे ही गोलमाल्में छोड़ दें; 
ओर अपने कथानकके कुछ अन्यान्य लोगोंके हालचारूकों भी 
देख, तथा उसके वाद फिर एकदम बीजापुर पहुंचकर बहांकी 
घटनाओोंकी ओर ध्यान दें | क्‍ क्‍ 
पाठकोंको स्मरण होगा कि, खुलतानगढ़के क्िड्ेदास्कों 
जब रणउुल्लाख़ां क़ैंद कर छेगया; ओर डखकी पुत्रवधू एक दिन 
पहले ही अपनी दासोसहित वहासे कहीं बली (गई, तब इसका 
सारा समाचार हमारी “बाग़ो-मंडछी” को उसके शुप्तचरते 
जाकर दिया था। इसके सिवाय, पिछले एक /परिच्छेद्मो यह 











द 5 ७६६ ५2 क्‍ 


भी बतकाथा जाखुका है कि, उस समाजारकों जब उन छोण नि 
खुना, तब पहले कुछ हु ओर फिए पीछे कुछ लेदके चियार उम्र 
लोगोंमे आये थे; विशेषद्वर झो नवीन छिपाही जवाब उस . 
मंडलीरीं अमी हालहीमे आकर सम्मिछित हुआ था, उसकी 
कुछ विविज्ववी दशा होगई थी। चढह सिपाही जवाब कोव 
था, सो पाउक्रोंको अब विशेष रूपष्ट करके बतलानेकी आय- 
श्यकता नहों । वह वियाहों जवान और कोई नहीं--छुछूवान 
गढ़के अप्याघलाहबके छुत्र नानासाहब थे। सुलवानगढ़के 
क्िकेदार्को कोद्‌ कर लेजानेका समाचार मालूम होनेके बाद 
उन छोगोंमें जो बातजीव हुई थी, उससे उस विषयका सारा 
बृतचान्त पाठकोंकों आप हो आप मालूप होगया होगा। अब उस 
ईवेषयमें कुछ विशेष बतछानेकी आवश्यकता नहीं। स्वामीजीने 
'नानालाहबसे कहा था कि, तोन दि्नके ,अन्द्र में तुम्हारो 

खीका पवा छगा दूगा | जिंघ सम्रय अप्पासाहब पकड़े गये, 
बह क़िलेपर नहीं थी--एच्न दिन पहले हो, रासको, चछी गई 
थी, वह जय॒तुर है, जित तरह बना होगा, अपने विताऊओे घाः 
चलो गई होगी, इत्यादि । इसके बाद फिर सो उन्होंने बार बार 
जब यह बन दिया कि, में दोन दिनके अन्हर अचशय ही उसका 
पता छगा दू गा, तब नानासाहबको कुछे शान्ति मिली । परूतु 
_ उसके मनकी पूरी पूरी अशानित फिए सी नहीं गई । खामोजीने 
. अपने गुप्तवरसे, जो कुछ उनको कहना था, कहकर उसे रवाना 
कर दिया।. इसके बाद वे ऊिए भीतर आगये; ओर अगले 

















४६७ ८2 
७००७७००७॥ ७७ ॥ 
विचारमें लगनेके लिए छोगोंसे कदहा। छकोग उस विषयके 
_ विचारमें कुछ कुछ तो लगे ही थे। राजा शिवबा तो 
बिलकुल ही एकाग्र होरहे थे। नानासाहबने खुलतानगढ़के 
हस्तगत करनेमें जिन खुविधाओंका ज़िक्र किया, वे सब उन्होंने 
अपने मनमें जमा कछीं। उन्होंने बहुत दिन पहले ही सोचा था 
कि, यदि सुलतानगढ़ हमारे हाथमें आजायगा, तो बहुत ही 
अच्छा होगा। उक्त किला बहुत ही बिकट ओर हमारे लिए 
अत्यन्त सुविधाजनक है। इसके सिवाय हमारी वर्तमान 
स्थितिके लिए. भी वह बहुत उपयोगी है। परन्तु मुख्य 
कठिनाई उन छोगोंको यही जान पड़ती थी कि, किलेके 
मुखिया रंगशव अप्पा एक कट्टर खामिभक्त आदमी हैं; ओर 
इसकारण उनको फोड़कर किला नहीं लिया जासकता। 
हाँ, श्रीधर खामीने अपने गुप्तवरोंसे जो समाचार प्राप्त किये .. 
थे, उनसे उनको बहुत दिन पहले ही यह बात मालूम हो चुकी .. 
थी कि, अप्पासाहबके रछड़के नानासाहब अवश्य ही सुख- 
व्मानोंके कट्टर विशेधी हैं; ओर वे हमारी मंडलीमें मिल भी 
सकते हैं; परन्तु फिर भी यह कठिनाई उनके सामने उपस्थित 
ही थी कि, नानासाहबके आमिलनेपर भी, जबतक उनके 
पिता किलेदार बने रहेंगे, तबतक उस फ़िलेपर चढ़ाई करके 
जाना; ओर फिर उस चढ़ाईमें उस बद्धको कैद करना, 
इत्यादि अच्छा नहीं दिखाई देगा। परन्तु आज जो समाचार 
उन लांगोंको मिला, उससे उक्त सारी कठिनाश्यां आप ही आप 











छे६८ 4) 


48“+898५ <ै९०-ह२- 


दूर होगई'। इसलिए उन्होंने सोचा कि, रंगशाव अप्पाके हाथसे 
खुलतानगढ़का किला छीवकर यदि्‌ उनको बादशाहने पकछ 
मगवाया है, तब तो फिर अब उस क़िलेके हस्तगत करनेमें कुछ 
बहुत कठिनाई नहीं रह गई। खुलूतानगढ़का किछा उनके 
लिए सबंथा उपयुक्त था। शिवबाके अपने डशिजके इलाकेसे भी 
वह क़िला बहुत दूर नहीं था। बीजापुरसे बहुत पास भी नहीं 
था। इसके खिवाय किलेके आलपासका थहुतसा भाग 
शिवबाकी वर्तमान परिस्थितिके बहुत ही अशुकूछ था। इन 
सब बातोंके ध्यानमें आते ही राजा शिववाके मनमें उस किलेको 
प्राप्त करनेकी बड़ी इच्छा हुईें। परन्तु उनका यह पक्का निश्चय 





था कि, कोई भी काय करना हो,भमवानी माताके कृपाप्रखाद और 


. उनकी अलुकूलताके बिना किया नहीं जाखकता। साथ ही 
साथ उनका यह भी पक्का विश्वाघ्त था कि, महाराष्रमें खशज्य 

संस्थापना करने; ओर गौ-ब्राह्मणों तथा आयभूमिक्कों यबनोंके 
. कष्टसे घुक्त करनेका महान्‌ कार्य जगदम्बा हमारे हाथसे अब- 
श्य कशजेंगी | इसके सिवाय उनका यह भी एक विश्वास था 
कि, भवानी माताके प्रसादसे ही हमको यह बात भी माल्मूप 
होजाया करेगी कि, कोनसा कार्य सिद्ध होनेयोग्य है, और 
कोनसा नहीं। अतणव, उपयुक्त सब विचार ज़ब उस किले के 
. सस्वनन्‍्धमें होचुका, तब उन्होंने बाबाजी तथा अन्य सब छोगोंसे 
.._ चुप रहनेकी प्रार्थना की; ओर खयं जगद्म्बिकाकों साष्टांग नम- 


ः 


-. सरकार करनेके बाद “जय जगदस्वा भवानी !” कहते इण, आंखें 

















छुछ अन्य छोग. 
ब्यक ० बट मी, १९००४ एल ०-2 २--०८-५५:४० ८: था ७० 





बन्द करके, खित्तको एकागम्र किया | उस समय डन खब लोगोंका 
भी मस इतना एकाम्र होगया कि, उनके निःश्वासोंके अति- 
रिक्त ओर कुछ भी उस सम्रय वहां झुमाई नहीं देता था| 
शिवबाका मन तो यहांतक एकाग्र दिखाई दिया कि, उनको 
अपने आसपासका कुछ भी भान नहीं रहा | ऐसा जान पड़ा 
कि, उनका जिस उनके शरीरसे बहुत दूर ला गया है | यह 
किसी अम्य छोकमें ही, किसी न किसी दूसरे प्राणीकी ओर 
देखने अथवा उससे बातचीत करनेमें ऊगा है | इतनेमें देहमान 
इतना नष्ठ होगया कि, शरीर बिलकुछ निश्चें्टला दिखाई 
दिया; ओर मस्तक माताकी सूर्तिके पदकमलोंपर जासिड्डा! 
तथापि उन्हें उठानेको कोई आगे नहीं हुआ । उस दशामें लग- 
भग चोथाई घड़ी हुई होगी कि, इतनेमें होंठ हिलने छगे; और 
ऐसा जान पड़ा कि, अब कुछ शब्द बाहर निकलेंगे। अतएव 
सख्वामीजी अपने का्मोको बिलकुल पास छेगये, उस समय ये 
शब्द्‌ उनके कानोंमें पड़े --“सावधानीके साथ उपक्रम करनेसे 
सफलता अवश्य ! मन्द्रिका तोरण ही उठे ॥? बल, इतना ही 
खुनाई दिया | इसके सिवाय खामीजीको ओर कुछ भी झुनाई 
नहीं दिया। छुनाई क्या दे ? शिववाके मुंहसे और कोई शब्द 
निकले ही नहीं | उपयु क्त शब्द निकलनेके बाद कुछ देश्में ऐसा 
. मालूप हुआ कि, शिवबाका जो चित्त अभ्षीतक भवानी माताके 
चरणोंमें बिलकुछ लीन होरहा था, सो अब धीरे घोरे हृदयमें 
संचारित होने लगा | कुछ देश्के वाद थे अपने भावगपर आपगये - 











& उचधाकाल मर 


0 कल 





के ५७७ 2) 


व्यू. 43 असल 

ओर इधर-उधर गढेन करके तथा दोनों हाथोंसे अपने कान पकड़- 
कर उन्होंने फिर भवानी माताकों साष्टांग नमरुकार किया। इसके 
बाद चुपकेसे बैठकर धीरेसे उन्होंने अपनी आंखें खोलीं;ओर उब्हे 
माताके खरूपकी ओर लगाकर बादको फिर बड़ी आतुश्ताके 
साथ, खासमीजीकी ओर देखा । स्वामीजीने उन शब्दोंका मनन 
करके उनका अर्थ पहले ही अपने मनमें समझ रखा था; ओर 
वह अर्थ चूकि ऐसा ही था, जौसाकि उन्हें अभ्षीष्र था, इसलिए 
वे मन ही मन बडे आनन्दितसे दिखाई दिये। शिवबाने ज्यों 
ही उनकी ओर देखा, वे बोल उठे, “शिवबा, बस 'फ़तह हुई। 
फतह हुई समझ | इसमें शंका अणुप्रात्र भी नहीं। इस बारके 
शब्द ओर उनका गुप्त अर्थ जब में बतछाऊ' गा, तब तू आनरू- 








से नाथ उठेगा। समर्थ ( श्रीरामदास खामी ) की इच्छा तेरे 


ही हाथसे यह महान कार्य करानेकी हुई, सो कुछ यों ही नहीं! 
बाबा, तेरा अधिकार ही ऐेखा है !”? 


ब्यापकी और उस महात्माकी कृपा जो कुछ करे, सोई . 
 हीक | पर शब्द क्या निकले, खो एक बार मालूम होजाँय 


त्ो- 


 चाहिए--बह्कि विछकुछ अपनी कण्पनासे बाहर हीं माताका 


हर हा | प्रसाद मिल्ा--णऐेसा समभझ ! धायधानीके साथ उपक्रम करनेसे 
.. . सफलता अवश्य | मन्द्रिका तोरण ही उठे !! बस, यही शब्द 


 हैं। ओर इससे अधिक क्या चाहिए ! सो अब तोरण उठाकर 


“झरे, शब्दोंका क्‍या पूछना है? बिलकुल वेसे ,ही, जैसे हे 








(्‌ 9) छ अन्य छोग 
बल इक कक व्स्च्ह्व्य्य्च्ल्स्क 











उपक्रमको प्रारस्त करो । 'खावधानीके साथ' इन शब्दों- 
को बारोकीके साथ ध्यानमें लाना चाहिए । नहीं तो, 
'सफ्छता अवश्य बस, इन्हीं शब्दोंकों ध्यानमें रखकर हम 
बहक जायेगे; ओर फिर जितनी सावधानीसे उपक्रम होना 
चाहिए, उतनी सावधानीसे नहीं होलकेगा; तथा ओऔरका 
और ही होरहेगा, इसलिए अच्छी तरह विचार करना चाहिए । 
जिस प्रकार मुझे छुड़ानेके लिए युक्ति सोची थी, बेसी ही कोई 
युक्ति खोचनी चाहिए सही; परन्तु साथ ही खाथ कुछ हृप्दा 
दिखामैका भी मौका निकाऊना चाहिए । नहीं तो, इतने दि्निसे 
जो इतने छोग जप्रा किये जारहे हैं; ओर अनेक प्रकारके 
विचार तथा मनसूबे बाँधे जारहे हैं, उनका उपयोग क्‍या ? 
. चलो, आजसे दो-तीन महीनेकी सुद्दत छो; ओर तीन महीने 
जिस दिन खतम हों, उस द्निके सूर्यास्तके भीतर ही भीतर 
किछेके अन्दर हमारा प्रवेश होजाना चाहिए; ओर किलेके 
किछेदार-यदि कोई नवोन नियत किये गये हों तो--ओर 
शिलेदार ( अश्वारोही सेनिक ) तथा छुड़लाल इत्यादि, सब 
कुछ हमारे हाथमें आजाना चाहिए, ओर क़िलेपर हमारा अम्ल 
जारी होजाना चाहिए । सच पूछो, तो तीन महीनेको मुद्दत- 
की भी आवश्यकता नहीं। आजदीका मौका बहुत अच्छा 
था; ओर आज क़िला हमारे हाथमें अवश्य आजाता; पर केवल 
क़िलेके ही हाथमें आजानेसे क्या काम च्ेगा ? आसपासका 
प्रदेश भी तो अनुकूल होना चाहिए, तम्मी उसको स्थिरता है। 








हू उंधषाकाऊ (हा के 
“म्पख्कलग >> अर 
आज क़िला हमारे हाथमेँं आगया; ओर कर चला भी गया, तो 
' इससे क्‍या छाम ?” शिवबाका पूरा पूरा ध्यान खामीजीकी वातोंकी 
ओर था। इसलिए अब वे बोले, “स्वामी महाराज, हम आपके 
उपदेशके बाहर बिलकुल नहीं हैं। आज वहां जाकर कया 
होगा ? ओर फिर, भवानी माताने जो यह कहा है कि, साव- 
: धानीसे उपक्रम करो, सो इसका अर्थ क्‍या? आपने तीन 
महीने बतलाये, सो इतनी सुद्दत तो ज़रूर चाहिए । रंगराव- 
अप्पाकी जगहपर सैयदुदलाखांके आदमीको किलेदार होने 
दीजिए । वह उस इलाके के प्रत्येक गाँव, प्रत्येक बघ्तीकी 
प्रजाको पीड़ित करेगा ही--सब प्रकारसे उनको कष्ट देगा। 
बस, इसीसे उन छोगोंके मन तैयार होजायेंगे। उन छोगोंके 
मन जहां तेयार हुए कि, फिर बातकी बातमें फतह 
कर रूंगे। उसकी चिन्ता ही नहीं।” 'सावधानीके साथ 
उपक्रम करनेसे सफलता अवश्य | मन्दिर्का तोण्ण ही उठे ।! 
ये अन्तिम शब्द्‌ अन्य क्विसीको सस्बोधन करके न कहते हुए 
शिवबाने अपने ही आप तीन-चार बार उच्चारण किये। उस 
समय यह स्पष्ट ही. दिखाई देश्दा था कि, मन्दिरका तोरण 
.. ही उठे ! इन्हीं शब्दोंका अथ निकालनेमें उनका साश ध्यान 
. छग रहा था ॥ भवानी माता ऐसा उपदेश तो कमी कर ही नहीं 
. सकतीं कि, तू हमारे मन्द्रिका तोरण उठा दे। क्योंकि उनको 








यह भलीभांति मालूम है कि, में उनको कितनी भक्ति रखता हूं | 






ऐसी दशामें, अपने सम्बन्धमें वे कोई बात नहीं कहँगी। यह 














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सुरक्षित नहीं है; और इधर नीचे आुंहारेका मन्द्रि उनके लिए 





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2७७७७७:७०७ व्ब्स्च्स्ल्ल्ब्स्य्स्ऋ्गः 











सब सोखकर उन्होंने फिर एक बार स्वामीजीकी ओर देखते हुए 
'भन्दिर्का तोरण ही उठे! इन शब्दोंका उच्चारण किया;ओर इस 
प्रकार उनका तात्पर्य जाननेकी जिज्ञासा प्रकट की। स्वामीजी 
तत्काल उनका आशय समप्रक गये; ओर बोले , “शिवबा, अरे तू 
इसमें इतने चक्करमें क्यों पड़ गया ? तू जो कुछ कर रहा है, सो 


सब वही वो है। यवनोंने जिस मन्द्रिका उच्छेद्‌ कर डाला है, 
_डखसकी पुनः संस्थापना तेरे हाथसे होनेवाली है। उलका तोशण 


यही है कि, जो तू यह किला पहले लेनेवाला है। चल; उठ, 


अब विचार करते रहनेका समय नहीं है। तूने ही तो अभी 


कहा कि, अब सावधान रहना चाहिए। बीजापुरमें अब दिन- 
पर दिन तेरी चर्चा बढ़ ही रही होगी। इसलिए अब चल, 
और कुछ सोचने-विचारनेका मोक़ा नहीं है । अब अगला डप- 
क्रम किस प्रकार करना चाहिए, इसकी व्यूहरवना कर। यह 
खारी व्यूहस्वना तेरे हो हाथसे होनी चाहिए। इन बाकी 
लोगोंको क्या ? ये तो तेरी आज्ञाके अनुखार कार्य करेंगे । 
इतना कहकर स्वामीजीने अन्य लोगोंसे इशारा किया | इशारा 
पाते ही सब लोग वहांसे दूर चले गये | स्वामीजी ओर शिवबा 
कुछ देशतक एकान्‍्तमें बैठे रहे। इसके बाद शिवबा वहांसे 
उठकर अपनी मण्डलीके साथ चले गये। बाबाजी जहांके तहाँ 
बैठे रहे। उन्होंने पहले ही समक लिया था कि, अब ऊपर 
हजुमानजीके मन्द्र्में रहना हमारे लिए विशेष श्रेयरकर ओर 





७6७७. £* // 
4. ० 


'. मोजुद ही था | अस्तु। शिववा ओर उनके साथियोंके चले जाने- 

. पर बाबाजी मन ही मन बहुत देरतक विचार करते रहे | अबतक 
जितनी कुछ घटनाए' होचुकी थीं, उन्हींका मानों वे बार बार 
विचार कर रहे थे। इसके सिवाय वे इस बातके भी विचारमें 
थे कि, देखे', अब शिवबा सुलतानगढ़को हस्तगत करनेके लिए 
किन किन उपायों ओर युक्तियोंकी योजना करता है। इस 
धकार विचार करते करते उसी जगह उनको नींदसी आगई | 
लगभग आधीरातका समय था कि, एकाएक गहरी नींदसे 
वे जग पड़े; ओर “ऐसा साक्षात्कार क्‍यों ?” इतने शब्द उन्होंने 
ज़ोरसे उच्चारण किये | फिर इधर-उधर देखा ओर आप ही आप 
कहते हैं, “स्वामी ( श्रीरामदास ) के यहां कोई सप्ताचार नहीं 
दिया, हमसे आलूस हुआ, इसीसे तो यह साक्षात्कार नहीं 
हुआ ? किन्तु ऐसा होनेका भी कोई कारण नहीं। अ्रीसमर्थ 





.._- सर्वसाक्षी, प्रत्यक्ष हनुमानजीके अवतार हैं। श्रीचरणोंसे 


... भी कोई समाचार [बहुत दिनोंसे नहीं आया है। न जाने कया 
... इच्छा है!” इतना ही स्पष्ट कहा, फिर उन्होंने उच्च स्वरसे एक 
.. श्छोक पढ़ा; ओर “जयजय श्रीरघुवीर समर्थ !” कहकर 
 ध्यानस्थ होगये | बहुत देशतक ध्यान करनेके बाद फिर उन्होंने 
श्रीसमर्थ ( रामदास) के बनाये हुए कुछ मराठी एलोक ओर 


.... कुछ अभ्लंग आप ही आप पढ़ें; ओर उषाकार होतेतक समय 
.. व्यतीत किया। परन्तु स्वामीजीकी चित्तत्रत्ति कुछ उदासीन ही 








| रही--कह नहीं सकते, किस कारणसे--चाहे निद्रामें जो 

























(04 ५०५ .) 3 कुक शग 
जज की ० ्न्ब्द््च्ह्स्व््ह्र्स्ल्स्ड 


दृश्य उनको दिखाई पड़ा, डस कारणसे हो--अथवा अन्य किसी 
कारणसे | जो कुछ हो। उषाकाछमैं स्वान-संध्या इत्यादि 
नित्यकर्मोंसे निपयनेके लिए स्वामीजी अन्‍्तमें उस गुप्त मंदिय्से 
बाहर निकले; और जड़लमें ही एक ग्दरनेकी ओर चले गये । 
वहाँ स्वानादि सब विधियोंसे निषटकर फिर वापस आये। 
दापस आते ही क्या देखते हैं कि, एक दूसरे बाबाजी उनकी 
प्रतीक्षा कर रहे हैं| उनको देखते ही श्रीधर स्वामी उनके चरणों - 
पर गिर पड़े; और पहला प्रश्न यही किया कि,“कहिये, समर्थेका 
क्या हालचाल है १” 

दूसरे बाबाजीने स्वामीकों उठाकर आलि गन किया; ओर 
एक थे ली, जिसमें भीतर कोई पत्र था, उनके हाथमें दे दी। 
स्वामीने उसे छेकर उलकी वन्दना की;ओर भीतरका पत्र 
निकालकर, डसकी भी वन्दना करके;उसको पढ़ा; ओर-- कल 
रातको सुर साक्षात्कार हुआ ही था, अवश्य ही मेरी भूल हुई” 
कहकर उस थौली और पत्रकी फिरसे वन्दना को; ओर फिर 
उसे अपने जटाभारमें रख लिया। इसे बाद फिर वे थैली ऊाने- 
वाछे बाबाजीको बड़े आद्रके साथ भीतर लेगये; ओर डनका 
उत्तम रीतिसे सत्कार किया। फिए एक दूसरेने पररुपर एक 
दूसरेसे सब बातें पूछी;और बतलाई' । इसके बाद जब अभ्यागत 
दूसरे बाबाजी विश्ञाम करने लगे, तब हमारे स्वामी महाराजने 
अत्यन्त खुबाज्य अक्षरोंसे एक पत्र लिखा, जिसमें अपने पकर्ड 
जानेके दिनसे छेकर ध्लोेग्आजतकका सारा बचान्त निवेदन | 


हि उधाकाछू हैं 
4 “णइऋछ- 











.. किया था! उस कृत्तान्तको पढ़नेके लिए राजा शिक्षया यदि 
,.... डस सप्रय वहाँ उपस्थित होते,तो अवश्य ही उसमें अपनी भारी 
भशंसा देखकर जहां उन्हें एक भकारसे आनन्द हुआ होता, 
वहा उस प्रशंसाके अतिरेकपर उन्हें ऊँछ संकोच भी हुआ होता। 
सम्पूण वृत्तान्त लिख खुकनेके वाद स्वामीने उससे यह भी 
लिख दिया था कि, सपर्थक्षे चरणोंके प्रत्यक्ष दर्शन यचपि 
अभी उसे ( शिवबाको ) नहीं हुए है', तथापि उसकी भक्ति 
. अगाध है,ओर भमहाराजके चरणोंफे द्शंन करनेको उसकी उत्करः 
अभिलाषा है। इसके सिवाय इस आशयका भी कुछ जुत्तान्त उस 

: चन्ममें था, “समर्थ यदि अब शीघ्र ही उसे देशन देखें, तो उसे 
... अत्यन्त आनन्द होगा। इसलिए उइल्ा पराक्रम होनेके बाद 
.. अवश्य ही ऐसा होना चाहिए । सम्पूर्ण पत्र छिख चुकनेपर 
.. स्वामीने फिर एक बार डसे पढ़ा। उसको पढ़ते समय स्वयं 
रा , उन्हींके मेजोमें आंसू भर आये; और अचानक उनके मुखसे ये 
। हे उश्गार निकछ पड़े :-.“चाह शिवा : तुककों धन्य है, जो 


. तुभपर ऐसे महात्पाका हपाप्रखाद है| में तो केवल निमित्तमात्र 
पा क। परन्तु तू ओर बे -दोनों अवश्य ही अर्जुन और कृष्णके 
... अवतार हैं, जोकि उच्छिन्न होनेयाले धर्मकी संस्थापनाके लिए 
... इस आयंभूमिमें अवतीर्ण हुए है'! छेसे महात्माओंकी कृपा 





... होनेपर ओर तेरे समान सच्छिष्य होनेपए फिर संसारमें अखस- 
.... स्मव क्याहै! 
5. बह पत्र उसी दिन समर्थ की सेचामें चला गया । 




















३७ 


तीसवां परिच्छेद । 
“आह: 
बादज्ञाह | 
(१) 

इसमें सन्देह महीं कि, मुहम्मदूअठी आदि्लिशाह बादशाहके 
ज़मानेमें बीजापुर उन्नतिके अति उच्च शिखश्पर विशजमान होरहा 
था; परन्तु साथ ही साथ यह भी कहना पड़ेगा कि, इसी 
बादशाहके शासनकालसे बीजापुर-राज्यकी अवनति भी बहुत 
धीरे धीरे प्रार्श्य होलुकी थी। यह बादशाह सरुवय राजकाज 
बिलकुल नहीं देखता था | बढिक इसके विरुद्ध, अपने अच्तःपुर्में, 
रातदिन विलासितामें निमझ्न रहता था। अपनी बेग़मों ओर एक 
ख्भावती नामक झुन्द्री, जो उसे सेयदुदकाखाकी जधन्य कार- 
स्तानियोंसे प्राप्त हुई थी, उसके सहवासमें वह नाना प्रकारके 


भोग-विलासोंगें लिप्त रहता था। बड़े बड़े इमामवाडे और 


राजमहल बनवाने तथा नवीन नवीन बाज़ार बसानेका भी उसे 
बड़ा शोक था। इसलिए ऐसे कार्मोंमें भी वह अपना बचा- 
चलाया बछू दथा पैसा खर्चे किया करता था। सोने-चांदीकी 
तो कोई फ़ीमत ही न लमभझूता था| ख़ब दानपुण्य करता,फरकीर- 
फुकशोंको जमा करके उनको भोजन कशवता;ओर उनका आदुर- 


सत्कार कश्ता | यह भी उसे एक व्यसन था। युद्धोंपर जाना, 


नवीन नवीन प्रान्तोंको जीतना अथवा अपनी शूरता ओर पर - 








है उचाकाल 





ख्च्य्ट्क़्ाा द्र्ा ० | | 0८. /#2 
५७७ (९ रह] ४8० आआ-> नए ० व 


क्रमसे अपना बेभव बढ़ाना, इत्यादि बातें उसे माझुम ही नहीं 
थीं। उसके राज्यकी प्रारस्मिक अवस्थामें घुरार ज़गदेव और 
राजा शहाजी भोघलेने राज्यवृद्धिके लिए बहुत प्रयत्न किया, 
जिससे राज्यक्ी उन्नति भी बहुत कुछ हुई, परन्तु जब राज्यके 
स्वामीका मन ही राजकाजमें न रूगा; ओर ऐसे मनुष्योंका 
प्रभाव राज्यके महत्वपूर्ण कार्यों में बढ़ने रणगा कि, जिनकी 
कीमत ज़नानखानेके बाहर एक कोड़ीकी भी नहीं थी, तब 
अच्छे कार्योमें विनज्न उपस्थित होने लगे । इसमें सन्देंह नहीं 
कि, बादशाहके प्रारश्मिक शासनकालमें उपयु क्त दोनों स्वामि- 
भक्त सरदारोंने राज्यकी वृद्धिके लिए जितने प्रथल्ल किये, सबमें 
सफलता प्राप्त हुई; ओर एकके बाद एक, इस प्रकार अनेक, 
इलाके जीतकर उन्होंने बीजापुरके राज्यमें मिलाये; परन्तु इससे 
बीजापुरका राज्य द्ल्‍लोके मुगल बाइशाहकी आँखोंमें कांटेकी 
.. तरह चुभने लगा। फछवः उसकी ओरसे बीजापुरको पराजित 
.. करनेका प्रयत्न शुरू हुआ। अब उस समय बीजापुण्के राज्यमें 


जे इतनी हुृढ़ताकी आवश्यकता थी कि, वह झुग़लोंका मुक़ाबिला 


.. करता; और अपने राज्यको भी बढ़ाता जाता; पर दो कारण 
.. ऐसे डपशित होगये थे कि, जिनसे उल ह्ृढ़ताकी बराबर 
.. कमी ही होरही थी। णक तो यह कि, सैयदुब्लाखांके 
... सखप्तान क्षुद्र मनुष्यने मुरार जगदेवक्रे सप्ताव सरदारसे 
.. प्रतिस्पर्धा शुरू की, जिससे फूट पैदा होगई। दूसरा 
.. यह कि, बादशाह झरुवय॑ं सच्ची परिस्थितिको सम्रमनेमें मन 





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सम अनकरलबननकरअससा पुर: मरतलहयदयधमपतयनकन लत “लए 7. 












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दि आई 0०००० भय 5 । 
नहीं लगाता था! ओर यदि कभी रूगावा भी था, तो पहला 
प्रतिविम्ध उलके मनपर सेयदुदलाखांका पड़ता था; झुरार 
साहब उसे दूर करनेके प्रयल्लमें ही ठगे रहते थे--सो भी कभी 
उनको सफलता होती;ओर कमी न दोती थी | इस प्रकार राज्य- 
की अन्दरुूनी हालत बड़ी खराब होरही थी; अतएव मुगर्लोंकी 
अच्छी बन आई। बादशाह जिस समय गद्दीपर देठा था, उसकी' 
अबवश्था पन्द्रद-सोलह जब की थी । झ्रुरार जगदेव राज्यके पुए्तेनी' 
सरदार थे; पूर्ववादशाहका उनपर पूर्ण विश्वास था; ओर 
महय्यदशाहका मन भी स्वभावसे बहुत शुद्ध, सरल तथा प्रेण- 
पूर्ण था, अतण्व पहलेपहल मुशर साहबने झुग़लछोंका अच्छा 
मुकाबिका किया; ओर राज्यकी वृद्धि भी की | पर पीछेसे जब 
उपयु क्र कारण पैदा होगये; ओर राज्यका ज़ोर कम्त होगया, 
तब मझुगलोंको अपना राज्य आगे बढ़ानेके लिए अच्छा मौका 
मिल गया; ओर फिर वीजाएरके राज्यमैं उन्होंने कैसा कैसा 
उपद्रय मचाया, सो इतिहास-प्रेमियोंको बतलानेकी आवश्य- 
कता नहीं है । इचधर प्रजा सी अब अधिकाधिक असन्‍्तुष्ठ हो- 
रही थी । वादशाहके विषयमें लोगोंका प्रेम बहुत था; क्‍योंकि 
नौरोज़के त्योहार ओर अपने जम्पदिनके अवलरपर वह बड़े बड़े 
उत्सव किया करता था, जलूस निकालता था; और उस समय 
हज़ारों रुपये तथा खोने-चांदीके फूछ वनवाकर प्रज्ञामें छुदात! 
था। उसके पासतक यदि किसीकी फ़श्याद पहुँच जाती, त॑ 


न्याय भी ठीक दौक करता था | पर सब तो यह था कि, उस्वे 


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पासतक फ़रियादका पहुँचना ही टेढ़ी खीर थी | परिणाम यह 
होता था कि,पाजी अधिकारियोंको मनपम्ताना अस्थायार करनेका 
भोका मिऊता था; और इससे सर्वलाधारण प्रजाओँ असब्तोषणत 
आग भड़कती ही जाती थी। बादशाह कभी अपने नगर 
बाहर भूछठ करके भी नहीं गया--जिससे उसका दानघर्म भी 
नगरके ही छोगोंको मालूम था, उसके शुणोंक्ी कदर भी उन्हीं 
लोगोंकी थी। राज्यके इलाक़ोंकी ग़रीब प्रजाको उसके गुणोंकी 
गन्धतक भी न मिली थी; ओर न उसकी सज्लवताका ही उनको 


कुछ अनुभव था; उनको तो काम पड़ता था छोटे-बडी अधिका- 


रियोंसे; ओर अधिकारियोंमें प्रायः निन्‍मानबे फी - सदी लोग 


स्वार्थी ओर अत्याचारी ही थे । फिर प्रज्ञा सब्तुष्ट रहे तो दैसे ? 


कभी कभी तो ऐसे भी मोक़े आते थे कि,शहरके बीच, रास्तेमें, 


 गोबध करके, आने-जानेवाले हिन्दुओंके--विशेषतः ब्राह्मणोंके -- 


शरीरपर उस रक्तको छिड़क देते; ओर इससे यदि उचके शरीर . 


के रोंगटे खड़े होजाते; ओर वे कुछ क्रोधप्रद्शक बात कह 
देते,तो उनका ओर भी अधिक अपमान करते । ब्राह्मणोंकों पकड़- 


कर उनके मु हपर रक्त पोत देते, अथवा ऐसा कोई कार्य करते 


'कि, जिससे उनका वित्त दुःखित होकर उनका क्रोध और भी 
भड़कता--ओर इस प्रकार ज़ब उनका क्रोध भड़कता, तब 
... उनकी ओर भी टरे बड़ाते | इन सब बातोंका परिणाम तत्काछ 
हा ... कुछ नहीं होता था; ओर इसीकारण अधिकारीवर्मको राज्यकी 











3] आया ४७४४७ 2 ः ष्् गा 


| 
हा 
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बी, 
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| 











हल 9) |. बादशाह कै 


४७७ ह 46 जा 3 8 2222 





हृढ़ताके विषयमें कभी सन्देह भी नहीं हुआ । परन्तु उमको इस 
बातका ख़थाऊू न हुआ कि, इस सब बातोंका सामूहिक रुपसे 
मिलकर क्या परिणाम होगा, अथवा भीतर ही श्ीशर होना 
शुरू भी होगया है। उपयुक्त रीतिसे कष्ट पाकर हिन्दू छोग 
जब बाद्शाहके यहां फ़रियाद लेकर जाते, तब उप्तकी ओर 
कोई ध्यान यहीं दिया जाता था। फलछत: थसन्वोषमें घीरे घीरे 
वृद्धि ही दोवी रही । कभी कभी तो ऐसा भी होता कि, फरि- 
याद खुनना तो दूर रहा--फरियाद करनेवालेका ही और भी अप- 
मान किया जाता था | इन्हीं सब कारणोंसे स्वाधायिक ही उस 


समय प्रत्येकके मनमें यह इच्छा उत्पन्न होगई थी कि, स्वराज्य- 


संस्थाएनाकी अब अत्यन्त आवश्यकता है; और कोई व कोई 
स्वराज्य-लसंस्थापक अब अवश्य उत्पन्न होना चाहिए । इच्छा 
उत्पन्न हुई हो, चाहे न हुई हो; कमसे कम उसके उत्पन्न करने- 
बाले कारण तो अवश्य ही उपबित होगये थे । अस्तु । 

जैसाकि हमने ऊपर बतलाया, बादशाह जबकि इस प्रकार 
अपने ऐश-आराममे चूर होरहा था, एक दिन आगे लिखी हुई 
घटना उपस्थित हुई। यह दिन, पिछले दो परिच्छेदोंमें बतलाई 
हुई सारी घटनाओंके लगभग आए दिलके बादका है। 
इस दिल बादशाहकी तबीयत कुछ साशराब थी; और इसलिए 
किसीको मिलनेकी इज़ाज़त भो यहीं थी | हा, हुजस्‍के जो एक- 
दो मुष्य कार्पदाज़ थे, उनको आने-जानेकी कोई मनाई न थी | 
अन्तःपुरकी ख्त्रियोंमें भी सस्मावती ओर झुलवामा बेगमक्े 











ह उषाकाल ु 
कब 
5टटफ्रड्डा कं ६६ ६१ 2 2/0 08 


अतिरिक्त और कोई ऐसे समयमें बादशाहके सम्मुख नहीं जा- 
सकती थी। सुलूताना बेगमका भी प्रवेश इज्ाज़त लिये बिना 
नहीं होसकता था। हां, श्म्तावती ओर सैयदुल्लाखां, इन 
दोके लिए पूरी पूरी स्वतंत्रता थी। सैयदुष्छाज़ां आज कई 
दि्निसे इस प्रयत्लमें था कि, बादशाहसे किसी ने फिसी प्रकार 
एकान्तमें मिल सके । बादशाइकी तबीयत जब ठीक होती, तब 
मुरार जगदेव कमसे कम एक बार उससे मिलकर सब बाद 
अवश्य बतला जाया करते थे। परन्तु जब उसकी तबीयत ठोक 
नहीं होती थी, तब थे भी नहीं आसकते थे। चाहे जितना 
आवश्यक कार्य होता, ऐसे समयमें हुज़् रकी झुलाकात उनसे 
भी नहीं हो सकती थी। आजका दिन भी ऐसे ही  दिनोपेसे 
एक दिन था। सैयदुब्लाां आजका मोक़ा अच्छा देखकर 
बादशाहके खुमहरी पर्ुगके खिरहाने खड़ा था। वादशाहका 
. वह दीवानखाना शोमाका मानो आगार था। हृब्यके द्वारा जो 
कछ सजावट होसकती थी, सभी उसमें मोजूद थी । आरख्यो 
पम्यासमें बगदाद, बसरश इत्यादि नगरोंके भव्य भवरनोंका वर्णन 
जिसने पढ़ा होगा; ओर बड़े बड़े बादशाहोंके द्रबारहालोंका 
. दृश्य जिसकी द्ृश्टिके सम्मुख उपसित हुआ होगा,वही हमारे बीजा- 
क्‍ पुरके इस यादशाहके राजमवन ओर उस दीवानखानेकी कल्पना 


0७५ ७७.८ # 


..._ कर सकेगा कि, जिसमें बादशाह इस समय अपने खुनहरी पलड़ 
रा । पर पर पड़ा हुआ था | दर्बारहाल रूगअग बीस-इकोस द्रका था 











सस्पूर्ण द्रबारहारूमें एक अस्यन्त मुलायम मख़मली 














5 गे कप रा पर शनि िविकाकल भार आज कर ७ पा धतप न किये ज 6 कक नल तप नी जुनक 








ह्‌ री) ', बादशाह श 
| +९१ ३ ; । 
“कस ३ “कक्े-क व्ध्न््स््््ल्ख््स्क्् 





गद्य पड़ा हुआ था, जिसमें मुरवोंतक पैर भीतर धँस जाते 
थे। प्रत्येक द्रमें बढ़िया बढ़िया कामदार मखमली परदे 
लगे हुए थे। जगह जगह उस गई के ऊपर छोटी छोटी गदियां 
और मसनदें छूशी हुई थीं | बादशाहका पहेँग पूरे दीवानखानेके 
तृतीयांश भागमें था। पलंग अत्यन्त विस्तीर्ण था; और जगह 
जगह गदियों, तकियों इत्यादिसे सजा हुआ था । सैयदुल्लाखा 
इस समय जिस ओर खड़ा था, उस ओरकी--वह मोतियोंकी 
जालीदार फालर लगी हुई--मशहरी ज़रा ऊपरको डठी हुई थी । 
वहींपर सोनेका एक रल्लखचित पेंचवां रखा हुआ था। उसमें 
अभी हालहीमें एक हुजरेने अत्युत्तम गुड़ाकू लाकर भरा था 
और ऊपरसे खच्छ अंगारे रख दिये थे । बादशाहने अरूसाते 
अलखाते उस पेंचवंकी निगालीकी ओर हाथ किया। यह 
देखते ही सैयदुब्लाख़ांने आगे बढ़कर वह निगाली पकड ली 
ओर उसका मुँह बादशाहके मुखके पास ही कर द्या | 
बादशाहने अछ्साते अछसाते एक-दो बार धघन्न निकाला 

ओर फिर सैयदुल्लाखांकी ओर देखकर कहा: 

कहो सैयद, आज यह क्या नवीन बला छाये? कुछे न 
कुछ लेआंये हो ज़रूर !” 

'हुज्रूर, आप बाद्शाहतकी गद्दीके मालिक हैं, ऐसी हालतमें 

सारी दुनियांकी बढाए' हुज़ रहीके पास तो आयेंगी, और 
बेचारी जायेंगी कहां ? इसके सिवाय,जब कोई खास खास मौके 


आपड़ते है, तब ईमानदार नोकर वक्त-बेवक्त भी नहीं देखते । 











क्.। /27% 
हे ३. ब्द्द्ट्ट्््ा्ा निकजज मे अ क अमलल छा ० 
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जो अर्ज़ करना होता है, अरज़ञ करते हैं; और हुजरका हुक्म 
लेजाते हें ।” | 

“अच्छा, यह तो हुआ। मझुबालगा मत करो, काम फ्या 
है, लो कहो | 

“गरीबपरवर, आपको तकलीफ होती हो, तो में कुछ कहना 
ही नहीं चाहता । हछज़ुर शान्तिके खाथ खुनेंगे, तभी कुछ 
नतीजा निकझेगा | क्योंकि बात बड़ी ही नाज़्‌ क है। में जो 
अभीतक कहा करता था कि, एक बार प्रत्यक्ष प्रमाण देकर 
इस बातको दि्खिझा दूंगा, सो आज उसका मोका आगया 
है। आप खथ न मानें, तो में नामका सैयद नहीं ।” 

“हूं, मेंने पहले ही सप्रफ लिया था कि, तुम ऐसा ही कुछ 
न कुछ मामला ज़रूर ले आये होगे | लेकिन देखो सैयद, में तक- 
लीफ़में ह', ओर चुप पड़ा हू, फिर भी तुम कुछ सोचते नहीं ।” 


“परकार, यह बन्दा यदि सम्यपर ही आकर सब बाते. 


नहीं बतलाबेगा, तो अवानक जो तकलीफ़ होगी, जो कष्ट 
होगा, वह इस तकलीफसे कहीं अधिक भयंकर होगा। बस, 
यही सममकर में इस समय हुज़ रको यह छोटीसी तक़लीफ़ 


देने आया हां । सरकारकी तबीयत यदि दुरुस्त न हो, सो 


बन्दा अभी, इन्हीं पैरों, वापस जाता है ।” 
- यहांपर पाठकोंको यह बतछानेकी आवश्यकता बहीं प्रतोत 


..._ होती कि, बादशाहका मन अपनी मसुद्ठीमें करमेकी कला 


. सैयहुल्लाख़ांकों सली भांति अबगत थी। वह यह बात भी 











*ई ५१० 2) बादजझाह 





अच्छी तरह जानता था कि, बादशाहकी तबीयत इस समय 
केसी ख़राब है; और उसको कहांतक महत्व देना चाहिए । 
बस, जिस दिन मदिरा देवीका सेवन विशेष होजाता था, 
उली दिन बादशाहकी तबीयत बिगड़ जाती थी; ओर फिर उसी 
दिन वह किसीसे मुलाक़ात नहीं करता था। पर सैयदुल्ला- 
स्ाके समान व्यक्तिके लिए, वही दिन--बादशाहकी तबीयत 
बिगड़नेके दिव ही--विशेष अजुकूछ होते थे। फिर क्या कहना 
है? जुसाकि हमने ऊपर बतलाया, पहले वह बादशाहकी 
जिज्ञासाको विशेष रूपसे जाग्रत करनेके लिए ऐसे ही कुछ दो- 
चार वाक्य कह देता; ओर फिर कहता कि, “अच्छा, मैं इन्हीं क्‍ 
पैरों वापस जाता ह्‌' ।” बस, इसी नियमके अनुसार आज भी 
उसने कुछ निराशा, कुछ खेद; और कुछ लापरवाहीके साथ 
उक्त शब्द्‌ कहे। बादशाहका मन मदिरि देवीके कारण सूद हो 
ही रहा था, अवएव उसके उक्त शब्द अपना काम कर गये, 
ओर तुरन्त ही बादशाहने अ पा मस्तक कुछ ऊपर उठाया; 
और कहा:-- नहीं, नहीं, बिलकुल लोटनेहीपर नोबत क्यों 
आगई ? कहो, कहो--कोई महत्वकी बात हो, तो बतलाओ 
परन्तु” क्‍ क्‍ 

“नहीं, नहीं, सरकारफो कष्ट होगा; ओर कष्ट देकर में ऐसी 
बात कहना भी नहीं चाहता। में जो कुछ कह'गा, उससे कुछ 
न कुछ कष्ट होगा ही; और इसीलिए में छोटा जारहा था |? 

बस, सैयडुल्लाख़ांका उद्देश्य पूरा'होगया। बादशाहकी 


हु 
है| 












!. उषाकाऊ हर | & ५, हे के) 
डि>क्यखछ्लशण , ११६ /£& 


जिज्ञासा हो वह बढ़ाना चाहता था, सो बढ़ गई, ओर वह 
बार बार कहने लूगा कि, “बतलाओ, बतलाओ, क्या बात है?” 
सैयदुब्लाखाँने ज्यों ही देखा कि, जिस अंशतक्क बादशाहकी 
जिज्ञासा बढ़ी हुई वह चाहता था, उस अंशदक बढ़ गई, 
त्यों ही घीरेसे डसने एक चोकी पल गके पास खींच ली; ओर 


आसपासके हुजरों ओर छोंडियोंकों दूर भगा दिया; ओर फिर 


अपना कथन प्रारस्सम किया:-- 
... “हुज्ञर, जैसाकि मैंने अर्ज़ किया, बस वही समभिये । 
रंगराव अप्पाके विषयमें रणदु्लाज़ां जो इतनी 'पक्षपातकी' 
बात करता है, उसका कोई न कोई कारण अवश्य है। मेने 
पहले ही आपसे अज़ किया था; ओर अब तो उसका कारण 
पूरा पूरा मालूम ही होगया। “अप्पासाहबका इसमें कुछ भी 
दोष नहीं, 'वे बहुत ही भमलेमानस हैं” धाद्दीके सच्चे हित- 
चिन्तक हैं, इत्यादि बातें जो कानोंमें पड़ती हैं, इनमें कुछ भेद 
अवश्य है | सरकार, रणदुल्ला उनके मोहजालमें पड़ गया है । 
और वह मुरास्खाहबकी तो बिलकुल मुद्दीहीमें है | रणठुब्लखां 


थों तो बहुत ही ख्वामिमक्त पुरुष है; पर वह मराठोंके चक्रमें फंस 


गया है। हज़रत, आप मुरारसाहबके विषयमें कुछ भी समका 
करें, पर में तो यही समझता हु' कि, वह गद्दोका... 


....._ “बस, यही महत्वकी बात १” बादशाहने कुछ त्रस्त होकर 


कच् [५ “अरे यह तो तुम्हारी रोज़की ही बात हुई ॥ 


50 जौ जाने व 


सल्‍कवमचरथपलपरथ्न्‍नपसर०र पेपर ८ परत तप लत ् के 


॥ 
हा 
| 
छ 
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पर] 
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#॥ 
| 
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इुज़ र, आप तक़लीफ़ न उठावं। यदि माल्म हो कि, मैं बिना 
कारण कष्ट देरहा हूं, तो इसका ओर कोई कारण नहीं, हुज़ रपर 
मेरी भक्ति ही है।? बादशाह कुछ नहीं बोला। हां, सैयदुल्ला 
आगे क्या कहता है, उसे सुननेके लिए उसने कुछ अधीरतासी 
अवश्य प्रकट की । धूते सैयदुल्लाने भी यह ताड़ लिया; और 
फिर तुरन्त ही आगे बोला :-- 
जरीबनिवाज़, मुरार साहबकी बात एक ओर--पर अन्य 
भी कुछ प्रक्ोभनोंमें रणढुढछा फेस रहा है। रंगराबव अप्पा 
साहबकी तरफ़्दारी और'*****” रा 
सेयडुरलाख़ां इतना कहकर कुछ भिफकासा; और बाद- 
शाहकी ओर देखने छरूगा। बादशाहके चेहरेपर अधीरताकी 
बहुत अधिक छाया देखते ही उसको बहुत आनन्द हुआ; और 
उसने सोचा कि, इस छायाको और भी अधिक घनो होने दें, 
. जिससे हम इसके आश्रयका पूरा पूरा लाभ उठाकर मनःशान्ति 
प्राप्त कर सक। अस्तु। बादशाहने ज्यों ही यह देखा कि, 
संयदुबला़ां अब जल्दी नहीं बोलता, त्यों ही वह फिर कुछ 
अधिक तअस्तसा होकर कहता है, “अच्छा फिर ? आगे 
कहो ना ?” क्‍ 
कहता ह'। कहनेके लिए तो आया ही ह' | सरकार, 
अब और अधिक साफ़ साफ़ क्‍या कह' ? _ 'गराव अप्पाने 
उसे विचित्र ही प्रठोभन दिया है। घिक्‌ ! घिक्‌! हिन्दू 
कहलानेवाले ये छोग बड़ी बड़ाई मारते हैं; और अपनेको बहुत 











ही विशुद्ध बताते हैं, परन्तु ये ऐसे नीच क्र 
उतना कहकर सैयदुल्लाखां फिर खेद, द 
इन तीनों विकारोंकरी छायासे अपने चेहरेको विकृत करके बाद- 
शाहकी ओर देखने छगा | 
_ क्‍या कहते हो ? क्‍या बात हुईं ? रणदुल्लाखांने ऐसा 
क्या किया ?”? वादशाहने, बहुत ही अधीरताके साथ, अपना 
आधा शरीर बिछौनेपरसे उठाकर, पूछा। 
“ रणदुल्लाखांने ? रणडुल्लाखांने इस विषयमें ऐसी कोई 
चात नहीं की कि, जो उसके लिए अनुचित हो--हां, जो कुछ 
किया है, उसके कारण अपनी खामिभक्तिसे--जो नमक उसने 
जाया है, उससे--कुछ नीचे अवश्य गिर गया है। औरतों | 
. कोई बात नहीं । सरकारसे उसने यह प्रार्थना की है कि, रण: | 
राव अप्पाको फिर उसी. क़िलेपर' नियत कर दिया जाय; पर | 
जान पड़ता है, सरकारने कभी इस बातका विचार नहीं किया. * 
कि, ऐसी प्रार्थना करनेका उसे साहस कैसे हुआ ? उस बुड - 
को कैद कर छामेका हुक्म हुआ; ओर यह इसीकारण कि, 
उसने नमकहरामी की । वास्तवमें उसे कैद कर लानेकी आवश्य... 





6 जे 









फिर उसकी इजज़त-प्रतिष्ठा रखनेमें कितनी सावधानी की गई ? 
. अब उसको फिर वापस भेजने; ओर उसको फिरसे किला छोटा. 
.. दैनेका आप्रह किया जारहा है। जहांपनाह, इसका सारा 
भेद यदि आज मैं आपूकों बतलाऊ', तो आपके शरीरके रोंगरे 



















ज््क "पक 


खड़े होजायँगे; ओर इच्छा होगी कि, रंगराव अप्पाकों सूली 


ही देदी ज्ञाय। यदद हिन्दू-हिन्दू काहेका ! काफ़िर है 
काफिर! _ 


लत्तीसवां परिच्छेद । 

बादशाह ! 

(६ २ ) 
सेयदुल्लाखांकी इन अन्तिपत बातोंसे हो -वबाद्शाहकी 
जिज्ञासा हद्‌ द्रजञेतक बढ़ गई। अब वह आधेसे भी अधिक 
बिछोनेपर उठकर सेयदुढ्लाख़ांकी ओर अस्त नेत्रोंसे देखता 
हुआ कहता है, “कहो, कहो, जो कुछ कहना हो । उसके लिए 
इतनी रुकावटकी आवश्यकता क्‍या ? ! | 
बादशाहकी वह चृत्ति, जोकि इतनों उच्छुखल होरही 
थी, देखकर सेयदुरलास्रांको अत्यन्त आनन्द हुआ | बह जो कुछ 
चाहता था, जिस मनोज्ृत्तिमें बादशाहके आनेकी वह अबतक 
घतीक्षा कर रहा था, डख मनोजृत्ति में बादशाह आशगया। इस- 
लिए जो उद्दं श्य उसे सिद्ध करना था, उसे सिद्ध करनेके लिए 


तुए्त ही उसने अपना कदम आगे बढ़ाया। वह बादशाहसे 
कहता है, “ग़रीबपरवर, वह बात जोरसे बतलामैलायक नहीं 


उसे में आपके कानमें घधीरेसे ही बतकछाता हू | आप चपकेसे झुन 
र। अवश्य ही उसके लिए आप रणदुल्लाखांकों दएड देनेकी 
इच्छा करेंगे; परन्तु इस समय ऐसा न करें। उसका पूरा पूरा 











दाव-पेंच क्‍या है, सो देख लेने दीजिए । पकड़में आजाने दीजिए, 


जिससे छूट जाने अथवा कोई बहाना बतला देनेका मोक़ा ही 
न रहे; और तब उसे सहजमें ही द्एड देखकंगे । वह आपको 
प्रजा है, आपका नौकर है, आपका गुलाम है, हरामख़ोर यदि 
निकल गया. तो उसे दएड देना क्‍या कठिन है ? अच्छा, तो मैं 
अब बतलाता हूं। पर उसे सुनकर यद्‌ आपको क्रोध आवे-- 
और क्रोध आवेगा ही, यह निश्चय है ! क्योंकि आपके समान 
न्‍्यायी ओर परम द्यालु पुरुषको ऐसी बातें सहन कैसे होंगी १-- 
पर उस क्रोधको भी कुछ द्नितक दबाये रखना पड़ेगा। इस 


बातका हुज़ र यदि निश्चय कर लछेवें, तो में अभी सब बतला 


दूं । किन्तु यद्‌ आप क्रोधके वश होकर कुछ करने लगेंगे तो 
उसे अपनी बात छिपानेका मौका मिल जायगा; ओर फिर मैं 
जो कुछ कहता हू, सो सच है--यह सिद्ध कर दिखानेमें मुस्े 
भी कठिनता पड़ेगी--किंबहुना यह बिलकुछ असस्मव हो 
ज्ञायगा [? : 

बादशाहकी आतुरता पहले ही अतिरेकको पहुंच चुका थी। 
और फिर उसमें भी यह नीच इतनी बावदूकी द्खिलाने रूगा-- 


यह देखकर बादशाहकों अत्यन्त क्रोध आया। यहांतक कि 


._ उसके मुहँसे शब्द ही न निकलने छगा। संयद्ुल्ला यह ताड़ गया 


.. कि; उसने आवश्यकतासे अधिक वीणाका तार कस द्यिा। 
'अतएव अब वह बहुत जरद्‌ हाथ जोड़कर बाद्शाहके बिलकुल 


कानके पास ही अपना मुँह छेगया ओर धीरेसे कोई बात 

















क्‍ 3५% 2 य्ध्च्च्स्ड मिकप कि | 
कही, जिसे सुनते ही बादशाह कहता है, “ झूठ | झूठ | बिल- 
कुछ झूठ ! रणडुह्लाज़ां अपने बापका सच्चा बेटा है। वह 
इतनी नीचता--और ऐसी छोटीसी बातके लिए--कभी कर 
नहीं सकता । तुम यों ही बात बनाकर सुभसे कह रहे हो । में 
अभी उसे बुलबाता ह'। तुम्हारे सामने ही बात छेडू गा। 
तुम्हारी बात यदि सच निकलेगी, तो इसी समय में उसे जह- 
स्तुमको पहुँचा दूंगा; और यदि भूठ निकलेगी, तुम यदि कोई 
बात बनाकर मेरे सामने छाये होगे, तो समझ लेना फिर £ 

« बेशक ! बैशक [” हताश हुईसी आवाज़से सैयदुल्लाखां 
एकद्म कहता है, “ लेकिन मैं अपने ही उपायोंसे उसकी 
खबाई-झुठाई सिद्ध कर दूंगा । आप यदि इस प्रकार उसे यहाँ 
बुरूवायेंगे, तो कोई लाम न होगा। हज़रत, में पहले ही जानता 
था कि, मेरी बात जब आप झुनेंगे, तब आपको ऐसा ही क्रोध 
. आवेगा; और इसीलिए मैंने आपसे पहले ही धरार्थना कर दीं 
थी कि, “ सरकार, शान्तिके साथ विचार करे |” में जो कुछ 
कह रहा हू, उसे पूरे तोरपर सिद्ध कर द्खिलानेके लिए सुझे 
कुछ अवधि चाहिए, वह मुझे आप दीजिए 7 

सैयदुल्लाख़ां जिस समय यह कह रहा था, बाद्शाहका 
चित्त उस समय उसकी बातोंकी ओर नहीं दिखाई देता था । 
. बह उस समय बिछोनेपर चुप पड़ा था; ओर सैयदुब्लाखांकी 
ओर केवर देखभर रहा था। इसके बाद बीचमें ही वह बोल 
'डठा, “सैयद्‌, सचमुच दी जो बात तुम बतला रहे हो, क्या वह 








हर, उवाकाल है 





बार 40 


सच हैं ?---सचमुच ही उसने ऐसी कोई बात की है, अथवा. 


यों ही तुम बनाकर कुछ कह रहे हो ?” 


हे /९६ 


खसयडुल्लाखांको यह बात सुनकर बादशाह कुछ हँसा: और 


कुछ तिरस्कारकी चेष्टासे उसकी ओर देखकर बोला “तुड्हे 
आाप्त क्या नहीं करना है ! पध्ाप्त करनेहीके लिए तो यह सारा 
झगड़ा है..... 


इस समय संयदुल्लाखांने ऐसी कुछ विलक्षण दृष्टिसे बाद- 


शाहकी ओर देखा कि, केवल दृष्टिपातसे ही यदि मनुष्योंका 


मारा जाना सम्भव होता, तो इस समय बादशाहका कुशल 
नहीं था। और डस हाछतमें, उसके उस भयंकर दृष्टिपातको 
भी कुछ न कुछ सफलता प्राप्त हुई होती । परन्तु अपने मनके 


... डस विकारको उसने उस समय अपने उस दृश्छ्षिपकी अपेक्षा. 
..._ अन्य किसी मार्गसे भी द्खिरानेका प्रयल नहीं किया | किन्तु, 
... इसके विरुद्ध, अपनी चेष्टापर कुछ हँसीखी लाकर उसने कहा, 


अब जसी सरकारकी मज़ी हो ! पेश जो कुछ कठेव्य था, सो 
मेंने किया |” इतना कहकर चंह बिलकुल चाप हो रहा । अवश्य 


..._ ही अब वह बादशाहके बोलनेकी प्रतीक्षा कर रहा था परन्तु 
.... बादशाह थोड़ी देरतक कुछ भी नहीं बोला। फिर अवानक 
.... कहने रूगा, “सैयद, में तुमको पन्द्रह दिनकी मुद्दत देता हैं । 


48 इतनी मुद॒तमें यदि तुमने अपनी बातको प्रमाणित नहीं कर दिया 





“नहीं, नहीं! झूठ कहकर मुझे उसमें क्‍या प्रात करता 





जल आन मा मल जी मम की मम जज 











4३ कुल थक, न्च्स्स्ल्प्व््स्छ 


(हट ५२३ 2) रा , बादशाह 4 


तो फिर बस समभ रखो | इस अवधिमें में रणदुल्लाखांसे कोई 
चर्चा इस विषयकी नहीं करूगा। पर पन्द्रह दिनके बाद यदि . 
तुम अपना कथन सत्य प्रमाणित न कर सके, तो ......में अब 
अधिक न कट्ठंगा। इस समय मेरी तबीयत ओर भी अधिक 
खराब होरही है। अब तुम यहांसि जाओ |” इतना कहकर 
बादशाह फिर चुप होरहा; ओर फिर “ऐ मेरी जान रम्सा, 
शराब, शराब” करके चिलाने लगा। जिस समयका यह वृत्तान्त 
है, वह समय पाठकोंके ध्यानमें होगा ही । सैयदुल्लाखां अभी 
वहांसे टछना नहीं चाहता था। अभी वह बादशाहसे उसी 
विषयमें ओर भी कुछ कहना चाहता था; और ऐला जान पड़ता 
था कि, इसी प्रकारकी बातोंसे वह बादशाहके मस्तककों ओर 
भी खूब सन्तप्त कर देना चाहता था! पर इतनेमें बादशाहने 
र्सावतीकी याद की ओर “शराब, शराब” की चित्लाहट 
मयाई | इससे सेयदुटलाख़ांको एक प्रकारका आनन्द ही हुआ। 
उसने सोया कि, यहां आनेके पहले ही में रम्भावतीसे मित्दू 
ओर इस सम्रयकी सब बातें उसके काममें डालकर उसीके द्वारा 
बादशाहका मन कलुषित कराता रहूं। बस, यह सोचकर चह 
एकद्म खड़ा होगया; ओर बादशाहसे बोला, “जहांपनाह, 
आज इस बन्देषर सरकारको मर्ज़ों कुछ नासख शसी जान पड़ती 
है। बन्देसे क्या अपराध हुआ, जो इतनी नाराज्ी हुई, मेरी तो 
कुछ समभमें नहीं आया। खरकारने जो मुद्दत दी है, उस 
मुद्दतके अन्द्र ही मैं अपनी बातपर सरकारका विश्वास करा 





8. ... #(8 सब. के अत 


ही मे 


4 उपाकाऊ प 





दूंगा। यदि में ऐसा न कर सका, तो फिर यह मुँह सरकारको 


न दिखाऊंगा। आप मुझपर इतना अविश्वास रखते हैं, ऐसा 


मुझे खप्तमें भी खयाल न था।” इतना कहकर वह वहांसे चल 
ही दिया। बादशाह शराबके लिए अब बिलकुल बैहोश होरहा 
था | ओर कोई समय होता तो, उसने शायद्‌ सैयडुर्लाखांको 
उस हालतमें जाने न दिया होता । खेयदुबलछाखां वहांसे चलू- 
कर एकदम रस्मावतीके रड्रमहलकी ओर गया, जोकि वहीं 
एक ओर था । वहां पहुँचकर उसने रम्भावतीको अपने आनेका 
समाचार देनेके लिए महलके बाहर बेठे हुए खोजेसे कहा । खोजेने 
भीतर जाकर रम्सावतीको सैयदुल्लाखांके आनेका समाचार 
दिया, जिसे सुनते हो पहले तो रम्मावतीकी चेष्टा तिरस्कारसे 
भरी हुई दिखाई दो। परन्तु फिर उस तिरस्कारकों बहुत जदद्‌ 
अन्द्र ही अन्द्र दृवाकर कपटपूर्ण हास्यसे उसने अपने चेहरेको 
सज्ञाया। रमख्मावतीका पूरा पूरा इतिहास पाठ्कोंको आगे 
चलकर आप ही आप मालूम होजायगा। यहांपर सिर्फ इतना 
हो बतलाना है कि, रम्भावती एंक अत्यन्त ही झुन्दरी र्मणी 
थी; ओर बाद्शाहको इसके प्राप्त करानेमें सैयडुल्ला ख़ांने भारी 
परिश्रम किया था। रस्मावतीकों यद्यपि खुतानाका पद प्रत्यक्ष 
रुपसे तो प्राप्त नहीं हुआ था, परन्तु फिर भी सैयदुल्लाखांका 
यह ख़याल था कि, इसको जितने कुछ अधिकार प्राप्त हुए हैं, 
उन सबको प्राप्त करा देनेका मैं ही एक कारण हूं। अतएव 


_ इसके द्वारा मेरी भी उन्नति खब होसकेगी। इधर रम्सावती 











।० 











0 जैन , प्स्स्ः 62:42 महल । के 8 
ँ्योकि-नरिकल हा.) कुल जा जा ++- 2 जे जनम प्यास 


भीतरसे सेयदुललाखांसे अत्यन्त दूष रखती थी; परन्तु बाहरसे 
अवश्य ही मीठी मीठी बात॑ करके उससे अपनी रतज्ञता प्रकट 
करती थी | उसका अन्दरूनी उद्देश्य क्या था--डउसको कोनसा 
अपना उद्द श्य सिद्ध करना था, खो उसके खिधाय ओर कोई 
जान नहीं सकता था। अस्तु । यह समाचार पाते ही कि, 
सेयदुब्छाखां आया है, उसने उसको भीतर आने देनेका सन्देशा 
भेजा। सैयदुब्लाखां तुरन्त ही जञापहुंचा। वह जो कुछ उससे 
कहना चाहता था, सब कहा। रमस्मावतीने भी अत्यन्त माया 
दि्खिलाकर उलकोी सारी बातें सुन लीं। सैयदुल्लाखांने उससे 
जो जो कुछ करनेकी प्रार्थना की, सब उसने तुरन्त ही खीकार 
कर लिया। इतनेमें बिलकुल शामका वक्त होगया। रस्मा- 
चतीके पास बाद्शाहका सन्देशा आया कि, हुज़्‌र याद कर रहे 
हैं | इससे उसने भी, इसी बहाने, सैयदुल्लाखांको शीघ्र बिदा 
किया । द 

आजके सारे दिन सैयदुल्लाखांका जो कार्य हुआ, उससे 
उसको कोई सनन्‍तोष न हुआ । अतणवब पिछली बातोंपर विचार 
करते हुए चह वहांसे चल दिया। अपने विचारमें वह उस 
समय बिलकुल ही ठतश्लीन होगया था। बाहर आते ही वह 
अपने मियानेमें प्रविष्ठ हुआ; ओर जैसोकि उस सप्रय चाल 
थी,भी तर पड़ी हुई गद्दीपर पैर फे लाकर, तकियेसे सिर टेककर, 
पड़ रहा। वह अपने विचारोंमें निमन्न था, सो ऊपर बतला 









हैँ उषाकाल 2 छा 
“क्च्छ्द्मण 3 ५१२६ ५४ 


 *3 /र६ /& 

उस समय, आजक छकी तरह मार्गपर जगह जगह छालठेमें 
इत्यादि लगाकर रातको रोशनी करनेकी प्रणाली बिलूकुछ नहीं 
थी । सब वर्ड बड़े लोग उस समय, अपनी हेलसियतके अनुसार 
दो-चार, द्स-पन्द्रह मशारूची अपने घर्ोंमें नोकर रखा करते थे | 
वे छोग रातकों अपने मालिकके साथ मशादें जला जलाकर 
रोशनी करते हुए चलते थे | तद्नुखार सैयदुरला्ा भी जब उस 
दिन बादशाहके महलोंसे अपने मियानेपर बैठकर निकला, तब 
पीछे दो मशालें चल रही थीं। इतनेमें क्या चमत्कार हुआ, 
स्त्री देखिये । मियानेके आगेका मशाकूबी कुछ अन्तरपर था, 
पीछेका भी किसी न किसीतरह घिललता आता था। ठोक 
मियानेके पाल मशारू नहीं चाहिए, ऐली सैयदल्ााखांकी 
ताकीद थी। अख्तु । इस प्रकार, जबकि सवारी चली जारही 
थी, मार्ग एक जगह ऐसा दिखाई दिया कि, बड़ा कोलाहइलछ 
मच रहा है-कोणग अपनी अपनी चिल्ला रहे हैं। आगे जानेफे 


लिए माग ही न था। इससे खाभाधिक ही मशारूणली ओर सच 


मोकर-चाकर छोंग ठहर गये। कहार भी वहीं ठहर गये। 
उस उठध्य्नैसे खानके मियामेको, ओर साथ ही साथ उसके 


'विदयारोंकों भी, खामाधविक ही घक्ा लगा। इससे खांसाहब- 
को गससा आना ही बिलकुछ सखाभाविक था। फिर दया 


पूछना है ? उमर कद्ारोंको मशालबियोंको ओर दुनियांके सभी 





पलया। कमला एप: पानाननआनाइलभलनलान--० ० ८ “५० 3 7 ८ पाया प्यारा वाय लहर» 39 तन ल्‍पत३त ५ चुका टतटलएए 


लोगोंको गालियां खुनाते खुनाते खांसाहबकों सवारी चड़फड़ाते 
“ हुए उठी; ओर द्रवाजेसे .वाहरकी ओर, क्‍या मामला है, सो 


दैडसडइकपा- 


कमर 3०८ ५ हे पलायन तन दुलक ना महतल्‍ 4१९ 

















< ५२७ है बल 8. बादशाह भ 
कक ननप>प+ ऑंटननटुक व्ब््च्स्ट्क > 


देखने छगी। देखते क्‍या हैं कि, दो मुखब्मान एक गौको खींच 
रहे हैं। मुसत्मानोंके शरीरसे छुछ कुछ रक्त भी बह रहा है 

पास ही एक काला-कलूटा आदमी, जो बहुत ही ऋद्ध होरहा 
है, तलवार उठाये हुए उस गोको छुड़ाने और सुसच्पानोंको 
भगानेके लिए उपद्रव मचा रहा है। वह आदमी अपनी छोटी 

सी तलवार उठाये हुए, गोको खींच लेजानेवाले मुसद्मानोंकी 
ओर उसको दिखला रहा था। इतमेपमें वहां और भी बहुतसे 
ठोग जप्या होगये। उनमें जो हिन्दू थे, थे तो गौकों छडाने और 
जो झुसब्मान थे, वे मोकी गर्दन कायनेफे लिए दंगा-फ़िलाद 
करने लगे। बस, उसी समय हमारे खांसाहब वहांसे निकल 
पड़े । अब हिन्दुछोग एक प्रकारसे जीत चके थे. और उस 
गौको छुड़ा लेजानेहीवाले थे। मझुसब्मानव लोग हट बके थे । 
यह हाझ देखकर सख़ांखाहबकों खाभाविक ही बहुत बुरा रूगा | 
हिन्दुओंकी किसो प्रकारसे भी जीव होआना उन्हें कमी अच्छा 
नहीं छगता था। इसलिण सैयहुब्छा्ांने ज्यों ही यह सब 
हाल देखा, त्यों ही हिन्दुओंके भीतर पैठकर तथा अपनी घाक 
द्खिलाकर मुसब्यानाँकी ही जीत करा देनेके लिए वह बीचे 
उतर पड़ा । और अब उस दंगेमें शामिल्ठ होकर यह कुछन 
कुछ करनेहीवाला था कि, उस काले-कलछूरे आदमीकी ओर 
डसका ध्यान गया; ओर दोयोंकी चार आंखे' होते ही--उस 
काले भनुष्यकी आंखे सैयदुल्लाखांकी आंखोंसे मिलते हो--- 
ऐसा जान पड़ा कि, सैयडुल्लाखांका अबतकका सारा जोश 








ब्द्ट टुफलछइः श्छे घर 
७ मिड ब्छ न्यहीपी8० कप नयी बिकीक 





काफ़्र होगया, वह बिलकुल घबड़ासा गया; ओर मानो यह बात 
उसके मनमें आई कि, हमने अपने मियानेसे बाहर आकर अच्छा 


नहीं किया ! चाहे इसी कारणसे हो--ओर चाहे उसके मनमें यह 
बात आई हो कि, ज्िस आदमीको हम देख रहे है, वह अचानक 
कहांसे आगया-अथवा कोई भी कारण हो, वह कुछ घबड़ा- 
कर, और कुछ आश्चर्य करके, वहांसे चल देनेका विचार अवश्य 
करने रगा--इसमें सन्देह नहीं। सैयदुब्लाखां ज्यों ज्यों इस 
ब्रकारका डरपोंकपन दिखलानें लगा, त्यों त्यों उस काले-ऋलूटे 
आदेमीकी आंखें और सी अधिकाधिक खुख़ होती गई; और 
अन्तमें वे इतनी विस्तृत होगई' कि, उस समय उसकी ओर 


यदि कोई अच्छी तरह नज़र भरकर देखता--ओर उस भीडमें 


यदि कोई देखता होता--तो उसे ऐसा ही जान पड़ता कि, मानो 


वह अब सैयहुल्लाखांको अपनी उन आंखोंके रास्ते निगल ही 


तो जायगा, अथवा वह अपने नेत्रोंके तेजले मानों उसको भस्म 
ही तो कर डाछेगा ! उस समय एक दूखरेकों देखकर, सेय 
'डुल्लाख़ां और उस व्यक्तिकी जो दशा हुई, सो वर्णन नहीं की 
जासकती। वह व्यक्ति अपने हाथकी तलवारको ओर भी 


मज़्बूतीके साथ पकड़ने गा और अन्‍्तमें उसका वह हाथ 


.... ऊपर ही ऊपर उठता गया। ओर उस हाथके नीचे आनेकी 
..... दिशा सेयडुब्लाख़ाँकी ओरको है-ऐसा सेंयदुब्ला्खाने 


ले . समफा; और बस, उसके पैरों की दिशा मियानेकी ओरको हुई ' 






_सैयदुब्लाख़ांके कदम ज़्यों ज्यों मियानेकी ओर पड़ने लगें 





जय त सका दर कट सटापए लता: हू >ड पड न्‍्त्र 3323, फरेे 
्स्प्स्स्य हट स्टेट पक >प आह 22 आ/ बकरा कक काल 











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५६ ५२६ 2 द 8 बादशाह ! 


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त्यों त्यों उस काले-कलूदे आद्मीकी आंखें ओर भी अधिक 


सुख दिखाई देने लगीं। इसके सियाय उसका हाथ भी मानो 
आगे बढ़ने ऊगा; ओर उसके कदम भी। ऐसा जान पड़ा, 
मानो उस ऋंडमें सैयदल्लाखांके अतिरिक्त ओर कोई उसे 
द्खिाई ही नहीं पड़ता था। जिस गोको छुड़ानेके लिए चह 
इतनी देर्से प्रयक्ष कर रहा था, दह गो भी मानो अब उसे 
दिखाई न एछने लणी। इसके सियाय अब वह गो बिलकुल 
हिन्दुओंके ही हाथमें आगई थी, अतएव अब डसके विषय 
कोई विशेष खिन्‍्ता करनेकी आवश्यकता भी नहीं रही थी। वह 
गो आज केवल डसीके प्रथल्ल ओर परिश्रमसे छूठी थी। हमने 
ऊपर बतलाया ही है कि, सैयदुब्छाखांने ज्यों ही यह देखा कि, 


मुखद्मानोंके हाथसे निकलकर यह गो हिन्दुओंके हाथमें चली 


गई, त्यों ही बह अपने मियानेसे नीले उतर पड़ा। उस सम्रय 
हिन्दुओंने समझा कि, अब यह दुष्ट अवश्य ही इस भोको 
हमारे हाथमें न रहने देगा । क्योंकि सैयदुल्लाखां अपने पराक्रम 
ओर शूरवीरताके कारण तो नहीं; किन्तु अपनी घाकके- 
काश्ण एक प्रकारसें उन छोगोंके लिए होवासा ही बन रहा 
था; और रास्तेंमें ही उसको देखकर लोग डसके आतंकझें 
आजाते थे। परन्तु उस समय जब उन छोगोंने देखा कि, एक 
पैसे वीर पुरुषका उनको खहद्दारा है कि, जो उनके उस होवेको 
बिलकुल नहीं डर रहा है; ओर सैयदडुल्लाख़ां अब कुछ भी दस्तं- 
दाज़ी न करते हुए खयं ही पीछे भग रहा है, तब हिन्दुओंको 





के ५३० है) 


38३०-३० 
भी एक प्रकारका जोश आगया। इचर मुसब्मान छोग पहले 
हो पीछे हटने लगे थे, पर सेयदुललाखांको आया हुआ देखकर 
वे फिर एकत्र होकर कुछ करनेवाले थे; इतनेमें उन्होंने यह भी 
देखा कि, अब सेयदुब्लाखां खयं ही मियानेकी ओर हट रहा 
है। इसकारण वे जहांके तहां ही रह गये। इतनेमें सैयदु- 





' हलाखां तुरन्त जाकर अपने मियानेमें घुस गया; ओर पीछेकी 


ओर लेट रहा। यह देखते ही वह काला-कलूटा आदमी एकद्म 
आगे बढ़ा; ओर मियानेके अन्द्र अपना सिर डालकर--“याद 
रुख | याद रख ! तेरा दुश्मन अभी मरा नहीं; ओर दो महीनेके 
अन्दर ही वह तुझे जहन्नुमको पहुंचा देगा। देख, मेरी ओर 
देख ले |” ये शब्द उसने बिलकुल धीरेसे कहे; परन्तु वे मानो 
सैयदुल्लाखांके कानोंमें खोलते हुए तेलकी तरह ही प्रविष्ट हुए । 
वे शब्द उसने इस प्रकारसे कहे थे कि, सेयदुल्लाखांके अतिरिक्त 
ओर कोई उन्हें खुन नहीं सका | इतने शब्द कहनेके बाद उसने 
छक बार फिर अपने उन्हीं रक्तके सटद्न॒शत छा नेतच्रोंकी फाइकर 
उसकी ओर देखा; और. अपना सिर मियानेके बाहर निकाल 
डिया | इसके बाद फिर कहारोंकी ओर देखकर--“चलो,बढ़ाओ 
सालो, यहां क्यों खड़ा किया है ?” कहा; ओर पीछेके कहारोंके 
कन्धोंपर एक एक चपत छरूगाई। कुछ देर बाद कहार भी 
मशाल्यीके पीछे पीछे चछते बने | ओर फिर वह काला-कछूटा 


.._*. आदमी जाने कहांका कहां वहीं अन्धकारमें ग़ायब होगया। 


अकिनीयी नमन कतासबा#&रपमकाडी, 






। 
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१ 
री: 
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| 




















संतीसवां परिच्छेद । 
कलर कसर नुकन 
नाना साहब | 

इधर हमारी बागी-मण्डलीने यह प्रतिज्ञा की ही थी कि, 
तीन महीनेके अन्द्र खुलतानगढ़का किला हमारे हाथमें आ- 
जाना चाहिए। इसलिए अब वे उसके छिए सभी आवश्यक 
प्रयलोंका विचार करने रूंगे। हथियार-वथियार तो शाज् 
कितने ही दिनोंसे शिवाजी जमा कर रहे थे। पाठकोंकों यह 
मालूम ही है कि, हसुमानजीके मन्दिरके नीचे तहस़ानेमें जो 
भवानी माताका मन्दिर था, उसमें शख्तराखका संग्रह बहुत 
काफी था। सब प्रकारके हथियार वहां काफी तादादमें मोजूद 
थे | हथियारोंकी तरह खज़ानेकी भी कोई कमी न थी। शिवा- 
जोके पूर्वेशुरू दादोजी कॉोंडदेवने इस विषयमें उन्हे' बहुत कुछ 
समकभाया, पर उन्होंने इसकी भी परवाह न की; ओर अपने 
साथियोंसहित बीजापुर-राज्यके कुछ मुसब्मान जागीरदारों 
तथा उन मराठोंके गाँवोंपर, जो कि मुसब्मानोंके बिलकुल 
ग्‌ लाम बन रहे थे, छापा मारकर बहुतसा लछूटका माल भवा- 
नीके मन्दिरमें पियारोंमें मर भरकर रख छोड़ा था | मतरूब यह 
कि उस समय शिवाजीको अख-शख्त्र ओर द्वव्यकी बिलकुल 
कमी नहीं थी। इसके सिवाय उनके काममें शूरवीर पुरुषोंकी 
आवश्यकता थी, सो वे भी अवतक उनकी मणडलीमें काफी 











ज्ड्र्हि 


सब 









हि पषाकाछ कु क्‍ है? 
४ण्णक्ाणा बडे रे ८65 


वादादमें शामिल दोब॒के थे। सब तैयारी पूरी पूरी होयुकी 
थी। सिर्फ मोका जानेभ्वरकी देश थी--ओर कुछ बहीं। 

इसके सिधाय इस प्रकासके शज़नेतिक उद्देश्योंके सिद्ध 
करनेमें जिस जातुर्यकी आवश्यकता होती है, सो उनमें खद्‌ 
ही परोजूदू था। रह गया चारों ओरसे समायार मंगानेका 
प्रवन्ध--सो भी उन्होंने बहुत अच्छा जम्मा छिया था। खबरें 
मंगानेमें श्रीघर खामी कितने चतुर थे, सो पाठकोंकों मालूम 
ही है। वे मुख्य मुख्य जयहोंकी सब ख़बरें सदैव लिया करते 
थे। शिवाजी तथा उनके सभी साथियोंने यह पक्का निश्चय कर 
लिया था, कि शरीर रहे, चाहे जाय, दम घर्मस्थापना ओर गो- 
ब्राह्मणोंको यवनोंके कष्टले छुड़ानेका कार्य करके ही रहेंगे। 
उनका यह निश्चय केवल छोटे छोटे छापे मारने अथवा बद्या- 
रोंकी तरह मुसब्यानोंकों लूटनेहीभमरके लिए न था; किन्तु 
मराठाराज्यकी--हिन्दूपद्यादशाहीकी--ध्यापना करनेके लिए 
ही उन्होंने यह निश्चय किया था। शिवाजीने लड़कपनसे ही... 
महाभारतकी अनेक आख्यायिकाएं झुन रखी थीं; अतएवं 
उनको यह विश्वास था कि, जिस प्रकाश परमात्माने पांडयोंकी 
सहायता करके उनके द्वारा दुर्योधनादि अन्यायी तथा दुष्ट 


 लोगोंसे इस पृथ्बीका उद्धार किया, उसी प्रकार ईश्वर इस 
समय हमारी भी सहायता करेगा; ओर यवनोंके हारा जो 
.. प्रज्ञा पीड़ित होरडी है, उसको झुक्त करेगा। इसके सिवाय 
“डनको यह भी भरोसा था कि, श्रीघर खामीके द्वारा. हमारे 


2 














। 
। 
। 
] 
5क्‍ 











५) ५३३ /2 $___ताना साइब, रु 


४४७७४ हि ः जब. 7--०5 लक ७.0 ५77 च आर) छियि 





ऊपर जिस एक भद्दात्मा (क्रीरामदास खामी) का छपाप्रसाद 
हुआ है,उससे भी हमको इस काममें पूरी पूरी सफलता मिलेगी । 
भवानी माताकी कृपापर तो उनका पूरा पूरा विश्वास था ही | 
चूंकि इस प्रकार उनके मनको कई भारी भारी विश्वास थें; 
ओर स्वयं अपने खमावसे भी वे अत्यन्त दृढप्रतिश एवं शुर- 
वीर थे, अदणव सदेव उनको यही विश्वास रहता था कि, जो 
काम हम उठावेंगे, घह बातकी बातमें पूरा होना ही चाहिए । 
दक्षिणकी अपनी जागीरकी ओरसे जिस प्रकार वे सब तरहकी 
खबरें मंगानेमें दक्ष थे, उसी प्रकार खय॑ बीजापुरकी भी 
सब छोटी-बड़ी खबरें मेंगानेका उन्होंने प्रबन्ध कर रखा था। 
बीज्ञापुरमें तो सारी बात ही थी। क्योंकि पिता राजा शहाजी- 
भोसले बीजापुरके ही एक बड़े सरदार थे;ओर बाद्शाहका उनपर 
प्रेम सी बहुत था। बादशाहने राजा शहाजीसे कई बार कहा 
था कि, लुझ शिवबाकों द्रवारमें लाकर हमारे सिपुद कर दो, 
हम उसको अपने यहां रखकर अच्छे अच्छे ओहदे दंगे। 
परन्तु जब राजा शहाजी अपने पुत्रसे बीजापुर चलने, 
अथवा बीजापुरमें रहते समय द्रबारमें सलनेका जिक्र करते, 
तब वह बहुत ही असमन्‍्तोष प्रकट करता था। लड़कपनमें कई 
बार राजा शहाजी शिवबाकों दरवारमें लेगये थे, पर उस 
समय भी वह बड़ी उद्दए्डताका बर्ताव करता रहा, बादशाहको 
सलाम ही न करता; ओर अपने पिताफे पास आकर बैठ जाता | 
यह देखकर राजा शहाजीने भी फिर उससे वैसा आग्रह करना . 










, उंधाकाल डः 


छोड दिया, और उसको अपनी जागीरकी ओर मेज दिया, तथा 


खयय॑ बादशाहकी आज्ञासे दक्षिणकी चढ़ाइयोंपर चछे गये ।ये 


सब बातें इतिहासग्रिय पाठकोंको मालम ही हैं, अतएव यहां- 
पर फिरसे उनका विघ्तार करनेकी आवश्यकता बहीं। मतलब 
यह कि, शिवबाके मनमें यवन ष लड़कपनसे हो बढ़े रहा था 
और इधर कुछ दिनोंसे खराज्य-स्थापवाकी सी उनमें प्रबल इच्छा 
उत्पन्न होचुकी थी। अब केवल उन बातोंकों का्यरूपमें परि- 
णत करनेकी आवश्यकता थी। इसके सिवाय पिछले परि- 
उछ्ेदोमें जो वृत्तान्व बतकाया गया, उससे पाठकोंको यह भी 
मालूम होचुका है कि, अब इन लोगोंको किसी न किसी क़िलेके 
हस्तगत कस्नेकी अत्यन्त आवश्यकता थी, इसके बिना उनका 
अगछा कार्यक्रम सुवारु रूपसे चल नहीं सकता था | जिस दिन 
भ्रीधर स्वामीकी सस्मतिसे खुलतानगढ़के क्रिडेको दीन महीनेके 


अन्दर जीतनेकी उन छोगोंने प्रतिज्ञा की, उस दि्वसे लगभग द 


आठ दिन बाद एक घटना हुई, जिसकाकि हम ज़िक्र करनेवाले 
 है। शिवबा, नाबासाहब, तानाजी, ख्वामीजी इत्यादि, सभी 
लोग अपने सदैवके जड्भलमें, उसी नियत स्थानपर, विचार कर 
रहे हैं। अभी एक घड़ी पहले ही बीजापुरसे एक जारूसने 
आकर यह खबर दी है कि, रणदुल्लाख़ांपर बादशाह आजकल 
बहुत ही नाराज़ है; ओर खुलतानगढ़के किलेदारकों खूब कष्ट 
: देते हुए जैलमें डाल देनेका हुवम होचुका है। रणदुब्लाज़ांपर 
बादशाहफे नाराज़ होनेका कारण यह है कि, रंगराव अप्पाकों 











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लनाकााकालपकटपलपा पट पप तट 7. ० उमा 





चार पाकर सभीके चित्त बड़े बिन्तित होरहेथे। अबतक 


, नाना साहब है 


उसने तरफदारी की; ओर झुलतानगढ़से आते सम्रय एक 








अत्यन्त तरूण मराठे सरदारकों पकड़ छाया; और बादशाहकों 


इसकी खबर नहीं दी । बस, इसी कारण बादशाह उसपर बहुत 
ज़्यादा नाराज़ होगया है। यह सब समाचार सुनकर नाना- 
साहबको स्वाभाविक ही बहुत दुःख हुआ; ओर अन्य छोगोंको 
भी बहुत चिन्ता उत्पन्न हुई। उपयुक्त सप्ताचार जिस समय 
आया, उस सप्रय लोग बड़ी चिन्तामें थे। नानासाहब तो 
शोकसे बिलकुल व्याकुछ होरहे थे। फिर जब यह समाचार 
खुना, तब तो नानासाहबको एक प्रकारसे यही विश्वास होगया 
कि, अब हमारे पिताके कुशलूपू्वंक छूट॑नेकी कोई आशा नहीं। 
ओर ऐसी दशा यदि हमारी मंडली खुलतानगढ़पर धावा भी 
करेगी, तो कोई अच्छा परिणाम न होगा । इसलिए यह बाल 
उनमैंसे प्रत्येक व्यक्तिके मनमें आरही थी कि, अब कोई न कोई 
अच्छी युक्ति सोचनी चाहिए; और इसलिए सभी अपने अपने 
मनमें यही सोच रहे थे फ्लि, अब आगे क्‍या करना चाहिए । 
श्रीधर खाभी तो अपने विदारोंमें इतने निमश्न दिखाई देरहे 
थे कि, अपने विचारोंके अतिरिक ओर छुछ उन्हें दिखाई ही 
नहीं देरहा था। किंबहुना यह भी कहा जासकता हे कि, 
अन्य छोगोंकी अपेक्षा उन्हें ओर सी कोई ख़बर माछूम थो; 
जोकि उन्होंने दूसरे छोगोंकों बतलाई ही नहीं थी। जो कुछ 
भी हो, इसमें कोई सन्देह नहीं कि, उस समय उपयु क्त सम्ता- 


बा 


के खत 





8 उषाकारू 
किसीको कोई नवीन वियार नहीं खूका था कि, इतनेमें नाना- 
साहव ज़ोरसे कहते हैं, “भाप सबकी ओर स्वाप्ती महाराजकी 
यदि अनुमति हो, तो मैं बीजापुरको जाऊं; ओर वचहांका क्‍या 
हालयाल है,सो सब सच्चा सच्चा मालूम कर लाऊ' । यदि मोका 
मिल जायगा,तो चाहे जो करू गा,पिताजीको छुड़ा भी लाऊंगा-- 
हाय ! हाथ ! इसी महीने-डेढ़ महीनेके अन्दर, देखिये तो, भेरे 
ओर सूर्याजीके कुडुम्बकी क्‍या दशा होगई ! उनके खारे कुटुम्ब- 
का तो खत्यानाश ही होगया ! सोई मेरे कुटुम्बकी भी दशा 
सममिये । मेरी दशा यहांपर यह होरही है ! खौर, में तो आप 


छोगोंकी सेवामें रहकर देशरक्षा ओर धर्मेरक्षाका कुछ कार्य 
करूुगा ही; पर पिताजीकी क्या दशा होगी ? ओर ख्रीका तो 


फिर कुछ समायार ही नहीं मिला । न जाने वह कहां गई ! 
कैसे गई ! किसके हाथमें पड़ गई ! कोई सम्ायार ही नहीं ! 
इसलिए राजासाहब, स्वाम्मीमहाराज, आप अब सुर जाने 
दीजिए। कमसे कम पिताजीको में छुडा छाऊं, अथवा यह 
शरीर ही उनके कार्यमें लगा आऊ' | इन दुष्ठोंने उनका इतना 
अपमान किया है कि, उनको यदि हम छुड़ा छाबंगे, तो वे 
अचश्य हमारे अनुकूल होजायेंगे; ओर जहां थे एक बार हमारे 
अजुकूल होगये कि, फिर बातकी बातमें हम अपने कार्यकों 


.. आगे बढ़ा सकेंगे। इसके अतिरिक्त--हां, यह बात सही है कि, 


...._ यदि में डस द्रबारमें बहुत बार नहीं गया हूँ; फिर भी यदि 





_... में चरदटां जाऊंगा, तो बहुतंसी नवीन नवीन बातें मालूम होंगी, 











हा 
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है. ...५ न तपमलाल्-राानवारातहाखसामलवमनक कप 8५३ 7 है 7 8:2आह 












( गा) ः लाना साहब. 3 


नकदी जातक. कप - नह ५ च5: फट 0: कला 


और भी कई प्रकारसे अवश्य छाम होगा । आपकी आज्ञाको 
हप्त टाल नहीं सकते, ओर न आपके बिना पूछे हम कोई बात 
ही कर सकते हैं; परन्तु भेरे मनमें यह निमश्चय अवश्य होगया है 
कि, में एक बार बीजापुर होआऊ'; और पिताजीको छुड़ा 
लाऊ , अथवा इस काममें अपने प्राण ही दे दूं... ...” 
नानासाहब बोलते बोलते बड़े आावेशरमं आगये थे। अपना 
साश हृदय मानो उन्होंने अपने शब्दोंमें निकालकर रख दिया 
था । वे इतनी देश बोलते रहे; परन्तु ऐला जान पड़ता था कि, 
उनका प्रत्येक शब्द्‌ अपने साथ उनके हृदयका एक एक दुकड़ा 
लेकर ही बाहर निकल रहा है। शिवबा और खामीजीने उनका 
सारा कथन बड़ी शान्तिके साथ झुना; ओर फिर बहुत देश्तक 
वे मन ही भन कुछ विचार करते रहे । अन्तमें खामीजी शिव- 
बाकी ओर देखकर कहते हैं, “इस समय . हम छोगोंमेंसे यदि 
कोई बीजापुर जावे, तो कोई हानि दो नहीं है, बढ्कि छाभ ही 
होगा। केघल अपने जासूसोंपर ही अवलम्बित रहना ठीक न 
होगा। किन्तु अकेले नानालाहबकों ही जामे देवा भी उचित 
नहीं है। इस समय तानाजी और येसाजी ही यमाजीके 
साथ भ्ेष बदलकर जावे। रंगराव अप्पाको छुड़ानेका भी 
प्रयक्ल करना चाहिए, परन्तु बडी सावधानीके साथ । संगराव- 
अप्पाके समान अनुभवी सरदार यदि हम छोगोंके अनुकूल हो- 
जायगा, तो निस्सन्देह हम लोगोंकों अपने कार्यमें बड़ी मदद 
मिलेगी ।” खामी महाराजका यह कथन शिवबाने शान्तिक्रे - 

















उधाकाल 





3९ ५4३८ 


>यउड्मकया ४ शी 
साथ सुना; ओर फिर वे बहुत देश्तक अपने मन ही मन 
वियार करते रहे । परन्तु अच्तमें जब खामीजीने कहा कि, 
शिवबा, यह समय बहुत देरतक सोचने-विचारनेका नहीं है। 
जो कुछ करना हो,शीघ्रतापूवंक कश्ना चाहिए |” ठब शिवबाने 
एक विद्यास्पूण नज़रसे खाप्तीकी ओर देखते हुए कहा, “स्वामी- 
महाराज, में आपके विद्यारके बाहर कदापि नहीं ज्ञासकता। 
नानासाहब अलाकि कहते हैं, ददसुसार उनका बीजापुर जाना 
ओर अपने पिवाजीको मुक्त करना अत्यन्त आवश्यक है। यह 


भी आपका कझथम खत्य है कि, इस समय उनको अकेले जाने. 


देवा भी ठीक न होगा । हम छोगोंमेंसे किसी न किसीको उनके 
साथ अवश्य जाना चाहिए। इसके सिवाय, जिन छोगोंका 
अभी आपने नाम छिया, वही ऊछोग उनके साथ जावे, तभी ठीक 
भी होगा। ये लोग यहांसे जावें; ओर कपट-मेषसे अज्ञात- 
धासमें रहें । परन्तु इनमें कोई न कोई ऐसा भी आदमी चाहिए 
जो कि, बीजापुरसे पूरी पूरी जानकारी रखता हो; ओर द्रबार- 
की गुप्तसे शुप्त बातको भी जान सके ये लोग पुरूद्रसे आपको 
उन यांडालोंके हाथसे छुड़ा छाये सही, पर यह इलाका अपने 
हाथका था। इसलिए मामूली युक्तिसे ही बातकी बातमें 
काम निकल गया। ओर णब जो कार्य करना है, सो स्वयं 
डनकी राजधानीमें ही--उनकी आंखोंके सामने--करना हे! 
ओर फिए डसमें सी हमारे तीन ही आदमी जाफर वह काम 








करेंगे। दंगे-घोपेसे यह काम नहीं निकल सकेगा--इसके लिए 




















कु) नाना साहब 
५५६ 5 


तो उनकी आंखोंमें ही धूछ फोंकनी पड़ेगी; और बड़ी चतुराईसे 
काम करना होगा । इसके सिवाय ओर कोई रास्ता ही नहीं | 
इसलिए पहले इस बातका कुछ विचार करना चाहिए कि, ये 
लोग जाकर वहां क्‍या क्या करेंगे; ओर किस किस प्रकारसे 
शहकर क्या क्‍या बतांव करेंगे ? फिर वहां जानेपर जैसा जेसा 
मोक़ा देखेंगे, वैसा वैसा तो इनको करना ही होगा, इसमें 
सन्देह नहीं । लेकिन पदले हम कोणोंकों भी तो कोई न कोई 
मारे निश्चित कर छेना चाहिए; ओर तद्सुसार सब बालें सोच- 
ऋर इनको वहां भेजना चाहिए। कार्य तो होगा ही; और 
हम उसे पूरा करेंगे; ओर जेसाकि हम चाहते हैं, उसी प्रकासकी 
सफलता भी प्राप्त होगी, इसमें अणुप्रात्र भी सन्देह नहों | किन्तु 
माता जगदस्वाके आज्ञालुसार हमको सावधानी अवश्य रखनी 
चाहिए, ऐसः ही उपदेश आपका भी है |” 

उपयु क खारे कथनका प्रत्येक शब्द शिवबाके मुखसे इतनी 
शान्तिके साथ निकल रहा था, मानो प्रत्येक शब्दके बाहर 
निकलते समय बोलनेवालेका मन किसी न किसी अत्यन्त गृह 
विचारमें निमन्न होरहा हो। ऐसा जान पड़ता था कि, जिस 
बातके विषयमें विचार करनेके लिए वे उस समय कह रहे थे, 
उसी बातका विदार वे खय॑ भी उस समय,उपयु क्त भाषण करते 
करते ही, कर रहे थे--यही नहीं, बिक ऐसा भी जान पड़ता 
था कि, उनके मनमें इस बातके विषयमें करीब करीब कोई 
निश्चय सी होचुका होगा कि, इनको जाकर वहां क्‍या क्‍या 











छह ५8७ कर) 





करना चाहिए, ओर दौसा मौका आवे, तब इनको कया करनेके 
लिए हु कया कया बतावें, इत्यादि । अघ्तु। भाषण समाप्त 
होते होते ऐसा भी जान पड़ा कि, उनके मनमें, उक्त सम्बन्धमें 
कोई न कोई निश्चय पूरा पूरा होचुका । 


परन्तु, उपयुक्त भाषणके सम्राप्त होजानेके बाद भीवे 


यहुत देशठक बिलकुल चुप बैठे रहे। मानो, जो.वियार उनके 
मनमें लिश्चित छुआ था, उसको वे ओर भी पक्का कर रहे हों । 
इस बीखमें अन्य लोग बिलकुल स्वब्ध रुपसे ओर ऐसी दृश्टिसे 


कि, जिसमें पूज्यमाव पूर्ण रूपले भरा हुआ है, उनकी ओर 
देख रहे थे। खामी महाराजके नेत्रोंमें भी एक प्रकारका पूज्य- 
भावयुक्त प्रेम चमक रहा था। अन्‍्तमें खामीजीको एक ओर 


लेजआाकर उन्होंने अपना वह सारा वियार बतलाया, जो अम्ी 


निश्चित किया था। दोनोंमें कुछ देरतक आपसमें कुछ चर्चा भी 


होती रही। इसके बाद फिर उन दोनोंने नानासाहब ओर 


तानाजीको एक ओर बुलाया; और उनके सनमें अपना वह 
विचार पूर्ण रूपसे बैठा दिया। वत्पश्चात्‌ दूसरे ही दिन दे 
तीनों आदमी, जोकि निश्चित किये गये थे, बीजापुरको चल: 


दियि । 


























अड़तीसवां परिच्छेद । 
“>> चु(कड्टका-- द 
साइंजा | 

एक दिन ठीक सम्ध्यासमय रस्मावती अपने महऊुकी खिड- 
फीमें बिलकुछ अकेली ही बैठी हुई थी। बादशाह शिक्वारके 
जिमिस, बीजाएुरसे दख-पांच मीकूपर, एक खास ऊंगर्में गया 
था; ओर इसीसे इस समय रमब्भावतीकों भी थोडासा एकान्त 
पम्िछ गया था। उसकी चेष्ठटा बिलकुल खिल्लली दिश्लाई देर 
थी। उसके आसपास ओर कोई भी न था| उसने जानबूफ- 
कर खबको वहांसे हटा दिया था। उस खमय ऐसा जान 
पड़ता था कि, वह किसी न किसीकी प्रतीक्षा है। क्योंकि 
खिड़कीसे वह बड़ी उत्सुकताके साथ देख रही थी | अब इतना 
उज्जेला भी नहों रह गया था कि, दूरसे आनेवाला आदमी ठीक 
ठोक पहचाना जासके; क्योंकि क्षण क्षणपर अन्धक्ार अपना 
प्रभाव जमाता ज्ञारहा था। परन्तु फिर भी वद अपने झुन्द्र 
ओर विशाल नेत्रोंकी बार बार आकु'लित करके दुृर्तक नज़र 
डालती, ओश जब डसे उसकी असीश स्त्री आती हुई दिखाई 
ने देती, तब बिलकुल निशाशली होकर एक ओर बेठ रहती। 
दूस-पांच बार उसने ऐसा किया; परन्तु फिर वह जिलकुछ 
निराशली होगई, ओर “व जाने निगोड़ी कब आवेगी |” कह- 
कर वहीं एक ओर पड़ी हुई एक छोटीली कोचपर जाबेडी . 












उसने अपने बायें हाथकी हथेलीपर अपना कपोल रख लिया था; 
और दूसरे हाथसे, उस खुनहरी कोचपर रखे हुए एक तकियेकी 
कमखाबकी भालरसे खेल रही थी। दो-तीन बार वह 
वहांसे उठी; और खिड़कीमें जा जाकर उसने अपने नेत्रोंको 
पूर्णतया आकु'चित करके ध्यानपूर्वक द्वृष्टि डाली, पर फिर भी 
कोई आशा नहीं । इस प्रकार ज्यों ज्यों समय बीतता गया, 
त्यों व्थों उसकी चित्तवृत्ति अधिकाधिक आतुर होती गई।॥ 
अन्तमें जब बाहर अन्यकारने अपना पूर्ण साम्राज्य कर लिया; 
ओर कुछे दिखाई ही न देने रगा, तब उसने खिड़कीमें खड़े 
होनेकी घुन भी छोड़ दी । ओर फिर वह अपनी उसी कोचपर 
आयैदी | इतनेमें चिराग लगानेके लिए. दाखियां आई'; परन्तु 
उसने उनको हुक्म देदिया कि, आज खिराग़ ही न रूगाया 
जाय । दासियोंने समझा कि, शायद बादशाहके वियोगके 
कारण उसकी पेसी दशा होरही होगी; और उनमेंसे जो एक 
कुछ ढीठ थी, उसने कह भी डाला, “अजी आते होंगे सरकार 
भी, इतनी उदासीनता क्‍यों ?” रस्मावतीको उसका यह कथन 


केवल विषकी ही भांति रगा,पर उसने यह बात प्रकट नहीं होने 


दी; और झठा ही क्रोध दिखलाकर तथा उसमें कुछ मुस्कुरा- 


हटकी भी ऋलक लाकर केवऊ् इतना ही कहा, “अरो, जा द 


निगोडी, क्या बकती है ? सुरही कहीं की !” उसने उस दासीसे 


.... इतना कह दिया अवश्य; पर उसके दिकपर उस समय क्‍या 






'बीती होगी, सो चही जाने | अस्तु । जब यह सज्त इस ह्दो 











. साइजी - हर 


जा आन 2०००००७० अड 
गया कि, आज़ दीपक न लगाये जांय, तब दासियां भी वहांसे 
चली गई'। इसके बाद फिर रस्मावतीकी अशान्ति ओर भी 
अधिक बढ़ने छगी। वह बार बार उठती ओर बार बार खिड़की - 
तक जाती | बाग़के दीपक, जो उस समय मशालरूची रूगा रहा 
था, अब दिखाई देने लगे थे। चह बार बार अपने उस भारी 
दीवानखानेमें इधरसे उधर चक्कर रूगाती। फिर कोचपर बैठ 
जाती, छेट रहती; ओर फिर उठती। उसका मच जितना 
अस्वस्थ दोरहा था, उतया ही उसका शरीर भी असख्वस्थ हो- 
रहा था। कुछ देर बाद वह आप ही आप कहती है, “इस 
निगोड़ीको भेजे पहर-डेढ़ पहर होगया,पर अभीतक नहों आई, न. 
जाने क्या छुआ? आजके समान फिर कभी मोक़ा नहीं मिलेगा | 
लेकिन, मेने जो देखा, सो सच था, अथवा मुझे ऐसा भास ही 
हुआ ? यह भास नहीं हुआ | सचमुच ही वही मूर्ति है ! ऐ दुष्ट 
सेयदुल्ला, तूने मेरे जन्मका तो सत्यानाश कर ही दिया । ओर 
तेरे कदेजेकी चसनेके लिए कोई रहा नहीं, ऐसा समझकर में 
खय॑ ही कुछ न कुछ करनेवालली थी; पर नहीं, अब ऐसा 
करनेकी कोई ज़रूरत नहीं--जिनके दाथसे ऐसा होना चाहिए, 
उन्हींके हाथसे अब यह काम होगा; और जब मैं उसको खुबूंगी, 
तब मुझे बड़ा ही खसनन्‍्तोष होगा। यह राई अभीवक न जाने 
क्या कर रही है, आई क्यों नहीं ? इसीका मुझे बड़ा अच्य्मा 
है 0667 


इस प्रकार रस्मावती अपने ही आप कहती हुईं, ओर लस्बी . 














हर उषाकाल हर | । न है) 


मााातंबा*उररक्ज १५८7 


भा रत 2 “फफे+-नटरेर बकिल्गी(० 


लण्बी सांस छोडती हुई बैठी थी कि, इतनेमें उसके दीवान- 


खाबेका दरवाजा किलीने भेड़ा । इसपर तुरन्त ही वह कहती 
है, “कौम है ? राई ! आगई ! क्या ख़बर छाई ? वही सूति तो 
है ? बदला, बतझा १” परन्तु राईकी ओर्से कोई उत्तर तो मिला 
नहीं ३, 3, ह छ् अल क रे 

नहीं--हा, ऐसा मालूम हुआ कि, कोई दरवाजा भेड़कर और 

5 ५ ७. ४ 
सांकक छगाकर भीतर आया; ओर आगे बढ़ा। दीवानख़ाने 
दीपक तो था ही नहीं, अतएथ रश्मावती पहचान नहों सको 


कि, यह कौन व्यक्ति है। हाँ, इतना अवश्य उसे मालूम हुआ. 
कि, यह कोई पुरूष है, जो मेरी ओर थ्ारहा हे | क्योंकि हो. 


ख्री उसकी ओर आरशही थी, वह बिलकुल सफेद चस्य पहने 
थी; और डीलडोलमें ऊंची थी। इखके सिवाय जब वह बिल- 
कुछ उसके सामने ही आगई, तय खिड़कीके मार्गसे बागके एक 
दीपकका थोड़ासा डजेला भी, उसके चेहरेपर तो नहीं, फिस्तु 
डसके शरीरपर पड़ा । उसे देखते ही रम्भावती घबड़ाई; और 


एकदम “चिराग | चिशग़ | बिराग़ तो छाओ ! अरे यह फोन... 


कहकर चिब्काई; पर आगन्तुकने बीचहीमें खुप, छुपः कहकर 
उसके कोमछ सुखपर हाथ मारकर मुँह दावा; और फिर ज़ोरसे 


कहा, “चुप, छुप । बोलना नहीं । चिल्लाने-विब्लानैसे कोई लास 


न होगा ।” रमस्सावती उस समय इतनी घबड़ा गई कि, उसका 
साश शरीर थर थर काँपने छगा | उसके मु दसे एक शब्द भी 


... न मिकलने ऊगा-हां, उसकी आंखे', अवश्य ही, उसके मममें 
* न होते हुए भी, उस आगन्तुककी ओर देखने लगीं। उसने 








५८ रस ६ कं आए 2८ सम 3 7 ४-7 ब 32 पा ४- ० क ८ मम आपका जे 4, 4040 202 हर 5 0 हट 








६0०0 
दे 6 


धीरेसे उसके मुखपरसे द्वाथ उठाया; और कुछ देरतक चुप 
खड़ा रहा। फिर उससे कहता है, “बोल, में कोन हूं? तूने मुझे 
पहचाना १?! 
रस्मावती थर थर कॉँपती हुई बड़े कश्टसे उचर देती है, 
ही” 
“में तुरे मार डालनेके लिए आया हूं। आज अभी, इसी 





साइजी प 
व्क पवब्छेपसस 5 





जगह, तेरा सिर काट डालूगा; और तब यहांसे दलू'गा। 


मुझे यहां आनेमें क्या कया कष्ट सोगने पड़े, ओर यहां आनेपर 
तुकको इस भोगविलासमें देखकर मेरे भनको जो यातनाए' हो- 
रही हैं, उनकी यदि तुझे कुछ भी कश्पना होतो, तो तूने आज 


मेरे देखते ही देखते प्राण देद्यि होते--नहीं, तू कभी जिन्दा 


रह ही नहीं सकती थी | थरी दुश्े, चांडालछिन [हुआ 

- आगे उसके मुँहसे एक अक्षर भी नहीं मिकठ सका | वह 
कुछ देर चुप खड़ा रहा । इसके बाद फिर कहता है, “क्यों? 
अब बोलती क्‍यों नहीं ! बोल। अन्‍्तमैं जो कुछ कहना हो, कह 
ले | में आज तेरे प्राण लिये बिना यहांसे जाऊ'गा नहीं। ऐसे 
ऐश-आराममें तुछे देख रहा हं--इससे अधिक ओर कौन पाप 
होसकता है १” 

रम्मावती ये सब बातें खुब रही थी; ओर उनमैंसे प्रत्येक 

शब्दके साथ, मानों उसे थोंडा थोड़ाखा धैय॑ भी होरहा था। 
होते होते अन्तमैं यदहांतरत्ष नोबत आई कि, वह अपने मनचकी 
बात कहनेको तैयार हुई॥ और कुछ देर, मानो;सोचकर वह - 

















इस प्रकार कहती है, “आपके हाथसे में मरू-इससे अधिक 
और मुझे ब्या चाहिए ? उन दुष्टोने मुझसे यही आकर कहा 
कि, उन्होंने आपको इस संसारमें नहीं रखा । इस प्रकार ऊब 
मेंने समझा कि, मेरा साग्य अब बिलकुल फट गया, तथ मैने 
प्रतिन्ना की कि,क्रमी न कभी उस दुष्टके कलेजेका खन में अवश्य 
निकालू गी--पूरा पूरा बदला छूगी। अपने पासका चित्र में 
उसके रक्तसे सानूंगी; और उसी दिन बस, अपना भी अन्त कर 
लूगी। उस प्रतिशाकों सत्य करनेका अब कोई काम ही नहीं । 
निकालिये, निकालिये वह अपनी तऊूचार-ओऔर लीजिए, मेरी 
ग्देनके दो ठुकड़े कर दीजिए । इस पापिनको स्वप्नमें भी यह न 
मालूम था कि, इन हाथोंसे इसके ठुकड़े टुकड़े होनेका पुण्य 
इसको बदा हे......” इतना कहते कहते उसका कण्ठ एकदम 
भर आया; ओर जैसे वायुके मोंकेसे कोई रस्थाका स्तम्भ एक- 
दम भहरा गिरे, उसी प्रकार “करो, सचमुच ही अब मेरे दो 
टुकर्ड करो” कहते हुए घड़ामसे चह उस व्यक्तिके चरणोंपर 
गिर पड़ी! द 

यह देखते ही चह व्यक्ति--बह पुरुष--मानों अत्यन्त चक्तित- 
सा हुआ। वह जिस खयालसे, अर जिस उद्देश्यसे यहां आया 
था, वह ख़याछ मानो बिलकुल श्रमपूर्ण निकला; और वह उद्देश्य: 
अब वह पूरा करे अथवा नहीं, इस विषयमें स्ली अब उसका मन _ 
दविधामें पड़ गया । उस समय चह खद्‌ ही यह नहीं सोच सका 
कि, यह जो मेरे चरणोंवर पड़ी हुई हे, इसफों उठावें, अथवा 




















है द साइजी. 5 
पक शम्म डद "व ्टसपब लक 
इसी जगह, जहां पड़ी हुई है, इसके शर्रीरके दो टुकड़े कर दें 
कई बार उसका हाथ तलवारकी ओर गया। कई बार वह 
पीछे हटा; ओर इस विचारसे कि, उस सुन्द्रीको उठाकर होशमें 
छावे, आगे बढ़ा। इस प्रकार जबकि उसके मनकी द्विधा- 
स्थिति होरही थी, उसे ऐसा भास हुआ छि, जैसे कोई दरवाजे- 
पर थाप मारता हो। अब वह द्रवाजा खोले या कया करे, 


. सो कुछ उसकी सम्रभमें न आया। द्रवाज़ा यदि नहीं खोलता, 


तो एकद्म गड़बड़ मचेगा; ओर यदि खोलता है, तो न जाने 


. कौन आजाय; ओर वह जब यद सब हाल देखेगा, तो न जाने 


'क्या करेगा; ओर क्या नहीं | अब इसकी गढन काटकर यहांसे 
निकल जाना भी सम्भव नहीं । इसके सिवाय, अन्‍्तमें इसने 


. जो कुछ कहा, उसके कारण अब इसकी गर्दन कारटनेमैं भी 


। ४ अत 


हमारा हाथ उठेगा, अथवा नहीं, इसमें भी शंका है ! हस प्रकार 
पररुपर-विरुद्ध अनेक विचार उसके मनमें आने रंगे, ओर उसकी 


|... शक बड़ी विचत्र दशा होगई। उधर बाहरसे द्रवाजा खट- 


खटानेका सिलसिला जारी ही था। अन्‍च्तमें उस सुन्दर ख्वीके 
प्राण लेनेमें उसका हाथ नहीं उठा; ओर उसने सोचा कि, अब 


. इसको तो ऐला ही छोड़कर हमें दरवाजा खोलना चाहिए, ओर 
 बाहरका आदमी जब मोतर आने लगे, तब पहले चुपकेसे किया- 


.. ) डकी ओटमें खड़े होकर, बादकों फिर एकद्म निकल जाना 





' चाहिए | यह सोचकर वह द्रवाजेके पास गया; ओर द्रवाजेको 
खोलकर धीरेसे वह एक किवाडकी ओठटमें खड़ा होगया | 








52१ 5४) ४. 


८0. ॥#) थे 


मद हैं 





अल अली ५ ५४८ ४) 


3020 
इधर दरवाजा खुलते ही एक स्त्री यह कहती हुई, “बाई- 
साहबा, चिराग, वगेरह बिलकुल नहीं,यह दया बात है? मैं पता 
लगा आई ?” भीतर आई। वह अभी भीतर आई ही थी कि, 
इतनेमें किवाडकी ओटमें छिपा हुआ मनुष्य एकद्म कपटकर 
बाहर निकल गया; ओर मोड़परसे घूमता हुआ ज़ीनेसे नीचे 
उतस्ने लगा। उस समय वह बहुत ही. धीरे धीरे उतर रहा 
था। उसका सारा शरीर अब पूरा पूरा उज्ेलेगें था। उसके 
सारे कपड़े बिलकुल सफ़ेद थे; ओर उसकी दाढ़ी भी छावीतक 
लटकती हुई बिलकुल उसके कपड़ोंकी ही तरह सफ़ेद थी। 
बीज बीयमें वह ठिठउककर खड़ा भी होजाता था, कभी खांसता 
भी था--जैसे बुढ़ापेके मारे बिलकुल जजुर होगया हो ! ज्ञगह 
जगह खरड्ड हुए मोकर-वाकर उसको झुक झुककर सझाप्र करते 
आते थे। उनको वह अपना हाथ--जिस हद्ाथमें कि, वह स्फ- 
टिक मणियोंकी जयमाला लिये हुए था -उठा उठाकर असली 
अरबी भाषामें कुछ आशोर्वाद भी देता जाता था। इस प्रकार 


धीरे घोरे वह' बाग़के अगले द्रबाजेके पास पहुंचा। वहांपर 


पहरेदारोने पूछा, “साई'जी, आए बहुत जब्दी रोट पड़े !” 
इसपर उसने असली उठ भाषामें केवल इतना ही कहा, “बेगम - 


साहबाको कुरानका कुछ हिस्सा खुनानेकों था, खो क़ाज़ी- 


खाहबकी आज्ञासे छुना आया, अब वापस जाता हूं!” इस 


.._ प्रकार कहकर खांसते हुए, उनके सलाम करनेपर, आशीर्वाद 


दिया; ओर वहीं जो उसका मियाना रूगा हुआ था, उसपर 























(५४६ 2) 


कि... का ४55: 
ग्रीन. +ा2७ जचुइबतत 


|. मिली - साईंजी ही 


बैठकर यह चहांसे चलता बना। मियानेको एक मसजिदके 
पास छोड़कर मियानेवाले कहारोंके कानमें कुछ कहा; ठथा 
मसजिदके एक दारसे भीतर जाकर दूसरे द्वारसे सवारी निकल 
गई, ओर फिर बस्तीके बाहर एक पुराने मकानमें चली गई । 
इधर गस्मावती अपने महरऊूमें जबकि बेहोश पड़ी हुई थी, 
एक दाली--जैसाकि हमने ऊपर बतलाया--उसे घुकारती हुई 
भीतर आई; और जब उसकी ओरसे कोई उत्तर न मिला, तब 
बड़ी अचम्मित हुई। अन्य दासियोंने उसे बाहर ही बतलाया 
कि, “बाई साहबाने आज चिरागतछ नहीं जलाने दिये, उनकी 


दशा आज बड़ी विवित्र होरही है, किसीको पास ही नहीं 


बैठने देती ।? यह दासी जो अभी भीतर आई थी, स्म्भावतीकी 
अत्यन्त प्रिय दाखी थी; ओर सदैव उसके पास रहती थी । इस- 
पर रम्मावतीका विश्वास भी बहुत था। इसलिए अन्य 


“दाखियोंने समझा कि, शायद इसे बाई साहबाका सारा हार 


मालूम होगा, अतणव उन्होंने उससे अनेक प्रकारके प्रश्न भी 
किये । साथ ही यह भी पूछा कि, आज सारा दिन तू गई कहां 
थी ? पर उसने कोई विशेष बात नहीं बताई, और न कोई अपना. 
अभिप्राय ही प्रकट होने दिया। अन्य दासियां भी बाहरहीसे उसके 


साथ रूग गयीं; पर उसने बड़े बातुर्यंसे उनको पीछे ही टाल 


दिया; ओर अकेली हो इस सप्रय वह भीतर आई । यह वही दासी 
थी, जिसका कि, कुछ देर पहले, स्म्मावती खिड़कीम खड़ी हुई 


रास्ता देख रही थी। पाठकोंको यह भी मालूम होगया होगा - 

















उषाकाह 


के ६३ ५५ ८8 00 (0088: ० 





कि, रम्भावतीने आज इसे बहुत देरसे किसी बातका पता 
लगानेके लिए भेजा था; और बड़ी उत्सुकताके साथ उसकी 
प्रतीक्षा कर रही थी कि, देखें अब पता लगाकर वह कब आती 
है। इस दासीका नाम था राई, और यह रमस्भावतीकी अत्यन्त 
प्रिय ओर विश्वासपात्र दासी थी | र्सावतीके मनमें ऐसी कोई 
भी बात नहीं थी कि, जो उसे माल्ठम्त न हो | ओर रम्भावती 
कोई भी काम करनेके लिए राईको आज्ञा देती, वह काम यहदि्‌ 
मसुष्यके प्रयल्लोंसे बाहरका न होता, तो राई डसे अवश्य ही 
पूरा कर आती थी। आज़ राईको जिस कार्यके लिए रम्सा- 
वतीने भेजा था, उस कार्यमें उसे बहुत ही. परिश्रम करना 
पड़ा; पर उसे प्रायः बह पूरा करके हो आई थी। जिस 
व्यक्तिका पता रूगानेके लिए उसने उसे भेजा था, उसका 
उसने पूरा पता, प्रत्येक प्रकारके प्रयलसे, ऊहूगा ही लिया 


था; ओर यह सोचती हुई कि, मेंने उसका पूरा पता लगा* 
लिया; ओर यह यात जब में अपनी मालकिनकों जाकर 


बतलाऊंगी, तब उसे बहुत आनन्द होगा। चह इस सप्रय 
उसके अन्तःपुरमें आई थी। उसने सोचा था कि, मेरी माल- 


किन अब बहुत ही उत्सुक होरही होगी; और जब उसको 


जाकर यह सब हाल में बतलाऊ गी, तब उसे कुछ धीरज होगा । 
बस, इसी प्रकारके विचारोंमें वह उस समय निमझ थी । इतनेमें 


.. उसने आकर दरवाजा खुलवाया; ओर इसीकारण उसे इस 






बातकी शंका भी न हुई कि, यह द्रचाजा वाघ्तवमें मेरी माल- धर 

















७ ५०१४2 , पी सकी 
अमर कक अच 2 जाल >> 


किनने ही खोला, अथवा और किसी व्यक्तिने। मालकिनके 
उदास होने ओर अपने रंगमहलमें दीपक भी न लगाने देनेका 
कारण उसे मालूम था; अतएव इस बातका उसे कोई आश्चर्य 
भी नहीं हुआ। क्‍योंकि वह जानती ही थी कि, आज वह 
हमारा रास्ता देखती हुई अकेली बैठी रहेगी। इसलिए भीतर 
आकर पहले उसने अपनी मालकिनकों तीन-चार बार पुकारा ; 
पर उसकी भोरसे जब कोई उत्तर नहीं मिला, तब वह कुछ 
शड्धित होकर वैसी ही आगे बढ़ी । इतनेमें उसके पैरमें कुछ 
छगा। झुककर उसने देखा, तो रम्मावती बेहोश पड़ी है । 
उसे ऐसी हालतमें देखकर वह भौंवक्कीसी रह गई; और एफक- 
दम “चिराग छाओ, चिराग लाओ ?” कहकर चिल्लायी | द्रवाजा 
आधासा खुला था ही। चारों ओर शोर मच गया; और दस- 
पांच दासियां तुरन्त ही हार्थोमें दीपक लिये हुए आपऊहुंचीं । 
. देखती हैं, तो रम्भावती बाई विलकुल बेहोश अस्तव्यप््त पड़ी 
; *याज बादशाहकी सवारी जबसे गई, तभौसे इनको यह 
दशा होरही है ।” “सन्ध्यासे ही न जाने इनकी क्‍या हालत हो- 
रही है ।” “इनकी तबीयत शामसे ही में ऐसी देख रही हूं ।” 
इत्यादि इत्यादि बातें कहकर सब दासियां आपसमैं बड़बड़ाने 





्ि लगीं। सभी अपनी अपनी ब॒द्धिके अनुसार बाई साहबाको 
7... होशमें छानेका उपाय खुम्दाने ऊगीं। पर प्रत्यक्ष कोई भो 
कुछ न करती थी। .कई दासियां तो इसी चिन्तामें थीं कि, 

















हे है , ५५२ ५८ 
के 20५७० पक व “क०-नीकल ०6९-*६६५- 





अब बादशाहकी सवारी छोटकर भाती ही होगी, अब हमारी 
सबकी फजीहत होगी | हाँ, उनमें एक राई ही ऐसो थी कि, 


जो अपनी मालकिनको होशमें लानेके लिए सब प्रकारका प्रयत्ष 
कर रही थी। ओर कुछ ही देर बाद उसका वह प्रथल सफर 


भी हुआ । रस्स्थावती होशमें आई; ओर--“क्यों, मेरे प्राण क्यों 
नहीं लेते ? आपके दाथसे यदि में मरूगी, तो अवश्य ही इस 
पायसे मेरा छुटकारा होजायगा”-- इस प्रकारके शब्द, जो वहां 
एकत्रित उन सब दासियोंके लिए, केवल अर्थशन्य ही थे, उसके 
मुखसे निकले । शायद उसने समझा कि, जिस समय वह 
बेहोश हुई थी, उस समय जो कुछ होरहा था; भौर जो ख्री 


उस समय उसके सामने खड़ी थी--वही अब भी हो रहा है; और 


वही स्त्री अब भी उसके सामने खड़ी है तथा उसीसे वह बात- 


च्ीत कर रहो है! परन्तु जब उसने देखा कि, दासियोंका एक 


बड़ा झुए्ड उसके आसपास खड़ा है; ओर उनसमेंसे कई एक 


दीपक भी लिये है, तब वह बहुत घबड़ासी गई, ओर चारों 


ओर देखकर कहती है, “क्या मुझे बिना मारे ही चले शणये!? 
अथवा उन्हे कोई पकड़ लछेगया ?” इतना कहकर वह फिर 
आसपास पागलकी भांति देखने छगी। राईने सोचा कि, 
इनको. इस प्रकार बड़बड़ाने देना ठीक नहीं है, शायद्‌ और कोई 
बातें बाहए निकल पड़ें; और उस हालतमैं बड़ा अनर्थ भी हो- 
सकता है। बस, यही सब सोचकर वह अपनी मालकिनसे 


तुरत्त ही बोली,“बाई साहबा,बाई साहवा ! तुमको क्या होगया 

















कै साइजी ही 





है ? क्या कोई ख्त हो पड़ा ? इस प्रकार बड़बड़ाओ मत | ये 
देखो, सब दासियां घबड़ाई हुई खड़ी हैं। चलो, अपने परलेगपर 
चलकर पड़ो !” यह कहकर राईने उसे जबरदस्ती उठाया; और 
उठाते उठाते उसके कानमें घीरेसे उसने कुछ कहा भी। इससे 
रम्भावती बिलकुल सचेत होकर उठ पड़ी; ओर खद्‌ ही अपने 
प्रलेगकी ओर चल दी। फिर उसने सिर्फ एक दीपक रखवाकर 
सबको जले जानेकी आज्ञा दी। आज्ञा पाते ही सब दासियां 
वहांसे चली गई'। सिफे राईभर उसकी ख़िद्मतमें रह गई । 

इस प्रकार जब चारों ओर बिलकुल सन्नादा दहोगया, तब 
रम्भावती, जोकि राईके आनेके लिए अत्यन्त आतुर होरही थी, 
उठकर पलेगपर बैठी; ओर राईसे बोली, “बतला,तू क्‍या पता 
लरूगा लाई ? परन्तु अब तो पता छणानेकी आवश्यकता ही नहीं 
रही | अभी ये खय॑ यहां आये थे; ओर मेरे सब पापोंका अना- 
यास ही प्रायश्विल होनेबाला था, पर षया कहूँ, हदभागित में ! 
मेरा भाग्य हो उतना अच्छा नहीं। मैंने अपनी गर्दन उनके 
चअरणोंपर रख दी; पर फिर भी मेरे प्राण न लेते हुण थे यहांसे 
चछे गये। कहां रहते हैं, क्या करते हैं, कया कुछ पता छगा 
तुकको ? लूगा हो, तो बतका ।” 

“वे यहां आये थे” ये शब्द्‌ छुनते द्वी राईके आश्चर्यका 
ठिकाना वन रहा | इन शब्दोंका अथ ही उसकी सम्रकमें न 
आया। वह तुरन्त ही बोली, “क्या वे यहां आये थे १ बाई- 

साहबा, तुम स्वप्नमें तो नहीं हो ! अनेकों पहरोंसे,लैकड़ों जमा-- 





| उधाकाल ४ ( कु 





दारोंके बीचसे, गुज़रते हुए क्या कोई भी पुरुष कभी भी इस 
अन्तःपुरमें आसकता है ? बाहरके द्रवाजेका पहरेदार भी यदि 
भीतर आना चाहे, तो उसका भी तो साहस नहीं होसकता-- 
फिर बिलकुल अपरियित व्यक्तिका यहां शुज्ञारा कहां? तुम 
सचमुच ही किसी प्रांतिमें हो |!” 

राईका यह कथन सुनकर, डस चेहरेपर, जोकि पहलेहीसे 
खिन्न होरहा था, कुछ मुस्कुराहटकी भलक दिखाई दी , ओर 
वह एकद्म बोलो, “राई, तेरी ही सरह में भी अचचस्मेमें हूं कि, 
यहांतक उनका आना हुआ तो केसे? पर यहां वे आये 
अवश्य । मुरूसे बातबीत भी हुई। मेरी गदन उड़ा देनेकी बात॑ 
निकाली । मेंने कहा, ज़रूर उड़ा दीजिये, आप जीवित हैं, तो 
मुझे अपनी प्रतिज्ञाको पूर्ण करनेकी कोई आवश्यकता ही नहीं 
रही । इसके सिवाय, अपनी प्रतिज्ञा भी मेने उनको बतला दी | 
अपनी गर्दन भो मैंने उनके चरणोंपर रखदी | ये सब बातें हुई' 
इसमें कुछ भी शंका नहीं। तूने क्‍या किया, छो तो बतला ।” 
- “किन्तु बाई साहबा, तुम कहती हो कि, थे यहां आये थे, 
यह केसे छुआ ९” 

“चाहे जैसे हुआ हो | जो कुछ इुआ, सो तो मेंने तुझे बत- 
छाया | तूने क्या पता लगाया, सो बतला ।” 


! 





























चक्कर छुगा चुके, तब अचानक एक बार वे ठहरसे गये; ओर 


उन्तालीसवां परिच्छेद। 
“--+अक्षीएू:-+----- 
भूतोंकी हवेलीमें । 

अब रम्सावती और उसकी दासौको हम खच्छन्द्‌ 
होकर अपनी बातें करने दें, अथवा उसकी दाली जो कुछ पता 
लगा लाई हो, सो उसको बतलाने दे'; और अपने पाठकॉके 

साथ चलकर अब उन साईजीका हालयाल देखें | 
पिछले परिच्छ दर्में हमने बतकाया था कि, साईजी एक 
मसजिदके सामने अपना मियाना छोड़कर एक द्रवाजेसे भीतर 
घुसे; ओर दूसरे द्रवाजेसे एक ओर निकल गये। इसके बाद 
फिर वे बस्तीके बाहर जाकर एक पुरानी, गिरी हुई, हवेलीमें 
गये। इचथर मियानेवाले कहार भी न जाने कहांके कहां चले 
गये ? साई'जीने उस हवेलीके अन्दर कदम रखते ही, उसका 
द्रवाजा ख़ब मज़बूतीके साथ लगा लिया; ओर अपनी दाढ़ी 
एवं सू छे! तथा सारी पोशाक निकाऊकर उन्होंने एक ओर 
रख दी ; ओर वहीं एक दालानमें इधरसे उधर घूमने लगे। 
साई'जीका साई'पन अब न जाने कहां चला गया? उनकी 
सेष्टा अब बिलकुल बदल गई । वह अत्यन्त खिन्नसी दिखाई दी-- 
ऐसा जान॑ पड़ता था कि, इस समय उनके मनमें कोई विलक्षण 
ही विचार आरहे हैं। कई वार इधरसे उधर जब थे अनेक 










| ' उचाकाल 
0 शर्करा) 





१७५७७०७७, (४७. | 


आप ही आप गुनगुनवाकर इस प्रकार कहने रंगे, “देजो सो, हाथ 

ही न चला; ओर उसने जो उद्गार अपने सुखसे निकाऊके, उनके 
कारण तो मेरा हाथ बिलकुल बेकारसा ही होगया। क्या 
कहा जाय ! इन उदगारोंका अर्थ क्‍या है? क्या वह उसका 
बदला लेण याहती है? क्‍या सचमुव ही, जेसाकि यह 
कहती थी, उसने बदला लेनेकी प्रतिज्ञा की होगी? शायद 
अवश्य की होगी । क्योंकि इसके बिना--ओर जबकि अया- 
नक में उसके आगे पहुँचा--कदापि उसके सु हसे ऐसे उद॒गार 
निकल नहीं सकते थे। इसके सिवाय यह भी जान पड़ता है 
कि, उसे यह कण्पना भी नहीं थी कि, में जीवित हूं। मुष्य्को 
एकाएक देखते ही,वह उस खेदमें,आश्रयंचकित भी अवश्य हुई ! 
ओर फिर जब उसके मनमें यह बात आई कि,अब उसके ही द्वारा 
प्रतिज्ञा पूर्ण होनिेकी कोई आवश्यकता नहीं;किन्तु उस प्रतिशाको 
पूर्ण करनेके लिए उससे भी अधिक खझुयोग्य व्यक्ति मोजद है, 
तब उसके मनमे कुछ सम्तोषकेसे भाव भी दिलख्लाई दिये। इधर 
मेरा मन भी अब मुझसे यही कह रहा है कि, जो कुछ बात छुई, 
वह उसकी ठलायारीमें ही हुई है। उससे निकल जाना उसके 
लिए विलकुल असम्मव था; परन्तु फिर भी यह उसने अवश्य ही 
सोच लिया कि, जिस व्यक्तिके कारण उसके ऊपर ऐसा मोका 

.. आया, उस व्यक्तिके कलेजेका ख न चलना उसके लिए आवब- 
.._ श्यक है। अपनी गदंन उड़ानेके छिये भी उसने झुकसे कहा; 
». ओर र यह बात बिलकुछ उसने अपने हृद्यसे ही कही, इसमें मुके 








ञ््ः 











ई ५७७ 22 कल ह 
न्वीदी)-ीफर "2५०० 5७ «चओं 








अणुमात्र भी शद्भा) नहीं। उसने यह भी कहा कि, हमारी गदेन 
उड़ा दो, तो में खब पापोंसे मुक्त दोजाऊंगी। उसका यह कथन 
भी कुछ झूठ नहीं था। में समझता हूं कि *******' &; 

इस प्रकार उस व्यक्तिके मनरभें नाना प्रकारके विद्यार 
आरहे थे। इसके सिवाय, ऊपर जो वियार बवलाये गये, 
उममैंसे अन्तिम विवार जब उसके मनमें आने छूगे, तब ऐसा 
जान पड़ा कि, जैसे उसका मन ओर सी अधिकाधिक छुब्ध 
होरहा हो । उस हवेलीमें वह बिछकुल अकेला था; ओर जिस 
समयका घर्णन हम लिख रहे हैं, उस समय तो उस दालानपें- 
एक टिमटिसावे हुए छोटेसे दीपकके अतिर्क्ति और कुछे भी 
नहीं था, अतएव वह स्थान बहुत ही भयानकसा दिखाई ढे- 
रहा था | इसके असिश्कि उस हवेलीके आसपास मजु॒ष्यबस्ती- 
का कहीं नाप्र-निशान भी नहीं था, अतणव उसकी भयानकता 
उस समय और सी अधिक बढ़ रही थी । उस भयावक मका- 
नमें यदि उस सप्रय किलीने इस अकेले पुरुषको घूमसा हुआ 
देखा होता, उसे ऐसा ही भास होता कि, जैसे कोई ब्रह्मराक्षस 
घूम रहा हो, अथवा कोई भूत इधरसे उधर चक्कर काट रहा 
हो | इसके लिघाय उस मकानके विबययमें यदि उसको पहलेकी 
भी कुछ जावकारोी होती, तो मिरुसन्देह उसे यही मालूम होता 
कि, सचप्तुय ही, मू्ोंकी हवेली, इसका नाम बिछकुछ सार्थक 
है। रातके समय तो कोई कभी सी उसके आसपास आनेका' 
साहस नहीं करता था। इसक्वारण उसके विषय कभी कोई 












पनसालाप: ८-१3. कफ +प>०> कया" न_क 5 रतन पलपल गए ल++कपटपमलक 350... 
है 


5. &|ई 


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8. अददी 


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बम जज... . 


मकानमें आकर रहा था। उसको जो कुछ उद्देश्य सिद्ध 





हू । उपाकाल 


+ ७४४०० ०७४५५ २ शा गधा की 


५ १०० शा 





यह जांच भी नहीं करता था कि, इस मकानमें कोई रहता भी 
है, अथवा नहीं | हमारे उस, साईका भेष धारण करनेवाले 
व्यक्तिको अपना कोई शुप्त उद्द श्य सिद्ध करना था. और उसको 
सिद्ध करनेके लिए साधारणतया उसने देखा कि, यह मकान 
उसके लिए बहुत सुविधाजनक होगा; ओर इसीकारण वह इस 


करना था, उसकी तेयारीमें दिवमर वह चाहे जहां घूपता; 
पर रातको फिर उसी शान्त स्थानमें आकर दिनभरकी बातों. 
पर विचार किया करता। बस, यही उसका सिलसिला जारी 
था | उसके इस क्रममें कभी व्यत्यय नहीं हुआ | अस्तु । 
जेसाकि हमने ऊपर बतलाया, वह मनुष्य अपने ही आप 
विचार करता हुआ, इस प्रकार चक्कर काट रहा था फि, इतनेमें 


एकाएक उसे ऐसा भास हुआ कि, किसीने उस मकानके दर- 


दाजेपर थाप मारी । इतनी रातमें आजतक तो कोई कमो 


नहीं आया; और आज ही आकर यह किसने दरवाजा खट- 
खटाया ? आज हमने जो ख्ांग रचा था; भौर बहुत दिनका 
अपना उद्द श्य सिद्ध करनेके लिए बड़ी ख़ बीके साथ जो प्रयल 
हमने किया; तथा अपने उद्दं श्यको कुछ कुछ सिद्ध भी किया; 
कमसे कम एक विशित्र साहसका काम करके ऐसे विचित्र 
स्थानमें प्रवेश भी किया--अब यह खारा भंडा फटनेकी नौवत 
तो नहीं आयेगी ! यह सोचकर खामाविक ही उसका हाथ 














छुनाई दिया । इसलिए अब वह मन ही मन यह सोचने रूगा 


कि, द्रवाज़ा खोलू' अथवा न खोल्त' | उधर द्रवाजा खटखठा- 


मेका सिलसिला जारी ही था। बहुत देरतक इसने उस ओर 
ध्यान नहीं दिया। परन्तु वाहर जो छोग थे, वे सी काफी हटी 
दिखाई दिये; क्‍योंकि उन्होंने इतने ज़ोर ज्ोरसे दरवाजेको उेलना 
शुरू किया कि, भीतरके मजुष्पने समझा कि, जैसे थे द्रवाजा 
तोड़कर भीतर घुस ही आवेंगे | इसलिए अन्‍्तमैं उस मजुष्यते 
सोचा कि, अब द्रवाजा खोले बिना काम नहीं चलेगा; और 
यह सोचकर वह द्रवाजा खोलनेके लिए गया। अपनी तल- 


 बारकों उसने सम्हालकर पकड़ ही लिया था | द्रवाजेके पास 


पहुंचकर एक बार फिर भी उसके मनमें यही विचार आया 
कि, द्रवाजा खोले या नहीं । इसके बाद फिर इस आशयके 


: कुछ शब्द गुनगुनाता हुआ वह द्रबाजेके पास गया कि, देखो, 


हम ऐसे घरमें आकर रहे कि, जहां भूछ हर सी किसीके आनेकी 


सम्भावना नहीं; फिर भी लोग मेरे मनको अशान्त करनेके लिए 


आ ही जाते हैं। इतना शुनगुनाकर, फिर मानो छायारसा होकर 
उसने द्रवाजेका बेंड़ा एक ओरको हटाया | अब वह मन ही 
भन इस बातपर बहुत डरा छि, देखें, अब हमारे ऊपर क्‍या 


.. विध्न आते हैं, ओर कया नहीं | परन्तु ज्यों ही उसने द्रबाजेका 


कै ह मे भी गे द 
बैंड हटाया, त्यों हो बाहसके छोगोंने ओर भी ज़ोर ज़ोरसे दर- 
वाजेमें धक्का लगाना शुरू किया | इसकारण उसने बहुत जरूद . 


हे हम ाा।।।।। ता /॥/७७७७/७/७//श।/ा/क्षा।द् की, ्ः 









4 उच्चाकार ४ 


ध ाछउफतलश ३ ५५० //£ 
क0 पैड अर ै 


दरवाजा खोल दियों; और एकदम उन लोगोंकी ओर जाकर 
डांटके साथ पूछा, “कौन है! कया है? क्यों आये हो १” उत्तर 
प्िछा - “कोई नहीं, हम चार आदमी, ग़रीब मुसाफिर है, अभी _ 
बाहरसे आरहे है । कहीं उसरनेको जगह नहीं मिली | ओर यह 
भी शंका है कि, कोई जगह देगा अथवा नहीं; क्योंकि किसोसे 
पहचान नहीं | इसके सिवाय, यह मौका भी इसरा है। इसी- 
(िए आपको कष्ट दिया। रास्तेमें एक गाँवमें हमको छोगोंने 
वतछाया कि, बस्तीकी दक्षिण ओर एक पुरानीली हथेओो हे । 
वहां चछे जाओगे, तो शतभर झुज़ारा होआयगा। उन्होंने 
बताया कि, जिनके घर-हार नहीं होता, ऐसे साक्ू-वेशगी इसी 
हथेलीमें आकर उतर पड़ते है। सो हम भी घड़े आयधे। आप 
रहते ही है, हमको भी ठहर जाने देंगे, वो बड़ी छपा होगी ।! 
यह सुनते ही, ऐेखा जान पड़ा कि, उस भीवरवाले . मडुष्यके 
मनपर कोई न कोई विलक्षण अमाव पड़ा। ऐसा प्रभाव उसके 
मनपर क्यों पड़ा, सो कुछ कहा नहीं जालकता। जो मेहमाम 
_ उसके सामने इस समय उपस्थित थे, उनके बोलने-बालनेमें 
अथवा ओर किसी बातमें, उसने ऐला ही कुछ देखा कि, ऊिससे 
शायद उसके मनमें कुछे प्रमसा उत्पन्न होगया | कह नहीं 
... सकते, कया बात थी १ डस समय चारों ओर अंधकार ही अंच- 
हा कार छाया हुआ था। अतए्व आस-पास धवो झाडीके अति- 
.._ रिझ और कुछ मो दृष्टिगोचर नहीं होरहा था। और यह एक 
अंकाससे अच्छा ही था; क्योंकि उस हवेलीमें अबतक जो व्यक्ति 











' भूतोंकी हवेलीमें है 


बस ००233 0:20 लय 





रहता था, उसकी यह अणुमात्र श्षी इच्छा हू थी कि, उसको 
कोई जाने, अथवा उसके हृदयकी बात जरा भी किसीयपर 
कट हो | ओर विशेषतः इस समय, उसके हृदयके विचारोंके 
कारण, उसके चेहरेपर जो भाव-परिषर्तेन होस्हे थे, थे उम 
लोगोंकी हृष्टिमं न पड़ने पाएे, यह उसकी उत्कट इच्छा 
थी। अस्तु | अब क्षणसरके लिए उसके मनमें यह विद्यार आया 
कि, इन लछोगोंको भीवर आने दें अथवा नहीं, फिर शायद्‌ उसमे 
यह समफा कि, रावका समय है; ओर ऐसे मोकेपर यदि हम 
इनकार करेंगे, तो उचित न होगा--अथवा शायद्‌ उसने यह 
भी खयाल किया हो कि, यदि्‌ हम इनकार भी करेंगे, तो भी 
कोई लाभ न होगा; क्‍योंकि बाहर जो लोग खड़े थे, उनके 
हाथमैं--उस अंधेरी रातमें भी--उनके अख्य-शस्यर कुछ न कुछ 
चमक रहे थे | जो कुछ भी हो, उस मलुष्यकों उन मुसाफिरोंके 
शोकनैका साहस नहीं हुआ; ओर उसने उनको भीतर आनेके 
लिए कहा | उसके कहते ही वे लोग इस घडलु के साथ भीतर. 
घसे कि, जेसे उनको किसीकी परवाह हो न हो। चारों आदमी 
जब भीतर आगये, तब उस पहले व्यक्तिने फिर भीतरसे द्र- 
चाजा बन्द कर लिया | इसके बाद फिर वह यह विदार करता 
हुआ उनके पीछे पीछे भीतर आया कि, अब जिस तरहसे हो, 
इनको सुबह तो यहांसे सगाना होगा। इधर ये छोग भीतर 
'आझाकर उस ट्मिटिमाते हुण. दीपकछी ही ओर गये । उनका 
डघर जाना था कि, उनमेंसे जो मदठुष्य सबसे आगे था, उसके 








उद्याकारू 


बहा तताए 2 है 





चेहरेपर उल टिमटिपाते हुए दीपककी एक किरण पड़ी । 
संयोगवश हमारे पहले महाशयक्ली दृष्टि भी उसो समय उसके 
जेहरेपर पड़ी; और कह नहीं सकते, क्या कारण हुआ, ऐसा 
जान पड़ा कि, वद पुरुष उसके चेहरेको देखते ही कुछ 
चकितसा हुआ | “यह क्या चात है ?” इतना ही उद्दुभार उसकी 
जिह्ापर आकर बिलकुल बाहर लिकलनेहीयाला था कि, उसने 
उसे बडी खबीके साथ जदांका तहां रोक लिया और अपनेको 
जहांवक दोसका, अंधेरेहीमें रखकर उसमे उन लोगोंसे 
बोलनेका मौका विलऊकुछ टालनेकी कोशिश की ! वे छोग भी | 
उससे वोलमेको बहुत आतुर नहीं दिखाई दिये। उन्होंने अपनी 
अपनी कमलियां नीचे जिछा दीं; ओर एकने जब पानीके लिए |. 
पूछा, तब उसे कुआं बतछा दिया गया, जिससे वह पानी भर 
लाया, और फिर जो कुछ थोड़ा-बडुत उनके पास था, सबने 
 प्िलकर खाया-पिया। इसके बाद एक आदमी पहरा देनेके ॒ 
छण जगता स्हा, ओर बाकी तीनोंने तुूव्त ही निद्रादेवीका ल्‍ 
. आश्रय रिया। इम्ारा पहला महाशय इतनी देर बिलकुल स्तव्ध | ॥॒ 
'शा। चहद सिफ. उनका सब चमत्कार देखभर रहा था। . 
चह मूँ हसे एक अक्षर भी नहीं बोला और न अपना चेहरा | 
हर जजैलेकी ओर केगया। हां; उसके मनमें जो वियार आरहे थे क्‍ 
. थे उसने जैसेके तैसे जारी रखे । इस प्रकार होते होते आधी /. 
शत बीत गई; उसे क्षणमरकों भी निद्रा नहीं आई। यही नहीं 
 बहिक निद्राकी कोई सम्भावना भी दिखाई नहीं दी | उन आगत 

























(६३ 2) भूतेंकी हवेलीमें 
$3 ५६३ ८८ ५ तक ह 


-00> का "का“+बीक- न्व्य्ज्स्च्ग्र्स्ल्स्क्रा 








चार आदमियोंमेंसे, ऐसा जान पड़ता था, * कि तीन आदमी 
जिद्रामें बिलकुल ही निमम्न हैं। हां, चोथा आदमी, जोकि पहरा 
देनेके छिए रह गया था, अब इस बातके लिए कुछ आकुलछसा 
दिखाई दिया कि, इन दोनों मेंसे कोई शीघ्र ही उठे, तो अच्छा 
हो, जिससे मेरा छुटकारा हो; ओर में भी थोड़ीसी नींदू लेऊ; 
परन्तु, इतना होनेपर सी, धह अपने पहरेमें हुरा भी गफ़लछत नहीं 
. होने देश्दा था। यह स्पष्ट था। वह बराबर अपने अखा-शख्र 
लिए हुए विछकुछ तैनात था । जूरा कहीं हमारे उस पहले 
महाशयने कुछ खटपट की, अथवा कहीं कुछ थोड़ीसी भी हल- 
चल दिखलाई कि, वह तुरन्त ही बिलकुल चोकन्ना होजाता: 
और उस महाशयकी ओर देखने रूगता। इसी भकार 
कुछ समय व्यतीत छुआ, तब मानो उसपर दया करके ही 
दूसरा एक आदमी जाग पड़ा; ओर उठकर बैठ गया | 
फिर पहरा देनेवाले पुरुषले कहता है, “तान''“” परन्तु यह 


शब्द उसने पूरा पूरा उच्चारण नहीं किया; और तुरन्त ही... 
अपनी जीम दांतोंतछे दुबाई; और फिर “तुम अब सोओ। में 
 ज्बतक और कोई न उठेगा, पहरा दू'गा,” वाहकर उससे सोनेके 


छिए आग्रह करने छगा। वह आदमी सोनेके छिए आतुर 
हो ही रहा था, सो पाठकोंको माव्यूम है। इसलिए उसने 
अपने साथीका आम्रह तुख्त ही रुवीकार कर लिया, इसमें कोई 
आश्चर्य नहीं। उसका साथी जगने छगा; ओर वह सोगया। 
तनेमें करोब करीब दो बजनेव्शा वक्त हुआं। अब हमारा 





उचाकारू 
७ 50६७५) (७22० 








् 
पहलेका, उस हंबेलीका असली महाशय, कुछ अधिक आतुर 
होता हुआसा दिखाई द्या। क्योंकि उसमे आवाज़से तुरन्त 
ही जान लिया कि, हवेलीमें आते समय पहलेपहल जिस व्यक्ति- 
के चेहरेपर उस क्षीणप्रकाशक दीपककी ऋलक पड़ी थी, वही 
व्यक्ति अब जाग रहा है। इसके सिवाय, अब यह भी ज्ञान पड़ने 
लगा कि, उससे कुछ न कुछ बातचीत करनेके लिए उसकी 
बड़ी उत्कट इच्छा होरही है। परन्तु उसका दूसरा साथी 
जबतक प्रगाढ़ निद्रामें निमन्न न होजाय, तबतकके लिए 
उसने अपनी उक्त इच्छाक्तो बिछकुछ दबा रखा। थोड़ी ही . 
देरमें, जब उसने देखा कि, अब उसका खाथी ख़ूब गहरी नींदमें . 
सोगया, तब वह अपनी ज्ञगहपरसे उठा; ओर वहुत धीरे धीरे .। 
कदम रखता हुआ उस जगते हुए पुरुषके बिलकुल पास पहुँच 
गया। उसके आनेको आहट पाते ही “कोन है !” कहकर यह 
. पुरुष चिह्लाया। परन्तु उस महाशयने तुरन्त ही उसके कंथरे- 


पर हाथ रखकर कहा, “दोस्त, दोस्त,--दुश्मन नहीं।” फिर 
.... इसके बाद बिलकुल धीरेसे उसके काममें कहा, “देखो, तुम मुझे 


. नहीं पहचानोगे, लेकिन मैं तुमको अच्छी तरह पहयानता हूं; 
और तुम जिस कामके लिए यहां आये हो, सो भी मैं कुछ कुछ 
जानता हूं।- तुम्हारी तरह में सी किसी कामहीके लिए आया 


.._ हूं। और छोगोंकों अभी उठाओ नहीं | तुम ज़रा बाहर चलो। 






रे में तुमको ऊीछ बतला ऊंगा ।. द | 
.. जिस समय वह यह सब कह रहा था, हमारे पहरा देने- ही 


नि लता 72 0:27: 











ला ब्ख्च्च्ट्स््ब्स्ल्डब 








वाडे व्यक्तिकी कुछ विवित्रत्तों दशा होरही थो। वह सोच 
रहा था कि, यह आदमी, जो हमसे बात करता हैं, है कोन 
यह हमकी पहचानता कहांसे है ? बिलकुल परिलित व्यक्तिको 
तरह बात करना याहता है-यह माप्रला क्या है ? इस प्रकार 
एकके बाद एक अनेक प्रश्ष उसके मनमें उठने लगे। यह 
छिकइता है, तदयुलार सबपुव ही हमारा दोस्त है या 
दुश्मन है ? हमसे कहता है कि, बाहर चलो, सो अब बाहर 
जाकर इसकी बात खुनें या नहीं? अथवा बाहर लेजञाकर 
हमको दगा तो न देगा ? यह मकान किलका है? हम्त कहां 
आगये ? यह कोन है ? इत्यादि अनेक प्रश्न, क्रमशः, उसके 
मनमें उपस्थित होने रंगे, जिनके कारण उसका मन बिलकुल 
ही घबड़ा गया। यह देखकर उस हवेलीका वह पहला महा- 
शय कहता है, “मेरे विषयमें आप कोई शंका न करें। में 
सचमुच ही आपका दोस्त ह'। इससे अधिक ओर इस समय 
मैं कुछ नहीं बता सकता। आप इतना तो अवश्य ध्यानमें 
रखें कि, आप मुझे चाहे अपना दोस्त समर अथवा न समफ्के; 
आप मुझपर विश्वास कर, चाहे न करें; में आपके काममें जो... 
कुछ सहायता कर सकू गा, उसके करनेमें कोई त्रुटि न करूगा। हे । 
फिर जैसी आपकी मर्ज़ी।” ये शब्द उसने अत्यन्त हृढ़ निश्चयके ... क्‍ 
साथ उच्चारण किये; ओर उस दूसरे व्यक्तिके मनपर उनका 
प्रभाव भी तुरूत ही पड़ा। उसपर उसका विश्वास हुआ; 
ओर वह तुरन्त डी अपनी जगहसे उठकर उसकी ओर देखते 



















4 उपाकारू 





से ७५६६ ८ 


7५ 
का। ८ 0 | 


हुए कहता है, “जो कुछ बतलाना हो, यहीं बतलाइये न ! बाहर 
जानेकी क्‍या आवश्यकता हे ?” 

“बाहर जानेकी कोई बहुत आवश्यकता तो नहीं है | परन्तु 
यहां यदि बातचीत करंगे, तो आपके साथी शायद जाग पड़ेंगे; 
ओर फिर जिन बातोंके आज ही उनको मालूम होनेकी कोई 
आवश्यकता नहीं, वे उन्हें मालूम होजायँगी ।” 

इतनी बातचीत होनेके बाद वह पुरुष उठा; ओर फिर दोनों 
बाहर चले गये। अभी उस नवागत व्यक्तिका मन आशंकासे 
खाली नहीं था; ओर यह बात उस दूसरे महाशयने जान भी 
ली थी; पर उसने कुछ प्रकट नहीं होने दिया। हां, बाहर 
जाते ही वह उससे कहता है, “आपका नाम--नानासाहब ही 
तो है?” क्‍ 
इस प्रकार जब उस व्यक्तिका नाम ही उसने बतला दिया,तब 
. डसे इस बातकी कोई शंका रह ही नहीं गई कि, चह उसे नहीं 
 पहचानता है। इसलिए अब, “यह कोन है | यहां कैसे आया ?” 

ये प्रश्न पहलेसे भी अधिक उसके मनको सताने छगे। यहांतक 
हि | कि, तुरन्त ही उसने उससे कहा, “आप कोन हैं, सो बतलाते 
... क्यों नहीं ?” परन्तु उस विचित्र पुरुषने उसके प्रश्नका तो कोई 
.. उत्तर दिया नहीं; ओर कहता क्या है--“आप इस जगह, अप्पा- 
+. साहबपर जो संकट आया है, उससे उन्हें छुड़ानेके लिए प्रथत् 

.. करनेको आये हैं। ओर--औओर***--” फिर आगे उसने एक 
अक्षर भी नहीं कहा | सिफे इतना पूछाभर कि, “कहिये, जो 











€&€्‌ ५६७ १2 कि भूताको हवेलीसे हि 


पक्के बैक डिर थ्च््स्स्यस्ब्क्ट्ः-क+ न 





मैं कहता है, सो बिछझकुछ सब है या नहीं ? आप इसी कामके 
लिए तो आये हैं ?” नानासाहब यह सब झुनकर, बिलकुल 
स्तब्धरूपसे, अपने दोनों हाथ अपने वक्षस्थकूपर स्वस्तिकाकार 
किये हुए खड़े थे। यह क्‍या गोरमार है, स्रो कुछ उनकी 
समभमें नहीं आरहा था। हमको आये पूरा एक पहर भी नहीं 
हुआ; ओर आये भो ऐसे कि, बिलुझुछ मिश्न सेफमें, और बस्तोके 
बाहर ही बाहर इस गिरे-पड़े हुए मझानमें आये | इतनेपर भी 
इस घरके आदमीने हमें पूरे तोरपर पहचान लछिया। यहो नहीं, 
बहिकि हम क्‍यों आये, किस उह् श्यसे आये,इत्यादि खब बातें भी 
इसे मालूम होगई हैं ! यह बात क्या है ? हमारे पीछे कोई बाद- 
शाही जासूस तो नहीं छगा हुआ है ? अथवा यह भी बेलारा 
हमारी ही तरह बाॉद्शाही अत्याचारसे पीड़ित कोई व्यक्ति 
जो अपना कोई कार्य सिद्ध करनैको यहां आया है ! उनसे रहा 
न गया; ओर वे उसकी ओर देखकर कहते हैं, “आप सुझे पह- 
चान तो गये, पर आप यदि सचझुव ही हमारे दोस्त है---ओर 
आप चैसा अपनेको कहते हैं--तो क्‍यों 
नहीं बतलाते ?” 

वह महाशय यह प्रश्न छुनकर एक रूस्बीसी सांस छोड़कर 
कहता है, “ सुझे अपना नाम इसी समय वबतछानेकी कोई 
आवश्यकता नहीं है। किन्तु, नानासाहब, इससे आप कोई 
बुरा न मानें | मेरा नाम, आज नहीं तो कर, आपको अवश्य 








ही मालूम हुए बिना न रहेगा | तबतक आप यह बात किसीपर- 











रू उधाकाल श 


जय 5 हक / (१) ) [.? 





ह प ७५६८ ८2८ है 
आल 


अपने साथियोंपर भी-प्रगट न होने दें कि, आपका ओर मेरा 
इस प्रकार वार्तालाप हुआ है। में आपको पहले अपनी पहचान 
देनेहीवाला नहीं था; पर फिर सोचा कि, आप भी किसी 
कामके लिए आये हैं, ओर में भी ऐसे ही किसी कामके लिए 
आया हूं। सो मोका है, वक्त है, मुझको आपकी ओर आपको 
मेरी मददकी आवश्यकता ज़रूर पड़ेगी। इसके सिवाय कर 
किसी और जगह शायद मैरी ओर आपको भेंट होज्ञाय-- 
ओर ऐसी भट होजाना कोई असम्भव भी नहीं--तो में आपको 
ओर आप मुझे देखकर चकरावें नहीं। बस, इसी उद्दं श्यसे मैंने 
आपको यह सब बतला दिया है । अब आप भीतर जाइये । जब- 
तक मैं इस बीजापुरमें जीवित हूं, आप इतना भी भय न रखिये 
कि, आपका कोई बाल भी बांका कर सकेगा। परन्तु हां, साव- 
धान रहिये; ओर आगे अब कहीं यदि आप मुझे मिल जावें, 
तो पहचान न दें। आप अपना बर्ताव ऐसा ही रखें कि, जेसे 
हमारी और आपकी कभी मेंट ही न हुई हो। हाँ, यदि किसी 
समय मुझे आपकी और आपको मेरी आवश्यकता पड, तो 
इसी जगह हम दोनों मिलते रहेंगे। आप अब यहीं रहें; 
और में जाता हूं। यहांके सब लोगोंका ऐसा खयाल है कि, 
यह मकान भूतोंका अड्डा है; और इसीकारण, यहां चाहे जो 
कोई बना रहे, उसको तंग करनेके लिए. कोई आता नहीं है। 
आप चैरागीके भेषमें आनन्द्पूर्वक यहां रहे', आपको कोई तंग 
नहीं करेगा | ओर में रातको प्रति दिन इसी समयके लगभग 








६ भूताकी हवेलीम # 
५५ ५६६ ८2 "अल नपसी. 


आता रहूंगा। मेरे योग्य यदि कोई सेवा हो, तो निरुसंकोल 
आप मुझे बतलाते रहें। आप अपना पहरा इसी समयपर 
स्खें। यदि मुझे कोई आवश्यकता होगी; ओर में ऐसा सम- 
झुगा कि, उसके पूर्ण करनेमें आपकी सहायताकी मुझे कोई 
आवश्यकता है, तो में आपसे अवश्य कहूँंगा; ओर आप भरी 
पैरो मदद करंगे, इसकी सुझे शंका ही नहीं । अन्‍्तमें में आपसे 
इतना ही कहूंगा कि, जो आपका शात्र है, वही मेरा भी है । 
संयोगवश यदि वह मेरे हाथमेंन पड़कर आपके हाथमें पड़ 
जावे, तो आप उसे दण्ड न दें । मेरे लिए वह काम्त आप रख 
छोड़े । उसको आप चाहे खुशीसे वेसा ही छोड़ दें। में उसे 
देख छूगा। उसको जो दरएड मिले, मेरे ही हाथसे मिलना 
चाहिए | आप अपने साथियोंको भी यह जतला रखे कि, चाहे 
जो बात होजाय, वे उस दुष्ठको अपने हाथोंसे दरड न दें-- 
उसको में ही अपने हाथोंसे यमराजके घर पहुंचाऊंगा; ओर 


उसके रक्तसे स्नान करूगा--ऐसी घनघोर प्रतिज्ञा मेंने कर ली' 


ध्े >0७० 994५ # ३ ०४2 
छ्‌ 





चालीसवां परिच्छेद । 
बज 2270 2 
खिडकावाला नवय॒वक ! 

नानासाहवब उस विचित्र पुरुषका उक्त विचित्र भाषण 
 खुनकर बिलकुछ ही घकितसे होगये थे । जिस समय कि, वह 
उक्त भाषण कर रहा था, उसकी चेष्ठटा इत्यादि देखनेको उन्हें 
नहीं मिल्ली थो; सो यदि मिल्ल जाती, तो उनके आशख्यका 
ठिकाना ही न रहता। छेद शब्दोंमात्से उसका हृदय जितना 
कुछ दूसरेकी समभमें आसकता था, उतना नानासाहबकी 
समछें भी अच्छी तरह आगया था, इसमें कुछ भी शंका नहीं। 
ऐ_र उसकी थे सब बातें च॑|कि नानासाहबके हृदयमें बिलकुल 
गड़ गई थीं, इसलिए अब उनके मनमें यही जाननेकी उत्कंठा 

. होरही थी कि यह मणजुष्य कोन है; और इसको हमारी इतनी 
जानकारी क्योंकर हुई ? जैसाकि हमने ऊपर बतलाया, अपनी 

प्रतिज्ञाके विषयमें बलछाते बतलाते वह एकदम ठहर गया 
ओर उसके इस ठहर जानेमें ही उसकी सारी अगली बातोंका 
ह. मानो भेद्‌ भरा छुआ था। इसके वाद दोनों कुछ देश्तक एक 
.. चूसरेकी ओर बिलकुल स्तव्ध रूपसे खड़े हुए देखते रहे । “देखते 
हे” इन शब्दोंका वास्तयमें यहां कोई विशेष अथ ही नहीं है, 
क्योंकि इतना प्रकाश ही वहां नहीं था कि, जो थे दोनों एक 
ः दूसरेके चेहरेकी देख सकते । हां, अंधेरेमें एक दूसरेझ्की आंखे 

















४ खिड़कीवाछा नवयुवक £ 





3७ 59९ ८८ 





अवश्य चमकती हुई दिखाई देती थीं | अस्तु | इस प्रकार 
कुछ सम्रय व्यतीत होनेके बाद वह गूढ॒पुरुष नाना साहबसे 
कहता है, “अब में बहुत जबद आपसे विदा होता हूं; परन्तु जो 
बातें मैंने असी आपको बतलाई', उनको भूछ सत जाना, में इस 
समय आपके लाधियोंके सामने जाना नहीं चाहता; ओर न 
मेत उनका कोई घनिष्ठ परिचय ही है। में उनके सामने जाऊं 
भी, तो कोई हानि नहीं; किन्तु मेने एक प्रद्यारते अभी यही 
निश्चय कर लिया है कि, मे जिस अजस्थामें हुं, उस अबश्ामें 
उनके सापने जाकर उनकी जिश्ञास्राको व्यर्थंके लिए जागृत न 
करना याहिये | अब मुझे ज़ास बात आपको फिर यही बतछानी 
है कि, वह शत्र्‌ यदि आपमेंसे किसीके पंजेमें आजाबे, तो आप 
 छोग उसे अपने हाथोंसे दएड न दें। उसने मुझे जितना तबाह 
किया है, उतना ओर किसीको भी न किया होगा, उसने मेरे 
वित्तको जितना दुखाया है,उतना ओर किसीके चित्तको कभी न 
 दुखाया होगा। परन्तु जान पड़ता है, यह बात वह विलूकुछ ही 
भूछ गया है कि, एक बार सर्पेछो दुखानेसे सर्प भी जितना देर 
अपने मनमें नहीं रखेगा, उतना घेर अपने मनमें रखकर उतने 
ही ज़ोरसे में उसको दंश करूँगा !” 

बस, इतना ही कहकर वह महाशय वहांसे चल दिया । 
नानासाहबकों सिर ऊपर उठाकर देखनेका भी अवसर नहीं 
मिछा--बाहरके द्वारसे जब वह मजुप्य निकल गया; ओर उसने 
द्रवाजे बन्द किये, तब कहीं नानासाहबके ध्यानर्मे यह बात 

| 





“5७०७ छबा 


शक शक्ल 


१ए७छएएाएाणओ, 





आई कि, वह विचित्र झ्ञादमी हमारे सामनेसे गायब होगया। 
इसके बाद फिर उनके मनमें नाना प्रकारके प्रश्ष॒ उपस्थित होने 
लगे | “यह व्यक्ति कोन है ? जातका मराठा तो अवश्य है ! 
लेकिन यह ऐसा क्यों कहता है कि, जो मेरा दुश्मन है, वही 
आपका भी ठुश्मन है। मेरे दुश्मनका हाल इसे क्‍या मालूम ? 
में अप्तुक व्यक्ति ह'; और अम्गुक कामके लिए आया हूं - इतनी 
बारीक ख़बर इसको कैसे रूग गई? ओर जब इसको यह 
ख़बर लग गई है, तब शहरमें वह ओर किसीको भी नहीं रूग 
गई होगी, सो कैसे कहा जासकता है? यह मनुष्य हमको 
धोखा तो न देगा ? इसने हमको पहचान तो लिया ही है, और 
हू भी कह गया है कि, “यहीं रहो , कहीं जाओ नहीं,” सो 
यह मुझे सीठी मीठी बातें करके जालमें तो नहीं फंसाना 
चाहता ?” 
यह अन्तिम शड्भा ज्यों ही नानासाहबके मनमें आईत्यों ही 
क्षणभरके लिए. उनकी कुछ विचित्रसी दशा होगई। परल्तु 
फ़िर, वह विचित्र पुरुष जो कुछ कह गया था; ओर जिस - 
रीतिसे कह गया था,सो सब उनके मनमें ज्यों ही आया, त्यों ही 
उनकी वह श्भा फिरसे दूर होगई ! वह मनुष्य जो कुछ कह 
गया है, बहुत ही विश्वासपूर्वेक कह गया है, ऐसे आदमीसे 
धोखा कमी नहीं होसकता। इस प्रकार ज्यों ज्यों नाना- हे 
साहब उसके विषयमें विचार करने लगे, त्यों त्यों उनको अपनी 
- उक्त शड़की निरथेकता ओर क्षी स्पष्ट रूपसे भासने लगी ॥ 














(है हक 2) हे, खिडक्रीवाला नवयुवक ई 
3० "€९-*बींक- व्च््स्स्ख्स्््स्क्ब 





परन्तु फिर सी उनके मनका खेद दूर नहीं हुआ; ओर अपने 
मनकी खलन्न दशामें ही वे भीतर वापस आये। उनका एक 
दूसरा स्ले ही अभी हालहीमें जगा था .. और अपने विछौनेपर 
बेठा हुआ था। उसने जब नानासाहबको बाहरसे आता 
छुआ देखा, तब उसे कुछ अचस्सा अवश्य हुआ ; पर वह अम्ी 
कुछे पूछने नहीं पाया था कि, यानासाहबने स्वयं ही, “यों 
ही बाहर गया था,” इत्यादि कहकर उसका समाधान कर 
दिया ; ओर फिर वे अपनी जगहपर जाकर छेट रहे। परन्तु 
उनके मनमें बराबर यही वही विदयार आरहे थे, निद्रा उन्हें 
किसी प्रकार भी नहीं आरही थी | इसके सिवाय निद्वाका समय 
भी अब निकल गया था। बिलकुछ तड़का होरहा था। 
नानासाहबने उसी आकुछ अवसद्यामें सूर्योद्यतकका खसप्तय 
बिताया; और सुबह होते ही अपने अन्य मित्रोंके साथ वे सी 
बिछोनेपरसे उठे। परन्तु उस रावकों जो बातचीत हुई थी ... 
ओर वह वातचीत चूकि अभीतक नानासाहबने अपने अन्य 
किसी स्नेही को वतछाई भी नहीं थी, अतएव उनके मनकी दशा 
बहुत ही विचित्र होरही थी | अच्छा, उज्ञेछा होगया, सब छोग 
उठे ; ओर उठकर देखते हैं, तो घरका मालिक, जिसमे रातकों 
उन्हें धरमें जगह दी थी, कहीं भी दिखाई न दिया । इसलिए 
स्वाभाविक ही प्रत्येकके मनमें बड़ी शा आई कि, चह हम 
लोगोंकी पहचानकर कहीं घोखेमें डालनेको तो नहीं बचा गया ? 
परन्‍्त फिर सोचा कि, यह भय हमारा विलकुल व्यर्थ है। हम 











“अच्यूडशूफ़ाा 9 /2 





न 
ऐसे भेषमें इतने बन्दोबस्तके साथ आये हैं, ऐसी दशामें इतनी 
जब्दी पहचानकर घोखेमें डाऊझना विलकुछ असस्भव है। यह 
सोचकर धोखेका विचार तो सबने एक ओर हटा दिया ; ओर 
अब प्रत्येकके मन्में यही एक घवियार चक्कर मारने लगा कि, 
“भब बीजाएर तो हम छोग आगये, अब आगे कैखा क्‍या किया 
जाय १? परन्तु फिर नादासाहबके मनमें यह बात आई कि, 
पिछली रातका सब हाछ ओर किसीको तो नहीं,पर कमसे कम 
तानाजीकी ठो अवश्य ही बतला दैना गाहिण; क्योंकि यदि न 
बतलावेंगे, तो न जाने पीछे कैसा मोका आजाय; और फिर 
उस समय बड़ी दिकत पेश आजेगी |. यह सखब सोचकर 
उन्होंने ताबाजीकोी उस रादका सारा दवुसान्त बतलाया, 
जिसे सुनकर तानाजीको भी बड़ा अचस्भा हुआ। पिछली 
रातमें बानासाहबकझों उस खगूढ़ पुरुषके सम्भाषणसे जितना 
आश्चर्य हुआ था, उतना ही आशय तावाजीको भी, 
वह लब वृतान्त सुमकर हुआ । दोनोंने एकत्र विद्यार करके उस 
विषयमें परस्पर बहुत कुछ चर्चा की; परन्तु ठीक तोरसे कुछ 
निश्चित न कर सके कि, वह व्यक्ति कोन है। अस्तु ॥ इसके 
बाद उन्होंने अपने साथके अन्य दोनों पुरुषोंको भी वह सब 
 चृचान्त बतछा दिया । क्योंकि जिस कामके छिए ये आये थे,- 
हु | उस कामके लिए चारोंकी एकचिसता होनी अत्यन्त आव- १ क्‍ 
' श्यक थी; ओर इसके बिना उस कार्यमें सफलताका प्राप्त होना |. 


। बहुत ही दु्धेट था। नानासाहबने चकि उसादी हुलिया बिलछ- । 




















& ५५ 2) खिड़कीवाला नवयुवक कै 
०० जल लव्ल्ल्ल्ल्च्ल्ल््छःा 


कुछ देखी ही नहीं थी, अतएणव ये अपने साथियोंको भी इस 
विषयमें कोई जानकारी नहीं देसके; परन्तु फिर भी प्रत्येकके 
मनमें उस व्यक्तिकी कोई न कोई प्रतिमा आकर अवश्य खड़ी 
हुई। लगभग एक पहर दिन खढ़नेतक तो यही सब होता 
रहा। इसके बाद फिर उस बारोंमेंसे दो आदमी, तान!जी और 
नानासाहब, अपने अपने भेष यथाविधि बद्रककर “अरूख, अलूख!? 
पुकारते हुए बाहर निकले। पहलेपहऊ उन्होंने यही विद्यार 
किया कि, हम लोग जिस कामके लिए आये हैं, उस सम्बन्धवी 
जितनी भी जावकारी प्राप्त होसके, उतनी प्राप्त करना 
चाहिए | यह जावकारी तोन प्रकार की थी | अव्वछू तो द्रबार- 
की हालत क्या है ? दूसरे अप्पासाहब किस दशामें है? और 
तीसरे हमकी अपना अभीश् का्ये सिद्ध करनेके छिए किस 
फिसकी अनुकूलता चाहिए, ओर फिस किसकी प्रिछ सकती 
है? इन सब बातोंको पूर्ण करनेके छिए पहला मसार्ण यही था 
कि, ऐसे कोई लोग शहरमें हैं अथवा नहीं कि, जो हमारे अबु- 
कूछ होसकेंगे--यदि्‌ हैं, तो उनका पता छगाना चाहिए, और 
जब पता मिल जाय, तब फ़िर इस बातका विज्यार किया. 
जाय कि, जुप्त रूपसे उनसे भेंट कैसे की जाय। अस्त! 
इस समय जो वे बाहर निकके थे, सो सिर्फ इसी उद्देश्यसे 
कि, जिस जिस जगह जो जो लोग रहते हैं, और जिनका 
कि, नानासाहबको पूरा पूरा पता है, हे प्रुकी तरफ एक बार 
चक्र ऊगाकर सब ज्ञानकारी प्राप्त कीजाय । अस्तु । वे दोनों 









हि उषाकाल ७५३६ $) 
ख “जा है न हि >>, «हैं. 


“अइलख अलूख” 'करते हुए, लछोगोंकी द्वश्टिमें स्वच्छन्द रुपसे 
ह्धर-उधर घमने छगे,भर वीच बीचमें जिस घरके खामने उनकी 
एचछा होती, उसीके सामने खडे होकर “झाई भिक्षा दे? की 
पुकार लगा देते; और उनमेंसे यद्‌ किसी घरसे शिक्षा मिल 
जाती, तो उसे अपनी कोलीपें डाल लेते । 

वस, इसी प्रकार वे दोनों लगभग दो घंटेतक भूमते रहे। 
इसके बाद फिर नामासाहबने अपने अपर छोड चलनेकी 
बात निकाली; ओर इसलिए फिर दोनों ही वहांसे छोट पड़े | 
लोटते समय नानासाहबकी दृष्टि अचानक एक ऊंचे से महलरूके 
वबिलकछ ऊपरी खंडपर गई, ओर वहां खिडकीमें खर्ड हुए एक 
व्यक्तिकी ओर वे ध्यान ऊगाकर देखने छगे | इस प्रकार जब 
उस व्यक्तिपर उनकी नज़र छण गई, तब किसी प्रकार भी आगे 
चलनेकी उनकी इच्छा ही न हुई -यहांतक कि, उस व्यक्तिकी 
ओरसे नज़र हदाना भी उनके छिए बिलकुल असम्भव हो- 
शया | नानासाहबकी यह छिति देखकर उनके दूसरे साथीने भी 
ऊपरकी ओर देखा । तब उसे मालूम हुआ कि, एक बिलकुल 
नवयुवक, झुन्द्र युवा पुरुष, खिड़कीमें खड़ा है, और हम दोनों- 
हीकी ओर बराबर एकटक देख रहा है, तथा नानासाहब भी 
उस पुरुषकी ओर उतनी ही आतुर्तापू्वक देख रहे है 


.. -थुवा पुरुष सबमुय ही इतना ख बसूरत था फकि,किसी भी मनुष्य- 
..._ की यदि एक बार उसकी ओर नज़्र चली जाती, तो वह हटाये 








नहीं हट सकती थी -- ऐसी इच्छा होती थी कि, इसकी ओर 

















76९0३ 0.7 हे शी ९४१ 2 वाल | क्‌ [| 
४ ५७७ ८22 4 खिड़कीवाला नवयुवक ; 
छो ॥ छठ दि [ ता] 
| ५७ ४ 


देखते ही रहे' | “यह चुरुष कोन है ? शायद्‌ किसी सरदारंका 
छड़का हो”--दोनोंने खोचा। इसके सियाय वामासाहबके 
. मनमें चाहे ओर कोई विच्यार भी आये हों, कह नहीं सकते; 
कुयोंकि उनका देखना अब कुछ अनावश्यक था प्रतीत होने 
लगा था। अतएव डउतके साथीने दस बारह बार उनसे चलसे- 
का इशारा किया, पर नाना साहबका क़दम किसी प्रकार भी 
आगे बहीं बढ़ा । बावाजी इतनी आतुरतासे क्या देख रहे है, 
यह समझकर रास्तेसे जाबे--आनेवाले छोग भी वहां खड़े 
होकर नीचे ऊपर द्वष्टि डारने रंगे | परन्तु इतमेमें वह खिड़कीसे 
जड़ा डुआ युवा पुरुष बहांसे बिछकुछ गायब ही गोगया | 
अब नवयुवक वहां नहीं था; परन्तु भानासाहबकी दृष्टि 
अब भी उसी खिड़कीकी ओर लगी थी। खिडुकीमें खड़ा होमे- 
वाला युवा धुरुष दशंनीय था सही; परन्तु उसके लिए इतनी 
देरतक एक ही जगद खड़ा रहना और अपमे आसपास लोगोंका 
समूह जमा होजाने तककी नौबत आते देना उनझे लिए एक 
प्रकारसे अच्छा नहीं था; ओर यही सोचकर नानासाहबके 
साथीने उनसे एक बार फिर इशारा किया; ओर विशुद्ध उ्ूँ. 
भाषामें बाबाजीसे वहां चलनेकी प्रर्थना की । बाबाजीके रूपओें 
. उन नानासाहबने जब यह अच्छी तरह' समझ लिया कि, अब 
..यहांसे चले बिया काम नहीं. चलेगा, तब अस्तमें बेचारे ए/ 
... लस्‍्बीसी सांस छोड़कर वे वहांसे चल दिये,। परः 
इनकी जो वृत्ति बिलकुछ उलसित' | सवाई 
















यश न, दर] कट ; 
भ्क्ि नरक हे कट 
७४८ 0 0. ७ ०» 


अप 
नहीं रही | “क्या यह सुम्दारा कोई स्मेहों है? तुझ्ारी वत्ति 
अचानक ऐसी क्‍यों होगई ? तुम्हारा ओर उस छतपर खड़े 
हश व्यक्तिका सम्बन्ध क्‍या हे १” इत्यादि अनेक्ष प्रश्न नागवासाहब- 
फे साथीने उनसे किये; ओऔर यहांतक कि, प्रश्न करते करते 
उससे उनको. वहुत तंग भी किया; परन्तु नानासाहबकी 
चिसवृत्ति ठिकाने नहीं आई | उन्होंने उसके एवा प्रक्षक्ता भी 
उत्तर नहीं दिया । एक दो बार कुछ उत्तर पिला भी, तो सिफे 
दीघे निःश्वासोंके रूपमें ! इससे नानासाहबका वह साथी ओर 
सी थकरमें पड़ा | खेर | कुछ देश्के बाद वे दोनों अपनी उस 
हवेलीके पास आये। ओर भीतर जाकर उन्होंने वाहरका दरवाज़ा 
मजबूतीके साथ छूगा छिया। वहां शेष दो साथियोंने रखोई 
तैयार कर रखी थी | अतणएव काहरसे आये हुए ये दोनों महाशय 
हाथ पेर धोकर भोजनके लिए बेठ गये। परन्तु नानासाहबढछा 
चित्त भोजनकी ओर बिलकुछ घहीं था। यह बात उनके अन्य 
. खाधथियोंकों भी मालप्र होगई। उन्होंने उनसे “ऐसा क्यों ?” 
कहकर कई प्रकाके प्रश्ष इत्यादि किये। पर कोई साफ़ साफ 
डर न मिला, अथवा यों कहिये कि साफ़ साफ़ उत्तर मिलने 
. का यह मोक़ा ही नहीं था | जो भी कुछ छो; परन्तु फिर उस्हें